वाइन कलर : सिनीवाली



सिनीवाली की कहानियों को पढ़ते हुए हम सामाजिक परिवर्तन के फलस्वरूप बदलते चेहरों की ठीक-ठीक पहचान कर सकते हैं। बदले हुए चेहरों से बनता समाज देख सकते हैं। उनकी कहानियों के पात्र जमीन से जुड़े होते हैं… अपनी ख़ूबी-ख़ामियों के साथ। वे कथा-लेखन में निरंतर अपनी सार्थकता बनाये रख रही हैं। ग्रामीण पृष्ठभूमि से इतर इस बार उन्होंने कहानी के लिए महानगरीय परिवेश को चुना है। महानगर में रहते हुए उनकी दृष्टि वहाँ के आर्थिक ढाँचे और उसके फलस्वरूप उत्पन्न वर्गीय-संरचना पर गयी है। तो, आइये पढ़ते हैं उनकी कहानी – ‘वाइन कलर’।

वाइन कलर // सिनीवाली

मटमैली रोशनी में कोट को नीचे से उपर की ओर  उसने देखा। फिर तेज रोशनी वाली लाइट जलायी। लाइट जलते ही टंगा हुआ कोट, रोशनी से नहा गया और उसका रंग खिल उठा। होंठों पर एक परत मुस्कान की पसरी और उसका चेहरा कोमल हो गया। वो बुदबुदाया, "वाइन कलर !" उसने हैंगर में टंगे कोट का एक कोना उंगलियों के पोरों से सहलाया। फिर  हथेली उस पर फेरी। सचमुच कितना मुलायम है!

रोमाँचित होते हुए हैंगर बहुत ही सलीके से उतारा और अदब से कोट पहन लिया। पहनते ही उसे लगा, वो अब 'वो' नहीं, कुछ और हो गया है। शायद ऐसा, जैसा वो चाहता रहा है। पहली बार उसे समझ में आया कि कपड़ों के बड़े-बड़े शोरूम, बड़ी-बड़ी कंपनियां और ढेर सारी दुकानें क्यों खुल गयी हैं! क्यों लोग अपनी मेहनत की कमाई कपड़ों पर लुटा देते हैं! आईने में उसने अपने को कई बार देखा। जैसे अपने पर ही मुग्ध हुआ जा रहा हो। 

अब वो पूरी तरह से तैयार हो गया है। लेकिन अभी थोड़ी देर उसे और रूकना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि न्यू ईयर की पार्टी में सबसे पहले वही पहुंचे। लेकिन कोट पहनने के बाद उससे रुका भी नहीं जा रहा। बस स्टाॅप तक पहुंचने में भी समय लग जाएगा। सोचते हुए कमरे का लाइट बंद किया और ताला लगाकर निकल पड़ा। 

बाहर कुहासा रूई के फाहों के मानिंद बिखरा है। बीत रहे साल की अंतिम रात, सर्दी अपने शबाब पर है। लेकिन सड़क पर चलते हुए भी जैसे वो हवा में उड़ रहा है। ठंड और पैदल चलने की थकावट का एहसास उसके आसपास भी नहीं  है। जो भी है, उसके चारों ओर वो गुनगुनी धूप की तरह है। उसके दोनों हाथ कोट की जेब में हैं। चलते-चलते वो बार-बार जेब के भीतर लगे अस्तर के कपड़े को छू-छूकर महसूस कर रहा है, उंगलियां फिसल रहीं हैं। सचमुच कितना मुलायम है! बिल्कुल मखमल की तरह। उससे से अधिक मुलायम और क्या हो सकता है। कई बार उसने सोचा पर वो मखमल से आगे नहीं बढ़ पाया।

अब वो बस स्टॉप पर पहुंच चुका है। वो चाहता तो रोज  की तरह बस का इंतजार कर सकता था। ठंड और कोहरे से लिपटी, बीत रहे साल की अंतिम रात वो यहां इंतजार करते हुए महसूस कर सकता है। या, नए साल के स्वागत में कुछ दुकानों में जो सजावट की गई है, जहाँ रंग-बिरंगी रोशनी थिरक रही है, उसे भी देख सकता है। जिंदगी में भी रंग-बिरंगे लाइट बहुत जरूरी होते हैं। ये सोचकर  कभी-कभी मौका मिलने पर निहारा करता था। बस का इंतजार इस तरह कर सकता था पर, जनाब बस स्टाप पर यूँ चंद मिनट रुके जैसे बासी खाने को कोई हिकारत से देखता हो। 

आती-जाती गाड़ियों को कुछ सेकेंड देखा फिर लगभग मचलते हुए गुज़र रही टैक्सी को हाथ देकर रोका, और खास अंदाज में कोट को संभालते हुए बैठ गया। बस की भीड़ में धक्के खाने की आदत होने पर टैक्सी में सफर... इस खुशी और सुकून को वो कोट की जेब में भर रहा था। पिछली बार कुछ महीने पहले टैक्सी का प्रयोग ऑफिस के किसी काम के लिए किया था। खर्च ऑफिस ने ही उठाया था। बहुत खुश था उस दिन वो। लेकिन अभी अपनी जेब से ये छोटा सा सफर, खुशी और संतुष्टि दोनों दे रहा है। बचपन के एक दोस्त ने खासतौर पर अपनी न्यू ईयर पार्टी में बुलाया है। उसके ऑफिस में साथ उठने-बैठने वाले और वो जो कभी उन्हें भाव नहीं देते हैं वो जब जानेंगे कि इतनी बड़ी कंपनी का जीएम उसका दोस्त है और उसे इसरार करके  अपनी पार्टी में बुलाया है तो उनलोगों की प्रतिक्रिया कैसी होगी! कुछ का मुंह खुला रह जाएगा, जो उनसे जलते-भुनते हैं वो तो जलकर राख हो जाएंगे। जो अभी तक उसे किसी लायक नहीं समझते, वो भी दोस्ती गांठने लगेंगे। वो बस मंद मुस्कराहट लिए देखता रहेगा। ये पार्टी उसके प्रति लोगों का नजरिया बदल देगी। उसके सोचने का क्रम तब रुका जब टैक्सी उसी जगह रूकी , जहाँ उसने कहा था। जिंदगी भी ऐसी ही होनी चाहिए!

इस तरह की बड़ी पार्टी में वो पहली बार जा रहा है। उसे थोड़ी घबराहट भी हो रही है। कई बार कल्पना कर, करके युवक ने अपने को पार्टी के लिए तैयार कर लिया था। हॉल कितना बड़ा होगा ! सजावट कैसी होगी ! कितनी और किस तरह की लाइटें होंगी ? खाने-पीने से लेकर और क्या क्या हो सकता है ? इतने सालों के बाद वो राकेश से किस तरह मिलेगा ? उसे देखते ही अपने चेहरे पर किस तरह का भाव लाएगा ? गले लगेगा या फिर  सिर्फ हाथ मिलाएगा ? हालांकि गले मिलने का मौका मिले  तो ज्यादा अच्छा होगा। पार्टी में आए लोग भी तो जानेंगे कि वह राकेश का कितना करीबी दोस्त है। दोस्त तो बहुत होंगे पर उसकी तरह बचपन का यार...!

गर्म कोट के भीतर उसका खरगोश सा नर्म दिल, रह रहकर अपनी गति से तेज भाग रहा है लेकिन उसे अपनी तैयारी पर भी पूरा भरोसा है। कोई उसे देखकर नहीं सोच पाएगा कि पहली बार इस तरह की पार्टी में शिरकत कर रहा है। अपने आप को मानसिक दबाव से निकालने की लगातार कोशिश कर रहा है। ऐसे में उसे अपने कमरे में अधखुली विंसेंट पील की किताब याद आ रही है। 

अब वो ठीक उस जगह से चंद कदमों की दूरी पर खड़ा है, जहां जाने के लिए उसने वाइन कलर कोट पहना है और इतनी तैयारी की है। पार्टी में बज रहे संगीत की धुन  हवा में तैरती हुई हल्की-हल्की बाहर आ रही है। बाहरी सजावट ही बता रहा है कि भीतर का माहौल कैसा होगा।

बाहर वो कुछ देर खड़ा रहा। रंग-बिरंगी रोशनी की भांति उसके चेहरे पर तरह-तरह के भाव आते-जाते रहे। कुछ देर में अपने कंधे को तानकर सीधा किया, कोट को हल्के हाथों से ठीक किया और भीतर चला गया।   

हॉल में लोगों के बीच आते ही उसके पैर हल्के से काँपे। भीतर से धक्, धक् करते दिल से आवाज आई जो न चाहते भी वह साफ-साफ सुन रहा था। पांच फुट चार इंच के अपने शरीर और अपने भीतर की अजनबीयत को संभालते हुए उसकी नजरें राकेश को खोजने लगीं। क्योंकि, एक वही था जिससे मिलते ही उसे अपने बुलाए जाने की विशिष्टता का अहसास होता।

इसी प्रतीक्षा में वह सोच रहा था कि एक दो वाक्यों में औपचारिक बातों के बाद वो ये जरुर कहेगा कि बहुत मुश्किल से समय निकालकर आ सका है। 'मुश्किल' शब्द पर अधिक जोर देगा। इस पर राकेश या उसके आसपास कोई खड़ा हो तो बोल सकता है कि आज तो ऑफिस भी बंद रहता है, फिर वो आगे मुस्कुराते हुए कुछ सेकेंड रुककर कहेगा, बाकी दोस्तों की पार्टी को छोड़कर आना... इतना बोलकर वो चुप हो जाएगा और चोर नजर से वो राकेश और बाकी लोगों का चेहरा देखेगा। 

कई दिनों से जो मुस्कराहट उसने संभाल कर रखा था, उसे अपने पर चिपका लिया। भीतर आते हुए, हँस-हँस कर बात करते, गले मिलते, हाथ मिलाते लोग अच्छे लग रहे थे। उन्हीं लोगों के बीच वो राकेश का चेहरा तलाश रहा था।

लेकिन उसका दोस्त तो कहीं दिखाई ही नहीं दे रहा था। अब उसकी सरसरी नजर  इधर उधर दौड़ने लगी। ऐसा तो नहीं कि इतने सालों के बाद वो राकेश को पहचान नहीं पाया। 

उस बड़े हॉल में उतने लोगों के बीच भी वह अपने आप को अकेला पा रहा था जैसे किसी टापू पर लाकर उसे छोड़ दिया गया हो। यहाँ से वो किसको आवाज दे ? अपने हाथ-पैर उसे सूखी टहनियों की तरह लगने लगे और दिल  भारी! इन सूखी लकड़ियों को वह कहां रखे, कहां उठाए, कहां बैठाए ! ये सूखी लकड़ियां दिल का भार कैसे उठाएं!

घबराहट होते ही उसकी हथेलियों ने अपनी परिचित जगह, कोट की जेब में जगह बना ली। कुछ पल उंगलियां उस छोटे से जगह में इधर उधर अनजाने ही कुछ टटोलती रहीं। लेकिन उसे इस तरह से नर्वस नहीं होना चाहिए। राकेश ना सही और  लोग भी तो हैं। अपने को समझा कर सामान्य करने में उसे थोड़ा वक्त लगा। कान संगीत सुनने के लिए तैयार हो गए। आँखें डांस कर रहे औरतों-मर्दों को देखने लगीं।

वो हॉल के बीचों-बीच खड़ा होकर गौर से उन्हें देखने लगा। फिर उसे लगा, उसका देखना कहीं घूरने जैसा तो नहीं लग रहा। ये ख्याल आते ही वो वहां से हट गया। अब वो गद्देदार सोफे पर अपनी काया को धँसा कर बैठा देना चाहता था लेकिन कोशिश के बाद भी असहजता बनी रही। वो अपने को म्यूजिक और डांस में डुबा देना चाहता था। लेकिन किनारे बैठे किसी प्यासे की तरह नदी को देखता रहा।

थिरकती औरतों को देखकर वो सोचने लगा। इनमें से कोई राकेश की बीवी भी हो सकती है। उसने फोन पर उसे बताया भी था, कि उसने शादी कर ली है, वो भी लवमैरिज। चलो ये भी अच्छा है, उसने खुद से कहा। पत्नी होगी तो नाचते बच्चों में से कोई उसका बच्चा भी हो सकता है। लेकिन बच्चे के बारे में तो उसने पूछा ही नहीं , और ना ही उसने बताया । फिर वो बच्चों को देखने लगा। अगर होगा तो राकेश से उसका चेहरा जरुर मिलेगा। अब वो अपनी उम्र जोड़ने लगा। क्या उसकी उम्र शादी लायक हो गई है ? इस पर तो उसने गंभीरता से कभी सोचा ही नहीं! घरवालों की बातों को टालता रहा। अचानक उसे लगा, उसकी उम्र इतनी हो गई है, बच्चे नहीं तो कम से कम शादी तो जरुर हो जानी चाहिए।

म्यूजिक और लाइट, नाचती लड़कियां और औरतों की देह ! फिर उनके कपड़ों  पर नजर ठहरी। उफ्... इतनी ठंड में इतने कम कपड़े! कहीं देह न अकड़ जाए। तंग कपड़ों में उठने-बैठने में कितनी दिक्कत  होती होगी, और तो और सांस कैसे ले पाती हैं ? इतनी ऊंची हील, इनके पैरों में तो जरुर दर्द होता होगा !

वो जब शादी करेगा, अपनी या घरवालों की पसंद से तो वो पहले पता जरुर कर लेगा कि लड़की पूरे कपड़े पहनना पसंद करती है या नहीं।

पुरुषों ने पूरे कपड़े पहन रखे हैं । एक से एक बढ़िया ड्रेस। उसने गौर किया, कई लोगों ने कोट पहन रखा है। उसे अच्छा लगा फिर उसने अपनी कोट की ओर देखा और हल्के से मुस्कुरा पड़ा। फिर उसे लगा, वो गजब का बेवकूफ है तभी तो अकेला बैठा फालतू की बातें सोच रहा है। उसे अपना समय बरबाद नहीं करना चाहिए। 

खाली बैठने और फिजूल की बातें सोचने से अच्छा है किसी से बातचीत की जाए। अनजान आदमी से बात करने में भी उसे कोई दिक्कत नहीं है। आसपास नजर दौड़ाई। कुछ ही दूरी पर बैठे एक अधेड़ आदमी पर उसकी नजर टिक गई। वह भी उसकी तरह ही अकेला बैठा है। उसके हाथों में शीशे का ग्लास है। वह घूँट, घूँट पी रहा है। उसके पास जाने से पहले उसने अंदाजा लगाया कि वो किस तरह का आदमी हो सकता है। शोर शराबे से हटकर बैठा है, मतलब गंभीर किस्म का आदमी है या फिर मेरी तरह... ? ऐसे आदमी उसे पसंद हैं। अधिक नहीं बोलते, जिससे सामने वाले को राहत मिलती है। लेकिन ऐसे लोगों की आँखें उसे खतरनाक लगती हैं। लेकिन कुछ देर की ही तो बात है। आँखों से क्या लेना देना, उसे ये सोचकर भी अच्छा लगा कि उस आदमी ने भी कोट पहन रखा था। हां तो वो नववर्ष... ऐसा कुछ बोलकर बात शुरु नहीं करेगा। नहीं हिंदी नहीं , अंग्रेजी में  हैप्पी न्यू ईयर बोलेगा। इमप्रेशन डालने के लिए अंग्रेजी जरूरी है। सामने वाला सेम टू यू बोलेगा, बस बात आसानी से शुरु हो जाएगी। राकेश के आने तक टाइमपास हो जाएगा। 

ये सोचकर उसने अपना कोट हल्के हाथों से ठीक किया, फिर साफ्ट ड्रिंक का ग्लास लेकर ताजगी भरी मुस्कुराहट लिए उस व्यक्ति के सामने खड़ा होते हुए बोला," हैप्पी न्यू ईयर!" बोलते हुए उसकी नजर उस अधेड़ व्यक्ति के चेहरे पर गई फिर उसके कोट पर ठहर गई। आँखों ही आँखों में, दोनों ने एक-दूसरे का कोट देखा। एक ही जैसा कोट... बस रंग अलग है, उसका ग्रे कलर है। कहीं ये कोट भी... वो थोड़ा असहज हो गया।

नहीं... एक जैसा होने का मतलब वही हो जैसा वो सोच रहा है कोई जरुरी तो नहीं। फिर उसने तय किया कि दोनों कोट जरूर एक जैसे हैं लेकिन उसका कोट अधिक अच्छा है क्योंकि ये वाइन कलर का है। वो उस आदमी के पास बैठ गया। सामने वाला लगभग बुदबुदाते हुए  "सेम टू यू " अपने ग्लास की तरफ देखता हुआ बोला। जहां तक सोच कर आया था वहां तक तो बात हो गई। अब आगे... बात करने के लिए जब कुछ न हो और सामने वाले से बात भी करनी हो तो... तो उसने तय किया कि अपना कोट बेहतर होते हुए भी बेतरह और बेसाख्ता इस आदमी के कोट की तारीफ करेगा, वो खुश होगा, फिर आगे तो कुछ न कुछ बोलेगा ही।

उसने अपने कोट को स्टाइल से पकड़ते हुए सामने वाले कोट को नाइस कोट कहा। सामने वाला हल्के नशे में था, बुदबुदाया, "फाइव हंड्रेड!"

'फाइव हंड्रेड' ! सुनते ही वो खड़ा हो गया जैसे  ग्लास में  सॉफ्ट ड्रिंक नहीं करंट का  घोल  हो। ड्रिंक छलक कर उसके कोट पर गिर गया। अपने कोट की ये हालत देख कर वो मन ही मन चिढ़ कर सोचने लगा, ये आदमी जितना गंभीर अपने आप को दिखाने की कोशिश कर रहा है उतना है नहीं ! सामने वाले  के ऊपर गंभीरता का रंग जो उसने खुद ही चढ़ाया था उसे उतरता हुआ नजर आने लगा जैसे रंगे हुए काले बाल रंग गिरने के बाद बदरंग से हो जाते हैं।

" फाइव हंड्रेड "! उसके कान के पर्दे से बार बार टकरा रहे थे। उसे लग रहा था वो व्यक्ति आईना हो और वह उसमें अपने आप को देख रहा है। सॉफ्ट ड्रिंक से भींगे कोट की जगह को छूते हुए  वह सामने वाले से बोला,"  अभी आया।" इतना सुनते ही उस आदमी के चेहरे पर अर्थपूर्ण मुस्कान चमक उठी। वो वहां से निकल तो आया लेकिन उस आदमी की चुभती हुई मुस्कान भी उसके साथ-साथ चली आई। 

वो यहाँ असहज होने तो नहीं आया था। कितना मुश्किल होता है इस हालत में रहना, जब सामने वाले से नजरें चुराते हुए खुद को हिम्मत भी देनी होती है। इस समय अपने भीतर हिम्मत लाना, छोटे-छोटे पत्थर के टुकड़े बटोरने जैसा लग रहा है उसे। उसकी सांसें कुछ चढ़ी हुई थीं और दिल कुछ बैठा हुआ।

अब वो  जल्दी से नाचते-झूमते लोगों के बीच जाना चाहता है जहां सब नशे में डूबे हैं। म्यूजिक का नशा, छलकते जाम का नशा, चढ़ती रात का नशा, रुपये का नशा, नशा...नशा...नशा ! बस और कुछ नहीं ! सभी इस नशे में डूबे हुए! नशा कितना अच्छा होता है ! जो लोगों के बीच अंतर नहीं करता। ऐसी दुनिया में ले जाता है जहाँ वो जाना चाहता है।

लेकिन उस पर ये नशा कैसे चढ़े...! वो सोच रहा है क्या सिर्फ उनके बीच खड़ा होने भर से ये नशा काम कर जाएगा या फिर...!

उसे इतना नहीं सोचना पड़ता अगर राकेश आ गया होता। इतने लोगों के बीच एकदम अकेला है वो, राकेश के आने से उसे हौसला मिलता और उससे मिलने के बाद वो जब चाहे जा भी सकता था। अभी चला गया तो उसका यहां आना, इतनी तैयारी, टैक्सी का किराया और ये वाइन कलर कोट, सब बेकार हो जाएगा। उसे कोफ़्त होने लगी। एक बार कहने पर उसे नहीं आना था। बस एक फोन पर दौड़ा चला आया, शायद उसे इतनी बड़ी पार्टी में आने का लोभ था।

राकेश ने तो उसके बारे में ज्यादा कुछ पूछा भी नहीं, अपनी ही सुनाता रहा। इतनी बड़ी कंपनी में इतने बड़े पद पर है। लेकिन उसे इतना जमाने की क्या जरूरत थी ! भई, ऐशो आराम और शानो शौकत ही बता देता है सबकुछ। उसके बारे में तो बस राकेश ने इतना ही पूछा," कैसा चल रहा है?"

"सब मजे में है"

"मजा तो होगा ही... पढ़ने में तुम बहुत अच्छे थे। तो फिर मिलते हैं, न्यू ईयर पार्टी में, वहीं मुलाकात होगी अब तो, अभी रखता हूं और लोगों को भी इनवाइट करना है।" 

"लेकिन..."

"लेकिन-वेकिन नहीं सुनूंगा... टाइम तो निकालना ही होगा, कुछ महीने में मैं भी यू एस शिफ्ट हो जाउंगा... फिर पता नहीं कब मिलना हो... जरुर आना।"

कहते हुए उसने अपनी बात खत्म कर दी थी। वो भी कितना कमअक्ल है। बात के पीछे की बात को क्यों नहीं पकड़ पाया। उसे आए तो पैंतालिस मिनट से ऊपर हो रहा है और राकेश है कि अभी तक आया ही नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि वो इग्नोर कर कर रहा हो या फिर...

फिर उसने सोचा, क्या सोच रहा है वो ! पार्टी में सभी तो इंतजार कर रहे हैं उसका, सभी खुश हैं तो वो ऐसा क्यों सोच रहा है। छोटी छोटी बातों को पकड़ लेना हीन भावना की निशानी है। वो भला ऐसा क्यों सोचेगा। ऐसा, वैसा, कैसा... वो सोच ही रहा था कि वो  टकराया उससे... जिसे हुस्न कहते हैं!

एकाएक उसे लगा, गर्म हवाओं के थपेड़ो के बीच अचानक रेशमी ढलान से फिसलते हुए वो रंग बिरंगी फूलों की घाटी में गिर पड़ा हो।

सुगंधित घाटी ने अपनी अदा में मुस्कान का हल्का सा नशा घोलते हुए 'हाय' बोला।

लेकिन गिरना तो आखिर गिरना ही है चाहे फूलों की घाटी ही क्यों न हो... आखिर संभलना तो पड़ता ही है। ये अलग बात है कि हर बार संभलना बस संभलने के लिए नहीं होता। चिकनी नजर से उसे देखते हुए हल्के से अपना कोट ठीक किया फिर 'ह... हाय' बोला।

"हाय हैंडसम, आई नोटिस आप अकेले हो इस पार्टी में..."

जब तक वो कुछ बोलता लड़की आगे बोली, " आई आलसो फील लाइक यू।" 

मतलब ये लड़की भी अकेली है। उसे लगा उसने कुछ गलत सुन लिया है, जब तक वो कोई शब्द चुनता उसके अकेले होने पर अपनी खुशी जाहिर करने के लिए लड़की बोली, " कैन वी वेलकम न्यू ईयर टूगेदर?"

इस ऑफर के लिए वो कहीं से भी  तैयार नहीं था, जब तक वो कुछ बोलता उसकी चिकनी नजर लड़की के कपड़ों पर ठहर गयी। लड़की ने ऐसे कपड़े पहन रखे थे जो उसे पसंद नहीं हैं। इसलिए वो ना ही कहेगा। मन में जो आए उसे ज़ुबां तक लाने के लिए कुछ पल तो रुकना ही चाहिए, फिर उसने आगे सोचा लेकिन... कुछ देर की तो बात है, वो भी अकेला बोर हो रहा है। उसे भी कंपनी मिल जाएगी और तब तक राकेश भी आ जाएगा। लड़की के लिबास से उसे क्यों शिकायत हो भला! कपड़े तो इंसान की पहचान नहीं होते। फिर लड़की का ये व्यक्तिगत मामला है आजकल क्या कहते हैं इसे आजादी हां फ्रीडम ।तो इस फ्रीडम का उसे सम्मान करना चाहिए।लेकिन आज तक इतनी माडर्न और हाई सोसायटी की लड़की से उसने बात तक नहीं की। वो कैसे सहज रह पाएगा। फिर उसे लगा वो ऐसा क्यों सोच रहा है। उसमें क्या कमी है, सुंदर है, स्मार्ट है और उसने इतना सुंदर कोट भी पहन रखा है। फिर उसके ऑफिस में लड़कियां काम करती ही हैं। मिडल क्लास की होने से क्या होता है, है तो लड़की ही। थोड़ी देर की तो बात है फिर इतना क्या सोचना। और फिर लड़की खुद ही उसके पास आई है। उसमें ऐसा तो कुछ नजर आया होगा तभी तो।

उसे जरूर हाँ कह देना चाहिए। 

इतनी मशक्कत के बाद हाँ लफ्ज़ ज़ुबां पर आ ही रहा था कि लड़की ने उसका हाथ अपने हाथों में ले लिया। पहली बार उसके हाथ में  इतना मुलायम, नाजुक-सा कुछ आया था। उसके कोट से भी अधिक मुलायम। उसके भीतर का दिल जो कुछ देर पहले भारी सा लग रहा है वो तितली की तरह पंख हिलाने लगा। उसने बहुत ही रोमांच और सलीके से उन हाथों को पकड़ लिया। 

लड़की मुस्कुराते हुए बोली, “ लेट्स डांस "

डांस! कभी किया नहीं उसने, लेकिन ये बात वो बोल भी नहीं सकता। संभलते हुए बोला, "डांस करते हुए बातों का मजा नहीं आएगा... वहां बैठकर तसल्ली से ...।"

बोलते हुए अपने चेहरे पर चमकदार मुस्कान लाने की कोशिश करने लगा। 

‘ऑफकोर्स’, बोलते हुए लड़की ने एक कोने में रखे हुए सोफे की ओर आंखों से इशारा किया और लगभग हाथ खींचते हुए उधर ले गई।

लड़की का इस तरह से खींचकर ले जाना उसे अच्छा लगा। अपनी ओर से वो भी इसी तरह का कुछ करना चाह रहा था। लेकिन अचानक से चाह कर भी वो कुछ ऐसा नहीं कर पाया। ऐसी हालत में मुस्कान का एक टुकड़ा उसके होठों पर ठहरने से पहले चला गया। इधर-उधर देखने और अपने को सहज रखने में उसकी कभी आंखें नाच उठती तो कभी भौहें, तो कभी कंधे उचक जाते। उसके हाथों को कुछ नहीं सूझ रहा था तो हथेलियां आपस में रगड़ाने लगीं। उसे अपना ही व्यवहार अटपटा लग रहा था। 

" लवली कलर" लड़की के रंगीन होठ बोल पड़े। 

"थैंक्स" अपने कोट पर सरसरी निगाह डालते हुए बोला।

"यू नो, दिस इज माय फेवरेट कलर, रोमांटिक गाय वीयर दिस कलर। इश्क के नशे में डूबा हुआ।"

वाइन कलर और इश्क ! उसने तो कोट लेते हुए इस तरह से सोचा भी नहीं था।  

"एक बात बताऊँ, ये मेरा लकी कलर है... "

"इंपोर्टेड ?!"

"हां, न्यूयार्क से लिया था।" ये क्या हो रहा है उसे, बिना सोचे समझे कुछ भी बोले जा रहा है। ये तो सरासर झूठ है! न्यूस्टार से लिया है ये तो। चौक से बाएं मुड़कर जो ... वहीं से। कल फिर वहां जाना है उसे।

 "ओे हैंडसम", बोलते हुए लड़की और करीब  हो गई और  हाथ को अपने हाथ में फिर ले लिया। 

झूठ के बाद ये इनायत! लड़के ने इधर उधर देखा। सब अपने में डूबे थे। लड़की का इतना सटकर बैठना उसे अच्छा तो नहीं लगा... पर बुरा भी नहीं लगा।  लड़की ने जो कपड़े पहने थे, उसे वे अच्छे लगने लगे। आखिर जीने का अपना अपना  तरीका है। बुराई कपड़े में नहीं, सोच में होती है।

"न्यूयार्क फिर कब जाना है?"

फूलिश नहीं बनाना चाहता था पर फरवरी बोल गया।

"हाउ स्वीट, वी वुड सेलेबरेट वेलेंटाइन टुगेदर !"  

उसे समझ में नहीं आ रहा था। वो बोलना कुछ चाह रहा है, बोल कुछ और रहा है। लड़की कुछ और ही समझ रही है। 
ठीक है इतनी बड़ी पार्टी में वो आया है इसका मतलब ये तो नहीं कि वो अपने को भूल जाए। ये भी ठीक है वो इतना अच्छा कोट पहन कर आया है लेकिन अपनी हैसियत उसे याद है। वो अब साफ साफ बोलेगा। अपने को संभालते हुए बोला "हां तो बात ये है कि..."

हाँ! सुनते ही लड़की कोयल की तरह चहक उठी।

" पता था कि तुम हाँ ही कहोगे।"

उसने घबराहट में भी गौर किया कि लड़की आप से 'तुम' पर उतर आयी है। अब आगे का अंदाजा लगाया उसने । क्या पता डार्लिंग, स्वीटू जानू... क्या-क्या बोल दे।

"लेकिन मेरे हाँ का मतलब..." वो बोलते हुए खड़ा हो गया। 

"हाँ का मतलब बस हाँ  होता है।" लड़की ने हाथ पकड़ कर उसे बैठा लिया। 

"आप मेरे बारे में क्या जानती हैं?"

"वही जो आपके दोस्त और मेरे जीजू ने मुझे बताया है।"

"मतबल आप मुझे जानती हैं, मैं कौन हूं, क्या करता हूं?"

"डार्लिंग, हाउ सिली आर यू !" 

डार्लिंग और सिली, दोनों एक साथ सुनकर वो समझ नहीं पा रहा था कि ये लड़की उसे बेवकूफ समझती है या...

"यू आर सो नर्वस...  जैसे मैं आपकी पोल खोलने जा रही हूं, टेक इट ईजी। इत्मीनान से बैठिए। मेरे जीजू का दोस्त कोई ऐसा वैसा नहीं होता। उनके स्टैंडर्ड के हिसाब से ही होता है। वो इन बातों का बहुत ख्याल रखते हैं।"

स्टैंडर्ड! तो उसे दोस्त मानकर नहीं बल्कि...ऐसी बात थी तो राकेश को उसी समय खुलकर बताना चाहिए था। इस तरह यहाँ बुला कर बेपर्दा तो नहीं करना चाहिए। छुपी हुई बेइज़्जती और गुस्से से उसका दिल फिर भारी भारी सा लगने लगा। उसके अब यहां रुकने का कोई मतलब नहीं है। उसे अब जितनी जल्दी हो यहां से जाना चाहिए। सोचते हुए उठ खड़ा हुआ।

"जीजू ने कहा था कि आप आ रहे हैं। उन्हें देर होगी आने में तो मैं आपका ख्याल रखूं।  यू आर लुकिंग सो हैंडसम। " बोलती हुई लड़की ने फिर हाथ खींच कर बैठा लिया।

"आपका कोट, वो क्या कहते हैं, चार चाँद लगा रहा है "

"आप बिजनेस करते हैं या..."

क्या जबाव दे वो ! अचानक उसे गला सूखा सूखा सा लगने लगा।

शीशे का ग्लास हाथ में पकड़ाती हुई वो बोली, " कोहिनूर ढूंढ निकालने का हुनर हम जानते हैं।"

" कोहिनूर फकत कांच का टुकड़ा भी तो हो सकता है।" 

अब उसे लगने लगा, पानी सिर के उपर जा रहा है । अपनी इतनी बेइज्ज़ती तो किसी भी हाल में बर्दाश्त नहीं कर पाएगा। हो सकता है उसका दिल... दूसरी दुनिया के सफर पर निकल जाए। ये लड़की जैसा सोच रही है वो वैसा है नहीं। समझदारी इसी में है कि इज्ज़त के साथ यहां से निकल लिया जाए। 

बहुत जरूरी काम... लेकिन इतनी रात को यह बहाना नहीं चलेगा। उसे घबराहट सी होने लगी। सकारात्मक सोच वाली किताबों के पन्ने फड़फड़ाते हुए नजर आने लगे। लड़की क्या बोल रही है, आगे क्या बोलेगी अब इसमें उसकी कोई दिलचस्पी नहीं रही।

" सो रोमांटिक वेलकम ऑफ न्यू ईयर !" 

आवाज थोड़ी बदली हुई है पर इस आवाज को वो पहचानता है। गरम साँसों के बीच एक छोटी सी ठंडी सांस ली उसने। 

"यार, इस तरह क्यों देख रहे हो, मैं तुम्हारा दोस्त राकेश... अच्छा, अच्छा, तुम दोनों को डिस्टर्ब किया।" बोलता हुआ शरारत भरी हंसी हंसने लगा। 

"ओ जीजू , आप भी ना!"

"मेरे देर से आने पर तुम्हें अकेलापन नहीं फील हुआ होगा!" 

वो लगभग झपटता हुआ राकेश के बगल में खड़ा हो गया। क्या क्या सोचकर आया था, हाथ मिलाएगा, गले लगेगा, सब भूल गया। अपनेपन, घबराहट, शिकायत भरी नजर से उसे देखे जा रहा है। बगल में खड़ी लड़की धीमे-धीमे मुस्कुराती रही।

"तुम लोग बातें करो। मैं सबसे मिलकर आता हूं।" 

तब तक जैसे उसे होश आया, "नहीं तुमसे तो अभी ठीक से मिला भी नहीं। कहीं अकेले बात..."

"पहले सबसे मुखातिब हो जाऊं, फिर..." बोलते हुए राकेश चला गया। 

लड़की ने बलखाते हुए कहा, "आज जीजू के पास टाइम कहां है? ऐसा करते हैं, नेक्स्ट संडे हम आपके घर आते हैं। फिर फुर्सत से बातें होंगी।" 

नेक्स्ट संडे! जैसे किसी ने उसके सिर पर हथौड़ा मारा। 

"तब तक तो तुम हो ना इंडिया में"

अब वो क्या करे, बोल दे सच! लेकिन, अगर, मगर जैसी पशोपेश की स्थिति में फंस गया । इस सर्द रात में भी वह पसीने-पसीने होने लगा। ये बूंदें उसकी कनपटी और ललाट पर चमकने लगे।

लड़की लगभग झकझोरते हुए बोली, "ये क्या हुआ ? आपकी तबीयत तो ठीक है ना! लगता है आप काम का प्रेशर बहुत लेते हैं। इतना आसान भी नहीं होता सबकुछ हैंडिल करना, मैं देखती हूं जीजू कितने बिजी रहते हैं। चलिए वहां बैठकर रिलैक्स..."

राहत तो अब बाहर जाकर ही मिलेगी। वो अब और इस जाल में नहीं फंसना चाहता था। कोई भी बहाना कर वो निकल जाएगा यहां से। तब तक उसने देखा वो अधेड़ आदमी जिसके हाथ में इस बार शीशे का ग्लास नहीं था, लड़की की ओर अर्थपूर्ण मुस्कान लिए बढ़ रहा था। लड़के की घबराहट ने फिर ऊंची छलांग लगाई। उस आदमी ने  एक्सक्यूज मी कहते हुए लड़की को हटाकर दूसरी तरफ ले गया।

इसका मतलब है कि बहुत देर से वह मेरे ऊपर नजर रख रहा था। अब वो लड़की से फुसफुसाकर  मेरी ही ओर देखकर कुछ बोल रहा है। जरूर मेरे बारे में बता रहा होगा। लेकिन वो आदमी तो पहली बार मुझसे आज ही मिला है, मेरे बारे में वह क्या जानता होगा ! जैसे मैं उसके बारे में कुछ भी नहीं जानता। सिर्फ एक तरह का कोट होने से क्या होता है। मैं बेकार ही घबरा रहा हूँ। लेकिन फिर वो इस तरह मुस्कुरा क्यों रहा है। जैसे मुस्कान के नश्तर से ...!

हर डर बेकार तो नहीं होता। समझदार के लिए इशारा ही काफी होता है। अब उसकी घबराहट सारी हदें तोड़कर नियंत्रण से बाहर होने लगीं। वो अपने कोट के किनारे को मुठ्ठी में भींचकर सोच रहा है, वो बूढ़ा उसके कोट को देखते ही अजीब ढ़ंग से मुस्कुराया था। उसी समय उसे समझ लेना चाहिए था। पता नहीं अब वो लड़की इस बात को किस तरह लेगी, क्या रिएक्शन होगा। काँच का टुकड़ा उसके पूरे देह में चुभने लगा। फिर भी वो भागने से पहले एक चोर नज़र लड़की पर डालना चाहता है, लड़की की आँखें और चेहरे... कि तभी लाइट चली गई। शोर और रोशनी के बीच अचानक अंधेरा पसर गया।

उसे लगा, उसके कमरे का अंधेरा, जिसे वह वहीं छोड़ आया था, उसके साथ-साथ ही चला आया और उसे पता भी नहीं चला। वही अंधेरा अब यहां भी पसर गया है।

उसने  कोट को अपने दोनों हाथों से इतना कसकर पकड़ लिया फिर भी उसे लग रहा था किसी ने जबरन उसका कोट उसके शरीर से खींच कर हवा में उछाल दिया हो। अब वो बस मुँह फाड़े कोट को नीचे गिरते हुए  देख रहा है। उसके पेट में कुछ ऐंठ रहा है, वो बोलना चाह रहा है। बहुत मुश्किल से गले तक आवाज आई पर बाहर नहीं निकल सकी।नउसके भीतर की मामूली और मुड़ी-तुड़ी शर्ट उसकी हालत बयां कर रहे हैं। अब दोनों हाथों से उसने अपना जूता कसकर पकड़ लिया है कोई उसके जूते भी न उतार फेंके, उसकी फटी जुराबें...! उसे लग रहा है पार्टी का तमाशा वही बन गया है। लोग चारों ओर उसे घेर कर ठहाके लगा रहे हैं। सभी के दाँत बहुत बड़े-बड़े हो गए हैं। सबसे आगे वही लड़की खड़ी है और सबसे तीखी हंसी उसी की है। उसे महसूस हो रहा है कि उसे जलील करने के लिए ही उसे यहां बुलाया गया था। जैसे शिकारी शिकार करके खुश होता है उसी तरह ये लोग भी...  उसका वाइन कलर कोट वहीं चमचमाते फर्श पर गिरा सबके जूतों से कुचला जा रहा है।

लेकिन क्या जरूरत थी उसे इस पार्टी में आने की ! आया भी तो कोट पहन कर क्यों आया! धीरे धीरे अपने को समेट कर अब वो कोट की तरफ बढ़ने लगा। कुचले जा चुके कोट को उठाकर वो अब खुद उसे फाड़ देना चाहता है कि किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखकर उसे झकझोरा।

उसने देखा, लाइट तो आ चुकी है। सामने राकेश उससे कुछ बोल रहा है।

"तबीयत तो ठीक है न तुम्हारी!"

" आं ...हां"

"तो फिर इस तरह से यहां अकेले कोने में क्यों खड़े हो , घबराए हुए से लगते हो... चलो वहां बैठते हैं ।"

उसने अपने शरीर की पूरी ताकत को समेटते हुए कहा "अभी मुझे जाना ही होगा"

"अब तो न्यू ईयर वेलकम कर के ही जाओ।"

"नहीं!"

उसने अपने कोट की जेब में हाथ डालते हुए  ठंडी अंगुलियों की मुट्ठी बनाते हुए बोला। अपनी बेजान देह के सूखे डंठल को समेट कर लगभग घसीटते हुए पार्टी से बाहर चला आया। उसके बाहर आते ही रंग-बिरंगे पटाखे काली रात को रोशन करने लगे और हैप्पी न्यू ईयर की आवाजें आने लगीं।  

सड़क पर बहुत ठंड थी और कुहरा घना था। पटाखों की रोशनी कुछ देर और कुछ दूर तक ही थी। तारीख और साल बदल गया। लेकिन वक्त... ! 

बस से कुछ मिनट का रास्ता था। लेकिन वह स्टाॅप पर आकर रूका नहीं, चलता चला गया। इस कोट में अब उसे ठंड लग रही थी जबकि जाते समय यही कोट कितनी गर्माहट दे रहा था। जेब में रखी हथेलियों को मखमली कपड़े  में भी अब उसे कांटे चुभ रहे थे। उसने हाथ बाहर कर लिया। सिगरेट की तलब उसे कब से हो रही थी। होठों पर सूखापन पसरा था। कंठ में तल्खी हो रही थी। जेब टटोला, महीने का आखिरी दिन, जेब की जो हालत होती है, वही थी। 

भारी कदम लिए चलते-चलते वो बुरी तरह थक गया, लेकिन अब वो किराए के अपने कमरे से कुछ ही दूरी पर था। सड़क से गुजरते हुए उसने उस दुकान को कई बार मुड़कर देखा। वह बंद थी और कोहरे से घिरी हुयी थी। यहीं कई बार उधार देने से मना करने पर इसरार करके अपने आत्मसम्मान का छोटा-सा टुकड़ा गिरवी रखकर सिगरेट का पैकेट लेता था। अगर दुकान खुली होती तो क्या आज सिगरेट खरीद पाता! खुद को टटोलते हुए जा रहा थ।

कमरे पर पहुंचकर ताला खोला। अंधेरा कमरा उसका इंतजार कर रहा था। उसने लाइट जलाई, देखा हैंगर वहीं बिछावन पर रखा है। लेकिन कुछ और जो छोड़कर गया था, वो बिल्कुल बर्फ हो चुका है। उसका जी चाहा, कोट देह से नोंच कर कोने में फेंक दे। लेकिन वो ऐसा नहीं कर सकता था क्योंकि कोट किराए का था। 

कोट हैंगर में टांगकर टेबल पर रखी डायरी में नोट किया- कोट का एक दिन का किराया, पांच सौ रुपये!

लेखक परिचय :

नाम-सिनीवाली 

जन्म-भागलपुर (बिहार)

शिक्षा-एस एम कालेज, भागलपुर से

मनोविज्ञान से स्नातकोत्तर, इग्नू से रेडियो प्रसारण में पी जी डी आर पी कोर्स

बचपन से गाँव के साथ साथ विभिन्न शहरों में प्रवास

कहानी संग्रह ' हंस अकेला रोया ' प्रकाशित, 

कई साझा संग्रहों में कहानियां शामिल।

हंस, आजकल, कथानक, पाखी, कथादेश, नया ज्ञानोदय, परिकथा, लमही, इन्द्रप्रस्थ भारती, बया, निकट, माटी, कथाक्रम, विभोम स्वर, अंतरंग, दैनिक भास्कर, प्रभात खबर, दैनिक जागरण, आदि पत्र पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित।

हिंदी समय, गद्यकोश, समालोचन, बिजूका, जानकीपुल, शब्दांकन, स्त्रीकाल, पहली बार, लोकविमर्श, लिटरेचर प्वाइंट, रचना प्रवेश, साहित्यिकी ब्लाग, स्टोरी मिरर, प्रतिलिपि, नोटनल आदि ब्लॉग पर भी कहानियाँ प्रकाशित।

सार्थक ई- पत्रिका में कहानी प्रकाशित।

अट्टहास एवं विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में व्यंग्य प्रकाशित।

नोटनल पर ई-बुक प्रकाशित, 'सगुनिया काकी की खरी खरी'

‘करतब बायस’ - कहानी का नाट्य मंचन हिन्दी अकादमी, दिल्ली के द्वारा

हिंदी रेडियो, शिकागो से कहानी वाचन का कार्यक्रम 

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आर्टिकल 15 के बहाने : नरेन्द्र कुमार


‘आर्टिकल 15’ यानी समानता का अधिकार क्या है, इसे एक आमजन नहीं जानता है। हाँ, प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करनेवाला रट्टामार अभ्यर्थी इसे शब्दशः बता सकता है कि किसी नागरिक के धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर राज्य द्वारा विभेद नहीं किया जाएगा या उसे इन आधारों पर किसी सार्वजनिक स्थलों पर जाने में रोक-ठोक न होगी।

यह तभी संभव है जब राज्य अपनी परिभाषा के अनुसार आदर्श रूप में हो। जब हम-आप कहते हैं कि सिस्टम ही खराब है तो राज्य की आदर्श स्थिति की कल्पना ही बेकार है। फिर समानता का अधिकार दिलाएगा कौन? ‘आर्टिकल 15’ फ़िल्म में यही दिखाया गया है कि एक पक्षपात रहित सिस्टम ही किसी शोषित-पीड़ित को न्याय दिला सकता है। केरल का वाकया हुए कितने दिन बीते हैं, जब स्त्रियों के मंदिर प्रवेश पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद तनातनी बनी रही और देश की बड़ी पार्टी ने प्रवेश पर रोक का ही समर्थन किया तथा वहाँ की सरकार भी पूरी तरह एक्शन की स्थिति में नहीं थी।

एक और बात पर बार-बार ध्यान जाता है कि नागरिकों के अधिकार उनकी आर्थिक स्थिति के अनुसार सुलभ या दुर्लभ तो नहीं होते जा रहे हैं। क्या समानता का अधिकार में ही धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान के साथ आर्थिक आधार को जोड़ने की पहल नहीं की जा सकती। आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जा सकता है तो समानता का अधिकार क्यों नहीं? कहने को सरकार द्वारा पूर्णतः या अंशतः पोषित होटल, संग्रहालय, चिड़ियाघर, पार्क, ऐतिहासिक स्मारकों जैसे सार्वजनिक स्थलों पर जाने की मनाही धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर नहीं है… लेकिन क्या बिना आर्थिक सक्षमता के इन जगहों पर प्रवेश किया जा सकता है? हम बात करेंगे दलितों-शोषितों के विकास की… समाज के अन्य वर्गों के साथ उनके समानता की, लेकिन उनके रास्ते को बाधा-दौड़ का रास्ता बना देंगे। 
अब बात करते हैं फ़िल्म की तो शुरुआत ही भारत बनाम इंडिया से होती है। हाइवे पर अयान रंजन (आयुष्मान खुराना) की गाड़ी चली आ रही है। बगल में नेहरू की ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ रखा हुआ है और बॉब डिलन का गीत हेडफोन लगाकर अयान रंजन सुन रहे हैं। समानांतर रूप से बारिश में एक झोंपड़े के पास गरीब-दलित लोग एक गीत गा रहे हैं। इसे कई तरह से पहले से गाता जा रहा है, जिसका इस्तेमाल निर्देशक अनुभव सिन्हा ने बखूबी किया है। आप भी पढ़िए –

कहब त लाग जाइ धक से 
कहब त लाग जाइ धक से 

बड़े बड़े लोगन के महला-दुमहला 
और भइया झूमर अलग से 

हमरे गरीबन के झुग्गी-झोपड़िया 
आंधी आए गिर जाए धड़ से 

बड़े बड़े लोगन के हलुआ पराठा 
और मिनरल वाटर अलग से 

हमरे गरीबन के चटनी औ रोटी 
पानी पीएं बालू वाला नल से 

बड़े बड़े लोगन के स्कूल-कॉलेज
और भइया ट्यूशन अलग से

कहब त लाग जाइ धक से

गाड़ी का ड्राइवर चन्द्रभाल कहानी कहता जाता है… कि जब श्रीरामचंद्र अयोध्या लौट रहे थे तो पूरी अयोध्या में घी के दीये जलाये गये। रास्ते में पड़ने वाले सारे गाँवों में दीये जल रहे थे। एक गाँव में अँधेरा था। रामजी की नज़र गयी तो उन्होंने पूछा कि यहाँ दीये नहीं जलाये गये हैं, तो गाँववालों ने कहा था कि जलाये तो हमने भी थे, पर ऐसी आँधी चली कि सारे दीये बुझ गये। फिर हमने देखा कि अँधेरे में से देखने पर महल और जगमग लग रहा है, इसलिए रहने दिए।

हाइवे पर चलती हुई गाड़ी लालगाँव पहुँचती है, जहाँ अपर पुलिस अधीक्षक का प्रभार अयान रंजन को लेना है। वहाँ अयान स्वीकार करता है कि यह उसकी पनिशमेंट पोस्टिंग है। पूरा खाया-पीया सिस्टम से भेंट होती है… पूँजीवाद, सामंतवाद और भ्रष्ट सिस्टम का आइकॉन पुलिस अधिकारी ब्रह्मदत्त सिंह यहाँ है, जिसके रोल में मनोज पहवा ने जान डाल दी है। वह ठाकुर है और सरनेम सिंह लगाना पसन्द करता है… कुत्तों को बिस्कुट खिलाता है और गरीबों से नफ़रत करता है… ठेकेदार अंशु के जायज-नाजायज कामों का साथी है।

दो दलित लड़कियों को सामूहिक बलात्कार के बाद पेड़ से लटका दिया जाता है। यह एक संदेश है दलित-पिछड़ों के लिए कि अपनी औकात में रहें। मात्र तीन रुपये की मजदूरी बढ़ाने की बात ठेकेदार द्वारा नहीं माने जाने पर उनके काम छोड़ने के पश्चात यह घटना होती है। तीसरी लड़की बच कर भागती चली जाती है, जो अंत में भूखी-प्यासी जंगल में बेसुध पड़ी मिलती है। अपर पुलिस अधीक्षक जो इस भारत को नहीं जानता या कहिये कि उसके माँ-बाप आज के संपन्न माँ-बाप की तरह उसका परिचय इस दुनिया से होने नहीं देते… का क्रमशः विकास दिखता है और वह दृढ़ निश्चयी होकर अपना काम करता है। इस फ़िल्म का हीरो सिंघम टाइप नहीं है, जो सीधे चीफ माफिया पर हाथ डाल देता है। यहाँ व्यवस्था में बदलाव की कोशिश दिखती है।

फ़िल्म के विरोधी कहते हैं कि इसमें ब्राह्मणों, ठाकुरों सहित एक वर्ग को विलेन दिखाने की कोशिश हुई है। जबकि कोशिश तो ब्राह्मण को उदार दिखाने की हुई है। नायक को उदारवादी दिखाया गया है, लेकिन विडंबना देखिये, वह भी कचड़े हटाने तथा सीवर साफ करने के लिए एस सी जातियों को ढूंढता है, उनके नेता निषाद से संधि करता है और निषाद इसकी मंजूरी दे देता है। ऐसी ही संधियाँ क्या आप आज के राजनीतिक परिदृश्य में नहीं देखते हैं? जहाँ तक बॉलीवुड में दबंग या साहसी पुलिसवालों को दिखाने की बात है तो वह आज भी ब्राह्मण या ठाकुर को ही दिखलाता है? सोचिए कि अनुभव सिन्हा अगर ब्राह्मण की जगह किसी यादव को अयान रंजन बनाकर पेश करते तो यह विरोध की गर्मी कितनी बढ़ जाती और कहानी में कितना फेरबदल करना पड़ता। कोई पासवान या माँझी अगर लालगाँव का प्रभार लेने आता तब तो कहानी में न जाने कितने पेंच आ जाते। तो कहिए कि न तो बॉलीवुड ऐसा करने की हिम्मत रखता है और न ही हमारा भद्र समाज जो फ़िल्म के प्रीमियर पर जुटता है, गॉशिप करता है या कैंची चलाने का काम करता है।

आर्टिकल 15 कैसे दलित-शोषित हितैषी नहीं है, इस पर आपने सोचा है? पूरी फिल्म देख जाइए, कहीं भी उनका समाज आपबीती पर एक चर्चा करता हुआ नहीं मिलेगा। हर घड़ी पुलिस और दबंगों की छाया में आप उनके भयग्रस्त चेहरे देख पाएंगे, लगता है जैसे उनकी स्टील फोटोग्राफी की गयी हो। पूरी फ़िल्म में उनमें कोई परिवर्तन आता नहीं दिखता है यानी वे शोषक वर्ग के चेहरे को भी स्पष्ट करने की स्थिति में नहीं होते। वहीं प्रकाश झा की ‘दामुल’ देखिए, संजीवना अपने बेबसी में मुखिया के लिए चोरी का काम करता है, पर सामूहिक नरसंहार के बाद जब प्रशासनिक टीम गाँव आती है तो खुलकर विरोध में उतर आता है, भले ही प्रभावशाली लोग उसे पागल कहकर वहाँ से दूर कह देते हैं। हत्या के झूठे आरोप में उसे दामूल की सजा होती है। दलित-शोषित परिवार की एक औरत रजुली, जो संजीवना कि पत्नी है, प्रतिकार करती है। फिल्म के अंत में वह गंड़ासा लेकर आती है और सीधे शोषक मुखिया के गले पर प्रहार करती है। रजुली का तीव्र आक्रोश फूट पड़ता है। कहती है, “संजीवना रे… तू मुखिवा को मारकर दामुल पर काहे नहीं चढ़ा रे...।” 

क्या आपको आर्टिकल 15 दामूल की तरह उद्वेलित कर पाती है? इसमें निषाद के कुछ संवाद के सिवाय दलितों की ओर से कुछ भी नहीं कहा गया है। दलित युवा नेता और जनता के बीच का कोई संपर्क-संवाद कहीं नहीं दिखता। निषाद के चिंतन और चिंता पर ही फ़िल्म खत्म।

और अंत में, जब अधिकार की बात सोचता हूँ तो लगता है कि क्या सत्ता अधिकार देती है? वह सीमित दायरों में केवल सहूलियत दे सकती है। अधिकार का संबंध स्व से होता है। जो चीजें नैसर्गिक रूप में मिलनी चाहिए, वह संविधान के उपबंधों के अधीन की जाती हैं। एक स्वतंत्र राष्ट्र के नागरिकों को तो बहत्तर साल के बाद समता का अधिकार इस तरह मिल जाना चाहिए था कि लोग कहते, इस उपबंध की तो अब प्रासंगिकता नहीं रह गयी है। पर ऐसा कुछ नहीं हो पाया है। देखते हैं, कब तक होता है?