सिर्फ जिस्म नहीं हूँ मैं : मोनिका जैन ‘पंछी’


मोनिका जैन ‘पंछी’ बहुमुखी प्रतिभा की धनी हैं। कविता, कहानी, आलेख, चित्रकारी आदि कई विधाओं पर वे सार्थक हस्तक्षेप करती हैं। काफी समय से वे बच्चों के साहित्य पर काम कर रही हैं, जिस क्षेत्र में प्रायः स्थापित लोगों की उदासीनता दिखती है। सबसे बड़ी बात जो उनमें है, वह है उनका गंभीर पाठक होना। आइये, उनके एक आलेख को पढ़ते हैं जिसमें उन्होंने एक स्त्री मात्र होने के पक्ष को सामने रखा है।

सिर्फ जिस्म नहीं हूँ मैं : मोनिका जैन ‘पंछी’

कितनी अजीब है न मेरी दास्तान? मेरी शिक्षा, स्वतंत्रता, सम्मान, सत्ता, सुरक्षा और संपत्ति के अधिकारों के लिए वर्षों से चिंतन हो रहा है, आन्दोलन हो रहे हैं, मेरे जीवन में बहुत कुछ बदल रहा है। मेरे पक्ष में एक प्रगतिशील जन चेतना का माहौल बन रहा है। लेकिन एक चीज जो तब से लेकर आज तक नहीं बदली, वह है मुझे देह समझा जाना। सारी आज़ादी, सारे अधिकार और सारे सम्मान उस समय बिल्कुल फीके पड़ जाते हैं, जब मेरा अस्तित्व दुनिया की चुभती निगाहों में सिर्फ एक जिस्म भर का रह जाता है।

टपकती वासना से भरी लालची आँखें मुझे हर गली, नुक्कड़ और चौराहे पर घूरती रहती है। भीड़ में छिप-छिपकर मेरे जिस्म को हाथों से टटोला जाता है। राह चलते मुझ पर अश्लील फब्तियां कसी जाती है। मेरा बलात्कार कर मुझे उम्र भर के लिए समाज के तानों से घुट-घुट कर जीने को मजबूर कर दिया जाता है। मुझ पर तेजाब फेंक कर अपनी भड़ास और कुंठा शांत की जाती है।

जब भी मेरे साथ होने वाले इन तमाम दुर्व्यवहारों के खिलाफ मैं आवाज़ उठाती हूँ, तो मेरे अस्तित्व को छोटे-बड़े कपड़ों में उलझा दिया जाता है। फिर से मुझे कपड़ों से झांकती देह बना दिया जाता है। पर उन मासूम बच्चियों का क्या? उनके साथ किये गए दुराचरण का क्या? क्या वे नन्हें-मुन्हें किसी भी प्रकार की उकसाहट का कारण बन सकते हैं? क्या ऊपर से नीचे तक कपड़ों में ढकी औरत कटाक्ष नज़रों, अश्लील इशारों और फब्तियों से बच पाती है? 


सदियों से हर लड़के को भी तो ऐसी ही पत्नी और प्रेमिका चाहिए - जिसका चेहरा चाँद सा उज्ज्वल हो। जिसकी आँखें झील सी निर्मल और सागर सी गहरी हो, हिरणी सी चंचल, बड़ी-बड़ी और नशीली हो। जिसके होंठ गुलाब की पंखुड़ियों से कोमल और रसीले हो। जो रेशमी जुल्फ़ों, छरहरी काया और मादक उभारों की स्वामिनी हो। पर मैं कैसे समझाऊं? मेरी आँखें सिर्फ सागर सी गहरी नहीं है। इनमें गहराई है तुम्हारे अंतर्मन को समझने की; इनमें चमक है कुछ सपनों, ख्वाहिशों और अरमानों की; इनमें आंसू हैं जो तुम्हारी छोटी सी तकलीफ़ में भी बहने लगते हैं; इनमें दर्द है तुम्हारी चाहत पर कुरबान हुई कई उम्मीदों का। मेरे होंठ सिर्फ गुलाब की पंखुड़ियों से कोमल नहीं है। इनसे झरते हैं फूल ममता के; इन पर ठहरे हैं कई शब्द जो मुखरित होना चाहते हैं; इन पर जमी है आँखों से बहते अश्रुओं की कई बूँदें जिन्हें सदियों से मैं पीती आ रही हूँ। मेरा वक्ष तुम्हारी वासना को तुष्ट करने के लिए नहीं है। इनसे बहता है क्षीर ममत्व का जो कारण है तुम्हारे अस्तित्व का। मेरा ह्रदय जिसमें बसता है अतुल्य प्रेम, त्याग, ममत्व, क्षमा, संवेदनशीलता और प्रेरणा...सिर्फ मोम सा नाजुक नहीं है। इसमें भरे हैं कई धधकते हुए ज्वालामुखी! समय आने पर बन सकती हूँ मैं रणचंडी भी! बन सकती हूँ मैं एक मजबूत, स्वावलंबी, अटल स्तम्भ!

मेरे अपने माता पिता और परिजनों ने भी तो मुझे देह बनाने में कोई कसर न छोड़ी। मेरी देह अगर बदरंग है तो उन्हें दिन रात मेरी शादी की चिंता सताएगी। आधुनिकता का लबादा ओढ़े आदिम युग के मानवों सा व्यवहार करने वाले मेरे परिजन जाति, गौत्र, धर्म, अपनी झूठी इज्जत और शान के नाम पर...मेरी, मेरे प्रेम और मेरे विश्वास की हत्या करने में भी नहीं हिचकते। इस बर्बरता को अपना मौन समर्थन देकर जायज ठहराने वालों की आँखों से आंसू नहीं लुढकते। दहेज़ प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या, बाल विवाह ये सब कुरुतियाँ मुझे बस जिस्म भर बनाकर रख देने का षड़यंत्र है।

समकालीन हिंदी साहित्य के रचनाकारों! मेरी मुक्ति, सम्मान और स्वाभिमान के पक्ष में बन रही जन चेतना की आड़ में तुमने भी तो मेरी एक पोर्न छवि गढ़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मेरी प्रिय नारीवादी लेखिकाओं! क्या तुम्हें पुरुष के समान अधिकारों के रूप में देह-वृतांत का हक़ ही चाहिए था? अपने लेखन द्वारा गुदगुदी और सनसनी पैदा करने के लिए; प्रकाशित, प्रशंसित, अनुशंसित और पुरस्कृत होने के लिए...क्या तुम जानती हो तुमने न जाने कितनी पीढ़ियों के लिए मुझे फिर से उसी हाड़-मांस के दायरे में सीमित कर दिया है। तुम ही सोचो...देह के बाज़ार और इस उन्मादग्रस्त साहित्य में क्या भर अंतर है, जिसका प्रयोजन सिर्फ काम वासना को बढ़ाने के अलावा और कुछ भी नहीं। 


मीडिया, अख़बार और कैमरे के पीछे छिपे संवेदना शून्य पुरुषों! तुम्हें हमेशा ऐसे ही प्रसंगों की तलाश रहती है जिसमें मैं एक देह में तब्दील होकर तुम्हारी सारी पुरुष जमात की यौनिकता को संतुष्ट करती रहूँ। किसी मॉल के चेंजिंग रूम से लेकर किसी होटल के कमरे तक छिपे कैमरे से नारी देह के दृश्यों को चुराकर उन्हें ऊप्स मोमेंट्स और शोइंग एसेट का कैप्शन देते तुम्हें लज्जा नहीं आती? फैशन शो में किसी के कपड़े फटने से लेकर, छेड़छाड़ और रेप जैसी घटनाओं तक का वीडियो तुम बड़ी निर्लज्जता से बना लेते हो। उसे तत्काल प्रसारित कर देते हो ताकि कहीं तुम्हारी एक्सक्लूसिव स्टोरी तुमसे पहले किसी और के हाथ न लग जाए।

मुझे जिस्म समझने वाले इन सब संवेदना शून्य लोगों से मैं पूछना चाहती हूँ - क्या शरीर से इतर मुझमें दिमाग नहीं है? क्या मुझमें भावनाएं नहीं है? क्या कुछ कर दिखाने का माद्दा नहीं है? जल, मिट्टी, अग्नि, आकाश और वायु इन्हीं पंच तत्वों से मुझे भी रचा गया है। मेरी अनुभूतियों के स्वर क्या तुम्हें सुनाई नहीं देते? मेरे भी सपने है जो सफलता के आकाश में साकार होना चाहते हैं। मंदिर की घंटियों सी सुरीली मेरी खिलखिलाहट हर ओर बिखरना चाहती है। महत्वकांक्षा की बेलें मन उपवन में फलना-फूलना चाहती है। क्या है मेरी चाह? एक सुन्दर, संवेदनशील, उच्च मानवीय दृष्टिकोण वाला सभ्य परिवेश ही न? जहाँ मुझे निर्णय लेने की आज़ादी हो, जहाँ मुझे अपने व्यक्तित्व और विशिष्टता को पहचान देने की स्वतंत्रता हो। मैं पुरुष को पछाड़ना नहीं चाहती। उससे आगे निकल जाना भी मेरा मकसद नहीं। मैं बस देह से इतर अपना अस्तित्व चाहती हूँ। एक मुट्ठी भर आसमान चाहती हूँ, जहाँ मैं अपने पखों को उड़ान दे सकूँ। एक चुटकी भर धुप और अंजूरी भर हवा चाहती हूँ, जहाँ मैं बिना किसी घुटन के सांस ले सकूँ। थोड़ी सी जमीन चाहती हूँ, जहाँ मैं बिना किसी भय के आत्मविश्वास से अपने कदम बढ़ा सकूँ। मुझे देवी की तरह पूज्या नहीं बनना है। मुझे बस इंसान समझकर समानता का व्यवहार पाना है।

हे पुरुष! कैसे तुम जब चाहे जब मुझे रौंद सकते हो? अपने अस्तित्व का कारण कैसे तुम भूल सकते हो? जिस्म तो शायद सिर्फ तुम हो जिसमें न संवेदना है, न कोई अहसास। तभी तो देह के छले जाने पर आसमान को भी चीर देने वाली मासूमों की चीखे तुम्हें सुनाई नहीं देती। तुम नहीं महसूस पाते कभी भी स्त्री के भीतर रिसते दर्द को। भावनात्मक जुड़ाव तो बहुत दूर...तुम तो मनुष्य होने के नाते भी स्त्री के प्रति नहीं उपजा पाते संवेदनशीलता।

मेरी प्यारी बहनों! तुम्हें भी अपनी सोच, अपने व्यवहार, अपने दिल और अपने दिमाग से घुट्टी की तरह सदियों से पिलाये इस कड़वे और कसैले स्वाद को निकालना होगा, जो दिन-रात तुम्हें एक जिस्म होने की अनुभूति करवाता रहता है। मुझे बताओ - कुछ लिंगगत विभिन्नताओं के अलावा क्या अंतर है तुममें और एक पुरुष में? तुम्हारी प्रखरता, बौद्धिकता, सुघड़ता और कुशलता क्या किसी रंग, रूप, यौवन, आकार या उभार की मोहताज है? तुम जानती हो न अपनी शक्ति? जिस दिन तुम अपना विस्तार करने की ठान लोगी उस दिन यह कायनात भी छोटी पड़ जायेगी। वह कौनसा स्थान है जहाँ तुम नहीं पहुँच सकती? राजनीति, प्रशासन, समाज सेवा, उद्योग, व्यवसाय, विज्ञान, कला, संगीत, साहित्य, मीडिया, चिकित्सा, इंजीनीयरिंग, वकालत, शिक्षा, सूचना प्रोद्यौगिकी, सेना, खेल-कूद से लेकर अन्तरिक्ष तक तुमने अपनी विजय पताका फहराई है। क्या तुम्हें सच में जरुरत है एक देह में तब्दील होकर अश्लील विज्ञापनों, सिनेमा, गानों और साहित्य का हिस्सा बनने की? क्या सच में तुम्हें जरुरत है अपनी मुक्ति को देह और कपड़ों तक सीमित कर देने की। याद रखो! देह और कपड़ों की चर्चा से स्त्री मुक्ति की जंग नहीं जीती जा सकती है।


जानती हूँ, पुरुष हमेशा से तुम्हें जिस्म के इस दलदल में फंसाए रखने के हजारों यत्न और षड़यंत्र करता रहेगा। तुम चाहे चौबीस घंटे काम करती रहो, दिन रात खपती रहो, फिर भी तुम्हारी तरक्की को तुम्हारी देह से जोड़ कर देखा जाएगा। तुम्हें लाखों डॉलर, पाउंड, दीनार और सोने का लालच दिया जाएगा। लेकिन तुम्हें इन सब षड्यंत्रों में नहीं फंसना है। तुम्हें नया टंच माल, तंदूरी मुर्गी, हॉट, सेक्सी और आइटम गर्ल इन सब तमगों को ना करना है। वस्तुओं के विज्ञापन में तुम्हें वस्तु नहीं बनना है। ये सब उपक्रम तुम्हें आज़ाद करने के नहीं तुम्हें गुलाम बनाने के हैं। तुम्हारे सौन्दर्य की नुमाइश कर तुम्हारे अंगों को खरीदने और बेचने के हैं। इस दलदल से बाहर निकलना बहुत मुश्किल है, पर मैं जानती हूँ कि तुम अगर चाहो तो पुरुषवादी मानसिकता के सारे षड्यंत्रों को धता बताकर अपना अस्तित्व बचा सकती हो, जो देह से परे उस सम्पूर्णता का है जो तुम्हारी शक्ति, बुद्धि, क्षमता, कुशलता, प्रखरता, तुम्हारे सपनों, स्वाभिमान, आत्मनिर्भरता और तुम्हारे आत्मविश्वास की लौ से प्रकाशित होता है। 

परिचय :

मोनिका जैन 'पंछी' 
ईमेल : monijain21dec@gmail.com
ब्लॉग : https://monikajainpanchhi.blogspot.com
(गृह शोभा, अहा! ज़िंदगी, नंदन, नन्हें सम्राट, राजस्थान पत्रिका, जनसत्ता, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, बालहंस, आधी आबादी, शरद कृषि (CITA), समाज कल्याण (केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, भारत सरकार), इंडिया लिंक, कृषि गोल्डलाइन, ललकार टुडे, सच की ध्वनि आदि पत्र व पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।)

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