दिव्या विजय : पाठक से लेखक तक का सफ़र (पहला भाग)





दिव्या विजय ऐसी कथाकार हैं, जिनकी कहानियों की प्रतीक्षा पाठकों को रहती है। वह अपने लिए कोई फ्रेम तय नहीं करती… उन्हें यह भाता ही नहीं। पिछले वर्षों में ही अपने पहले कहानी-संग्रह ‘अलगोजे की धुन पर’ के उदात्त चरित्रों के मोह से आगे निकल जाने में उन्होंने देर नहीं की। वह आम भारतीय मन की ठीक-ठीक थाह लगाते हुए आगे बढ़ रही है। सफ़ेद-स्याह चरित्रों को लेकर बढ़ती हुई वह जैसे उनकी एक-एक मनःस्थिति पर गौर करती हैं। इसी का परिणाम है, नया ज्ञानोदय में छपी उनकी नई कहानी ‘यारेग़ार’... जिसकी आज मुक्त-कंठ से प्रशंसा हो रही है।

रचनाकार से इतर एक पाठक के रूप में उनकी यात्रा सुरुचिपूर्ण ढंग से आगे बढ़ती गयी, जो आज भी उतने ही उत्साह से जारी है। एक पाठक से रचनाकार बनने के सफ़र में उनके क्या अनुभव रहे हैं… इस साक्षात्कार में पढ़िए।

नरेन्द्र कुमार : एक अच्छा लेखक होने के लिए जरूरी शर्त है अच्छा पाठक होना। आप किस हद तक इससे सहमत हैं?

दिव्या विजय : अच्छा लेखक होने के लिए अच्छा पाठक होना आवश्यक है। एक लेखक ही अगर किताबें नहीं पढ़ेगा तो फिर कौन पढ़ेगा। नेपोलियन हिल के अनुसार, “कोई भी व्यक्ति उस क्षेत्र में सफलता नहीं प्राप्त कर सकता जिसे वह पसंद ना करता हो।” यही बात लेखक पर लागू होती है।

यूँ तो पढ़ने के अपने फ़ायदे हैं। सभी लोगों को पढ़ने की आदत ज़रूर होनी चाहिए लेकिन दो लिहाज़ से लेखक के लिए पढ़ना अत्यंत आवश्यक हो उठता है। भाषा पर अधिकार के लिए पढ़ना बहुत ज़रूरी है। भाषा की बारीकियाँ पढ़ कर ही सीखी जा सकती हैं। शब्दों को सही जगह पर बरतने की कला, निकट और दूरागत संदर्भ प्रयोग, वाक्यों का सही विन्यास, व्याकरण का शिष्टाचार, व्यंजना आदि भाषायी सोपानों के साथ प्रतीकात्मकता, भाव संप्रेषण की क्षमता भी नियमित पढ़ने से स्वयं भाषा में उतर आते हैं। 

नये शब्दों को शब्दकोश से सीखने के लिए जितनी मेहनत करनी होती है, उस से अधिक नए शब्द, पढ़ने से अनायास ही पढ़ने वाले के शब्द-भंडार में एकत्रित हो जाते हैं। और फिर शब्द की सार्थकता उसके संदर्भ से होती है, कोशगत अर्थ बिना संदर्भ के अधूरा होता है। 

पढ़ने से लेखक अच्छे और बुरे लेखन में फ़र्क़ करना सीख पाता है। कोई भी किताब क्यों अच्छी बनती है और क्यों बुरी, इसका रहस्य उसके भीतर के शब्दों में ही छिपा होता है। पढ़ते हुए एक लेखक का ध्यान उन बातों की ओर अवश्य ही जाता है/ जाना चाहिए। किताब का रुचिकर लगना, न लगना व्यक्तिगत रुचियों पर भी निर्भर करता है लेकिन फिर भी किताब के आकर्षक/अनाकर्षक लगने वाले अंश के प्रतिबिम्ब में अपने लेखन को परखा जा सकता है। 

वे किताबें जिन्हें क्लासिक का दर्जा प्राप्त होता है उनमें एक यूनिवर्सल अपील होती है जो अधिकतर लोगों को आकर्षित करती है। सफल किताब के उस तत्व को रेखांकित करने का माध्यम पढ़ना ही बनता है। इस तरह पढ़ना लेखक के स्वयं के शिल्प को निखारने में मदद करता है। एक पाठक के तौर पर वह अपनी रुचियों को परखता है कि उसे कैसी किताबें पढ़ना अच्छा लगता है अथवा किसी किताब में उसे क्या बात सबसे अधिक पसंद आती है। उन्हीं बातों का समावेश वह अपने लेखन में कर सकता है। उसके अपने अनुभवों के साथ मिलकर नया सृजन भी होता है और परम्परित का संस्कार भी। 

पढ़ते-पढ़ते कितनी ही बातें मन में आती हैं। उनमें से कितनी बातें लेखक की कृति का आधार बनती हैं। उदाहरण के तौर पर, पढ़ते हुए लेखक को कोई नया शब्द मिला और उस शब्द ने लेखक को इतना रिझा लिया कि वह अपने लेखन में उसका उपयोग अवश्य ही करेगा। किताब के किसी दृश्य से नया विचार उसके मन में उपजा तो एक नयी बात उसके लेखन में आप ही सम्मिलित होगी। यह बात एक शब्द अथवा विचार तक सीमित नहीं है। कभी-कभी पूरी कहानी या किताब तक के अंकुर ऐसे ही फूटते हैं। 

हर व्यक्ति के जीवनानुभवों की एक सीमा होती है। जीवन की व्यस्तताएँ सबको एक-सा अवसर नहीं देतीं। सबके लिए अपने दायरे तोड़कर बाहर जाना सम्भव नहीं होता। ऐसे में किताबें उन स्थानों का, जहाँ जा पाना संभव नहीं, गवाक्ष बनती हैं। किताबें लिखने वाले के मन का वातायन भी होती हैं सो किसी के मन के भीतर झाँकने का अवसर किताबों से बेहतर कौन जुटा सकता है। मनुष्य के मन, मस्तिष्क के अध्ययन में अनुभव की सारथी भी बनती हैं किताबें। 'राइटर्स ब्लॉक' के धर दबोचने पर लेखक की नैया पढ़ने से भी पार लगती है। 

अपनी बात कहूँ तो कितनी बार उदास दिनों और अकेलेपन की साथी किताबें ही बनी हैं। अपने एकांत से वार्तालाप को सघन करने का साधन भी हुई हैं किताबें। 

नरेन्द्र कुमार : प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करते हुए आपको कब लगा कि पाठ्यपुस्तकें साहित्य के लिए कम पड़ रही हैं और आप साहित्य की अन्य पुस्तकों की तरफ गयीं। किस भाषा के साहित्य ने आपको शुरुआत में प्रभावित किया?

दिव्या विजय : पाठ्यपुस्तकों से साहित्य तक की ‘यात्रा’ अलग से कभी तय नहीं करनी पड़ी क्योंकि साहित्यिक पुस्तकें सदा जीवन में रहीं। मेरे नाना हिंदी के विद्वान रहे हैं। वह स्वयं भी कविताएँ लिखते थे। वह हिंदी के शिक्षक थे तथा उनकी लिखी पुस्तकें राजस्थान बोर्ड के पाठ्यक्रम में शामिल थीं। उन पुस्तकों में नैतिक शिक्षा की कहानियाँ होती थीं जो सरल और बच्चों में पढ़ने के प्रति कौतूहल जगाने वाली थीं। अपने कोर्स के बाहर पढ़ने की शुरुआत सबसे पहले उन्हीं पुस्तकों से हुई। एक ही शहर में होने के कारण मेरा बचपन का बहुत समय उनके साथ गुज़रा है और मेरे जीवन पर उन दिनों का गहरा असर है। जब मैं उनके यहाँ जाती उन्हें सदा पढ़ते-लिखते पाती थी। वह मुझे भी कोई किताब देकर बिठा देते। किताब मेरे लिए मिठाई सदृश थी। एक के ख़त्म होते ही दूसरी की लालसा जाग उठती। जल्द ही ऐसा समय आया जब उनकी किताबें चुकने लगीं और मेरी इच्छा बढ़ने लगी। तब मैं चोरी से वे किताबें पढ़ने लगी जिनके लिए मुझे लगता था वे मेरे लिए अर्थात बच्चों के लिए नहीं हैं। मामा और नाना से पूछे बिना उनकी किताबों की अलमारी से कोई पुस्तक निकालती और किसी कोने में, परदे के पीछे दुबक कर एक साँस में पढ़ जाती। एक बार मामा ने मुझे ऐसा करते हुए देख लिया। तब मुझे काटो तो ख़ून नहीं। उन्होंने चुपचाप मेरे हाथ से किताब ली और किताब का नाम देख मुझे वापस पकड़ा दी। वह प्रेमचंद की कहानियों का संकलन था। किताब उन्होंने मुझे वापस दे दी थी लेकिन उसके बाद मेरी हिम्मत नहीं हुई कि फिर से वह किताब पढ़ सकूँ। सारा दिन डर लगता रहा कि आज तो मामा, माँ से अवश्य शिकायत करेंगे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। अलबत्ता, मेरे जाने के समय उन्होंने यह ज़रूर पूछा था कि किताब पूरी हो गयी या घर लेकर जानी है। और मैं जल्दी से ना में सिर हिला भाग खड़ी हुई कि किताब वाली बात माँ न सुन लें। 

यही हाल मेरे घर में था। बच्चों की पत्रिकाएँ, ऊँट के मुँह में ज़ीरा सिद्ध होती थीं। एक सिटिंग में ख़त्म हो जातीं। फिर सिलसिला शुरू हुआ पढ़ने के लिए नयी किताबें ढूँढने का। चूँकि माँ भी हिंदी और संस्कृत की छात्रा, कालांतर में हिंदी की लेक्चरर रही हैं तो किताबों की कमी घर में कभी नहीं रही। इस सिलसिले में सबसे पहले हाथ आए कालिदास और जयशंकर प्रसाद के नाटक। आरम्भ में भाषा कुछ कठिन लगने पर भी धीरे-धीरे पढ़ना का प्रवाह बनता चला गया। बाद के दिनों में भीष्म साहनी, कृष्णा सोबती, अज्ञेय जैसे लेखक मेरे इस सीक्रेट मिशन का हिस्सा बन गए। माँ के कॉलेज की, उनकी लाइब्रेरी की जो किताब हाथ लगती वह पढ़ जाती। मेरे ज़िद करने पर पहले वह मेरे लिए बच्चों की कहानियाँ और नाटक लाती रहीं। उनके ख़त्म होने पर बाद में अच्छे लेखकों की किताबें छाँट-छाँट कर मेरे लिए लाने लगीं। मेरे स्कूल की लाइब्रेरी भी एक ज़रिया बनी। लेकिन हफ़्ते में एक किताब की सीमा बहुत खलती थी। रूसी कथा साहित्य से स्कूल की लाइब्रेरी गुलज़ार थी। सुंदर चित्रों वाली ये किताबें बार-बार मैं पढ़ती थी। इन्हीं दिनों शेक्सपियर को पहली बार पढ़ा और पढ़ती चली गयी। ऐसा नहीं था कि छुटपन में सब समझ ही आ रहा हो लेकिन निरंतर पढ़ते रहने से कुछ बातें सहज ही जीवन में समाहित होती चली गयीं। उनके लिए अलग से जतन नहीं करने पड़े। पापा मेरे लिए विज्ञान की किताबें लाते। मैं उन्हें भी समान रुचि से पढ़ जाती। बाद में यह आदत में शुमार हो गया। जो जहाँ मिले, पढ़ जाओ। इसी आदत ने चलते-फिरते बहुत कुछ पढ़वा दिया। हाँ, बाद के दिनों में मैं सिलेक्टिव हो गयी। 

हिंदी और अंग्रेज़ी, दो भाषाएँ मैं जानती हूँ। इन दोनों भाषाओं में जो भी उपलब्ध होता, वह पढ़ती रही। किसी किताब को शुरू करने के बाद भाषा आड़े नहीं आती। लेकिन पढ़ने के लिए चुनाव करने की बात हो तो मैं पहले हिंदी की ही किताबें उठाती थी। आज भी यही करती हूँ।

नरेन्द्र कुमार : हिंदी साहित्य के अपने पाठन की शुरुआत से लेकर एक लेखक बनने तक आपको किन लेखकों ने अधिक प्रभावित किया? क्या यह पसंद भी समय के साथ-साथ परिवर्तनशील रही?

दिव्या विजय : बचपन में पढ़ने का शौक लेखक विशेष के नाम से प्रभावित हुए बिना पढ़ने और जो समझ आए उसके विरेचन भर तक ही सीमित था। जो समझ नहीं आता था उसे बड़ों से पूछने से हिचकती थी कि कहीं प्रश्न अवस्था का अतिक्रमण कर गया तो फिर किताब पढ़ने के सुख से भी वंचित न हो जाऊँ। हालाँकि झुकाव कथा साहित्य की ओर ही अधिक था। प्रेमचंद की कहानियों का गाँव या रेणु का गाँव, दोनों के आस्वाद की भिन्नता होते हुए भी दोनों ही समान रूप से आकर्षित करते थे। जैसा मैंने बताया कि बचपन में किताब मेरी लिए मिठाई सदृश थी, सो शुरूआत में पसंदीदा लेखक चीह्न कर पढ़ना शौक में अड़चन हो जाता।

बाद में जब मैंने निर्मल वर्मा को पढ़ा तब महसूस हुआ कि उनके वातावरण निर्माण में कमरे में मेज़ पर रखी रफ़ कॉपी से लेकर खिड़की से दिखती सड़क पर बस का इंतज़ार करते व्यक्ति तक को स्थान मिलता है। कहानी की मूल संवेदना का सूत्र पकड़े हुए पाठक को रोचक तथा नवीन शब्द प्रयोग मिलते हैं। वे कहते थे "ऐसा कई बार होता है कि घटना की स्मृति तो मिट जाती है बस उससे जुड़े शब्द रह जाते हैं। वे अलग हवा में झूलते हैं, मुझे ऐसे शब्द इकठ्ठा करने का शौक है।" 

उनके पात्र अपने अंतर्द्वंद्वों से लड़ते हुए जब मौन रहते हैं तब उनके बीच के गैप्स को भरने के लिए बिजली के खंभे का आलोक वृत्त या नायिका की नाक की नोक पर थिर पानी की बूँद भी संकेत देती लगती है। वर्मा के साहित्य को पढ़ते हुए मन की उन अनखुली दराज़ों के खुलने की आवाज़ सुनाई देती है जिनसे हम बेख़बर थे, जैसे रेडियो सिग्नल्स तो हमेशा हमारे बीच होते हैं पर वे हमें सुनाई तभी देते हैं जब हम रेडियो ऑन करें। दरअसल उनके लिखे में यथार्थ, स्मृति और कल्पना के बीच कहीं होता है जिसका सम्मोहन हमें खींचता है। एक ऐसा स्पेस जो अपरिचित होने पर भी हमारे अनुभूत यथार्थ को खण्डित नहीं करता। जहाँ ज़्यादातर लेखकों के लेखन को किसी वाद या वर्ग में बाँट दिया गया वहाँ वर्मा का साहित्य इनसे अछूता ही है। 

पर अब तो विपुल साहित्य उँगलियों पर उपलब्ध होते हुए भी व्यस्त जीवन इतना अवकाश नहीं देता, तिस पर रुचि भी परिष्कृत हुई है। बचपन में सब कुछ पढ़ने का शौक अब सिलेक्टिव हो गया है। एक रचनाकार सामाजिक संदर्भों में अपने निजी अनुभव या अनुभूति को अपनी रचनाओं में प्रतिबिंबित करता है, कभी यही दृष्टि अब पठन के लिए चयनाधार बनती है, कभी क्लासिक उठा कर उसके क्लासिक होने के कारणों को जानने का कुतूहल भी तो कभी किसी किताब की माउथ पब्लिसिटी भी। बचपन में जितना समझ आता था उसके रस चर्वण के बरअक्स अब पठनानुभव के साथ आत्मलय और आत्मानुभूति भी विद्यमान रहती है।

नरेन्द्र कुमार : आप लेखक होने के साथ गंभीर पाठक हैं। क्या एक पाठक साहित्य पढ़ते समय संवेदना और वैचारिकी के अंतर्संबंध पर ध्यान दे पाता है या वह सीधे साहित्य के प्रवाह में बहता चला जाता है?

दिव्या विजय : इस बारे में पाठक से पहले मैं लेखक की बात करना चाहूँगी। क्या एक लेखक साहित्य सृजन में सम्वेदना और वैचारिकी के अंतर्संबंध को सायास आरोपित करता है? साहित्य वैचारिकी के लिए खूँटी की तरह व्यवहृत नहीं होना चाहिए। मेरे विचार से दोनों के गुंफन में लेखक अनाग्रही भाव रखे। यदि आग्रह है तो फिर सम्वेदना सशर्त हो जाएगी और पाठक पढ़ते समय एक आरोपण महसूस करेगा। पाठक सचेष्ट ध्यान नहीं दे, यही उपादेय है। साहित्य में बहते समय सम्वेदना पाठक के मन पर रजिस्टर हो और वैचारिकी के प्रति एक रोमंथन उसके मन के तलघरे में ऐसे जमा हो जो किसी पक्ष-विपक्ष से मुक्त हो। वैचारिक रोमंथन की एक अलगनी मन में बँधे जहाँ पाठक रोज़मर्रा के कामों करते हुए भी अपने विचारों के गीले कपड़े लटकाए और सूखने पर उतारे तथा तहा कर रख ले। वृक्ष की फुनगी को यदि उच्चतम होना है तो जड़ों को गहनतम अँधकार चूमने पड़ते हैं। वैचारिकी को भी यदि गहरे जाना है तब उसे दबे पाँव जाना होगा, पाठक का ध्यान पढ़ते समय उस पर जाएगा तो वह अवरोध ही उत्पन्न करेगा। लेखक का स्वर स्व स्फुटन का हामी होगा तो पाठक संवेदना में श्लिष्ट वैचारिकी के प्रति स्वतंत्र हो व्यवहार करेगा। पृच्छित अंतर्संबंध के प्रति लेखक का आत्यंतिक आग्रह सम्वेदना को भी अति बौद्धिक बना देगा। 

पाठक की पसंद को प्रभावित करने वाले कई कारक होते हैं। कुछ पाठक विषय के उद्देश्य से, कुछ भाषा शैली के चमत्कार से, कुछ चरित्रों से भी प्रभावित होते हैं। वैचारिकी भी एक कारक हो सकता है लेकिन सम्वेदना उसकी वाहक होती है। कितनी बार हम कुछ पढ़ते हैं, प्रभावित होते हैं और दूसरों को उसे पढ़ने के लिए उकसाते हैं क्योंकि जो सुख हमें मिला वो बँटना चाहता है। दूसरे जब वही पढ़ते हैं तो हमेशा उसे पसंद नहीं कर पाते क्योंकि वही सहजानुभूति उन्हें नहीं हुई, उनका पूर्वज्ञान, अनुभव, संस्कार, आस पास का वातावरण सब उसमें बाधक बन गया। उनका मस्तिष्क एक ही वैचारिकी को अलग तरह से समझेगा और हमारा मस्तिष्क अलग।

नरेन्द्र कुमार : एक समय आता है जब पाठक को लगता है कि उसके मनोभावों की अभिव्यक्ति समकालीन साहित्य नहीं कर पा रहा है, तब वह साहित्य में अपना हस्तक्षेप दर्ज़ करता है। आपको कब ऐसा लगा कि हस्तक्षेप करने की जरूरत है?

दिव्या विजय : काल विशेष की वैयक्तिक और सामाजिक रुचि किसी काल को व्यष्टि प्रधान तो किसी को समष्टि प्रधान बनाती है, कभी पुराने मूल्यों के प्रति गहरी आस्था स्वीकृत होती है तो कभी इनके प्रति गहरी अनास्था और अस्वीकार का भाव विस्तार पा स्वतंत्र और मुक्त दृष्टि का विकास होता है। परन्तु हर प्रवृत्ति, हर मनोभावों की न्यूनाधिक उपस्थिति हर युग में होती है, बस कोई एक प्रधान हो जाती है। इसलिए हस्तक्षेप करने जैसा गुरूतर कार्य बतौर पाठक मुझे करने का भाव नहीं आया।

जो अनुभव सामान्य व्यक्ति को केवल एक भोक्ता बनाकर ही छोड़ जाते हैं, वहीं लेखन प्रतिभा और लेखन के प्रति औत्सुक्य से युक्त व्यक्ति को अद्भुत अनुभूतियों से गुज़ार कर भावसंपन्न बना जाते हैं। लेखक का मन किन्हीं अज्ञात और अनाख्येय कारणों से भावांदोलित होता है। स्वानुभूत मनोभावों का उत्प्रवाह, परानुभूत मनोभावों को सुन तथा ऑब्ज़र्व कर उनका स्मरण मात्र नहीं बल्कि एक मानसिक भावन की क्रिया मैं महसूस किया करती। मेरी सजग और संवेद्य कल्पना शक्ति सर्वांग भावन करके घटनाओं, पात्रों, मनोभावों आदि को मस्तिष्क में सजीव करने लगी। इन सबकी समवेत अंतः प्रेरणा ने मुझे अभिव्यक्ति मार्ग के अनुसंधान के लिए विवश किया और मैंने लेखन को अपनी अभिव्यक्ति के लिए चुना।

परिचय :

नाम - दिव्या विजय, जन्म - 20 नवम्बर, 1984, जन्म स्थान – अलवर, राजस्थान, शिक्षा - बायोटेक्नोलॉजी से स्नातक, सेल्स एंड मार्केटिंग में एम.बी.ए., ड्रामेटिक्स से स्नातकोत्तर

विधाएँ - कहानी, लेख, स्तंभ

‘अलगोज़े की धुन पर’ कहानियों की पहली किताब। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं जैसे नवभारत टाइम्स, कथादेश, इंद्रप्रस्थ भारती, पूर्वग्रह, जनपथ, नया ज्ञानोदय, परिकथा, सृजन सरोकार आदि में नियमित प्रकाशन। इंटरनेट पर हिन्दी की अग्रणी वेबसाइट्स पर अद्यतन विषयों पर लेख। रविवार डाइजेस्ट में नियमित स्तंभ।

अभिनय : अंधा युग, नटी बिनोदिनी, किंग लियर, सारी रात, वीकेंड आदि नाटकों में अभिनय। रेडियो नाटकों में स्वर अभिनय। 

सम्मान - मैन्यूस्क्रिप्ट कॉन्टेस्ट विनर, मुंबई लिट-ओ-फ़ैस्ट 2017 

सम्प्रति - स्वंतत्र लेखन, वॉयस ओवर आर्टिस्ट 

ईमेल- divya_vijay2011@yahoo.com

उलझी यादों के रेशम : प्रज्ञा




प्रज्ञा उम्मीद की कथाकार हैं… उम्मीद ऐसी कि जैसे कोलतार की सड़क को फाड़ दूब बाहर निकल आयी हो। उनकी कहानियों में वैयक्तिक, पारिवारिक तथा सामाजिक मुद्दों पर गहराई में जाकर बात होती है और इस संवाद-विमर्श में पाठकों को केवल संवेदित भर नहीं करतीं, बल्कि प्रश्न खड़े करती हैं। उनकी कहानियों को पढ़ते हुए उनकी लेखन-शैली में एक क्रमिक विकास का पता चलता है… कहानियों की अंतर्वस्तु में ही नहीं बल्कि भाषा-शिल्प के स्तर पर भी। पहले संग्रह ‘तक़्सीम’ के बाद आया नया संग्रह ‘मन्नत टेलर्स’ पाठकों को आश्वस्त करता है।


आइये पढ़ते हैं उनके संग्रह ‘मन्नत टेलर्स’ की कहानी ‘उलझी यादों के रेशम’, जो पिता-पुत्री के रागात्मक संबंध एवं पिता के अकेलेपन की त्रासदी की कहानी भर नहीं है, बल्कि इसमें फन लपलपाते पितृसत्ता के साँप की झलक भी है, प्रोफेशनल होते जाते संतानों के कारण बनते प्रोफेशनल संबंध भी है।


उलझी यादों के रेशम : प्रज्ञा
सूराख के पार एक दीवार

आज फिर मैं हूं, ये मकान है और इसके भीतर एक बड़ा-सा सूराख। मुझे न जाने कितने ही दिन बीत गए यहां आते। बार-बार लौटती हूं इस घर में लेकिन मेरा यहां लौटना क्या लौटा लाएगा सब कुछ? कोई ही दिन बीतता होगा कि ये मकान मेरी आंखों से रत्ती भर हट पाता हो। आज फिर उन्हीं दीवारों के बीच खड़ी हूं। सारा सामान अपनी बेरौनक शक्ल में मौजूद है। वही बरसों बरता हुआ केन का सोफा जो जगह की कमी के चलते कभी सोफा सेट न बना और दो बेमेल फोल्डिंग कुर्सियों के सहारे काम चलाता रहा। हर आने-जाने वाले को संभालता। दो कमरे के इस मकान में आखिर क्या बदला? वही पुराना सामान, वही पुरानी उसकी जगह। बरसों से थमा हुआ सब कुछ। दीवान, फ्रिज, टी़वी ,घड़ी कुछ बहुत पुराना तो कुछ पुराना पर जमा हुआ है स्थायी भाव से। एक इंच टस से मस नहीं। इन्हें समेटे दीवारें शुगरकेन येलो पेंट वाली जिनकी पपड़ी उतर गई है। पेंट से नीचे की पुट्टी भी दरक गई है जगह-जगह से। सारी दरारें मिलकर मानो एक बड़ा-सा सूराख हो चली हैं। एक सूराख जिसमें एक घर कैद है। घर ? यहां मेरे अकेले आते रहने से क्या ये घर कहलाएगा? मैं हूं जो इस सूराख के पार छिपे घर की पुख्ता दीवारें देख पाती हूं। मेरे लिए इस सूराख से पार होना कितना कठिन है । पापा के पसंदीदा शुगरकेन येलो रंग वाली दीवार को निकाल पाना। इस सूराख से गुजरना एक यातना है पर पता नहीं क्यों हर बार इसी यातना से गुजरती हूं। यातना के भीतर से एक कतरा सुख निकाल लाने की मेरी तड़प ही मुझे यहां खींच लाती है या मेरा बार-बार यहां चले आना इसलिए तो ज़रूरी नहीं कि कहीं किसी दिन ये सूराख बंद न हो जाए और मैं उसके भीतर रची पुख्ता दीवार न खोज पाऊं?

समय को फलांगती इस दीवार से सूराख का सफर तय करती मैं लौटा लाती हूं इस मकान में कहीं खो गईं वो सारी आवाज़ें जो सिर्फ आवाजें नहीं एक जीता-जागता समय है। आज भी उन आवाज़ों में किस कदर बसा है शोर-‘‘बिट्टू! संभाल कर, तेरी जल्दबाजी में सारे बर्तन टूट न जाएं।’’ मैं जानती थी मां की मृत बहन की बड़े जतन से सहेजी हुई निशानी थी वह क्रॉकरी। जिसे हमने कभी इस्तेमाल नहीं किया और आगे भी ये घर के किसी सुरक्षित कोने में जमी रहकर मां को अपनी बहन से जोड़े रहेगी। मां को लगता था इस्तेमाल करने से उसके भीतर बसा यादों का भरा-पूरा संसार नष्ट हो जाएगा। दो कमरे के इस घर में आने के पहले दिन न जाने कितने बरसों बाद उसे मैंने छुआ था अनेक बरसों तक फिर यों ही छोड़ देने के लिए। पापा का उत्साह तो देखते ही बनता था। सालों जोड़ी-बचाई गई कमाई से बनाए इस घर में कोई पुरानी घिसी, टूटी, बदरंग चीज उन्हें गवारा नहीं थी। अजब तमाशा देख रही थीं हम बहनें। मां थीं कि ‘मत फेंको...तुम्हें मेरी कसम’ की रट लगाए थीं और पापा ‘अरे! छोड़ो नई ले लेना’ कहते हुए मां की सभी कसमों के साथ पुराने सामान को हटाते जा रहे थे। छोटा भाई वरुण इन सबसे बेखबर खाली जगह में कूद-फांद मचाए था। सालों-साल किराए के मकान में रहने के बाद अपने घर में आना गजब एहसास था। नए पेंट की खुशबू , चमक से लकदक दीवारें और दीवारों के बीच हमारी चहकती आवाज़ें। भाई को बंधे सामान से अभी ही क्रिकेट बैट चाहिए था। पापा को जल्दी थी कि टैम्पो से उतरा सामान जो सड़क पर लावारिसों-सा पड़ा है, उसे घर ले आएं। मां एक ओर मालकिन बनी इतरा भी रही थीं तो दूसरी तरफ सबके खाने की चिंता में गिरफ्त थीं। मैं और छोटी गुड्डू होड़ करती हुई इस घर को रचने की अपनी नन्हीं कोशिशों में लगी थीं। 

सूराख के भीतर की दीवार आज भी वैसी ही पुख्ता, उतनी ही लकदक, वैसे ही नए पेंट की खुशबू में डूबी थी जितनी मेरे ज़हन में सारी स्मृतियां। वो दीवार एक शोर थी और ये सूराख सन्नाटे में पसरा था।

उलझी यादों के रंग-बिरंगे रेशम 

‘‘बहुत हुआ माया! निकलो अब इन सबसे बाहर। अपना घर संभालो और अपने बच्चे देखो।’’

क्या जवाब दूं अखिल की इस बात का जो मेरे यहां आने के कुछ समय बाद फोन पर कोफ्त से भरकर गूंजती है। उन्हें अब कतई पसंद नहीं इस घर की यादों को मेरा सहेजना, छाड़ना-पौंछना और दुलारना।  मैं उस कोफ्त को तार-तार करके कहना चाहती हूं-‘‘ये भी मेरा ही घर है, मेरी रंग-बिरंगी यादों का घर। जरा देखो, रेशम के नाज़ुक धागों से बनी यादें किस कदर उलझ गई हैं। किसी को तो इन्हें सुलझाने का समय निकालना होगा न अखिल? क्या घर यूं ही छोड़ दिए जाते हैं मिटने के लिए? दोनों घर बचाने की मेरी कोशिशें अखिल को क्यों दिखाई नहीं देतीं? क्या ये घर अब किसी के लिए घर नहीं है? ये वही अखिल है जिसके लिए पापा ज़माने की तलवारों से लड़ने वाली ढाल बन गए थे। हमारे रिश्ते को खारिज करती मां को भी पापा ने समझा-बुझा कर मना ही लिया था आखिर।  

‘‘दूसरी जात का लड़का है...कौन आएगा शादी में? कितनी जगहंसाई होगी फिर दोनों भाई-बहनों का क्या होगा? कौन करेगा उनसे शादी?’’ चिंता की शक्ल में मां की लगातार सवाल करने की आदत हो गई थी उन दिनों।

‘‘ मीता की शादी पहले कर दो न पापा! हमें कोई जल्दी नहीं है। अगर आपको लगता...’’

‘‘कैसी बात करती है माया? अखिल से कहना तुमने जो सोचा है वही होगा।’’ पापा ही थे उन दिनों जिनकी वजह से अखिल का प्रेम बच पाया। उसी अखिल को पापा का घर नहीं दिखता अब। उसे पापा की बिट्टू नहीं अपनी माया ही दीखती है। शादी के बाद पापा की प्यारी माया को भी कहां संभाल पाया था अखिल? और तो और पापा का घर वरुण ने भी कहां देखा था इतने दिनों से। मां के जाने के बाद ऊपर-ऊपर से पापा से कहता ज़रूर था अपने घर ले चलने की बातें पर भीतर कहां चाहता था। घर से दूर,शहर से दूर उसने अपना आशियाना तो बनाया था पर कहां थी उसकी हालत पापा को वहां रखने की। उसके घर में कौन चाहता था पापा का आना। मीता भी दूसरे शहर में थी अपनी नई जिम्मेदारियों में व्यस्त। आती थी पर अधिक रुकना उसके लिए भी संभव नहीं था। मां होती तो रुकती भी शायद। हम तीनों के घर रचते-रचते पापा का घर उजड़ रहा था। ज़माने की आंधियों से जी खोलकर लड़ने वाले पापा को अपनी बेटियों के घर जाना गवारा न था। कितने खुद्दार हो चले थे पापा । यों ही नहीं उमड़ आया था इस घर के लिए उनका लाड़-‘‘तुम्हारी मां की यादें हैं यहां। कहां जाऊंगा उन्हें छोड़कर?’’ हमें कई बार लगता पापा के लिए ये घर मौसी की क्रॉकरी-सा हो गया है। बेहद जरूरी चीज़ों को छोड़कर घर की चीज़ों को छूने से बचने लगे थे पापा। न एक्टिव रहते थे और न ही पहले से चहकते थे। उदासी ओढ़कर घंटों पड़े रहते थे। अकेलेपन को अपनी नियति मानकर कितने चुप होते चले जा रहे थे धीरे-धीरे। कर कोई कुछ नहीं रहा था, सब केवल देख रहे थे। पापा और उनकी चुप्पी दोनों कितने अकेले थे। पूरे घर में कभी कितने किस्से गूंजते थे और आज अधूरे घर में सब कहानियां शांत हो गईं।   

ऊंचाई के रौशनदान

‘‘बस पापा! बहुत झुलाया इन दोनों को, अब मेरी बारी’’

 मीता और वरुण को पापा अपनी कोहनी के झूले में कितनी देर तक झुलाते रहे थे। अपने दोनों हाथों को सिर पर मजबूती से टिकाए और पैरों को गोलाकार घुमाते हुए। धरती से ऊपर हवा में तैरते हम तीनों। पापा खुद झूला बनकर हमें खूब ऊंचा उठा देते। पार्क की घास,क्यारियां, फूल सब कितने नीचे रह जाते। एक छोटी-सी नौकरी में भी जाने कैसे वो हमारी उम्मीदों का आसमान बना रहे थे। या कहूं कि आसमान घर में उतार लाए थे। दोनों कमरों में कितने ऊंचे रौशनदान बनवाए थे उन्होंने। गर्मी में कमरे के ठंडे फर्श पर लेटो तो आसमानी रंग साथ लेटा लगता था और रात चांद संग बीतती थी। लेटते ही आंखें इन रौशनदानों की जद में आ जातीं। छोटा-सा कमरा अचानक कितना बड़ा हो जाता।  

‘‘चल देर न कर बिट्टू! आज कॉलेज का तेरा पहला दिन है। कितनी छुटकी थी कल तक आज कहां पहुंच गई।’’ कल तक कोहनी पर झूलने वाली लड़की के हिस्से का अपना रौशनदान बना दिया था पापा ने। कितनी सारी धूप बरस गई थी मेरे चारों ओर। धूप की सीढ़ियां चढ़ते हुए मैं सूरज के पास पहुंच गई। मैं ही क्यों मेरी मीता और वरुण के हिस्से में भी उनके रौशनदान तैयार हुए। हमारी खुशियों के आड़े कभी न आई पापा की जेब। वहां तो सिक्के थे जो हमारी खुशी से खनकते। 

‘‘दीदी! हम तीनों की जेब में अब हमारे सिक्के हैं। खनखनाते। खूब सारे...हमारे अपने।’’

 समय के साथ हम तीनों के कद से रौशनदान की दूरी कम होती जा रही थी। मां-पापा के जीवन की सभी इच्छाओं के हम फूल थे। अचानक मेरी शादी होने के बाद मां नहीं रहीं। उनके दिल के कई अरमान देर से ही सही पूरे हुए पर दिल का दौरा असमय पड़ा। सारा घर एकबारगी हिल गया। मीता और वरुण की जिम्मेदारियों की शक्ल देख पापा अपना गम़ भुला बैठे। पर क्या वो सचमुच का भुलाना था या एक भ्रम था जिसे उन्होंने बड़ी कोशिशों से हमारे और अपने बीच खड़ा कर लिया था। कितनी दफा निरीह सा दिखता था वह भ्रम। तभी तो सब जिम्मेदारियों से फारिग होने के बाद पापा के कंधे और अधिक नहीं झेल सके उस भ्रम का बोझ या वो खुद ब खुद छिटक गया। पापा के बी़.पी और शुगर लेवल दोनों कितने बढ़ गए थे। कमरे में छोटी टेबल हमेशा दवाइयों से भरी रहती। घर की गंध में दवाएं घुल गयी थीं। मैं और वरुण कितने मल्टीविटामिन और सेहत के सिरप भी लाकर देते थे। पर पापा को याद कहां रहता था उन्हें लेना। अवसाद की छायाएं बड़ी लंबी होती हैं। वे भूल जाती हैं खुशियों के रास्ते।

‘‘हँसा करो न पापा! इतने उदास क्यों रहते हो? मिनी और टिक्कू के साथ पहले की तरह खेलो न पापा।’’ बच्चे पापा का मुंह देखते पर उन्हें अपने नाना उसमें नज़र नहीं आते। ‘मन लगाओ न पापा’-कहना ही क्या काफी था? कैसे लगता पापा का मन? मकान में घर कहीं खो चुका था और पापा अपने ही भीतर कहीं खो गए थे। घर से मेरे विदा होने के बाद मां थी, मां के बाद मीता-वरुण के लिए पापा थे लेकिन उनके बाद पापा के पास कोई नहीं था। दोस्त, पड़ोसी, रिश्तेदार सब थे पर सबकी अपनी दुनिया थी। अकेले में पापा न जाने क्या सोचा करते थे। सोच में घिरे उनके शब्द बोलना भूल रहे थे। फोन पर भी बस संक्षिप्त सी ‘हां-हूं ’। पड़ोसियों के साथ भी बोलना-बतियाना बंद। अब तो कितना कुछ भूलने लगे थे। कल की ही बात भूल जाते, लोगों को भूल जाते, सुबह की दवा खाई न खाई उन्हें याद न रहता।

‘‘गुड्डू, वरुण, मिनी, टिक्कू...माया जरा सुन तो’’

मुझे बुलाने के लिए पापा कितने नाम पुकारते। गड्डमड्ड होती रही उनकी याददाश्त। पापा भूल रहे थे या   भरे-पूरे घर के दिन उनके मन में टीस उठाते थे। मैं भी तो कितना कम समय निकाल पाती थी उनके लिए। पड़ोस की दुकान के मोहन अंकल उनके हालचाल ले लिया करते थे। घर और नौकरी की जिम्मेदारी में पास होते हुए भी पापा दूर होने लगे। दोनों रौशनदान अचानक बहुत ऊंचे हो गए थे या फिर हम तीनों उसके आगे बेहद बौने।

आईना बदला हुआ है

टिक्कू के दाखिले की भागदौड़ में इस बार घर जाना न हो पाया। बीच में पता लगा था कि वरुण पापा को देख आया है तो थोड़ी तसल्ली थी। कई दिनों के बाद स्कूल से लौटते हुए कदम पापा की तरफ मुड़ गए। किवाड़ भिड़े हुए थे। मैं ठेलकर अंदर आ गई। दिल धक्क। क्या हुआ पापा? पापा ज़मीन पर औंधे पड़े थे। कोई हरकत नहीं। एक चीख के साथ मैंने उन्हें सीधा किया। खुली बेजान उनकी आंखें पता नहीं कहां देख रही थीं एकटक। दीवान का कोना सिर में तेज़ी से लगा था और खून बह रहा था। डॉक्टर ने ड्रेसिंग की। पापा बेजान से बैठे रहे। मेरी नजर उनसे हटी तो देखा घर बेतरतीब था। उसकी सूरत पापा से किस कदर मिल रही थी।

‘‘ किसे रिझाने बिना नागा शेव करते हो? कितना मल-मलकर नहाते हो? किसी के लिए पानी बचे न बचे,तुम्हारी बला से। किसी को कितनी जल्दी क्यों न हो पर तुम्हारे सिंगार पूरे होने चाहिए।’’ मां के शब्द घर की दीवार चीरते बाहर आ गए। पापा के लिए कहे जाते थे अक्सर ये शब्द और आज उलझे से तेलहीन बाल, खिचड़ी- सी दाड़ी, ढली हुई त्वचा और हंसी भूला चेहरा। इन दिनों घर का आईना भी उन्हें पहचानने से इंकार करता है।

‘‘पापा! बस करो न मेरा पेट फट जाएगा। अब और जोक नहीं प्लीज़।’’

मेरे गुस्से के बावजूद वो हंसते-हंसते चुटकुले सुनाते जाते। कितनी दफा मैं ‘क्या-क्या’ करती रहती। साफ शब्द न सुन पाती और पापा को लगता मैं उनके हर शब्द को पकड़ रही हूं । अपनी दोहरी हंसी में वे अपनी ही बात पर आंखों से पानी छलकाते, हंसते जाते। हंसी में कितनी छोटी हो जाती थीं उनकी आंखें और आज फटी-फटी आंखों से न जाने क्या देखते रहते हैं? मैंने सारा घर ठीक किया। कामवाली को फोन करके सारी हिदायतें दीं। उसे भी दरवाज़े से लौटा देते हैं कितनी बार, उसने बताया। पापा के कपड़े बदलवाए, मुंह-हाथ धुलवाए, प्यार से खाना खिलाया तो घूरते रहे। अचानक जैसे चेतना लौटी-‘‘तू कब आई बिट्टू?’’ तो क्या पापा इतनी देर से यों ही...मेरी जगह कोई और होता...कोई अपराधी या....और पापा? मेरी रुलाई , सिसकियां बनकर गले तक आइंर् ज़रूर पर घुटकर गले में ही रह गईं। पापा के आगे, नहीं।  अभी बिल्कुल नहीं। घुटी हुई सिसकियों ने सीने में तूफान मचा दिया। मेरे सीने में अचानक तेज दर्द की लहर उठी। ये सिर्फ पापा की उम्र नहीं थी कोई बीमारी थी। एक खतरा मेरे सामने था। जिससे सब बेखबर थे, खुद पापा भी। घर साफ-सुथरा हुआ और पापा भी कुछ मेरे पापा जैसे। वे मुस्कुरा रहे थे। मां को बहुत याद कर रहे थे। मेरे लाख चाहने पर भी उन्होंने मुझे जिद करके घर भेज दिया। जाने से पहले उनका खाना बनाकर टेबल पर रखा और पानी का गिलास उनके सिरहाने। कितनी पुरानी आदत है उनकी, रात में पानी पीने की। चलते समय मैंने देखा, कितना संतोष था उनके चेहरे पर। 

खो गई याद किसी जंगल में

‘‘उनसे पूछो उन्हें पता होगी कहां रखी है पुरानी से पुरानी कोई चिट्ठी,चाबी, या तस्वीर- उन्हें सब याद रहता है।’’ मां के ये शब्द पापा की याददाश्त से कितनी ईर्ष्या रखते थे। वो अपने छोटे से बटुए में भी अक्सर कुछ न कुछ खो बैठतीं। मैं बचपन से ही देखती आई थी पापा की याददाश्त के कमाल। हर चीज़ उन्हें उसकी जगह संग याद रहती। ‘‘अल्मारी के तीसरे खाने में बाएं तरफ कोने में ’’- एकदम सही जगह बता देते थे पापा। बंद आखों से भी चीज़ मिल जाती थी और आज? एक साथ उनकी सारी तरतीबी, बेतरतीब हो गई। ऐसे कब होते चले गए पापा? रिटायर होने के बाद से ही तो कितने सुस्त हो चले थे। नौकरी ही क्या एक वजह थी उनकी सारी खुशियों की? सब बदल गया था उसके बाद। न कोई रूटीन, न कोई चुस्ती। एक बेपरवाही उतरती जा रही थी उनके जीवन में जिसमें लाचारगी की रंगत थी। मां की कोशिशें भी नाकाम रहीं। बरसों सुखी दाम्पत्य बिताने वाले ये लोग अब भरपूर समय मिलने पर भी समय को काटते थे। उनके दिन-रात एक अबूझ पहेली से हो रहे थे। हारे हुए उदास से रहने वाले पापा को मां का जाना तोड़ गया था। एक लौ फिर से जली थी जीवन में। मां के जाने के बाद फिर लौटे थे पापा पर पुराने रूप में कतई नहीं। एकाएक कुछ कहां मिटता है पर उसके मिटने की सूक्ष्म रेखाएं हम पकड़ नहीं पाते। अब जीवन में दुर्घटनाएं ही हमें चौकन्ना करती हैं उनकी चेतावनी देने की भाषा और संकेत नहीं। हमने उन पर ध्यान देना बंद कर दिया है। घर से निकलकर मैंने सोच लिया था कल पहला काम पापा को हॉस्पीटल लेकर जाना है। अब और देर नहीं, किसी भयंकर तनाव के शिकार हो गए हैं पापा। अरुचि और अवसाद की परतों में कैद ये शख्स और मेरे पापा? यादें अतीत की आंच पाकर फिर सुलगने लगीं। 

‘‘ तनाव हो हमारे दुश्मनों को’’- सारी चिंताओं से बेफ्रिक रखने वाले पापा, उन्हें कहीं अल्ज़ाइमर...कहीं डिमेंशिया तो...। मुझे तो फर्क तक नहीं पता दोनों में। बी.पी. और शुगर तो बरसों से उनके संग था ही। ‘‘गोली खाओ मस्त रहो’’-इन्हीं शब्दों की आंच में जीवन का सोना पिघलाते रहे सदा।  

हजारों बेचैन करवटें लिए रात आज कुछ ज्यादा ही लंबी थी । हर करवट आगाह करती -पापा को अब अकेले नहीं रहने देना है। बेचैनी घुमड़-घुमड़कर पूछती ‘‘ रोज़ सींचना था जिस पौधे को, उसे क्यों धूप में तन्हा छोड़ दिया झुलसकर नष्ट होने?’’ उस लंबी रात में जाने क्या-क्या याद आता रहा। याद आया शायद कहीं पढ़ा था अकेला पौधा ढंग से पनप नहीं पाता, किसी साथी के संग खुश रहता है और हम सबने पापा को मिलकर सजा दी। उन्हें तन्हा छोड़ दिया। हमारे जीवन की सारी खुशियों के संगी पापा अपने जीवन के सबसे उदास दिनों में एकदम अकेले थे। वो मज़बूत शाख जिसने हमारे घोंसले रचे उसकी नमी झीजती रही और हम अपने घोंसलों में आबाद रहे। शाख से पत्ते तेजी से झर रहे थे। एक तेज़ झटका मेरे पूरे शरीर को हिला गया। ‘‘पापा! अब और नहीं।’’ रात अपनी बेचैनियों में थकाने के बाद न जाने कौनसे पहर मुझे नींद की आगोश में ले गई। अखिल के झकझोरने से ही नींद खुली। आज मेरा स्कूल न जाना उसकी आंखों में फिर अखर गया। सब काम अपनी गति से अंजाम देती मैं जल्द से जल्द पापा के पास पहुंची।

किवाड़ आज भी भिड़े मिले कल की तरह। आज भी आशंका लिए मैं भीतर दाखिल हुई कि कहीं उन्हें कोई चोट न लगी हो कल की तरह। पर आज की चोट मेरे हिस्से में लिखी थी। साठ गज बेहद मामूली-सी जगह होती है पर आज उसका हर हिस्सा टटोलने में मुझे वक्त लगा। दिल-दिमाग सन्न , आवाज़ गले में कैदी और होश फाख्ता। पापा कहीं नहीं थे। सिरहाने धरा गिलास चुप था, मेज पर रखी खाने की प्लेट कल रखे जाने से अब तक बेहरकत थी। खाना जस का तस। कमरे का हर सामान खामोश बस मेरा दिल ज़ोर-जोर से धड़क रहा था। कब गए,कहां गए जैसे सवाल लिए मैं बदहवास बाहर भागी। आंखें रास्ते पर जमी थीं पैर पड़ोसियों के घर भाग रहे थे। ‘‘हमने उन्हें नहीं देखा...कई दिन से नहीं देखा।’’- कहीं से कोई जवाब नहीं। ‘‘बेटा! दुकान दस बजे खुलती है तबसे तो उन्हें नहीं देखा।’’ गली की दुकान के मोहन अंकल ने भी उम्मीद तोड़ दी। पापा कहां हैं, कोई नहीं जानता। कहीं कोई सूराग नहीं उनका। वो कब, कहां, कितने बजे घर से निकले किसी को नहीं पता। मैं घर के बाहर सड़क पर कितनी दूर दौड़ती आ गई। गली, चौराहा, बस स्टैंड...यहीं से तो चलकर गए होंगे पापा..यहीं से, पर कहां? सड़क कितनी कठोर थी आज। चप्पल के नीचे उसकी कठोर परत तलवे को छील रही थी बेतरह। मेरी हर नाकामी आज मेरे चेहरे पर सैकड़ों तमाचे जड़ रही थी। आंसू बहाती मैं वरुण और मीता को ये बुरी खबर दे रही थी। आज ये घर खाली था उस शाख सरीखा जिसके बचे हुए चंद पत्ते भी झर चुके थे। खतरे में था आज उम्मीद का वसंत।

कोहरे सनी रातें

‘‘चाहे कितनी ही देर हो जाए, लौटकर घर ही आएंगे। इस घर के सिवा कहीं और रह ही नहीं सकते तेरे पापा।’’ सर्दी के दिनों में जब रातें लंबी होतीं और कोहरे की चादर ताने रास्ते धुंधला जाते तब मैं और मीता दरवाज़े पर खड़े पापा का इंतज़ार करते । कोहरे को चीरकर कोई आकृति बाहर आती मन कहता -‘‘पापा’’। मां सच कहती थीं पापा कहीं नहीं रह सकते थे हम सबके बिना। देर से ही सही लौट आया करते । आज रास्तों पर फिर वही कोहरा था। आज फिर हम पापा के इंतज़ार में थे। आज क्यों याद आ रही थी मां, बार-बार? आज फिर दोहराओ न मां वही शब्द जो लौटा लाएं पापा को अपने घर। सुबह से रात हो चली। परेशान वरुण सभी परिचितों के घर फोन कर चुका था पर कहीं से कोई खबर उसकी उदासी न हर सकी। मीता अपनी छुटकी को लिए अपनी फितरत से भिन्न कितनी खामोश थी। मैं मिनी और टिक्कू को भी यहां ले आई थी। न जाने कितने दिन लगेंगे। आज पापा की दिली ख्वाहिश पूरी हो रही थी पर उसे पूरा होते देखने वाले पापा नदारद थे। आज कितने दिनों बाद हम तीनों एक साथ घर में थे। 

‘‘देखिए! यह कोई अपराध तो है नहीं सो तफतीश अपने तरीके से ही होगी। उनका ध्यान रखना चाहिए था न आप सबको .. आप भी पता करते रहिए, कहीं चले गए होंगे गुस्से में। आ जाएंगे दो-तीन दिन में। भरोसा रखिए।’’ बहुत इंतज़ार के बाद जब हम थाने पहुंचे तो गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखवाने का यह रूटीनी जवाब मिला। हमारे लिए जो हैरतअंगेज़ था उनके लिए बेहद सामान्य। पापा अब लापता थे। अखबार रोज़ उगलते थे ऐसी कितनी खबरें। अब पापा भी उन तमाम लापताओं के साथ एक खबर थे। ऐसी खबर जो पलक झपकते ही रद्दी में फेंक दी जाती है। टी.वी पर अक्सर आने वाली ये सूचनाएं किस कदर उबाऊ जान पड़ती थीं पर आज दुनिया बदल गई। उन सूचनाओं में पापा का चेहरा भी शामिल हो गया। दिन, सप्ताह में और सप्ताह, महीनों में बदलते जा रहे थे पर कोहरे की चादर न हटी थी न छंटी थी, वो दिन-ब-दिन घहराती जा रही थी। मैं अक्सर सोचती असंख्य लोग लापता हो जाते हैं, कहां जाते होंगे वे? क्या वो सब मिलकर अपनी दुनिया बना लेते हैं कहीं? या पहले से बनी किसी गुमशुदा दुनिया का हिस्सा हो जाते हैं ? क्या सब हादसों में मारे जाते हैं? जो बच जाते हैं वो क्यों नहीं लौटते अपने घर वापिस? रोज़-रोज़ उनके गायब होने का सबब क्या है? सब तो हार नहीं जाते ज़िंदगी से? दुखों के पहाड़ तले पिसने का खौफ उन्हें लौटने नहीं देता या घर के रास्ते भूल-भुलैया में खो जाते हैं कहीं। ऐसा क्या हो जाता है कि घर बरसों उनकी राह तकते हैं और उन्हें घर याद नहीं आता? वही घर जो कभी उनकी दुनिया था। भरी-पूरी दुनिया में कहीं खो गए वो चेहरे पहले लापता कहलाते हैं और बरसों बाद बिना किसी सबूत के मृत मान लिए जाते हैं। उन्हें ढूंढने वाले थाने भी एक समय के बाद उन्हें मरा समझकर केस खत्म कर देते हैं। वे कभी नहीं सोचते लोगों का न मिलना उनकी मौत का प्रमाण नहीं होता। कितना आसान होता है दूसरों के लिए लापता लोगों को मरा हुआ मान लेना ।

 परछाइयां सब तितर-बितर

‘‘ढूंढ न मीता कहां खो गयी? धरती खा गई या आसमान निगल गया। किसी को दी होती या चोरी चली गयी होती तो और बात थी ,घर से ही कहां गायब हो गयी बिट्टू?’’ कितना रोई थी मां उस दिन। सौंफ-इलायची रखने वाली पीतल की उस छोटी-सी तश्तरी से मां को कितना मोह था। खोजते-खोजते हर परछाईं में उसे वही दीखती। वो सब चीजे़ं उलटती-पलटती और निराश होती। उस ढूंढाई में सारा घर बिखरा पड़ा था। शादी के बाद बड़े प्यार से पापा ने दिलायी थी। शायद पहला तोहफा होगा इसीलिए बड़ा प्यारा था मां को। कभी-कभी और इंसानों की नियति एक-सी हो जाती है। वो तश्तरी कभी नहीं मिली मां को पर उसे यकीन था वो घर में ही कहीं है। कहां? कोई नहीं जानता था, और पापा? पापा कहां होंगे? इस घर ने उन्हें भी तो खो दिया।  

धीरे-धीरे हम सब लौट आए थे अपनी ज़िंदगियों में लेकिन पापा हमेशा हमारे दिमाग में रहते। हर आहट, हर खटका हमारी उम्मीद बन चला था। आज तलक जितनी भी बार दरवाज़े या फोन की घंटी बजती उतनी ही बार दिल कहता है-पापा। जब-जब घर लौटती हूं लगता पापा इंतज़ार करते खड़े मिलेंगे।

 ‘‘आ गई बिट्टू! ला दे मुझे घर की चाबी, कितनी देर से खड़ा हूं।’’ 

कानों में गूंजते ये शब्द पर वहां कोई नहीं मिलता। कितना अजीब है, गई तो मां भी थी पर उसका जाना ऐसे नहीं कसकता-टीसता था कभी। हम मां के अंत के गवाह थे । दुख के बादल तब भी थे पर बरसते-बरसते अब शांत हो चले थे। लेकिन दुख के पहाड़ इतनी जल्दी चूर-चूर नहीं होते। पापा न होकर भी परछाईं से संग रहते । मैं चौंककर पीछे पलटती उनकी हंसी गूंजती पर पापा नहीं लौटते। यकीन से परे न चाहते हुए भी उनके शव की शिनाख्त में कितने मुर्दाघर छान डाले हमने। विरूप शरीरों को हर बार कांपते मन से देखना, आंखों के सैलाब को संभालते हुए घर लौटना , यंत्रणा शिविरों से गुजरना था। किसी गैस चैम्बर से कम नहीं होता था वो मंज़र। सांसें घुटती हुईं, बंद होती जान पड़ती थीं। बार-बार इससे गुजरना। पर क्या हम एक शव तलाश रहे थे पापा से मिलता-जुलता? क्या उसके मिलने भर से दुखों का पहाड़ ,बादल बनकर बरस जाता? इस दुनिया में किसी जीते-जागते इंसान का खो जाना सबसे बड़ी क्षति है। सबसे बड़ी टीस जिसे कभी सबर नसीब नहीं होता। उसका पता ढूंढते-ढूंढते आदमी का पूरा वजूद लापता-सा हो जाता है। दुनिया को खंगालने की सारी कोशिशें और हाथ पर निराशा की गहरी होती जाती लकीरें।

नदी पर एक पुल 

‘‘मन नहीं लगता यहां, सोचता हूं सबसे दूर कहीं चला जाऊं।’’ लापता होने से कुछ दिन पहले ही वरुण से कहा था पापा ने। महीने साल बने और साल पर कुछ साल चढ़े । वरुण न जाने कितनी जगह पापा को खोज चुका था। उसे यकीन हो चला था अस्पताल, मुर्दाघर या फिर कोई आश्रम ही अनेक लापता लोगों का संसार हैं। उनकी तनावग्रस्त ज़िंदगियों की आरामगाह। वह हर जगह पापा की तस्वीर संग अपना नम्बर छोड़ आता। जीवन जीते हुए भी उसकी जिंदगी.. हम सबकी ज़िंदगी पापा के लापता होने वाले दिन पर ही थमी-ठहरी रही। 

आज भी पापा की तस्वीर देखकर हर बार सोचती हूं क्या अब पापा को गुजरा हुआ मान लेना चाहिए ? पर उनकी आंखों की चमक और बिंदास हंसी मुझे रोक लेती है हमेशा। न जाने कितनी दफा तस्वीर से पूछ चुकी हूं-‘‘कहां हो पापा...लौटते क्यों नहीं?’’ पर तस्वीर हमेशा मुस्कुराती है और मेरे सीने का ज़ख्म फिर बहने लगता है। जहां भी जाती हूं पापा से मिलती-जुलती हर आकृति मुझे परेशान करती है। मीता तो कितनी बार आकृतियों को पापा के सम्बोधन से पुकार चुकी है। इधर मैंने गौर किया था कितने लोग अपने अकेलेपन से लड़ते, चीखते और बतियाते सड़क पर चलते जाते हैं बेपरवाह। फुटपाथों पर बैठकर न जाने किन अदृश्य चेहरों से बात करते रहते हैं। दुनिया के लिए जो अदृश्य हैं उनके लिए वो मूर्तिमान। उनके भीतर की दुनिया में कितने लोगों की बस्ती बस गई है जो सिर्फ उन्हें दिखाई-सुनाई देती है। कभी अचानक तेज़ रफ्तार ट्रैफिक की ओर बदहवास भागते हैं भीतर की कोई आग लेकर। रोज़-रोज़ ये दुगने या तिगुने या उससे भी ज़्यादा होते जा रहे हैं। कितनी दफा सड़क उनका मज़ाक उड़ाती है या अनदेखा करके उन्हें छोड़ देती है। किस को फुर्सत है।

 खलल अपनी पुख्ता शक्ल में मेरे दिमाग में रहने लगे हैं। हर नई जगह यहां-वहां भटकते ,मैं पापा को ढूंढा करती हूं। वरुण और मीता भी मेरी ही तरह जूझते हैं अपने हिस्से के दुख और ग्लानि से। इस जीवन में हमारी मुक्ति हमें संभव नहीं लगती। एक तन्हा और बीमार आदमी की तन्हाई से हम बेखबर रहे और उसकी बीमारी के प्रति घोर लापरवाह।

समय रीत रहा था। अचानक शहर से दूर पापा की खबर देने वाला एक फोन घनघनाया। मुझे वरुण ने बताया। उम्मीदों के हर दरवाज़े पर हमने दस्तक दी थी और आज नाउम्मीदी में एक उम्मीद बनकर फोन आया था। सैकड़ों अज्ञात तूफान तेजी से उठे और धरती-आसमान के बीच अटक गए। सारी दुनिया गति के साथ थी पर मेरे लिए समय रुक गया । तूफान, धरती पर दम लेता तो मेरा समय भी आगे बढ़ता और उसके साथ-साथ खुद मैं भी। शायद अब सब शांत होकर स्थिर ही होने वाला था। डर और निराशा के सभी रंग आज बेरंग होने वाले थे। पापा इतनी पास होकर भी कितनी दूर रहे हमसे। किस हाल में रहे होंगे? कैसे? दिमागी सिलाइयों की उधेड़बुन ने किसी आश्रम का पता एक मशीनी कार्यवाही-सा नोट किया । वरुण और मैं पापा की दिशा में भागे। टिक्कू का बर्थडे था आज। क्या पापा को याद होगा? आज उसे देखकर क्या पहचान पाएंगे ? 

 ‘‘नाम क्या था उनका?’’ आश्रम पहुंचते ही एक नई इनक्वायरी अपने सिरे से शुरू हुई। उनके लिए भी पापा की शख्सियत गुमशुदा थी। एक तेज़ धक्का फिर लगा- पापा ने कभी अपना नाम भी नहीं बतलाया। क्यों पापा सारे ज़माने से खफा अपने भीतर घुट रहे थे? बचपन में हमारे सारे कुसूर अपने सर लेने वाले पापा ने आज हमारे सारे कसूरों की सजा एक साथ दे दी थी।

‘‘  सुरेंद्र कुमार ...’’ बरसों बाद पापा की जगह उनका नाम लिया तो अपने ही कानों को अजीब लगा। पापा और सुरेंद्र कुमार जैसे दो अलग शख्स हो चले थे। दोनों कबसे बिछड़े हुए। आज दोनों न जाने कितने अर्से बाद मिल रहे थे। वरुण का चेहरा बार-बार पापा के बारे में मिट चले आदमी के नक्श पाकर झील-सा हो रहा था। एक ठहरी हुई झील जबकि वो नदी की आस में आया था। और मैं? मैं जैसे सच को सच न मानने पर अड़ी किसी चट्टान में ढल रही थी।

‘‘भूलने की बड़ी बीमारी थी उनको। कुछ भी तो याद नहीं था। किसी से बात नहीं करते थे...इलाज भी चला आयुर्वेदिक..मगर.. वो हमारे पास इतने साधन कहां? हमने बहुत पूछा पर कोई जवाब नहीं मिला। कुछ दिन पहले किसी जगह से उनका फोटो और आपका नम्बर मिला। अक्सर बिस्तर पर ही लेटे रहते थे। बेसुध। हां, दो-एक बार शारदा-शारदा पुकारा, एकाध दफा किसी बिट्टू और गुड्डू जैसा कोई नाम भी लिया। ’’ 

मेरी हिचकियां तड़पकर कहना चाहती थीं मैं ही हूं उनकी बिट्टू  और दूसरी पापा की छुटकी है- गुड्डू, ये उनका वरुण है। बांध तोड़कर बह चले बेरोक पानी को समेटकर मैंने कहा-‘‘कहां मिले थे आपको पापा?’’

‘‘शहर से बाहर एक बस अड्डे पर। लोगों ने बताया कई दिन से वहां पड़े थे। शायद कहीं जाना चाहते थे, हमसे कुछ कहा नहीं। हमारे यहां ऐसे ही लोग लाए जाते हैं। तबसे यहीं ... और बस पिछले साल। कोई पता-ठिकाना था ही नहीं। क्या करते? वो बड़े बीमार थे जबसे आए थे।’’

अर्से से उदास बहती एक नदी के दो पाटों के बीच वरुण एक पुल बना लेने को आतुर था। मुझे यकीन था नदी खिलखिलाएगी और गवाह रहेगा पुल। पापा लौटेंगे तो नदी पर बने पुल से चलता हमारा घर भी लौट आएगा। बरसों से थक चुकी हमारी तनाव की रेखाओं के चेहरे पर अब दूसरी रेखाएं चस्पां थीं। हम लौट रहे थे-अकेले। आश्रम में मृतकों की सूची में अब नम्बर की जगह पापा का नाम था और हमारे हिस्से में पापा की लापता ज़िंदगी का सच। 


परिचय :

प्रज्ञा
जन्म 28 अप्रैल, 1971, दिल्ली
शिक्षा-दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में पी.एच.डी ।

प्रकाशित किताबें :

कहानी संग्रह - ‘तक्सीम’ (2016) 'मन्नत टेलर्स' (2019)
उपन्यास - 'गूदड़ बस्ती' (2017)
नाट्यालोचना-‘नुक्कड़ नाटक : रचना और प्रस्तुति’ राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से 2006 में प्रकाशित। वाणी प्रकाशन से नुक्कड़ नाटक-संग्रह ‘जनता के बीच जनता की बात’,2008 । ‘नाटक से संवाद’ अनामिका प्रकाशन , 2016
बाल-साहित्य- ‘तारा की अलवर यात्रा’, एन. सी . ई. आर. टी से 2008
सामाजिक सरोकारों को उजागर करती पुस्तक- ‘आईने के सामने’, 2013

कथादेश, हंस, पहल, ज्ञानोदय, वागर्थ, पाखी, परिकथा, बया, जनसत्ता, रचना समय, बनास जन, आजकल, इंद्रप्रस्थ भारती, बहुवचन, वर्तमान साहित्य, पक्षधर, निकट, हिंदी चेतना, जनसत्ता साहित्य वार्षिकी, सम्प्रेषण, हिंदी चेतना, अनुक्षण आदि पत्रिकाओं में कहानियां और आलेख प्रकाशित।

पुरस्कार -

सूचना और प्रकाशन विभाग, भारत सरकार की ओर से पुस्तक ‘तारा की अलवर यात्रा ’को वर्ष 2008 का भारतेंदु हरिश्चंद पुरस्कार।

प्रतिलिपि डॉट कॉम कथा -सम्मान, 2015, कहानी ‘तक़्सीम’ को प्रथम पुरस्कार।

जनसंचार माध्यमों में भागीदारी -

राष्ट्रीय दैनिक समाचार-पत्रों और विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं में नियमित लेखन।
आकाशवाणी और दूरदर्शन के अनेक कार्यक्रमों के लिए लेखन और भागीदारी।

रंगमंच और नाटक की कार्यशालाओं का आयोजन और भागीदारी।

राष्ट्रीय स्तर की अनेक संगोष्ठियों में भागीदारी

सम्प्रति : दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज के हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत।
सम्पर्क : ई-112, आस्था कुंज, सैक्टर-18, रोहिणी, दिल्ली-110089
दूरभाष-9811585399