आर्टिकल 15 के बहाने : नरेन्द्र कुमार


‘आर्टिकल 15’ यानी समानता का अधिकार क्या है, इसे एक आमजन नहीं जानता है। हाँ, प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करनेवाला रट्टामार अभ्यर्थी इसे शब्दशः बता सकता है कि किसी नागरिक के धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर राज्य द्वारा विभेद नहीं किया जाएगा या उसे इन आधारों पर किसी सार्वजनिक स्थलों पर जाने में रोक-ठोक न होगी।

यह तभी संभव है जब राज्य अपनी परिभाषा के अनुसार आदर्श रूप में हो। जब हम-आप कहते हैं कि सिस्टम ही खराब है तो राज्य की आदर्श स्थिति की कल्पना ही बेकार है। फिर समानता का अधिकार दिलाएगा कौन? ‘आर्टिकल 15’ फ़िल्म में यही दिखाया गया है कि एक पक्षपात रहित सिस्टम ही किसी शोषित-पीड़ित को न्याय दिला सकता है। केरल का वाकया हुए कितने दिन बीते हैं, जब स्त्रियों के मंदिर प्रवेश पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद तनातनी बनी रही और देश की बड़ी पार्टी ने प्रवेश पर रोक का ही समर्थन किया तथा वहाँ की सरकार भी पूरी तरह एक्शन की स्थिति में नहीं थी।

एक और बात पर बार-बार ध्यान जाता है कि नागरिकों के अधिकार उनकी आर्थिक स्थिति के अनुसार सुलभ या दुर्लभ तो नहीं होते जा रहे हैं। क्या समानता का अधिकार में ही धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान के साथ आर्थिक आधार को जोड़ने की पहल नहीं की जा सकती। आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जा सकता है तो समानता का अधिकार क्यों नहीं? कहने को सरकार द्वारा पूर्णतः या अंशतः पोषित होटल, संग्रहालय, चिड़ियाघर, पार्क, ऐतिहासिक स्मारकों जैसे सार्वजनिक स्थलों पर जाने की मनाही धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर नहीं है… लेकिन क्या बिना आर्थिक सक्षमता के इन जगहों पर प्रवेश किया जा सकता है? हम बात करेंगे दलितों-शोषितों के विकास की… समाज के अन्य वर्गों के साथ उनके समानता की, लेकिन उनके रास्ते को बाधा-दौड़ का रास्ता बना देंगे। 
अब बात करते हैं फ़िल्म की तो शुरुआत ही भारत बनाम इंडिया से होती है। हाइवे पर अयान रंजन (आयुष्मान खुराना) की गाड़ी चली आ रही है। बगल में नेहरू की ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ रखा हुआ है और बॉब डिलन का गीत हेडफोन लगाकर अयान रंजन सुन रहे हैं। समानांतर रूप से बारिश में एक झोंपड़े के पास गरीब-दलित लोग एक गीत गा रहे हैं। इसे कई तरह से पहले से गाता जा रहा है, जिसका इस्तेमाल निर्देशक अनुभव सिन्हा ने बखूबी किया है। आप भी पढ़िए –

कहब त लाग जाइ धक से 
कहब त लाग जाइ धक से 

बड़े बड़े लोगन के महला-दुमहला 
और भइया झूमर अलग से 

हमरे गरीबन के झुग्गी-झोपड़िया 
आंधी आए गिर जाए धड़ से 

बड़े बड़े लोगन के हलुआ पराठा 
और मिनरल वाटर अलग से 

हमरे गरीबन के चटनी औ रोटी 
पानी पीएं बालू वाला नल से 

बड़े बड़े लोगन के स्कूल-कॉलेज
और भइया ट्यूशन अलग से

कहब त लाग जाइ धक से

गाड़ी का ड्राइवर चन्द्रभाल कहानी कहता जाता है… कि जब श्रीरामचंद्र अयोध्या लौट रहे थे तो पूरी अयोध्या में घी के दीये जलाये गये। रास्ते में पड़ने वाले सारे गाँवों में दीये जल रहे थे। एक गाँव में अँधेरा था। रामजी की नज़र गयी तो उन्होंने पूछा कि यहाँ दीये नहीं जलाये गये हैं, तो गाँववालों ने कहा था कि जलाये तो हमने भी थे, पर ऐसी आँधी चली कि सारे दीये बुझ गये। फिर हमने देखा कि अँधेरे में से देखने पर महल और जगमग लग रहा है, इसलिए रहने दिए।

हाइवे पर चलती हुई गाड़ी लालगाँव पहुँचती है, जहाँ अपर पुलिस अधीक्षक का प्रभार अयान रंजन को लेना है। वहाँ अयान स्वीकार करता है कि यह उसकी पनिशमेंट पोस्टिंग है। पूरा खाया-पीया सिस्टम से भेंट होती है… पूँजीवाद, सामंतवाद और भ्रष्ट सिस्टम का आइकॉन पुलिस अधिकारी ब्रह्मदत्त सिंह यहाँ है, जिसके रोल में मनोज पहवा ने जान डाल दी है। वह ठाकुर है और सरनेम सिंह लगाना पसन्द करता है… कुत्तों को बिस्कुट खिलाता है और गरीबों से नफ़रत करता है… ठेकेदार अंशु के जायज-नाजायज कामों का साथी है।

दो दलित लड़कियों को सामूहिक बलात्कार के बाद पेड़ से लटका दिया जाता है। यह एक संदेश है दलित-पिछड़ों के लिए कि अपनी औकात में रहें। मात्र तीन रुपये की मजदूरी बढ़ाने की बात ठेकेदार द्वारा नहीं माने जाने पर उनके काम छोड़ने के पश्चात यह घटना होती है। तीसरी लड़की बच कर भागती चली जाती है, जो अंत में भूखी-प्यासी जंगल में बेसुध पड़ी मिलती है। अपर पुलिस अधीक्षक जो इस भारत को नहीं जानता या कहिये कि उसके माँ-बाप आज के संपन्न माँ-बाप की तरह उसका परिचय इस दुनिया से होने नहीं देते… का क्रमशः विकास दिखता है और वह दृढ़ निश्चयी होकर अपना काम करता है। इस फ़िल्म का हीरो सिंघम टाइप नहीं है, जो सीधे चीफ माफिया पर हाथ डाल देता है। यहाँ व्यवस्था में बदलाव की कोशिश दिखती है।

फ़िल्म के विरोधी कहते हैं कि इसमें ब्राह्मणों, ठाकुरों सहित एक वर्ग को विलेन दिखाने की कोशिश हुई है। जबकि कोशिश तो ब्राह्मण को उदार दिखाने की हुई है। नायक को उदारवादी दिखाया गया है, लेकिन विडंबना देखिये, वह भी कचड़े हटाने तथा सीवर साफ करने के लिए एस सी जातियों को ढूंढता है, उनके नेता निषाद से संधि करता है और निषाद इसकी मंजूरी दे देता है। ऐसी ही संधियाँ क्या आप आज के राजनीतिक परिदृश्य में नहीं देखते हैं? जहाँ तक बॉलीवुड में दबंग या साहसी पुलिसवालों को दिखाने की बात है तो वह आज भी ब्राह्मण या ठाकुर को ही दिखलाता है? सोचिए कि अनुभव सिन्हा अगर ब्राह्मण की जगह किसी यादव को अयान रंजन बनाकर पेश करते तो यह विरोध की गर्मी कितनी बढ़ जाती और कहानी में कितना फेरबदल करना पड़ता। कोई पासवान या माँझी अगर लालगाँव का प्रभार लेने आता तब तो कहानी में न जाने कितने पेंच आ जाते। तो कहिए कि न तो बॉलीवुड ऐसा करने की हिम्मत रखता है और न ही हमारा भद्र समाज जो फ़िल्म के प्रीमियर पर जुटता है, गॉशिप करता है या कैंची चलाने का काम करता है।

आर्टिकल 15 कैसे दलित-शोषित हितैषी नहीं है, इस पर आपने सोचा है? पूरी फिल्म देख जाइए, कहीं भी उनका समाज आपबीती पर एक चर्चा करता हुआ नहीं मिलेगा। हर घड़ी पुलिस और दबंगों की छाया में आप उनके भयग्रस्त चेहरे देख पाएंगे, लगता है जैसे उनकी स्टील फोटोग्राफी की गयी हो। पूरी फ़िल्म में उनमें कोई परिवर्तन आता नहीं दिखता है यानी वे शोषक वर्ग के चेहरे को भी स्पष्ट करने की स्थिति में नहीं होते। वहीं प्रकाश झा की ‘दामुल’ देखिए, संजीवना अपने बेबसी में मुखिया के लिए चोरी का काम करता है, पर सामूहिक नरसंहार के बाद जब प्रशासनिक टीम गाँव आती है तो खुलकर विरोध में उतर आता है, भले ही प्रभावशाली लोग उसे पागल कहकर वहाँ से दूर कह देते हैं। हत्या के झूठे आरोप में उसे दामूल की सजा होती है। दलित-शोषित परिवार की एक औरत रजुली, जो संजीवना कि पत्नी है, प्रतिकार करती है। फिल्म के अंत में वह गंड़ासा लेकर आती है और सीधे शोषक मुखिया के गले पर प्रहार करती है। रजुली का तीव्र आक्रोश फूट पड़ता है। कहती है, “संजीवना रे… तू मुखिवा को मारकर दामुल पर काहे नहीं चढ़ा रे...।” 

क्या आपको आर्टिकल 15 दामूल की तरह उद्वेलित कर पाती है? इसमें निषाद के कुछ संवाद के सिवाय दलितों की ओर से कुछ भी नहीं कहा गया है। दलित युवा नेता और जनता के बीच का कोई संपर्क-संवाद कहीं नहीं दिखता। निषाद के चिंतन और चिंता पर ही फ़िल्म खत्म।

और अंत में, जब अधिकार की बात सोचता हूँ तो लगता है कि क्या सत्ता अधिकार देती है? वह सीमित दायरों में केवल सहूलियत दे सकती है। अधिकार का संबंध स्व से होता है। जो चीजें नैसर्गिक रूप में मिलनी चाहिए, वह संविधान के उपबंधों के अधीन की जाती हैं। एक स्वतंत्र राष्ट्र के नागरिकों को तो बहत्तर साल के बाद समता का अधिकार इस तरह मिल जाना चाहिए था कि लोग कहते, इस उपबंध की तो अब प्रासंगिकता नहीं रह गयी है। पर ऐसा कुछ नहीं हो पाया है। देखते हैं, कब तक होता है?

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