श्रद्धा थवाईत की कहानी ‘पगडंडी’



श्रद्धा थवाईत की कहानी ‘पगडंडी’ 2018 की बहुपठित कहानियों में से एक है। स्त्री के अतीत की पीड़ा, वर्तमान का संघर्ष और भविष्य के लिए उम्मीद सबकुछ इस कहानी में आप पाएंगे। पहले ही पैराग्राफ़ में पाठक कहानी से जुड़ जाता है। उनकी भाषा का स्नेहिल स्पर्श कथा के प्रवाह को बनाए रखता है। अपने पहले कथा-संग्रह ‘हवा में फड़फड़ाती चिट्ठी’ के बाद वे लगातार अपनी सार्थकता सिद्ध कर रही हैं। आप भी पढ़िए यह कहानी।


पगडंडी : श्रद्धा थवाईत

किसी घर का जंगल की छाँव में होना, छोटे से गाँव में होना, कितनी समस्याएं लाता है ये कोई फूलो से पूछे. फूलो का घर है- सुदूर बस्तर के पठार की गोद में बसा. गाँव में जीवन की आधारभूत सुविधाओं के नाम पर कुछ नहीं है- न सड़क है, न बिजली, न पानी. पानी की सुविधा के लिये लगभग पांच किलोमीटर दूर बहती एक नदी है. रोशनी के लिये ढिबरी, जिसके लिये मिट्टी का तेल लेने बीस किलोमीटर दूर कस्बे में जाना होता है. सड़क के नाम पर घने जंगल से गुजरती एक पगडण्डी है, जो गाँव को उस कस्बे की ओर जाती सड़क से जोड़ती है. इस कस्बे में एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र है. जो इन दिनों, दिन रात फूलों के सपनों में आने वाली जगह बनी हुई है.  
    माँ नहीं है फूलो, पर माँ हो रही है. उसके माँ होने के घड़े में बूँद-बूँद कर मातृत्व भर रहा है. उसे इंतजार है, उस दिन का, जब पेट में हलचल से महसूस होता बच्चा, उसकी गोद में होगा. यूँ भी नौवां महीना तो इंतजार का ही महीना होता है. एक बार और फूलो इसी इंतजार में थी, पर वह इंतजार... इंतजार ही रह गया. कोई और माने न माने फूलो तो इसका जिम्मेदार उस सीटी सी आवाज में चीखने वाली गायतीन(दाई) को ही मानती है. इस बार वह अपनी जचकी किसी डॉक्टर से कराने के लिए ही कृतसंकल्पित है.
  उसका मायका भी जंगल की छाँव में ही है, एक गाँव में ही है, लेकिन वह एक कस्बे के पास है, उससे पक्की सड़क से जुड़ा हुआ है. सड़क जिंदगी में कितने परिवर्तन लाती है यह फूलो को अच्छे से पता है. उसने अपने घर में सबकी जचकी अस्पताल में ही होते देखी है, पर यहाँ उसकी ससुराल में मानते हैं कि जो काम घर-द्वार में रहते हो जाता है, उसके लिए मीलों दूर अस्पताल जाकर रुपये खर्च करना चोंचला है. फूलो यह जानकर तो अवाक् ही रह गई थी कि  यहाँ अस्पताल जाना मतलब मौत का संदेसा ही होता है. यहाँ से किसी को अस्पताल ले जाना हो तो मरीज को डोला डंडी या चारपाई में बांध कर, मीलों ढोते हुए ले जाना होता है इसीलिए लोग जब तक जान पर ना बन आये अस्पताल जाते ही नहीं फिर बच्चा पैदा करने के लिए इतनी दूर न डोला-डंडी में जाना संभव है ना ही पैदल.
  इन नौ महीनों में फूलो एक बार भी अस्पताल नहीं गई लेकिन उसने पूरे समय अस्पताल में जचकी के लिए अपनी जिद बनाये रखी है. कुछ महिलाएं बाहरी चुप्पी के साथ अन्दर से उसके साथ हैं, तो बड़ी-बूढी भयंकर विरोध में. फूलो ने पिछली बार भी अस्पताल में जचकी कराने के लिए घर में कहा था. तब उसे घर में जचकी के समर्थन में कई किस्से सुनाये गए थे. वही किस्से इस बार उसे फिर-फिर सुनाये गए. सास ने कहा कि वह तो लकड़ी लेने जंगल गई हुई थी- जब उसका बेटा हुआ, कुल्हाड़ी से नाल काटी और बेटे को अपनी साड़ी से गोद में बांधे, सिर पर बटोरी लकड़ियों का बोझ रखे घर चली आई. आजी सास ने कहा कि वह तो मड़िया काटने गई हुई थी. वहीँ खेत में फूलो के ससुर हुए. दरांती से नाल काटी और सीने से बांध कर बेटे को घर ले आई. लोग बाद में जाकर फूल नाल लेकर घर आये.
   पिछली बार फूलो की जचगी के समय उसे घर से लगी, एक नयी बनी झोंपड़ी में भेज दिया गया और कहा गया कि, जब दर्द हो तो वह कमरे में रखे, गर्म पानी से नहाये और खुद ही ताकत लगाये, जब बच्चा हो जाये तो आवाज दे दे, जिससे गायतीन जाकर नाल-फूल काटे, बच्चे को नहल- धुला कर पोंछ ले. पिछली बार अपने बच्चे को खो कर फूलो इस बार फिर घर में जचकी का खतरा नहीं उठाना चाहती.
   फूलो की कोख में लगा फल पक चुका है. कभी भी डाल से अलग हो सकता है. आज शाम से ही फूलो को रह-रह कर मीठा मीठा सा दर्द भी हो रहा है. फूलो परेशान है, यूँ शाम को दर्द शुरू होने से. सुबह दर्द होता, तो वह अस्पताल जा भी सकती थी, लेकिन शाम को तो अस्पताल जाना संभव ही नहीं. उसने इस मीठे दर्द को अपने अंतस में थाम लिया. वह जानती है कि यदि उसने दर्द के बारे में बताया तो उस पर नजर रखी जाने लगेगी. अंततः उसे उसी गायतीन से जचकी करानी पड़ेगी. मीठा दर्द सहन करते हुए वह अपने सारे काम निपटाती रही और फिर ढिबरी बुझा कर झोंपड़ी में सोने चली गई. इस आस में कि सुबह तक यह दर्द मीठा-मीठा सा ही रहे.. मज़बूरी ने आस का चोला पहन लिया.
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   यह झोंपड़ी वही है जिस झोंपड़ी में वह पिछले प्रसव के समय तड़प रही थी. अभी इस मीठे दर्द में, तीखे दर्द के जल्दी ना आने की मन्नत में, उसे वे पल शिद्दत से याद आने लगे, जब झोंपड़ी के अन्दर दर्द अपना नुकीला खंजर रह-रह कर उसके शरीर में भोंक रहा था. उन पलों में वह चीखती रही थी; पर कोई अन्दर न आया, बाहर घर के पुरुष चावल लेकर पुकारते हुए, देव को बुला रहे थे. उसकी चीखें उनकी सम्मिलित आवाजों से भी तेज थी. उसकी सास अन्दर आना चाहती थी. उसने गायतीन को कहा भी, कि बहूबाई अकेले नहीं कर पाएगी, उसने कभी ऐसा देखा नहीं है, लेकिन गायतीन ने अपनी सीटी सी आवाज में चिल्ला कर चुप करा दिया.
   चुप हो जाने से होनी तो नहीं टलती, वही हुआ जिसका फूलो को डर था. जब उसकी चीखें हल्की पड़ने लगीं और शरीर शिथिल तो आखिर उसकी सास और गायतीन अन्दर आये, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी. आधी बेहोशी में उसने अपने बच्चे को देखा. वह नीला पड़ चुका था किसी चट्टान के टुकड़े सा. उसी पल उसने अपने जाये को पहली और आखिरी बार देखा, फिर मानों लांदा के नशे में हो ऐसे बेसुध हो गई.
   उसकी गोद सूनी रह गई. लेकिन दो-चार दिन बाद ही सुबह वह लकड़ी लेने जंगल जा रही थी, साल बीज बीन रही थी, बकरियां चरा रही थी, चिरौंजी फोड़ रही थी, घर- आँगन बुहार रही थी. हवा की तरह दुःख उसे घेरे हुए था, दुःख से भूख का दावानल नहीं बुझ सकता. भूख लगनी ही है, तो जीवन चलना ही है. उसके जीवन से दुःख झरता रहा लेकिन इसे अंजुरी में भरना भी उसके लिए विलासिता थी. जिंदगी जीने की जद्दोजहद में दुःख के काँटों में पग-पग चलना उसकी विवशता थी. यूँ चलते-चलते आज वह फिर उसी मुहाने पर आ पहुंची है.
   मीठे दर्द के साथ सोने की कोशिश में अलटते-पलटते हुए उसने बूढ़ादेव से मन्नत मांगी कि इस बार तो उसे जचकी से पहले अस्पताल पहुंचा ही दें. वह पहाड़ सा नीला टुकड़ा उसके दिल में धंस गया है. वही हर जगह उसे दिखता है- नीले पहाड़ में, नीले आसमान में, नीले पानी में. वही उसे बार-बार सपने में आता है. महीनों उसका दूध और आँखें बहती रही थी. अब वह इन नीली यादों से छुटकारा चाहती है. बच्चे को अपने गोद में लेना चाहती है, छाती से चिपटा कर दूध पिलाना चाहती है. उसकी नन्हीं उँगलियों की पकड़ महसूस करना चाहती है. उसमें खुद का होना महसूस करना चाहती है.
   यह मीठा दर्द रात भर मीठा ही बना रहे, इस आस में, और बढ़े नहीं इस डर के साथ वह पिछली यादों में डूबती-उतराती रही. डर था फिर से खो देने का. पिछली बार जब उसे कुछ-कुछ होश आया तो वह अन्दर कमरे में छिंद की चटाई पर पड़ी थी. पास ही आग जल रही थी. जिसमें हिरवा पानी खदक रहा था. भीतर खोली में कोसम गड्ढा खोद रहा था. जिसमें उसके विदा ले चुके अंश से जुड़े नाल और फूल गाड़े जा रहे थे. वही कोसम के फूल और नाल भी गड़े हुए थे. दर्द का तूफ़ान तबाही मचा कर जा चुका था. बस अवशेष साथ रहने थे. अब भी साथ हैं उसके फूल और नाल, उसकी नीली यादों में.
    उसकी आया (माँ) भी पिछले साल जमीन के अन्दर सुला दी गई थी. अपनी पूरी गर्भावस्था में फूलो आया का सपना देखती रही थी. सपने में आया कहती थी कि मैं आ रही हूँ तेरे पास. पिछली बार फूलों सिर्फ अपने बच्चे ही नहीं अपनी आया के भी इन्तजार में थी, लेकिन फूलो फिर से अनाथ हो गई. बचपन से उसके पास कोई अपना कहने को था, तो आया थी. बूबा तो बस ताड़ी, सल्फी, लांदा के नशे में डूबे रहते थे फिर जल्दी ही इस दुनिया से ही चले गए. बूबा की याद के नाम पर फूलो को माँ के साथ बूबा के मेनहीर(बस्तर क्षेत्र में मृतकों की स्मृति में बनाए पाषाण या काष्ठ स्तम्भ) के पास जा बैठना ही ज्यादा याद है. माँ धीरे-धीरे बूबा की प्रिय चीजों के इस पाषण स्तम्भ में उकेरे अक्सों – सल्फी रखने वाला तुम्बा, सायकिल, अक्सर साथ रहने वाली टंगिया, तमाखू की डिबिया को छूती रहती, फिर एक लम्बी साँस भर उठ आती. फूलो रात के अँधेरे में झींगुरों की तेज आवाज, पेड़ों के पत्तों की सांय-सांय, बांस के झुरमुट से आती हवा की हूँ...हूँ...हूँ... आवाज में भूत-प्रेत का अस्तित्व पाती. उनसे डरती, तो आया ही उसे अपने छाती से चिपटाये सुलाती. महुए सी खुशबू आती थी आया की देह से. रात आया की खुशबू, नीली याद, और  दर्द के साथ मिल कर फूलो के जेहन में सल्फी के सुरूर के जैसे संकल्प पूरा करने का सुरूर भरती रही.
   जिस रात आया उसे छोड़ कर गयी, वह रात अक्सर उसके सामने पतझड़ के पत्तों सी बिछ जाती है. फूलो को जिन पर न चाहते हुए भी चलना ही पड़ता है. चरमराते पत्तों सा उसका दिल चूर-चूर होता रहता है. रात के अँधेरे में दर्द और संकल्प की लड़ाई लड़ते हुए फूलों आया की यादों के जंगल में विचरने लगी. उस रात पूरे घर में रंग-गुलाल के छींटे पड़े हुए थे. नगाड़ा, ढोल, तुड़मुड़ी, तुरही की आवाज गाँव पार कर आसपास के गाँव में भी मृत्यु का सन्देश देती तैर रही थी. गाँव-घर के लोग आँगन में इकट्ठे हो गए थे. रात उनके नाच-गाने से झूमने लगी थी. सबकी सांसों में महकती सल्फी, लांदा की खुशबू घर-आँगन को भी महकाए हुए थी. आया को आँगन में कटे ठूंठ की तरह लिटा दिया गया था. सिर्फ फूलो ही आया के पास बैठी हुई थी. आया का बर्फ सा ठंडा हाथ पकड़े हुए, बाकी सब रंग-गुलाल से होली खेलने... नाचने-गाने में रमे हुए थे. वे उसे भी नचाना चाहते थे लेकिन फूलो का मन ही नहीं था; बूबा के पास से उठने का.   
  सुबह होते ही आया को गीले कपडे से पोंछ कर सिन्दूर लगा, बिंदी, टिकली लगा कर तैयार कर दिया गया. लोग एक के बाद एक आकर उन्हें कपड़े ओढ़ाते जा रहे थे. आया कपड़ों के ढेर के नीचे छुप गई. तभी किसी को याद आया कि चिन्हा तो दिया नहीं है. फूलो सबसे पास खड़ी थी. उसे ही कहा गया कि वह काजल से आया के शरीर में एक चिन्हा रख दे. जिससे जब आया वापस घर में नया जन्म लेकर आये तो पता चल जाये कि आया आई है. उसने अपनी दो उँगलियों में काजल लिया और आया के कमर में टीका लगा दिया. एक हूक उठी फूलो के दिल में. उसे पूरा विश्वास है कि उसके नीले बेटे के कमर में वही काला निशान रहा होगा और वही निशान इस आने वाले बच्चे के कमर में भी होगा.
   तभी दर्द की थोड़ी तेज लहर आई. फूलो ने उठने की कोशिश की लेकिन सामने वही रात का अँधेरा छा गया. वह फिर आंधी में टूटी पेड़ की डाल सी चटाई में पसर गई. बाहर आंधी चलने लगी है. पेड़ टूटने और बचे रहने के बीच हवा में डोल रहे हैं. फूलो भी नींद और दर्द के असमंजस में डोल रही है. आया उसे सपने में आवाज दे रही है. मीठा दर्द अब मीठा नहीं रहा. दर्द के बढ़ने के डर से राहत के लिए फूलो ने आया के साथ की गर्माहट अपनी यादों में खोजनी चाही लेकिन मिली बर्फ सी ठंडी आया की स्मृति. वह सिहर उठी. वह दुनिया में सबसे ज्यादा प्यार आया को करती थी. उसे डूमादेव याद आये.
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   उस रात की सुबह आया को लेकर फूलो और घर के बाकी सब स्त्री-पुरुष जंगल की ओर चल पड़े थे. फूलो रो रही थी. हलकी बारिश हो रही थी, आसमान रो रहा था. पत्तों से पानी की बड़ी-बड़ी बूंदें टपक रही थी, जंगल भी रो रहा था. आया को जमीन में गड़ा दिया गया, ऊपर से आठ-दस बड़े-बड़े पत्थर रख दिए गए. इन भारी पत्थरों से भी भारी मन से, वह बाकी सब के साथ नदी किनारे पहुंची. नदी समय सी बही जा रही थी. नदी में पांव डालने से पानी की ठंडक मन तक पहुंची और गर्म तवे में पड़े पानी की बूंद सी भाप बन गई. यह भाप आँखों में संघनित होकर आँसुओं के रूप में बरस पड़ी. रास्ते से करंज की डंडी तोड़ ली थी बुआ ने. सबने करंज की दातून घस कर नदी में ही फेंक दी. बुआ ने सबके सर में नदी किनारे की मिट्टी लगा दी. सिर घस-घस कर धो दिया. अब डूमादेव पकड़ने की बारी थी.
    सब नदी के किनारे मेंढक, मछली पकड़ने की कोशिश करने लगे. बुआ सबको उचका भी रही थी, यह कह-कह कर कि, जिसको डूमादेव मिलेंगे, उसको ही भाभी सबसे ज्यादा प्यार करती थी. सब नदी किनारे चिखला में, पत्थर के नीचे, कटाव में हाथ डाल रहे थे. एक मेंढक को पकड़ने अक्का ने हाथ बढ़ाया, मेंढक की पिछली टांग पकड़ में आई लेकिन उँगलियाँ लसलसी चिकनी टांग पर फिसल गई. मेंढक ने छलांग मारी. सामने पत्थर के नीचे टटोलती फूलो थी. मेंढक सीधे फूलो के सर में बैठ गया. फूलो का हाथ अगले ही पल प्रतिक्रिया में अपने सिर पर था. डूमादेव पकड़ने फूलो को मेहनत नहीं करनी पड़ी थी. उसके हाथ में डूमादेव खुद आ विराजे थे. उस दिन वह बहुतों के लिए जलन का कारण बन गई थी, कि आया सबसे ज्यादा उसे ही प्यार करती थी और इतना प्यार करती थी कि डूमादेव खुद उस के पास आ गए. डूमादेव को सम्हाल के सरई पान के दो दोनों के बीच रख लिया गया. सब नदी में सात डुबकी मार निकल आये.
    नदी में डुबकी लगाते हुए जो पानी था वह डुबकी मार के निकलते वक्त नहीं रह गया था. घर भी बदल गया था. घर पर अब आया नहीं थी. उस दिन नदी में डूमादेव का फूलो को मिलना, फिर आया का सपने में आना, बार-बार आना. विश्वास बरगद सा घना हो कर उसकी मन की जमीन में विशाल जड़ों सा समा गया था, कि उसकी संतान उसकी माँ ही होगी. ऐसी प्रतीक्षित संतान को घर पर जचकी करने की जिद ने छीन लिया, उस सीटी सी आवाज वाली गायतीन ने उससे छीन लिया. इसी लिए फूलो इस बार कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहती.
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   क्या करे वह? अभी तो पूरब के पंछी ने भी अपनी उड़ान नहीं भरी है. चहुँओर अँधेरा छाया है, लेकिन परिंदे चहचहाने लगे हैं. वह उठी, बिना किसी को बताये गाँव की उस पगडण्डी पर बढ़ गई, जो उसे कस्बे की ओर जाती सड़क से जोड़ती थी. पगडण्डी लोगों के चलने से बनती है यदि लोगों ने उस पर चलना छोड़ा तो पगडण्डी का अस्तित्व भी नहीं रह जाता. पिछली बार गाँव की महिलाओं ने उसे भाग्यशाली करार दिया था, वो बच जो गई थी वरना गाँव में एक घर नहीं, जहाँ से कोई नार बीज से फल बनने के दौर में खोई न हो. फूलो के इन बढ़ते कदमों से गाँव की दूसरी माताओं के लिये एक नयी पगडण्डी तैयार हो सकती है,या बरसों के लिए बंद भी हो सकती है.  फूलो को दोनों बात का अहसास नहीं. वह तो सिर्फ यह चाहती है कि उसकी जचकी अस्पताल में हो.
   वह नंगे पाँव बढ़ती गई,दर्द भी बढ़ता गया. वह बढ़ती रही- चलते, रुकते, दर्द से दोहरे होते, पेड़ों का सहारा लेते, चट्टानों पर बैठते. पगडण्डी के ऊँचे-नीचे रास्तों से होते, बड़ी-बड़ी चट्टानों से घूम कर जाते, छोटी-छोटी चट्टानों को रौंदते कि आगे बढ़ना ही सपने से मिलना है, माँ से मिलना है. उसे चलते जाना है करीब पंद्रह किलोमीटर, आधे से कुछ अधिक रास्ता पार कर वह तब थम गई. जब उसके सामने पहाड़ी बरसाती नदी गरजते तूफ़ान सी बहती मिली. आमतौर पर शांत सी यह नदी कल शाम के आंधी-पानी से बौराई दिखी. जैसे पैर रखते ही किसी फुंकारते नाग की तरह लपक कर उसे डस लेगी. उसे अपनी आया की, सास की बात याद आने लगी कि पेट में बच्चा लिए नदी पार नहीं करते.
    जब यह बंधन उसके संकल्प की राह में बाधा बन कर खड़ा हो गया तो सफल जचकी की आशा ने इस बाधा को भी पंख बना दिया. कुछ ही पलों में वह हरहराती नदी की धारा में एक लकड़ी के साथ बहती हुई, उसे काटने लगी. कई जगहों में आसान प्रसव के लिए तैरने अच्छा माना जाता है, लेकिन यहाँ फूलो के लिये ‘तैरना’ सुरक्षित प्रसव की ‘संभावना’ की, अस्पताल तक पहुँचने की ‘संभावना‘ की अनिवार्य शर्त है. उसे कोसम की शिद्दत से याद आई. अभी यदि साथ होता, तो उसे यूँ धारा से जूझना नहीं पड़ता. उसे तो बस साथ बहते जाना होता, लेकिन उसकी सही मांग में भी तो, कोसम साथ नहीं बहा. अब क्या उसका सहारा याद करना...नदी को काटने की कोशिश करते वह नदी के साथ बहती रही, नदी को काटती रही.
   नदी पार करते ही सामने सीधी खड़ी चट्टानें मिलीं, वो जगह जहाँ से सब कस्बे तक जाने के लिये नदी पार करते हैं, पीछे छूट चुकी है. कमजोर को दुनिया धकेलती है. नदी भी तो दुनिया का ही अंग है. दर्द में तैरना कितना मुश्किल होता है; ये कोई अभी फूलो से पूछे. बढ़ी दूरी, साधन का अभाव, दर्द का बढ़ना, राह में अकेले में प्रसव की आशंका... उसे भी अपना संकल्प, अब एक जिद के रूप में दिखने लगा. अब वापस जाना भी संभव नहीं. शायद अब तक घर में उसकी ढूंढ होने लगी हो. वापस ले जाये जाने के डर को थामे हुए, वह पीछे जाने की जगह चट्टानों से लड़ गई. फूला हुआ पेट संतुलन बनाने के लिये झुकने से रोकने लगा... साथ ही दर्द से कमर दोहरी होने लगी... थकान से हाथ पैर कांपने लगे... पर जंगल का जीवन इन सब कठिनाइयों से जूझना ही तो है.
  अंततः वह चट्टान के ऊपर पहुंची तो सामने चमकता सूरज दिखा. वह मुंह अँधेरे चली थी, अब यह सुनहरा सूरज देख फूलो ने तुरंत पीछे मुड़ कर देखा. कोई समझे न समझे कोसम तो जरुर समझ गया होगा. न सिर्फ समझ गया होगा, बल्कि कस्बे के लिए निकल भी गया होगा. कोसम उस तक पहुंचे उसके पहले ही उसे अस्पताल पहुँच जाना है. फूलो जैसे-तैसे कर चट्टान की उतराई पार करने लगी. उसे अपनी  मंजिल साफ़ दिखने लगी तो एक आशंका उभर आई. एक डर उसकी सवारी करने लगा कि उसने इतना बड़ा कदम उठा तो लिया है, लेकिन यदि अस्पताल में कोई नहीं मिला तो क्या होगा? गाँव में कहते हैं, कि कुछ साल पहले किसी की जचकी के लिए अस्पताल गए थे, लेकिन वहां कोई मिला नहीं. उस बहुबाई ने वापसी की राह में ही दम तोड़ दिया. सब कहते हैं कि उसने कुलदेवी पर भरोसा न कर अस्पताल पर भरोसा किया, इसी का देवी ने दंड दिया. तब से गाँव के किसी ने जचगी के लिए अस्पताल जाने की हिम्मत ही नहीं की. एक वही है जो यूँ अकेले ही निकल आई है. जाने क्या होगा.
   नदी पार कर लगभग एक घंटे और चलने के बाद उसे कच्ची सड़क मिल गई और तुरंत ही बड़े भाग्य से कस्बे को जाती एक जीप भी मिल गई. यूँ भी ड्राईवर आधा बाहर लटक कर ही गाड़ी चला रहा था लेकिन उसकी हालत को देखते हुए ठूंस-ठूंस कर भरी जीप में भी जगह बन ही गई. फूलो के चेहरे में दर्द हर कुछ देर में, किसी नुकीले पत्थर की खरोच सा उभरने लगा. जीप में बैठे लोगों की प्रश्न भरी नजरें, तरस खाती नजरें, अपनत्व भरी पूछ-ताछ, उसे अकेले देख खुसुर-पुसुर, उसे नुकीले पत्थर बन खोदने लगीं. उसके जवाब उनकी आँखें फाड़ दी. ऐसा दुस्साहस! दर्द की तीव्रता में बढ़ोतरी, आवृत्ति के समय में कमी, लोगों की प्रतिक्रिया और उसके खाली बैठने ने तेजी से चलती जीप को पैदल चलने से भी धीमा बना दिया. चौथाई दूरी उसे मीलों लम्बी लगने लगी.
  किसी तरह बूढ़ा देव को याद करते, वह कस्बे तक पहुंची. ड्राईवर ने प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के सामने ही गाड़ी रोकी. मंजिल तक पहुँचने का अहसास न सिर्फ चैन बल्कि थकन भी साथ लेकर आता है. दर्द से पस्त होते हुए भी उसे राहत हुई कि अब वह अस्पताल पहुँच चुकी है. अब उसका बच्चा सुरक्षित रहेगा. अब उसने अपने बच्चे को, अपनी माँ को पाने की सारी बाधाएं दूर कर ली हैं. स्वास्थ्य केंद्र नीम की छांह में खड़ा उसे पुकारता लगा.
 नीम फूलों की खुशबू लिए आस की सुहानी हवा उसके होठों के दर्दीले स्मित हास में, उसके अश्रु विगलित नयन के कोरों में, उसके चेहरे के समंदर में बहने लगी. वह अपनी सारी शक्ति अपने पैरों में बटोर, आगे बढ़ी. तभी एक ताला उसकी आशाओं पर पाला सा पड़ गया. उसने देखा की अस्पताल के दरवाजे पर ताला जड़ा हुआ है. अब तक समेट कर रखी हिम्मत, जर्रा-जर्रा बिखर गई. वह स्वास्थ्य केंद्र की सीढ़ियों पर दर्द से दोहरी हो लेट गई. अब तक अन्दर ही अन्दर जज्ब होती, उसकी दर्द भरी चीखें उस प्राथमिक स्वास्थ केंद्र की दीवारों को कंपाने लगीं. इन चीखों में दर्द था – शरीर में उठती लहरों का, दर्द था डर का- खो देने का डर, दर्द था घरवालों से नजरें न मिला पाने का, गलत साबित हो जाने का.
   उसके आसपास भीड़ जुटने लगी. अकेली महिला को तड़पती देख लोग पहले तो एक-दूसरे को ही प्रश्नों भरी नज़रों से तौलने लगे, प्रश्न पूछने लगे, फिर अजनबियत, हिचकिचाहट की बाधा पार कर इंसानियत की लहर उठी, तो कुछ सहृदय महिलायें आगे बढ़ी.
  फूलो की दर्द से भींचती आँखों ने लोगों की ओर देखा. उसके दिल में घरवालों के विरोध की लहर परिस्थिति से टकरा कर छिन्न-भिन्न हो गई. उसने बुढादेव को दिल के भीत्तर से याद किया... मनाया कि उसका बच्चा उसके गोद में आ जाये. उसकी आँखों में डर ही डर उभर आया. कोई शुरुवात न कर सकने का डर, स्वतंन्त्र निर्णय न ले सकने का डर. फूलो के कदमों से गाँव की दूसरी माताओं के लिये खुलती एक नयी पगडण्डी कुछ तथाकथित सेवकों की कर्तव्यविमुखता से कोसों दूर चली गई कि स्वास्थ्य सेवा की जमीन ही चेतना के अंकुर का साथ ना दे तो अकेला अंकुर वृक्ष नहीं बन सकता. जाने कितने बरसों में कोई फूलो इतनी हिम्मत कर सकेगी. तब तक जाने कितनी और कोखें उजड़ेंगी.
पीछे नेपथ्य में प्रश्न- उत्तर के तलवारों के वार से गूँजते रहे...
कोन हे?
अकेल्ला हे?
कइसे अकेल्ला आइस हे?...
अस्पताल कतना बजे खुलथे?
अभी तो ग्याराहेच बजे हे.
डाकटर तो बहिरेई रहथे, नरस, कंपाउंडर कभी कभार खोल थें.
अरे... अरे अस्पताल तभी बने खुल्थे जब कोनो साहब या मंतरी दौरा आथें.
अरे नहीं... आजई बंद हवे... वो नरस के घर शाइद मेहमान आये हावे.
कोनो ला भेजा... बुला दिही नरस ला... पासइ घर हवे... बलाए ले आ जाही.
ना...अभी इस पगडण्डी का खुलना भविष्य की कोख में जरुर चला गया है लेकिन आशा मटियामेट नहीं हुई है. फूलो की चीखें अब लहरों की तरह आने लगी. उसे घेरे महिलाओं की पंक्ति से टकराने लगी. किसी ने अस्पताल का ताला तोड़ दिया. शायद अस्पताल का ही कोई है. लोगों ने फूलों को उठने के लिए सहारा दिया. उसने अस्पताल के अन्दर कदम धरा. बिन देवी के गुड़ी में कदम रखने सा अहसास हुआ उसे. अब वह अस्पताल के टेबल में है. जहाँ वो आना चाहती थी; अब वह वहीँ है. लेकिन डॉक्टर नहीं है. तभी पास खड़ी महिलाओं ने किसी के लिए जगह खाली कर दी.. माहौल में राहत की खुशबू समां गई. एक सुकून तारी हो गया उस पर.  महिलाएं और नर्स उसे जोर लगाने कह रही हैं. इस सुकून की शक्ति को उसने जोर लगाने के लिए बटोर लिया.
   उवां... उवां... उवां... अगले ही पल ने फूलो के बैसाख की सूखी जमीन से तपते मन में मानसून की बारिश कर दी. वहां सब के मन में ख़ुशी कदमताल करने लगी. बाहर पहुँच चुके कोसम के दिल में इस आवाज से, आशंकाओं, शिकायतों की जगह ख़ुशी के अंकुर उगने लगे. फूलो की प्रतीक्षित संतान की उवां... उवां... उवां... की आवाज, कोसम की लाख भर की बंधी मुट्ठी के साथ, उसके गाँव के साथ, सुदूर के कई गाँव तक उछलते कूदते पहुँचने लगी. मानों जंगल की घास से भरी जिस जमीन पर फूलों ने नौ माह पहले अपने कदम धर दिए थे, अब उस पर पीछे आने वालों के कदमों से जंगल में एक नयी पगडंडी का आभास होने लगा है. बस कही-कही जमीन को अब भी यह समझना बाकी है, कि वही इस पगडंडी का आधार है.


परिचय :
नाम- श्रद्धा थवाईत
जन्म स्थान- जांजगीर
वर्तमान निवास- रायपुर
साहित्य के क्षेत्र में उपलब्धियां विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित, भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार २०१६ प्राप्त एवं साहित्य अमृत युवा हिंदी कहानीकार प्रतियोगिता २०१५ में प्रथम स्थान प्राप्त.
पता- श्रद्धा थवाईत
एफ-5, पंकज विक्रम अपार्टमेंट
शैलेन्द्र नगर, रायपुर, छत्तीसगढ़
पिन कोड- 492001
मोबाइल नं.- 09424202798

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1. अगस्त के बादल

ऊँची
विशाल
हरी-भरी पहाड़ियों के
चौड़े कंधे पर
शरारती बच्चों की तरह
लदे हुए हैं
अगस्त के बादल

दूध से भरे
भारी थन से   
या चाँदनी से लबालब कटोरे से
छलक-छलक रहे हैं
अगस्त के बादल

मेरे मन मस्तिष्क में
तुम्हारी याद की तरह सघन
और बरस जाने को आकुल
आतुर
घिर रहे हैं
मन मिजाज पर
अगस्त के बादल।

2. कोलंगुट में सूर्यास्त

बीच समुद्र में
हवाओं की रस्सियों के झूले पर
झूल रहा है सूरज

सूरज के हृदय की उमंगें
समुद्र में उठते ज्वार की तरह
दौड़-दौड़ कर आ रही हैं
तट की ओर
तट तक आते-आते
उमंगों में आ जाती है थकान
और पसर जाती है
अनन्त बालुकाराशि पर

सूरज फिर भी झूल रहा होता है
बीच समुद्र में
हवाओं की रस्सियों के झूले पर
हम देख रहे हैं
झूलते-झूलते सूरज के चेहरे पर
फै ल रही है थकान
एक क्षण सुस्ता लेने के लिए वह
खोज रहा है
अपनी थकी आँखों से
कोई निरापद जगह

बीच समुद्र में
जहाँ हवाओं का झूला लगा है
हम देख रहे हैं
एक ऊँची चट्टान
अनन्त ज्वार भाटाओं के बीच
समाधिस्थ
निर्विकार।

सूरज ने इसी चट्टान पर
फैला दी है अपनी चादर
और आप झूल रहा है
हवाओं की रस्सियों के झूले पर

लो, अचानक टूट गया
रस्सी का एक छोर
लटकने लगा है सूरज
इसी के सहारे
ठीक समुद्र की लहरों के ऊपर
असहाय, निरुपाय   
झटपट उठा ली है
चट्टान पर से लाल चादर
लग रहा है
सूरज अब डूबा
कि तब डूबा
लगता है
इसके साथ
डूब जायेगा
हमारा भी मन

हम यह सोच ही रहे हैं
कि अचानक
’चुभ्‘ से डूब गया वह
उन उठी हुई लहरों में
और हाथ से
छूट गयी है चादर

यह लाल चादर
वहाँ से,
जहाँ सूरज डूबा है
पसर रही है
हमारे पाँव की ओर
हमारे पाँव को
आकर छू गयी है
फिर, समुद्र की नन्हीं लहर,
पैरों के गिर्द
फैल गयी है वही
सूरज की चादर
और वहाँ,
ठीक वहाँ, जहाँ से यह चादर
आयी है हमारे पैरों तक
फैल गया है
सघन अंधकार,
उदासी फैल गयी है
चारों ओर

लेकिन हमारा मन
अचानक प्रदीप्त हो उठा है।
सूरज की चादर की लाली
हमारे पैरों से
चढ़ रही है ऊपर
हमारी आत्मा की चट्टान तक

वहाँ यह फिर फैलेगी
फिर, फिर
सूरज फिर झूलेगा
बीच समुद्र में
हवाओं की रस्सियों के झूले पर।


3. चरवाहा
(कोसी क्षेत्र की एक लोक-गाथा सुनकर)

पिछले चालीस हजार वर्षों से
अपनी गायों को लेकर
कहाँ-कहाँ नहीं गया मैं
किन-किन जंगलों
पहाड़ियों, दर्राओं
नदियों और झरनों के समीप
नहीं पहुँचा हूँ मैं

इन गायों के भारी थनों से
फूटते हैं दूध के झरने
खिलती है एक नैसर्गिक
दूधिया रोशनी
नहा जाती है सम्पूर्ण धरित्री

जब-जब बछड़े
हुमक कर पीते हैं दूध
वत्सला बन जाती है पृथ्वी
रचने लगती है नये-नये छन्द
छितरा जाता है
सम्पूर्ण ब्रह्मांड में
ममत्व का अलौकिक रूप

जब भी रंभाती है
ये गायें
दहल जाती है पूरी प्रकृति
दुलारती हैं नवजात बछड़े को
धरती के सातों समुद्र
मचल-मचल उठते हैं

आज इस हरे-भरे जंगल में
विपदा में पड़ी हैं गायें
मौत खड़ी है सामने
धरकर भूखी बाघिन का रूप

चौकन्नी हैं गायें
प्यार के सुरक्षित घेरों में
समेट रही हैं एक साथ
रंभा रही हैं एक साथ
पुकार रही हैं मुझे
पुकार रही हैं
सदियों साथ चले
चरवाहे को

जिस तरह
नदियों से मिलने के लिए
ऊफनती हैं बरसाती जल-धाराएँ
हवाओं में घुल जाने के लिए
जैसे पसरती है खशबू
जीवन के सम्पूर्ण आवेग के साथ
मैं दौड़ता हूँ गायों के बीच

आज मैं दूँगा सत की परीक्षा
लौटेगी नहीं एक भूखी माँ बाघिन
मैं स्वयं बनूँगा
उसका आहार
और एक क्षण को
रुक जायेगी पृथ्वी की गति
सूरज और चाँद और सितारे
क्षण भर के लिए हो जायेंगे निस्तेज
ब्रह्मांड की संपूर्ण गतियों के साथ
रुक जाएगी
मेरे हृदय की गति
मरूँगा
वीर वीसु राउत की तरह

गायों के थनों से
स्वतः प्रस्फुटित दुग्ध-धार
और आँखों से ढलके आँसुओं के साथ
कोसी नदी की उफनती जल-धारा के संग
बह जाएगा
बचा-खुचा, क्षत-विक्षत मेरा शव

पृथ्वी पुनः हो जायेगी गतिशील
दिक्-दिगंत तक फैल जायेंगी हरियालियाँ
कभी सूखेंगे नहीं आँसू, रुकेगा नहीं दूध
ममता और करुणा की बेली लहराती रहेगी
लहराता रहूँगा युगों तक ध्वज की तरह
मैं-विसु राउत।

4. चाँद की पूरी रात में

चलो विमल, चलो
चलो दूर तलक
इस चाँदनी में नहायी
अनपहचानी पक्की सड़क पर

चलो,
दूर तलक चलो

हमदोनों कुछ नहीं बोलेंगे, विमल
चुपचाप चलेंगे,
चुपचाप
हमारे पैरों की चाप भी
नहीं पैदा करे कोई हलचल
इस चाँदनी के मौन को
हम नहीं करेंगे भंग

देखो, सड़कों पर नन्हें-नन्हें
खरगोशो की तरह
उछल-कूद कर रही है चाँदनी
निस्तब्धता को कर रही है
और भी निस्तब्ध
चू रही है चाँदनी
सड़क के दोनों किनारों के सघन-लम्बे वृक्षों की
फुनगियों से
टपक रही है श्वेत फूलों की तरह
बहुल सम्हल के चलना है हमें
हमसे छू नहीं जाए!

विमल चलो,
चलो विमल, दूर तलक चलो
किस समय लौटेंगे, कह नहीं सकते हम
हम लौटना भी नहीं चाहते
जब तलक तना हो आकाश में
चाँदनी का चँदोवा

तुम कह रहे हो विमल
सर, इस चाँदनी में कुछ तो है
जरूर कुछ है, सर
तभी तो रात-रात भर इसमें
नहाने की इच्छा होती है हमारी
इच्छा होती है
रात-रात भर इसे निहारने की
हाँ विमल, कुछ तो है जरूर
क्यों मैं भी रहता हूँ उद्विग्न
पूरे चाँद की रातों में

सुना है, विमल, सुना है तुमने
सागर की लहरें और भी मचल उठती हैं
चाँदनी में।
हम भी तो शायद
सागर के ही अंश हैं मित्र

हमें लगता है विमल,
(सही कह रहा हूँ-क्यों तो ऐसा बार-बार लगता है।)
कभी पूरे चाँद की रात में ही
मरूँगा मैं
छोड़ जाऊँगा सारी पृथ्वी
इतनी ही खूबसूरत और सुगंध-भरी

लेकिन
अभी तो चलना है बहुत दूर मेरे मित्र
बहुत दूर
इन अनजानी, अनपहचानी सड़कों पर
इस भरी पूरी चाँदनी में
तुम्हारे जैसे मित्रों के साथ
चुप-चाप

5. जहाँ कोई दोस्त नहीं हो

क्या रहना ऐसी जगह
जहाँ कोई दोस्त नहीं हो
नहीं हो कोई हालचाल पूछने वाला

ऐसी जगह क्या रहना
जहाँ दुख की घड़ियों में
कोई प्यार से सर न सहला दे
बीमारी की हालत में
गर्म कलाई अपने हाथ में न ले ले
खुशियों के क्षणों में
अपनों की आंखें
नन्हें पंछियों की तरह
पर न फैलाने लगें

क्या रहना ऐसी जगह
जहाँ कोई मित्र यह नहीं पूछे
आपके किचन में आज क्या बन रहा है?
दूध नहीं है?
कोई बात नहीं
भाभी को कहिये
नींबू की चाय ही पिलायें

ऐसी जगह क्या रहना
जहाँ के लोग कुछ भी मतलब नहीं रखते
कि अन्याय के खिलाफ
लड़ने वाली जुझारू जनता
कहाँ मर-कट रही है
कहाँ कर रही है विकसित
अपना संघर्ष

क्या रहना ऐसी जगह।

6. तीन उपशीर्षकों वाली एक कविता
18 जुलाई, 1994 की रात

(1)
बचा रहे सिर्फ एक बीज

कल की रात
मेरा मानसिक धरातल था बृहस्पतिग्रह
विचारों के धूमकेतु के विशालकाय अग्निपिंड
टकरा रहे थे इससे लगातार

सोचता रहा मैं
हो जाए नष्ट यह बृहस्पति
नष्ट हो जाए पूरा ब्रह्मांड
चर अचर सबकुछ
कुछ भी नहीं बचे
कुछ भी नहीं
मेरी कोई कविता भी नहीं
कोई एक भी शब्द
कुछ भी नहीं बचे
बचा रहे सिर्फ यह छोटा-सा बीज

कल की रात
तनाव में था सारा ब्रह्मांड
ब्राजील के फुटबॉल खिलाड़ी रोमेरियो की तरह
तनाव में थी पूरी प्रकृति
इटली के रोबर्टो वैजियो की तरह
इस तनाव में
कैसे लिखी जाती कोमल कविता
कैसे ढलते शब्द
तानता के चरम-बिन्दु पर
सबकुछ टूट जाता है
टूट जाते हैं
ग्रह-नक्षत्रों के तमाम चुम्बकीय सूत्र

ब्राजील और इटली की तरफ के
गोलपोस्टों के जाल को
विचारों की गेन्द से
मैं करता रहा तार-तार
करता रहा विस्फोट
वहाँ पैदा हो रही है
अग्नि की अपूर्व लपट

अग्नि की इस लपट से
कैसे बचा पाऊँगा मैं
अपनी कोमल कविता
इसके गर्भ में कैसे
समाहित कर सकूँगा
अग्नि की यही लपट
विचारों का अक्षय भंडार

(2)
मजबूत पुट्ठों वाला घोड़ा
(साथी कवि महेश्वर को याद करते हुए)

कल की रात कविताओं में ढूँढता रहा अपना
एक दोस्त
एक एक्टिविस्ट
एक कामरेड
एक चिंतक
एक कवि

आज है वह
सारे ग्रह नक्षत्रों से दूर

जब तक रहा
इस छोटे-से भूखंड पर
टकराता रहा
धूमकेतु की तरह
टकराता रहा
विचारों के बृहस्पति से
       
आज उसके लिए
मेरी कविता बहुत छोटी पड़ रही है
ओछे पड़ रहे हैं शब्द

सदियों से पीड़ित
दुखी
लेकिन संघर्षरत लोगों की
निस्तेज आँखों की वह था चमक

जगह-जगह की ईंटों और
अनगढ़ पत्थरों को हमने
कई बार बटोरा था साथ-साथ
मानव-मुक्ति का पक्का घर बनाने हेतु
हमने रखी थी नींव
विचारों के अग्नि-पिंड से
सघन अंधकार को भेदने की कोशिशें
की थीं हमने लगातार
साथियो,
मैं तो थोड़ा रुक भी गया था-
संशय के बादल
घिर आये थे मेरे गिर्द
रुका नहीं था वह
मृत्यु की गहरी खाई में भी
मजबूत पुट्ठे वाले घोड़े की तरह
दौड़ता रहा था लगातार

उनके लम्बे आयाल
सूर्य की अगवानी में
बिछ गये थे रेड कार्पेट की तरह
मौत को भी धता बताते हुए
वह दौड़ता रहा
आँधी की तरह
तूफान की तरह

संघर्ष के एस्ट्रो टर्फ पर
वह दौड़ता रहा
किसी अथक रोमेरियो की तरह
या कि किसी बैजियो की तरह
निशाना रहा हमेशा गोलपोस्ट

उसके लिए
यह पृथ्वी थी फुटबॉल
पूरी शक्ति के साथ
विचारों के गोलपोस्ट में
दाग दिया था इसे
बिना किसी थकान के
बिना किसी तनाव के

(3)
प्रेमः एक दुर्गम पहाड़
(कवि गोरख पांडे की आत्महत्या पर)

नहीं लिखूँगा
इसबार कोई प्रेम कविता
सोचता रहा था कल की रात

मैं लिखूँगा कविता
एक कवि मित्र के नाम
जिसके लिए
प्रेम था एक दुर्गम पहाड़
प्रेमिका थी
इसी पहाड़ के झीने पर्दे के उस पार

इस पार थी
सड़ी गली व्यवस्था
युगों से शापित मानव-जाति
इसे बदल डालने के लिए
कवि की आँखों में थे सपने
सपनों का ठाठें मारता समन्दर

आँखों में थी
धुंधली सी तस्वीर
उस प्रेमिका की
जो थी दुर्गम पहाड़ के उस पार
पहले ही मैंने कहा था साथियो,
पहाड़ था वह झीना सा पर्दा

सपनों में हटता था यह पर्दा
या यूँ कहिये, उड़ जाता था पहाड़
लगाकर उजले-उजले पंख
और सामने होती थीं हरियालियाँ
सिर्फ हरियालियाँ
सागर के अनन्त विस्तार वाली
हरियालियाँ

कहता था कवि मित्र-
“साथी,
लाल घोड़े पर सवार होकर
आता हूँ इन हरियालियों में
इसे देखते ही जगती है प्यास,
कैसी है यह प्यास!
कैसे बुझेगी यह प्यास!
इन हरियालियों में
पता नहीं क्यों
कहीं नहीं है एक बून्द
मीठा जल
कहीं नहीं फूटता है प्रपात
कहीं से कोई पंछी
चोंच में भरकर नहीं लाता है जल
कहीं किसी पत्ते पर
या फूलों की नन्हीं कोमल पंखुरियों पर
अटका नहीं मिलता है ओस-कण
कितना प्यासा हूँ दोस्त!
दूर देश से आने वाला यह लाल घोड़ा भी
बहुत प्यासा लगता है दोस्त!”

सचमुच बहुत प्यासा था वह
मौत की ठंडी गोद भी
नहीं बुझा सकी उसकी प्यास
फूलों से कटती हुई दिल्ली
बन गई उसका कब्रगाह,

है न सचमुच प्रेम बहुत कठिन
प्रेम कविता लिखना
और भी कठिन है मेरे दोस्त
प्रेम करना तो और भी कठिन।
जीवन से
हाँ, खासकर जीवन से।


7. एक उजली हँसी
(निगार अली के लिए)

हमारी मुलाकात
फिर कभी
शायद ही हो निगार अली

बरहमपुर के सागर के किनारों
की खूबसूरती का संघनित रूप

हजारों हजार श्वेत सीपियों के लेप से
दप-दप तुम्हारा गोरा रंग
और समुद्री फेन-सी
तुम्हारी उजली निश्छल हँसी
शायद ही पसरेगी कभी
फिर मेरे आगे
शायद ही छू सकूँगा कभी
फिर वह हँसी
फिर वह शुभ्र समुद्री फेन

निगार अली,
खूबसूरत ब्यूटीशियन,
कितना जहर घुल गया है हवा में
कैसे ले सकोगी सांस
कैसे बचा सकोगी उजली हँसी
शायद ही मिल सकेंगे हम
शायद ही महसूस कर सकेंगे
फिर कभी एक अजीब
और नैसर्गिक खुशबू

ट्रेन के सफर में
चन्द लमहों की हमारी भेंट
फिर एकदम खुली किताब की तरह तुम
समुद्र के किनारे आकर पसरी
शांत सफेद लहरों की तरह तुम

चन्द लमहों में किताब पढ़ी तो नहीं जा सकती
किनारे पसरी लहरें समेटी तो नहीं जा सकती

तुम्हारी उन्मुक्त हँसी
अब सिर्फ धरोहर है मेरे लिए

बरहमपुर आने का तुम्हारा आमंत्रण
शायद ही कर सकूँ पूरा,
हाँ, जब कभी, कहीं भी,
किसी भी समुद्र के किनारे
जाऊँगा मैं,
और, फिर से
महसूस करूँगा सागर-सौन्दर्य
जब भी छू पाऊँगा
लहरों की नन्हीं-नन्हीं उँगलियाँ
तब-तब मेरे सामने
जहर घुली हवाओं को चीरती
खशबू की तेज आँधियों की तरह
मुस्कुराती मिलोगी
मिलोगी तुम निगार अली।

8. फूल अनगिन प्यार के

मौत की दुर्गम
अँधेरी घाटियों में
तुमने खिलाये फूल
अनगिन प्यार के

मौत थी एकदम खड़ी
बाँहें पसारे सर्द तेरे सामने
और मैं भी था निरंतर गर्म
बाँहों को पसारे मौत के आगे
तुम्हारे सामने

तुम देखती थीं सिर्फ मेरे प्यार को
दर्द में डूबी तुम्हारी आँखों की पुतली
चमक उठती थीं बन ब्रह्मांड की लपटें
इन्हीं लपटों से डर कर रह गयी मृत्यु
हमारे प्यार की ऊष्मा से डरकर रह गयी मृत्यु

अचानक देख लो खुशबू से कैसे तर हुई माटी
अचानक फूल से देखो है कैसे भर गई घाटी

इन अनगिनत फूलों की
कोमल पंखुरी से
है खिला यह धूप का सागर
कि इनकी खुशबू से
भर गई है मौत की गागर

अनगिनत ये फूल,
तुमने ही उगाये हैं
मरण के बाग में खुशबू
भी तुमने ही लुटाये हैं

ये फूल हैं मनुहार के
मौत की दुर्गम अंधेरी घाटियों में
फूल अनगिन प्यार के।


9. ब्रह्माण्ड की रचना

कई हजार वर्षों के बाद
माँ को आई है हल्की सी नींद

शांत रहिए
चुप रहिए
बनाए रखिए निस्तब्धता

निस्तब्धता को करिए
और भी निस्तब्ध

एक तिनका भी अगर खिसका
एक हरी घास ने भी अगर ली
हल्की सी साँस
टूट जाएगी माँ की नींद
स्फटिक से भी अधिक पारदर्शी
और आबदार माँ की नींद

सूरज को कहिए
कुछ दिनों के लिए त्याग दें ऊष्मा
कहिए पृथ्वी को
स्थगित रखें कुछ दिन
धूरी पर घूमना
जितनी नई कलियाँ हैं वृंत पर
हल्के से तोड़ लीजिए
चटकेंगी तो चटक जाएगी
माँ की नींद
ओस की बूँदों को कहिए
पत्तों पर गिरने के पल
न करें कोई आवाज

चर-अचर शांत रहिए

हजारों वर्षों के बाद
माँ की पलकों में
उतरी नींद को
कृपया तोड़िए नहीं

ब्रह्मांड को रचते-गढ़ते
थक गयी है माँ
थोड़ा विश्राम दीजिए।


10. लाल चिरैया

लिये चोंच में
घास किरन की
पूरब में हर सुबह-सुबह क्यों
लाल चिरैया आती है?

बैठी मेरे घर की छत पर
देहरी पर
फिर धीरे-धीरे आंगन में भी
घास किरन की छितराती है

उछल-कूदकर शोर मचाती
दाना चुगती, पानी पीती
फिर किरनों की घास समेटे
लिए चोंच में
पच्छिम को उड़ जाती है।

11. शब्द और रंग

एक

आज की रात
आकाश में है भरा-पूरा चाँद
सागर के अनंत विस्तार पर
तनी हुई है चाँदनी

आज सारी रात
हम सुनेंगे
सागर-संगीत की विविधता
हम गौर से सुनेंगे
एक-एक सिम्फनी के छोटे-छोटे नॉट्स

सारी रात गिनेंगे हम
लहरों पर नाचती
एक-एक चाँदनी
जो कर रही है पैदा
जादुई करिश्मा
प्रतिक्षण प्रतिपल
बुन रही है
मायावी संसार का जाल

हम खोज रहे हैं शब्द
सहायता करना, मित्रे
शब्द ढूँढ़ने में
सहायता करना
रंगों के माध्यम से
भाषा की तलाश में
ऐसी भाषा
जो अभिव्यक्त कर सके
सागर-सौंदर्य
अभिव्यक्त कर सके
मेरे हृदय की भावनाएँ
बहुत आसानी से छू सकें जिन्हें
तुम्हारी कोमल पतली उंगलियाँ

आज हम
बैठेंगे सारी रात
एक-दूसरे की उपस्थिति का
करते हुए सार्थक अहसास
एक-दूसरे के जीवन
की किताबों की खाली
जगहों पर
लिखते हुए एक नई कविता
भरते हुए
उदासी के कई कई रंग

दो

बीत गई न रात
हाँ, बीत ही गई
देखिये न, थोड़ा उधर देखिये
पंछियों का एक बड़ा सा झुंड
समुद्र की लहरों को छूता हुआ
अभी-अभी
गुजर गया है पूरब की ओर
घोल गया है लहरों में
हलचल और कलरव का संगीत
फैला गया है चारों ओर
इसी संगीत की खुशबू

मछुआरे पैठ गये हैं
समुद्र में
छोटी-छोटी नौकाओं के साथ
और
सूरज के उगने के पहले की लाली
बिछ रही है लहरों पर
निस्तेज हो रहा है
रातभर का चला चाँद

उठिये,
चलिये अपने-अपने कमरे में
उठ रहे होंगे
साथ के लड़के और लड़कियाँ
कहेंगे पागल हैं हमलोग
छत पर बैठे रह गये सारी रात
और भी कुछ कह सकते हैं
और भी कुछ......।

                                                                                कवि परिचय

नाम-  सुरेंद्र स्निग्ध
राज्य- बिहार
जन्म- 5 जून 1952 ई० में पूर्णिया जिले के सुदूर एक ठेठ देहात ‘सिंघियान’ में। शिक्षा पटना विश्वविद्यालय से। पटना विश्वविद्यालय में अध्यापन। 2015 में हिंदी विभाग,  पटना विश्वविद्यालय के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्तप्रतिबद्ध संस्कृतिकर्मी एवं लेखक संगठनकर्ता के रूप में भी पहचान। नव जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा, बिहार तथा जन संस्कृति मंच के संस्थापक सदस्यों में एक। कई विवादास्पद मुद्दों पर अपनी स्पष्ट मान्यताओं के साथ आम पाठकों के बीच निरंतर उपस्थिति।
मूलतः कवि। उपन्यास और कई आलोचनात्मक गद्य रचनाएँ प्रकाशित तथा बहुचर्चित। ‘गांव-घर’ ‘भारती’  ‘नई संस्कृति’, ‘प्रगतिशील समाज’(कहानी विशेषांक) ‘उन्नयन’ के बहुचर्चित बिहार कवितांक का संपादन।

निधन-  18 दिसंबर 2017
पुरस्कार- ‘बनारसी प्रसाद भोजपुरी’ सम्मान, ‘बिहार राष्ट्रभाषा सम्मान’ 2017

कविता-संग्रह-
छह कविता-संग्रह प्रकाशित।

1. पके धान की गंध(1992), साहित्य संसद, नई दिल्ली
2. कई-कई यात्राएँ(2000), पुस्तक भवन, नई दिल्ली
3. अग्नि की इस लपट से कैसे बचाऊँ कोमल कविता(2005),  नई संस्कृति प्रकाशन
4. रचते-गढ़ते(2008), किताब महल, इलाहाबाद
5. मा कॉमरेड और दोस्त(2014),विजया बुक्स, दिल्ली
6. संघर्ष के एस्ट्रोटर्फ पर(2016), अभिधा प्रकाशन, मुज़फ्फरपुर

गद्य रचनाएँ-

1. जागत नीद न कीजै (टिप्पणियों का संग्रह),2008,  सुधा प्रकाशन, पटना
2. सबद सबद बहु अंतरा( टिप्पणियों का संग्रह), 2000,  राजदीप प्रकाशन , नई दिल्ली
3. नयी कविताः नया परिदृश्य(आलोचना पुस्तक),2007,  किताब महल प्रकाशन
4. प्रपद्यवाद और केसरी कुमार(आलोचना पुस्तक), बिहार राष्ट्रभाषा परिषद से

उपन्यास-

1. छाड़न(2005), पुस्तक भवन, नई दिल्ली से प्रथम संस्करण, बाद में किताब महल, इलाहबाद से
2. मरणोपरांत  एक अपूर्ण उपन्यास ’कथांतर‘ पत्रिका के जुलाई 2018 अंक में
'उस द्वीप की रूपक कथा'  नाम से प्रकाशित।