आयाम–साहित्य का स्त्री स्वर : दूसरा वार्षिकोत्सव




22 जुलाई 2017 की सुबह...जे डी वीमेन्स कॉलेज, बेली रोड, पटना का ऑडिटोरियम आधी आबादी की सक्रिय मौजूदगी से जीवंत था। आखिर क्यों न हो, यह दिन 'आयाम–साहित्य का स्त्री स्वर' का स्थापना दिवस जो है तथा यह मौका उसके दूसरे वार्षिकोत्सव का था। 'आयाम' एवं जे डी वीमेन्स कॉलेज के साझे आयोजन का विषय था–समकालीन महिला लेखन : चुनौतियां एवं संभावनाएं। जाहिर है, चर्चा बिहार के विशेष संदर्भ में होनी थी।

तो इस आयोजन की शुरुआत हुई, मंगलाचरण से...सविता सिंह नेपाली की मधुर मखमली स्वर में सब खो ही तो गए थे। गीत था पंडित नरेन्द्र शर्मा का लिखा – 'ज्योति कलश छलके।' उसके पश्चात डॉ. मीरा कुमारी, प्राचार्या, जे डी वीमेन्स कॉलेज की अध्यक्षता में प्रथम सत्र की शुरुआत हुई...संचालन भावना शेखर कर रही थीं। सविता सिन्हा द्वारा 'आयाम' की स्थापना के उद्देश्य बताये गये। उन्होंने कहा कि विद्रोह का पहला क्षण अभिव्यक्ति है। दो साल पहले डॉ. उषाकिरण खान के निमंत्रण पर कई रचनाकार जुटीं तथा धूसर और लहूलुहान यथार्थ को अभिव्यक्त करने हेतु 22 जुलाई 2015 को 'आयाम' की स्थापना हुई। 

इसके उपरांत डॉ. उषाकिरण खान द्वारा स्त्री-साहित्य पर बात रखी गयी। उन्होंने अफ़सोस जाहिर करते हुए कहा कि स्त्रियां घर से निकल बाहर तक तो आयीं हैं, पर उन्हें मान्यता नहीं मिली है। कोई भी पुरुष पहली कहानी अपनी दादी या नानी से ही सुनता है। बिहार के सौ साल के साहित्यिक इतिहास को ही देखा जाय तो महिला साहित्यकारों के कई उदाहरण मिलेंगे। रशीदन बी, बिन्दु सिन्हा, शांता सिन्हा आदि रचनाकारों की चर्चा कहाँ हो पाती हैं। हमारे साहित्यिक समाज में इनपर ध्यान देने की अहमियत नहीं समझी गयी। आज भी किसी महिला रचनाकार की कृति सराही जाती है या पुरस्कृत होती है तो यही बात उड़ायी जाती है कि किसी समर्थ या असमर्थ पुरूष अपनी रचना लिखकर उसे दे देता है। मैं कहना चाहती हूं कि फिर वे अपने लिए क्यों नहीं उस स्तर की रचनाएं लिख पाते हैं। आज महिलाएं संवाद करना चाहती हैं...विचार-विनिमय करना चाहती हैं। इस कारण ही 'आयाम' का आविर्भाव हुआ है।

अब बारी थी आलोचक डॉ. रोहिणी अग्रवाल की। उन्होंने कहा कि अपने सपनों का पीछा करते हुए पटना नहीं, पाटलिपुत्र आई हूँ। यहाँ आते ही दो साहित्यिक विभूतियां–रेणु और दिनकर याद आते हैं। रेणु के 'मैला आँचल' की कई पात्रों से होते हुए दृष्टि मठ के महंत के शोषण तले छटपटाती लक्ष्मी पर जाती है। बिहार और उसके बाहर आज भी कई लक्ष्मी अपने वजूद के लिए संघर्षरत है। यहाँ ध्यान देने की बात है कि लक्ष्मी का शोषण महंत नहीं, बल्कि धर्म की सत्ता कर रही है। यह सत्ता मनुष्यता को खंडित करती है। धर्म सांस्कृतिक प्रवंचनाओं का मोहक रूप लेकर सामने आता है। आज के स्त्री-लेखन की असल चुनौती इन्हीं प्रवंचनाओं से है जो संस्कृति को स्त्रीत्व का पर्याय बताती हैं।

रोहिणी अग्रवाल ने आगे कहा कि दिनकर की 'उर्वशी' में दृष्टि उर्वशी और पुरुरवा के मांसल प्रेम से इतर सुकन्या पर जाती है। वह कहती है कि जिसने हमें सिरजा था, वह प्रकांड पुरूष था, इस कारण उसने पुरुष को स्वत्त्व हरण की प्रवृत्ति दी तो स्त्रियों को अपने अधिकार गँवा कर कृतार्थ होने की। सुकन्या आगे कहती है कि अगर उन्हें सृजन का निर्बाध सुयोग मिला तो ऐसे पुरुष की रचना करेंगी जो उनकी मौन-व्यथा को सीधे सुन सकेगा। इस तरह दिनकर स्त्री-संवेदी पुरुष की कल्पना करते हैं।

अपने वक्तव्य को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा कि 'कठगुलाब' में मृदुला गर्ग एवं 'डाउनलोड होते हैं सपने' में गीताश्री स्त्री-संवेदी मन की गहराई में जाती हैं। अपने सपनों को पीछा करने की दृढ़ता एवं आकाश खोजने की जिद ही तो संभावना है। कमलेश्वर की कहानी 'तलाश' में विधवा मां अपने प्रेमी से शादी करना चाहती है, पर यहां बेटी ही विरोध कर देती है। वहीं कविता की कहानी 'उलटबांसी' में सत्तर साल की मां का साथ उसकी बेटी एवं पोती देती है। 

उन्होंने आगे कहा कि पुरूष लेखन अपने अंदर नहीं झाँकता, जबकि स्त्री अपने भीतर अपने आपको ही मथती है यानी स्त्री लेखन आत्मालोचना है। आज की स्त्री को पितृसत्ता की सही समझ है। वह धर्म एवं संस्कृति द्वारा रची गयी प्रवंचनाओं का विरोध करना जानती है। वह जानती है कि स्त्री देह नहीं विवेक है। धार्मिक संस्कार स्त्रियों को याचक बनाते हैं। आज की महिला रचनाकार धर्म के सही स्वरूप को पहचानती है। मधु कांकरिया अपनी रचना 'सेज पर संस्कृत' में बताती हैं कि धर्म विवेक को कुंद करता है। स्त्री के भीतर का हाहाकार पितृसत्ता के खिलाफ है और इसका शिकार स्वयं पुरुष भी है।

साहित्य और यथार्थ के संबंध पर उनका कहना था कि "साहित्य यथार्थ का ज़ेरॉक्स नहीं है। आम आदमी जो नहीं देखता, उसे साहित्यकार देखता है। वह इहलोक के समानांतर एक लोकोत्तर सत्ता है।" स्त्री रचनाकारों के बोल्ड लेखन पर उनका कहना था कि पुरुष बन जाना स्त्री-लेखन का अभीष्ट नहीं है। यह तो देह एवं दैहिक संबंधों को चिकन या रसगुल्ला की तरह पेश करना हुआ। कवयित्रियों के संबंध में उनके द्वारा कोई महत्वपूर्ण टिप्पणी नहीं की गयी। उन्होंने स्पष्ट कहा कि वे कविताएं अधिक नहीं पढ़ पातीं।

डॉ. रोहिणी अग्रवाल के वक्तव्य के पश्चात डॉ. मीरा कुमारी, प्राचार्या, जे डी वीमेन्स कॉलेज के अध्यक्षीय भाषण से इस सत्र का समापन हुआ। इसके बाद नीलाक्षी सिंह द्वारा उनके आनेवाले उपन्यास-अंश का पाठ किया गया। फिर अलका सरावगी द्वारा उनके प्रकाशनाधीन उपन्यास 'एक सच्ची-झूठी गाथा' के अंश का पाठ किया गया। दोनों लेखिकाओं का कथा-पाठ बहुत ही प्रभावपूर्ण रहा।

भोजनावकाश के पश्चात वरिष्ठ आलोचक खगेन्द्र ठाकुर की अध्यक्षता में कविता-सत्र आरंभ हुआ। सत्र का संचालन रानी श्रीवास्तव कर रही थीं। संध्या सिंह, मीरा श्रीवास्तव, अंजना वर्मा, पूनम सिंह, रश्मि रेखा, प्रतिभा चौहान, भावना एवं पंखुरी सिन्हा द्वारा प्रवाहमय काव्य-पाठ सुनने का अवसर श्रोताओं को मिला। उनमें आधी आबादी के सपने भी थे तो संघर्ष भी...लोक का आकर्षण उनकी कविताओं में था तो सुदृढ़ परंपरा के प्रति आदरभाव भी। आयोजन में हृषिकेश शुलभ, कर्मेन्दु शिशिर, शिवदयाल, शिवनारायण, अवधेश प्रीत, निवेदिता झा, सुनीता गुप्ता, नताशा, अरुण नारायण, सुशील कुमार भारद्वाज, बालमुकुन्द, सत्यम कुमार, नरेन्द्र कुमार आदि रचनाकारों की उपस्थिति महत्वपूर्ण रही

अंत में सुमन सिन्हा द्वारा धन्यवाद ज्ञापन हुआ और 'आयाम' का दूसरा वार्षिकोत्सव अपनी पूरी सार्थकता के साथ संपन्न हुआ।

नताशा की कविताएं



कोई रचना तभी सार्थक हो सकती है, जब उसमें अंतर्निहित कथ्य संवेदना के स्तर पर सीधे पाठकों से जा जुड़े। नताशा की कविताओं को पढ़ते हुए आप ऐसा महसूस कर सकते हैं। उनकी कविताओं में पाठकों तक शीघ्रातिशीघ्र पहुंचने के लिए कोई जादू-सरीखा आख्यान नहीं है, बल्कि समकालीन यथार्थ एवं उनसे उत्पन्न परिस्थितियां सहज रूप में खुद-ब-खुद पाठकों के सामने आ खड़ी होती हैं। रचनाओं में जो संघर्ष और प्रतिरोध दिखता है...उसका रूप अराजक नहीं है, बल्कि वह औषध की तरह है जो नाउम्मीदी के जाले हटाती है। वे बात करती हैं, मनुष्यता के बचे रहने की...सारी संभावनाओं के साथ। और कहती हैं – "कविता ही बचाएगी मनुष्यता को।" उनकी नई कविताओं के संग हो लेते हैं फिर..!

1. बिवाइयां

उसने उठा रखा है देह का सारा बोझ
और आहिस्ता-आहिस्ता दरकता है
फिर भी मुस्कुराता है
अपने कई-कई होठों से

बिवाइयां
तलवे के माथे की शिकन हैं!

2. कविता के लिए

कविता बचाएगी मनुष्यता
पर कविता को कौन बचाएगा?

कलाबाजियां तो बिल्कुल नहीं
मंच पर कवि पहुंच भी जाए
तब भी मनुष्यता तक पहुंचने के लिए
कविता को दृष्टि और दिशा चाहिए
किसी पाले में हो कवि का पालना
कविता का विस्तार दुर्गमता के पार ही है

एक विचार आया मुझे इस वक्त
कि पृथ्वी अपने फेवरिट खेल के किस इनिंग में है
पक्ष जिस तरह विपक्ष के लिए शॉट लगाता है
उसमें एक आउट तो निश्चित है
गेंद हथेलियों के घरौंदे में आए
या तोड़ के घरौंदा
पूरा मैदान अधिकृत कर ले!

चिंताओं के हवन कुंड की सिकुड़न
इस समय की बड़ी समस्या है
जमीन के एक-एक इंच में
चिंताओं के विरुद्ध
कसम ली थी मनुष्यता ने
उखाड़ लाएंगे चिंताओं की जड़ बुद्धियों को!
मगर यह हो न सका

बात मनुष्यता बचाने की चिंता से शुरू हुई थी
और यह अब भी चिंता के मूल में है
मध्य में भी चिंताएं ही हावी रहीं
देश में खींची जा रही लकीरों से अधिक
लकीरें हैं चेहरों पर नुक्कड़ के नौजवानों की
बहस मुहासिब के आका
इस बात से निश्चिंत हैं

मुझे चिंता है कविता की
इन प्रपंचों के बीच

क्योंकि हर बार  दोहराने की बात है
कविता ही बचाएगी मनुष्यता को !

3. बचा रहे सब

बरसती रहें फुहारें
कमतर हो मन की अंगिठियों का ताप
जैसे पीली धूप में शामिल होती है आग

सीपियों की कोख में बूंद के रूपांतरण भर
व्याप्त हो सके ऊष्मा
बचे रहें मोतियों के सुराख़
सूत्र के आवागमन भर!

4. चाह

मैं धरती के किसी हिस्से में
गुमशुदा पानी के बूंद-सा
जरूरी होना चाहती हूं
मेरा पता सदैव
इन्हीं रेतीले रास्तों से होकर गुजरा करे

कुएं, तालाब पर
जमी परतों के खिलाफ
मैं सबसे आखिर तक
एक कतरा बूंद सदृश
जरूरी होना चाहती हूं।

इसकी कोई शर्त नहीं
कि आधी रात नींद खुलने पर
रात से डरा जाए
या उसकी कराह से कर जुगलबंदी
बेरहमी से काटी जाए रात
जबकि वह टीस में है !

रात नीत्शे को स्वप्न में देखा
जब जागी
तब मां कलाई में मन्नत का धागा बांध रही थी
मां, इन धागों से कह दो
मुझे बचाए यह वहां तक पहुंचने से
जहां अपने से ज्यादा कुछ दिखाई  न दे
अवरुद्ध न करे मेरे प्रश्नों के रास्ते को

वैसे भी
इन दिनों सहमतियों से शक्लें गायब हो रही हैं,
संबंध ज्यादा नजर आ रहे हैं
मुझे उत्तर में बिकी हुई सहमतियां नहीं चाहिए
उस बेचैन कवि का संगतपूर्ण निष्कर्ष चाहिए
जिसके दिमाग की नसों को
मेंजाइटिस के चूहों ने कुतर डाला था ।

संपर्क :
नताशा
अध्यापिका एवं पटना दूरदर्शन के साहित्यिकी कार्यक्रम में संचालिका
मोबाइल - 09955140065
ईमेल - vatsasnehal@gmail.com

पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा : सुशील कुमार भारद्वाज


सुशील कुमार भारद्वाज युवा कहानीकार एवं समीक्षक हैं। उनका साहित्यप्रेम उन्हें एक सजग एवं गंभीर पाठक बनाता है। वे पढ़ने के पश्चात अपनी पाठकीय राय नियमित रूप से साझा करते हैं। हाल ही में उन्होंने चित्रा मुद्गल का उपन्यास 'पोस्ट बॉक्स न० 203 नाला सोपारा' पढ़ा है। आइये, 'पाठकनामा' के सफ़र में हो लेते हैं उनके साथ।


चित्रा मुद्गल का उपन्यास 'पोस्ट बॉक्स न० 203 नाला सोपारा ' समाज से बहिष्कृत और तिरस्कृत किन्नरों की जिंदगी के विविध पहलुओं को उकेरने की एक कोशिश है। उपन्यास में लिखे सारे पत्र नायक (पात्र) विनोद के ही हैं। पत्रों के माध्यम से विनोद जहां सामान्य-सी अपनी पारिवारिक और सामाजिक रस्मों–रिवाज एवं समस्याओं को उकेरने की कोशिश करता है वहीं वह अपने अड्डे पर होने वाली घटनाओं का जिक्र कर हिजड़ों की दुनिया की एक छोटी-सी तस्वीर भी पेश करता है। कुल सत्रह पत्रों में तीन से चार बार विनोद का पता बदल जाता है एक काल-खंड विशेष में।

उपन्यास में बताने की कोशिश की गई है कि किन परिस्थितियों में एक बच्चे का जन्म होता है। वह बच्चा किस प्रकार सामान्य लोगों के बीच असामान्य होते हुए भी सहज होने की कोशिश करता है। उसके बाल-सुलभ प्रश्नों को किस प्रकार टाल दिया जाता है। पढ़ाई के प्रति उसका कितना लगाव है और किस प्रकार उसके सारे सपने एक ही झटके में टूट कर बिखर जाते हैं जब चंपाबाई उसे हिजड़ों के समुदाय में शामिल करने के लिए जबर्दस्ती ले जाती है। परिवार वाले विनोद को बचाने की हर संभव कोशिश करने के बाद प्रतिकूल परिस्थितियों के सामने नतमस्तक हो जाते हैं। घरवाले घर–परिवार की इज्जत–प्रतिष्ठा के लिए न सिर्फ अपने रिश्तेदारों और विद्यालय से विनोद की सच्चाई छिपाते हैं बल्कि मरने की भी अलग-अलग कथा गढ़ लेते हैं...घर बदल लेते हैं। लेकिन विनोद अपने नये परिवेश और दुनिया में ढलकर भी सहज नहीं हो पाता है। शारीरिक रूप से विकृत और मानसिक एवं भावनात्मक रूप से विस्थापित विनोद उर्फ बिन्नी उर्फ दीकरा या बिमली अपने नारकीय कैद जिंदगी से पलायन भी करता है लेकिन जगह बदलने के सिवाय कुछ भी नहीं बदलता है। उसकी स्वतंत्रता भी सरदार के इच्छा विरुद्ध और सीमित दायरे में है, भले ही वह सबसे अलग दिखने की भरसक कोशिश करते रहता हो, जिसमें उसका कोई दोष भी नहीं है बल्कि वह माता-पिता और समाज की क्रूरता का प्रतिफल है। होश में आने के बाद वह घरवालों की सुध लेता है लेकिन वहां भी नकार दिया जाता है...अपरिचित और अछूता बना रहता है। अपमानित होने के बाबजूद किसी अज्ञात स्वाभिमान और स्वार्थवश अपनी माँ को दुविधा में रख चोरी-छिपे घर से जुड़ाव रखता है। फोन से होने वाली असजहता के कारण पत्र ही संवाद का जरिया बनता है, लेकिन विनोद के लिखे पत्रों को भी घर का पता नसीब नहीं होता है। सारी भावनाएँ, सारी चिंताएं, सारी शुभेच्छाएं और सहानुभूति कई–कई दिन तक पोस्ट बॉक्स न० 203 नाला सोपारा में छटपटाती रहती हैं। उन पत्रों को पढ़ने और बर्बाद करने या छिपाने में जितनी सतर्कता बरती जाती उतना ही कष्टसाध्य है सबसे छिपाकर उन पत्रों का जवाब देना।

पत्रों में विनोद की भाषा यथार्थ की कम और आदर्शवाद की अधिक है, भले ही वह अपने घरेलू मसले पर व्यवहारिक बनने की कोशिश करता हो। शिक्षा के महत्त्व की बात होती है तो वैकल्पिक रोजगार की भी। गाड़ी धोने से लेकर कंप्यूटर चलाने और मोबाइल जैसे आधुनिक तकनीकों की भी चर्चाएं होती हैं।

राजनेताओं के बीच भी वह सहज नहीं रह पाता, वहां भी अपनी नई राह तलाशने की कोशिश करता है। कठपुतली बनना उसे मंजूर नहीं। वह किन्नरों के स्वाभिमान की बात करता है। आरक्षण की सीढ़ी को वह पसंद नहीं करता। समाज में उनकी वापसी की वकालत करता है। जाति–धर्म जैसी कुप्रथा से परे किन्नरों को वह फिर से उनके उन्हीं प्रचलित खांचों में स्त्री–पुरुष के रूप में रखकर आरक्षण की बात करता है।

उपन्यास का अंत निराशाजनक है। न विनोद घर वापसी कर पाता है ना ही बा यानि विनोद की माँ वसीयत को अख़बारों में छपवाकर भी अपने दीकरा को कोई सुख दे पाती है, भले ही इसे एक अच्छे कदम के रूप में देखा जाए। दोनों अपनी–अपनी विधि अकाल काल के गाल में समा जाते हैं।

भले ही किन्नरों की जिंदगी की पड़ताल करती किताबें कम लिखी गईं हों लेकिन फिल्मों के माध्यम से इनकी सामाजिक और राजनीतिक भूमिका लोगों के नज़रों के सामने खूब आईं हैं। हिजड़ा कहें या किन्नर...शब्द बदल जाने के बाबजूद न तो गाली के मायने बदल गए हैं न हीं इनके जीवन में कोई खास बदलाव आया है। जड़ समाज में जागरूकता के असर पर चुप्पी ही ज्यादा कारगर है लेकिन विभिन्न परिस्थितियों में व्यक्तिगत रूप से कुछ किन्नरों को विभिन्न व्यवसाय में लगे कमोबेश जरूर देखा जा सकता है। कोख पर माँ की स्वतंत्रता या हक की बात करना आसान है लेकिन यथार्थ कोरी–कल्पना ही है। कदम (आवाज) तो वाकई में स्वागत योग्य है लेकिन विचारणीय यह भी है कि क्या वाकई में भ्रूण हत्या के मामले में भी स्त्री अभी तक स्वतंत्र हो पाई है एक दो उदाहरण को छोड़ कर। पूरे उपन्यास में बहुत कुछ नयापन नहीं दिखता है सिवाय आरक्षण के विरुद्ध आवाज उठाने के। पढ़ने के दरम्यान यह भी खलता जरूर है कि माँ के एक भी पत्र को ज्यों का त्यों नहीं रखा गया है।

जहां तक शब्दों के चयन और भाषा की शिष्टता की बात है तो उस पर चित्रा मुद्गल का अपना अधिकार है। कहीं-कहीं वर्णन उबाऊ भी लगता है लेकिन पढ़ने में में वह कहीं भी बाधक साबित नहीं होता है। उपन्यास का अंत न सिर्फ दारुण कथा का व्याख्यान है बल्कि आपको निःशब्द कर सोचने–विचारने पर भी मजबूर कर देता है। हिन्दी या अंग्रेजी साहित्य में इस तरह का उपन्यास एक अरसे के बाद पढ़ने को मिला है।

संपर्क:-
सुशील कुमार भारद्वाज
A-18, अलकापुरी, 
पो - अनिसाबाद, थाना - गर्दनीबाग, जिला – पटना (बिहार), पिन – 800002, मोबाइल - 8581961719



यादें जो भुलाये न बने : अरुण नारायण



वे दिन समीक्षक एवं पत्रकार अरुण नारायण के फ्रीलांसिंग जीवन के संघर्ष के थे, जब उनकी जान-पहचान हिंदी साहित्य के अद्भुत रचनाकार मनोहर श्याम जोशी से हुई। उनके सान्निध्य में अरुण जी को साहित्य की बारीकियां समझने में मदद मिली तो दिल्ली की साहित्यिक दुनिया की राजनीति को भी करीब से देखने-समझने का मौका मिला। पर सबसे बेहतरीन चीज जो निकल कर आयी, वह थी अपने को जानना एवं मूल्यांकन करना। अपने संस्मरण में उन्होंने जितनी बेबाकी से मनोहर श्याम जोशी की खूबियों-खामियों का उल्लेख किया है उतनी ही ईमानदारी से अपने बारे में लिखा है। 


यादें जो भुलाये न बने

मनोहर श्याम जोशी से दिल्ली में संघर्ष के दिनों जान-पहचान हुई। वे मेरी फ्रीलांसिंग जीवन के बेहद कटु दौर थे और उतने ही दिलचस्प भी। इस पहचान के माध्यम पंकज बिष्ट थे। बिष्ट जी से मेरी बेहद अंतरंगता थी। मासिक ‘समयांतर’ के वैश्वीकरण विशेषांक की उन दिनों तैयारी चल रही थी। इसके लिए मनोहर श्याम जोशी से भी एक लेख लिखवाने का निर्णय लिया गया था और इसके लिए उन्होंने अपनी सहमति भी दे रखी थी। ‘ग्लोबल गांव का सांस्कृतिक संकट’ नाम से उक्त अंक में जोशी जी का वह लेख छपा। इस लेख के डिक्टेशन लेने के दौरान ही जोशी जी से मेरी पहली भेंट हुई। यह पहचान आने वाले दिनों में और प्रगाढ़तर हुई। पहली बार इस सिलसिले में पंकज बिष्ट के अनुरोध पर ही जनवरी 2005 में उनके घर गया था। तब वह साकेत में डी.डी.ए-53 के फलैट में रहते थे। उस समय दिल्ली में भयंकर ठंढी थी। पंकज बिष्ट और रामशरण जोशी की सख्त हिदायत थी कि हर हाल में हमें जोशीजी से वह आलेख लिखवा कर ही दम लेना है। उस दिन मैं कनाट प्लेस की बस से साकेत स्थित उनके आवास पर पहुंचा था। उनका आवास खोजने में कोई खास परेशानी नहीं हुई थी। फोन पर हुई वार्ता में जोशी जी ने बतलाया था कि उनके घर के सामने कपड़े पर आयरन करने वाला ठेला लगाता है। उनके घर पहुंचने के रास्ते उस ठेले वाले पर नजर गई तो मैंने जोशी जी के बारे में उससे पूछा। उनके घर की ओर इंगित करते हुए इशारों में उसने रास्ता बतला दिया। मकान की बाहरी ओर से पतली-सी सीढ़ियां थी जो प्रथम तल पर जाती थी। इसी प्रथम तल्ले पर रहते थे जोशी जी और ठीक सीढ़ी के पास ही उनके नाम का एक बड़ा-सा लेटर बाॅक्स टंगा रहता जिसमें देश भर से आयी बेशुमार पत्रिकाएं और पत्रों की बाढ़ लगी रहती। बेल बजाई तो उन्होंने स्वयं दरवाजा खोला। मेरे आगमन और औपचारिक अभिवादन बाद वे मुझे बालकनी की ओर ले आये। वहां पहले से ही तीन कुर्सियां लगीं थीं। जिसमें एक पर उनकी पत्नी बैठी थीं। वह नाटे कद की थीं। उस समय स्वेटर या अन्य कोई ऊनी पोशाक बुनने में अपनी रफ्तार में मगन थीं। जोशी जी ने बैठने का इशारा किया और एक सक्षिप्त-सी जानकारी मुझसे ही मेरे बारे ली। फिर लेख लिखवाने के लिए पैड और कलम मुझे थमा दिया। उस दिन वह लेख पूरा नहीं हो पाया। उन्होंने अगले दिन बुलाया। दूसरे दिन भी पूरे दिन उनका बोला हुआ लिखता रहा, लेकिन उस दिन भी वह लेख पूरा नहीं हो पाया। दरअसल जोशी जी जैसा चाहते थे, वह लेख, वैसा बन नहीं पा रहा था। वे बार-बार लिखवाते, काटते और कभी-कभी पूरा लेख ही काट देते और नए सिरे से फिर शुरू करवाते। यह सब करते-कराते तीसरा दिन भी गुजर गया। और तब भी बात नहीं बनती दिखी। उधर ‘समयांतर’ का अंक फाइनल होकर बेसब्री से उस लेख की प्रतीक्षा में था। बार-बार पंकज बिष्ट और रामशरण जोशी जी का फोन आता। लेकिन मनोहर श्याम जोशी जी की दुविधा यह थी कि वह लेख जैसा वह चाह रहे थे बन नहीं पाया था। अंततः उन्होंने लगातार प्रेशर के कारण असंतुष्ट भाव से वह लेख दिया जो ‘समयांतर’ के फरवरी, 2005 वाले वैश्वीकरण विशेषांक में छपा। उस विशेषांक का अतिथि संपादन रामशरण जोशी ने किया था और संपादन सहयोग में मेरा भी नाम था। संपादन से जुड़ाव और पंकज बिष्ट की घनिष्ठता के कारण यह लाजिमी ही था कि जोशी से से उक्त आलेख को पाने के लिए मैं इतनी मशक्कत करता। 

मनोहर श्याम जोशी के साथ तीन-चार दिनों तक काम करने का यह अनुभव काफी उबाऊ और नीरस था। यह बात तब मेरी समझ से परे थी कि कोई व्यक्ति इस हद तक यातनामय होकर भी लिखने में रत रह सकता है। इस लेख को लिखवाने में वे जबर्दस्त मानसिक यातना और उलझन से रू-ब-रू हुए थे। और मैं बार-बार उनके लिखे हुए को काटे जाने से खीझ उठता था। लेकिन जब उन्होंने अपने लिखे हुए का डिक्टेशन लेने का अनुरोध मुझसे किया तो उनके प्रति अपनी इन तमाम आरंभिक नकारात्मक बातों के बावजूद पता नहीं क्यों, इतनी जल्दी उनके बोले हुए को लिखने के उनके प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार भी कर लिया था। इसके पीछे कहीं न कहीं मेरा यह मनोविज्ञान काम काम कर रहा था कि हिंदी के इतने महत्वपूर्ण लेखक की सदिच्छा का सम्मान किया जाना चाहिए। शायद यही वह दायित्वबोध था जिसके दवाब मैंने हामी भरी थी। फिर यह जिजीविषा भी कहीं न कहीं रही थी यह जानने की कि इतने बड़े लेखक की सृजन प्रक्रिया की बारीकियों को समझूं...कि वह किन-किन प्रक्रियाओं से होकर किसी रचना को उसकी परिणतियों तक पहुंचाता है। उस समय मैंने यही तय किया था कि फिलहाल फ्रीलांसिंग को थोड़ा विराम दूंगा और कायदे से लेखन की बारीकियों का जोशी जी से क, ख, ग, घ सीखूंगा। मैंने अपने मन को समझाया था कि लेख लिखवाने की जोशी जी की मनःस्थिति नहीं रही होगी इसलिए शायद उन्हें उस समय इतनी मशक्कत करनी पड़ी होगी। लेकिन बाद में मैंने पाया कि वे ‘आउटलुक’ वाले साप्ताहिक स्तंभ लिखवाने और और उपन्यासों में भी इसी तरह कई-कई बार काट-छांट करवाते हैं। मैंने डेढ़-दो महीने लगातार उनके साथ काम किया। उस समय वे ब्रिटिशकाल के चर्चित ‘भुवाल स्टेट कांड’ पर अपने उपन्यास ‘मैं कौन हूं’ का दूसरा ड्राफ्ट तैयार कर रहे थे और चाहते थे कि होली के बाद अपने बेटे के अमेरिका स्थित घर जाने के पहले ही पूरा कर लें और इसे वाणी प्रकाशन को शीघ्र सौंप दें ताकि उनके अमेरिका से लौटते-लौटते वह साया हो जाए। हालांकि उस अवधि में उनकी यह योजना पूरी नहीं हुई और होली आ जाने के कारण मैं भी घर लौटने का बहाना कर एक अखबार में डेस्क पर अपनी नौकरी तय कर ली। यह नौकरी मुझे पहले भी मिल रही थी, लेकिन मैं द्वंद्व में था कि आखिर रास्ता कौन-सा चुनूं? अखबार की नौकरी के अपने बहुत सारे खतरे थे। वहां पैसे बहुत कम मिलते और काम का दबाव इतना ज्यादा होता कि पढ़ने का समय ही नहीं मिलता था। जोशी जी के साथ काम करने का अनुभव आर्थिक रूप से काफी घाटे वाला प्रतीत हो रहा था। वे इतना भी पैसा नहीं दे पा रहे थे जिससे मैं रहने-खाने के खर्च की चिंता से मुक्त हो सकूं। हालांकि वे आश्वासन खूब देते थे। उस दरम्यान वाणी प्रकाशन में मेरी नौकरी की बाबत अरुण माहेश्वरी से बात भी की थी। उस समय वे अपने प्रकाशन गृह से एक लघु पत्रिका लाना चाहते थे। इसके लिए मैं माहेश्वरी से उनके दरियागंज स्थित कार्यालय में मिला भी। लेकिन अंततः कोई बात नहीं बनी।

मैं गहरे पशोपेश में था। जोशीजी को छोड़ना भी नहीं चाहता था और उनके साथ काम करते हुए अपना मासिक खर्च भी पूरा नहीं जुटा पा रहा था। समझ में नहीं आता था कि हमारा भविष्य क्या होगा। उनके संपर्क में आने के बाद साहित्य की एक और खेमेबाजी को मैं बहुत करीब से जान पाया। पहले राजेंद्र यादव, कमलेश्वर, अशोक वाजपेयी, नामवर सिंह, विष्णु खरे, सुधीश पचौरी, रवींद्र कालिया आदि ग्रुप मुझे दिखलाई पड़ते थे। इसके अलावा जलेस, प्रलेस और जसम की सक्रियता भी कमतर न थी और इनके भी अपने-अपने मंच थे। इसमें अच्छी बात यह थी कि ये सभी साहित्य की केंद्रीय धुरी थे और सभी तमाम तरह की भिन्नता के बावजूद वामपंथी थे। इसके अलावे भी मठ और गढ़ कम नहीं थे। दलित साहित्यकार भी उन्हीं दिनों एक बैनर तले एकजुट होने शुरू हुए थे। मनोहर श्याम जोशी के पास आया तो पहली बार यह अहसास हुआ कि सफलता जोड़-तोड़ से भी हासिल की जा सकती है और जिनपर इनकी कृपा होगी उसे ये कुछ भी करवा सकते हैं। जहां तक मुझे याद पड़ता है जोशी जी वाम रंग में रंगे नौजवानों को मूर्ख समझते लेकिन वामपंथी मठों से अपना संबंध मधुर बनाए रखते थे। इसका गणित उन्हें मालूम था। शायद वे इस चीज को भांपते थे कि ये वाम संगठन अलग-अलग क्षेत्रों में उनके अनुकूल वातवरण की सृष्टि कर सकते हैं इसीलिए उनकी यह रणनीति रही हो शायद। उनकी बात से भी लगता था कि उन्हें इस बात का इलहाम था कि सभी दलों और विचारधाराओं को अस्वीकार करने के कारण लोग उन्हें ‘सिनिक’ ठहराते हैं। मीडिया और प्रकाशन की दुनिया में वे किसी को भी सम्मानजनक नौकरी दिलवाने का सामर्थ रखते थे। वे नेशनल बुक ट्रस्ट से लेकर कई महत्वपूर्ण कमिटियों के भी सदस्य और उसके सलाहकार थे। इसकी वजह से भी उनसे जुड़े रहने में ही मेरा हित दिखता था। वे कहते भी कि मैं पंकज बिष्ट से जुड़ा हूं जो सबसे विरोध ही मोल लेते हैं। ऐसे में उन्हें नहीं लगता था कि मेरे बारे में कोई सोचेेगा भी। वह कहते मैं कुछ दिनों तक उनका साथ दूं ताकि वे अपने अधूरे उपन्यास को पूरा कर लें फिर वे मुझे कहीं अच्छी जगह सेट करवा देंगे। उस दौरान उन्होंने अपने ‘आउटलुक’ में लिखे जा रहे स्तंभ संग्रह का फोटो स्टेट करवाया और मुझे उसको विषयवार समेटकर उसका समायोजन करने का भी काम सौंपा था और कहा था कि इससे भी मुझे कुछ पैसे मिल जाएंगे। उन्होंने अपने साक्षात्कार की सामग्री किताब रूप में लाने हेतु अपने शिष्य प्रभात रंजन को दे रखी थी, लेकिन वे उसे संयोजित करने का अवकाश नहीं निकाल पा रहे थे। इसको लेकर वह उनसे मन ही मन उनसे बहुत रंज चल रहे थे। कहते थे–बहुत ही कुटिल प्राणी है। मिलेगा इस तरह जैसे आपकी बड़ी चिंता करने वाला हो। उस दिन उन्होंने यह भी बतलाया था किस तरह ‘सहारा समय’ की कथा प्रतियोगिता में उन्होंने उनकी कहानी को पुरस्कृत करवाया। उस साक्षात्कार को भी मुझे ही संयोजित करने को कहा था उन्होंने और आश्वस्त किया था कि उससे भी मुझे चार-पांच हजार रुपए मिल जाएंगे। लेकिन दुर्योग से इन दोनों ही काम का वक्त नहीं निकला। उनके लेखन डिक्टेशन में ही इतना समय चला जाता कि उसके लिए अलग से समय ही कहां मिलता। उनका ‘आउटलुक’ का स्तंभ भी बीच में ही छूट गया। इसमें उन्होंने आधुनिकता, इस्लाम और अमेरिका–इन तीन विषयों पर अपने विचार अभिव्यक्त किए थे। स्वाधीनता संग्राम में वकीलों के योगदान पर भी ‘आउटलुक’ में उन्होंने एक महत्वपूर्ण लेख लिखा था।

उपन्यास लिखवाने के दौरान वह उसकी पृष्ठभूमि के बारे में लगातार पढ़ते-गुनते रहे। मैंने यह नोट किया कि वह उस उपन्यास को लिखवाते वक्त अपनी साहित्यिक कल्पना का भरपूर उपयोग करते। कई मौके तो ऐसे आते जब वह दस-दस, बीस-बीस और पचास पेज तक काट-छांट डालते। इस समय उनकी मनःस्थिति बड़ी पीड़ादायी हो उठतीं। कभी-कभी खीझभरे स्वर में माथे की ललाट पर हथेलियां रखते हुए पत्नी की ओर मुखातिब होते और कहते–भगवती, इसमें गोबर भर गया है। यह बड़ी दारूण घड़ी होती। ऐसे मौके पर उनकी पत्नी अपने कर रहे काम को वहीं छोड़ देतीं और उनकी हर क्रिया को बहुत गौर से फौलो करतीं। इस उपन्यास को लिखते समय भुवेश सान्याल और स्वाधीनता आंदोलन में बंगाल और उन विषयों पर वह गूढ़ से गूढ़ पुस्तकें पढ़ते रहे। एक अंग्रेजी पुस्तक उस दौरान बराबर संदर्भ के लिए उलटते। वह किताब अगर भूल नहीं रहा तो संभवतः अंग्रेजी लेखक अमिताभ घोष की थी। ‘प्रिंसली इंपोस्टर’ यही नाम था उस पुस्तक का। उस किताब में स्टीकरों का ढेर लगाए रखते और लिखवाने के क्रम में उलट-फेरकर उसका अवलोकन करते। मैंने ऐसा महसूस किया कि शाम छह बजे मेरे जाने के बाद वह रात में पढ़ते थे और एक बांग्ला भाषी सज्जन से भी सलाह मशविरा लेते थे। सुबह मेरे दस बजे आने के पहले आगे क्या लिखवाना है इस तरह से अपना माइंड सेट रखते थे। उनके घर से रूख्सत होते कभी-कभी सात बज जाते। उनके घर से निकलते ही मैं सार्वजनिक परिवहन की बस आउटर मुंद्रिका पर सवार होता जो दिल्ली की कई काॅलोनियों का चक्कर लगाती हुई मुझे आनंद विहार बस अड़डे पर उतारती। आनंद विहार पहुंचते-पहुंचते लगभग ढाई घंटा लग जाता था और वहां से वसुंधरा के सेक्टर 11 पहुंचने में आधे घंटे। हर दिन मैं नौ-दस बजे घर पहुंचते-पहुंचते अपने को टूटा निचुड़ा हुआ-सा महसूस करता।

अपने बारे में तटस्थ होकर सोचना, अपना मूल्यांकन स्वयं करना मैंने पहली बार जोशी जी की इस सोहबत में ही जाना। वह भी उनके द्वारा अहसास करवाये जाने के बाद। मेरे लिखे हुए को वे खुद देखते। वर्तनी संबंधी भूलों को दूर करने के गुर बतलाते। अक्सर मैं उसका फाॅलो नहीं कर पाता। बावजूद इसके वह पुनः बड़े धैर्य के साथ मुझे मेरी गलतियों की ओर ध्यान खींचते। अगर उसके बाद भी मैं गलतियां करता ही जाता तो उनका गुस्सा सातवें आसमान पर तैर रहा होता। वह बहुत जोर फटकार लगाते। कहते ‘यह हिंदी का दुर्भाग्य है कि तुम अपने को लेखक कहते हो और तुम्हें भाषा को कहां और किस तरह बरतना चाहिए, यह भी नहीं आता।’ उनके बार-बार की कांट-छांट से अत्यधिक चिड़चिड़ा हो जाने के कारण यह गलतियां मुझसे ज्यादा होतीं। सोचता पता नहीं कब ऐसे भंवर से पार पाउंगा। पार कर पाउंगा भी या नहीं। कभी-कभी उनकी तिक्तता मुझे भीतर से झुंझला कर रख देती। इस तरह की नौबत तब आती जब वे लिखना कुछ चाहते और उनसे लिखा कुछ जाता। कभी-कभी यह प्रक्रिया उनके साथ दो-तीन दिन अवाध गति से चलती। ऐसे मौकों पर वे मेरी अच्छी-खासी धुलाई कर देते। ऐसे विकट समय में उनकी पत्नी मुझे पुत्रवत स्नेह और ढाढ़स देतीं। मिष्ठान खिलातीं। उन दिनों जोशी जी के एक और व्यवहार ने मुझे उनके प्रति रंज किया। आता तो सीधे उनके डिक्टेशन शुरू हो जाते। जैसे ही डेढ़-दो बजे का समय होता वे मुझे ताकीद करते कि घर से बाहर जाइए और आधे घंटे में कुछ खाकर आ जाइए। मुझे उनका यह व्यवहार उनके प्रति वितृष्णा पैदा करता था। मेरी अपेक्षा रहती थी कि मेरे साथ घरैया की तरह व्यवहार करें। जब कभी ऐसा व्यवहार उनका दिखता भी था। कोई उनके घर आता तो वे उससे मेरा परिचय साहित्यकार के रूप में कराते। एक बार सुभाष धूलिया उनके घर आये हुए थे। तो उन्होंने उनसे भी मेरा परिचय अच्छे से करवाया। उनके चले जाने के बाद बतलाया कि वे उनके पड़ोस में आ गए हैं। लेकिन खाने के मोर्चे पर वे बहुत निर्मम मालूम पड़ते। मैं हर दिन उनके घर से निकलता और बगल में पी.भी.आर. के पास तीन रुपया का छोला और दो रुपया का कुल्चा खरीदता लेकिन इससे पूरी तरह भूख मिटती नहीं थी बल्कि इसे खाने के बाद भूख और प्रबल हो उठती थी। किसी तरह अतृप्त-सा होकर ही संतोष करता। सच तो यह है कि मुझ-सा फटेहाल फ्रीलांसर के जीवन का यह बहुत ही नाजुक दौर था किसी किसी दिन तो ऐसी स्थिति आ जाती कि मेरी जेब में आनंद विहार से वसंधुरा लौटने के आॅटो के ही पैसे रहते। उसके अलावे एक पैसे नहीं रहते। वह तो शुक्र था कि परिवहन निगम से मासिक पास बनवा लिया था इस कारण वहां आने-जाने की चिंता न थी। लेकिन भूख में अंदर से कमजोरी कुछ ज्यादा ही पीड़ादायी हो जाती। आंखों के आगे अंधेरा छा जाता और दिमाग चक्कर काटता। बहुत जोर से उंघाई आती, लेटने की तलब होती लेकिन जोशी जी के लेखन के समय वह आराम कहां? वह तो अविराम भाव से गतिमान रहते थे। हमारी इस दुविधा को वे कितने समझते थे यह तो मैं नहीं कह सकता लेकिन मेरे संघर्ष का इलहाम उन्हें था। उनके साथ काम करते हुए बराबर यह महसूस हुआ कि उनके मन में मेरे प्रति एक हमदर्दी थी। इसकी वजह यह भी रही हो कि मुसीबतों में घिरे रहने की वेदनापूर्ण स्थिति में भी मैंने कभी उनके समक्ष अभाव का रोना नहीं रोया। वह तब तक के मेरे जीवन के सबसे बुरे दिन थे। उतना विकटपूर्ण आर्थिक हालत पटना में एकाध बार हुई थी जब एक सर्वे करने वाली कंपनी में उसके तीन दिन दिनों के लंबे-चौड़े प्रवचन के बाद कंपनी के सिगरेट सर्वे के लिए दीघा गया था एक सप्ताह। और वहां भी अंततः एक पैसा हाथ नहीं आया था। हम जैसे मध्यवर्गीय बेकार नौजवान उन दिनों घर से भी उपेक्षा का दंश झेल रहे थे और दैनंदिन जीवन भी पहाड़ की मानिंद दुरूह और अभेद्य जान पड़ता था। जीवन और मौत का फासला ऐसे ही करुण क्षणों में मिट जाता है। और लोग आत्महत्या का रास्ता अख्तियार करते हैं। यहां हर अभाव के बाद भी मन को एक संतोष था कि हिंदी के एक बड़े लेखक से जुड़ा हुआ हूं। हमारे यहां सामंतवाद ने यही तो सीखाया है कि कुछ नहीं के बाबजूद गर्विली दर्पोक्ति में अपना यह खोखलापन हम नहीं छोड़ पाते। फिर मन को एक रचनात्मक सुकून भी तो इन्हीं स्थितियों में मिलता था। एक दिन उन्होंने कहा कि उनके पास बहुत सारे वस्त्र हैं अगर मैं चाहूं तो वे मुझे दे सकते हैं। उस दिन मुझे उनका यह व्यवहार बहुत बुरा लगा था। लेकिन अपना प्रतिरोध दर्ज करने का साहस नहीं हुआ था। मन ही मन कई दिनों तक मैं घुटता रहा था। बाद में मुझे अपनी इस प्रश्नाकुलता पर गहरा अफसोस हुआ। जिस तत्परता से मैं उनके घर से पत्रिकाएं और किताबें ले जाता था शायद उन्होंने सोचा हो इसे वस्त्र भी दिया जाए। इसीलिए उन्होंने पूछा होगा। मुझे तब उनका यह पूछना बुरा लगा था। उस दिन मेरे स्वाभिमान को गहरा आघात लगा था, लेकिन तब मन ही मन मैंने इसे बिसार दिया था। उनके घर हर दिन काम खत्म करते वक्त जो चाय मिलती वह दिन भर की थकान को सोख लेती। मैंने अब तक के जीवन में इतना सुस्वादु चाय कभी नहीं पिया। उस चाय में गोल मिर्च का स्वाद भी समाहित था जो पूरे दिल्ली में मुझे कहीं नहीं मिली। युवा कवि आर.चेतन क्रांति दंपति के घर की चाय बहुत अच्छी लगती थी, लेकिन भगवती आंटी वाली चाय के आगे वह भी फीका ही मालूम पड़ती। जोशी जी से जुड़ी कई और बातें याद आती हैं। लेकिन स्पेस का अभाव है इसलिए उसपर आगे कभी। 

आज जब जोशी जी हमारे बीच नहीं हैं, अपनी अकर्मण्यता पर मुझे गहरा पश्चाताप हो रहा है। उन्होंने जो सौ रुपये होली से घर से लौटने के बाद पटना से मखाना लाने के लिए दिए थे, वह मखाना मैं उन तक नहीं पहुंचा पाया। एक तो संयोग ऐसा रहा कि उनसे छूटते ही मैं दिल्ली छोड़ गुवाहाटी चला गया और बाद के दिनों में दिल्ली पहुंचा भी तो जल्द ही बिहार विधान परिषद में नौकरी लग गई। यह सब जाबिर हुसेन साहब की सदाशयता थी कि बगैर परिचय के भी उन्होंने मुझे इस लायक समझा। फरवरी, 2006 में विश्व पुस्तक मेले में जब दिल्ली जाना हुआ तो इच्छा थी कि उनके दिए गए सौ रुपय उन्हें चुकता करता चलूं किंतु वहां मेला और मित्रों परिचितों से मिलने-जुलने में ही इतना वक्त निकल गया कि उनके पास नहीं जा पाया। अब जबकि वे नहीं हैं सोचता हूं उनके घर जाउंगा तो कैसा लगेगा? उनकी पत्नी भगवती जोशी मुझे बहुत आदर देती थीं, लेकिन जोशी जी की अनुपस्थिति में मिलते हुए मैं उन्हें सांत्वना का कौन-सा शब्द कहूंगा। मैं तो खुद ही शुरू से ही संकोची और अंतर्मुखी स्वभाव का रहा हूं। मेरा संशयग्रस्त मन इस समय अजीब उहापोह में है। उसे समझ में नहीं आ रहा कि वह मनोहर श्याम जोशी के इस रुपये का का कर्ज इस जन्म में चुका पाएगा भी या नहीं।

संपर्क :
अरुण नारायण 
मोबाइल : 8292253306
ईमेल - arunnarayanonly@gmail.com

गुनाहों का देवता : स्मिता सिन्हा



हिंदी साहित्य में 'गुनाहों का देवता' एक ऐसी कृति है, जो अपने प्रकाशन के समय से आजतक पाठकों का प्यार पाती आई है। धर्मवीर भारती के इस उपन्यास में कई लोगों की अव्यक्त पीड़ा एवं अद्वितीय आस्था पाठकों तक पहुंचती है, वहीं इलाहाबाद खुद इस कृति का पात्र बन जाता है। स्मिता सिन्हा की रचनाएं नैसर्गिक रूप में सामने आती हैं...कविताएं इसका प्रमाण देती हैं। वहीं वे किसी कृति को बड़ी संजीदगी से पढ़ती हैं। उनका मानना है कि दीर्घ अंतराल पर किसी कृति को पढ़ने पर उसमें अंतर्निहित विचार और लेखक के उद्देश्य और अधिक परिलक्षित होते हैं। पाठकनामा के अंतर्गत आइये परिचित होते हैं 'गुनाहों का देवता' के उनके पाठकीय अनुभव से।



कहते हैं, यदि किसी किताब को बहुत ही अच्छे तरीके से समझना हो तो उसे उम्र के दो विभिन्न पड़ावों पर पढ़ना चाहिए। कहानी के पात्र, उनकी परिस्थितियां और उनके विचार ज्यादा स्पष्ट रुप से परिलक्षित होते हैं। धर्मवीर भारती की 'गुनाहों का देवता' संभवतः मेरे जीवन की वह पहली कृति है जिसने मुझे हिन्दी साहित्य से जोड़ा...मुझमें लंबी कहानियों और उपन्यास पढ़ने की ललक पैदा की। वैसे मैं इस बात का सारा श्रेय चंदर और सुधा को देती हूं, जिनके सम्मोहन से मैं आज तक निकल न सकी। मैं आठवीं कक्षा में थी, जब मेरे जन्मदिन पर उपहारस्वरूप यह किताब मुझे मिली। मुझे अच्छी तरह से याद है कि 'गुनाहों का देवता' वह पहली किताब है जिसे मैंने एक बार में पढ़ा...टुकड़ों में नहीं। पढ़ते-पढ़ते जाने कितनी बार आँखें भर आती थीं, आँसू लुढ़क पड़ते थे और घर में सबसे अपने आँसुओं को छुपाने की कोशिश में मैं देर तक आँखें बंद किये रहती तथा इस दौरान भी यह किताब मेरे सीने से चिपटी रहती। मुझे तक़लीफ़ भी होती और गुस्सा भी आता। मुझे तो बस प्रेम समझ में आता, उसकी जटिलताएं नहीं। चंदर और सुधा के प्रेम की पवित्रता और देवत्व मुझपर हावी होता जा रहा था। मुझे याद है कि अपने कॉलेज के दिनों में भी मेरा प्रेम बस इन दोनों के प्रेम के जैसा ही होता। दैहिक प्रेम हमेशा से ही गौण रहा। खैर लाख कोशिशों के बाद भी उस वक़्त मुझे यह बात समझ नहीं आयी कि आखिर क्यों चंदर और सुधा ने डा.शुक्ला से अपने प्रेम की बात छुपायी। मुझे यह बात भी समझ नहीं आयी कि आपस में इतना निश्छल और अटूट प्रेम होने के बाद भी वे दोनों एक दूसरे से इतनी दूर क्यों छिटक गये। पूरी किताब पढ़ने के बावजूद भी मैं उसके शीर्षक तक को नहीं समझ पायी। इसे समझने की कोशिश में मैंने यह किताब दो बार और पढ़ी। फ़िर भी जाने कितने सवाल अनुत्तरित ही रह गये।
       
फ़िर स्कूल, कॉलेज, पढ़ाई, परीक्षा के चक्कर में सिलेबस से अलग ज्यादा कुछ पढ़ना सम्भव ही नहीं हो पाया। बढ़ती उम्र के साथ भावनाओं की जगह तर्कों ने ले लीं और विचारों में उम्र व अनुभव की परिपक्वता नज़र आने लगी। अब मैं उपन्यासों और लंबी-लंबी कहानियों को ज्यादा बेहतर तरीके से समझ पा रही थी। लगभग 22-23 साल के लंबे अंतराल के बाद पिछले वर्ष मैंने फ़िर से पढ़ी वही किताब 'गुनाहों का देवता'...और इस बार सारे किरदार और उनकी जद्दोजेहद मेरे सामने परत-दर-परत खुल रहे थे। मैं समझ पा रही थी चंदर, सुधा, बिनती, पम्मी और कैलाश को भी...उनके अलग अलग नज़रियों और तजुर्बों के आधार पर परिभाषित प्रेम को भी...जीवन के उलझते धागों को सुलझाने की उनकी सारी कोशिशों को भी। मैं समझ पा रही थी कि किस तरह अव्यावहारिकता और हद से अधिक पवित्रता की चाह उन्हें कमज़ोर बनाती चली गयी। समझ पा रही थी कि वास्तविक जीवन की शर्तें भावनाओं में बंधी नहीं होती। जैसे-जैसे पन्ने पलट रही थी, वैसे-वैसे चंदर के लिये मेरा गुस्सा भी  पिघल रहा था। कैलाश को लेकर भी मन में कोई क्षोभ नहीं रहा। सुधा और बिनती के लिये दिल में सहानुभूति ज़रुर थी, पर आँख गीले नहीं थे। मुझे कहीं कोई गलत नहीं लग रहा था...मैं उनके अन्तर्द्वन्द को महसूस कर पा रही थी और इस किताब के अंतिम पन्ने पर मेरे पास कोई सवाल शेष नहीं रह गया था। मैं खूब बेहतर तरीके से जान गयी थी कि इतना भी आसान नहीं होता 'गुनाहों का देवता' होना।


संपर्क : 
स्मिता सिन्हा
स्वतंत्र पत्रकार, 
फिलहाल रचनात्मक लेखन में सक्रिय
मोबाईल : 9310652053

ईमेल : smita_anup@yahoo.com

क्रिस्टेनिया मेरी जान : अनिल अविश्रांत

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एक पत्रकार का यात्रा-वृतांत कैसा होता है ? वह समाज एवं उसकी अभिव्यक्ति के किन पहलुओं पर बारीक नजर रखता है। ऐसे ही सवालों से जूझते विख्यात पत्रकार उर्मिलेश की रचना 'क्रिस्टेनिया मेरी जान' को पढ़ते हुए अनिल अविश्रांत के पाठकीय अनुभव से आइये अवगत होते हैं, पाठकनामा के अंतर्गत।

क्रिस्टेनिया मेरी जान






कई बार मन बेस्वाद हो उठता है, तब ढलते हुए सूरज से मिन्नतें करता हूँ कि वह थोड़ी देर रुक जाए पर तमाम मिन्नतों के बाद भी सूरज बेतवा के किनारे-किनारे चलते हुए पश्चिम की ओर चला गया। अब अंधेरा घिर गया है और मैं निपट अकेला हूं। सामने नई छपी किताबों का सेट है। मैं उन्हें बेबस-सा देखता हूं...हाथ बढ़ाता हूं कि उठाऊं...कुछ पढ़ूं, पर ऊंगलियां जिल्द का स्पर्श कर हाथ को लौटा लाती हैं। शाम को दो घंटे बिजली ठप्प रहती है, पर इंवर्टर खूब अच्छा काम कर रहा है। दो-दो पंखें पूरी तेजी के साथ चल रहे हैं। कमरे में सी एफ एल की दूधिया रौशनी फैली है, खूब साफ। अचानक मेरी निगाह उर्मिलेश जी की किताब पर जाती है और मुझे लगता है कि तलाश पूरी हुई। मेरे हाथ में 'क्रिस्टेनिया मेरी जान' है और मैं फिलहाल दूर देशों के अनजाने और अनदेखे सत्यों-तथ्यों के सम्मोहन में हूं जो क्रिस्टेनिया की पहचान है।


उर्मिलेश उन थोड़े-से पत्रकारों में हैं जिनपर गहरा भरोसा है। उनकी विद्वता के साथ-साथ प्रतिबद्धता के कारण भी। इसलिए उनके यात्रा-वृतांत को पढ़ते हुए सहज ही मैं उनका सहयात्री बन जाता हूँ। सफर का पहला पड़ाव क्रिस्टेनिया है जिसकी अराजकता सम्मोहित करती है और मन बाल्टिक की लहरों में बसी लय पर झूमने लगता है। यह कोपेनहेगन से बाल्टिक सागर की तरफ जाने वाली रोड पर शहर से कुछ दूर बसा एक छोटा-सा कस्बा है जिसे यहां के लोग 'फ्री टाउन' कहना नहीं भूलते और बाहर वाले इसे 'अराजकतावादियों का द्वीप', 'हिप्पियों का अड्डा', 'खस्ताहाल साहित्यकारों-कलाकारों का कम्यून' और 'तरह-तरह के नशाखोरों का स्वर्ग' कहते हैं। लेकिन उसकी धूल भरी सड़कों पर चलते हुए मन यह मानने को तैयार ही नहीं था कि यह कोई तफरीह की जगह है और जब जैकब साहब के संपादकीय से उद्धृत करते हुए इसे 'सेना की खाली जगह पर आम लोगों की फतह का मुकाम' बताया तो यह पता चल गया कि आखिर क्रिस्टेनिया उनकी स्मृति में क्यों स्थाई रूप से बस गया।


किताब का दूसरा लेख हमें डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन ले चलता है, जहां की सड़कों पर चमचमाती साईकिलों की संख्या अभीभूत कर देती है। डेनिश लोग इसे दुनिया की 'साइकिल-राजधानी' कहते हैं और यहां विश्व की पहली 'साइक्लिंग एम्बेसी ' स्थापित की गई है। उर्मिलेश जी ने दर्ज किया है कि ये साइकिलें यहां महज आवागमन का साधन नहीं हैं...ये डेनिश समाज और यहां की समृद्ध सभ्यता में नए मूल्य जोड़ रही हैं...जीने का पूरा सलीका बदल चुकी हैं। अब यह डेनमार्क की पहचान है।


चूंकि उर्मिलेश जी एक वरिष्ठ पत्रकार हैं और उनकी ज्यादातर यात्राएं किसी न किसी मीडिया संस्थान के एसाइनमेंट के तहत या विभिन्न देशों की शासकीय, सांस्कृतिक या अन्य आधिकारिक संस्थाओं के निमंत्रण पर संभव हुई हैं इसलिए वह महज पर्यटक की भूमिका में नहीं हैं और उनकी दृष्टि केवल प्राकृतिक सुषमा में ही उलझ कर नहीं रह जाती। उनका जोर सूचनाओं और तथ्यों पर अधिक रहता है। उनकी नजर में दो देशों के रिश्ते, उसे प्रभावित करने वाली घटनाएं और उसके किरदार अधिक हैं। वह डेनमार्क के अपने दौरे के दौरान पुरुलिया आर्म्स ड्राप कांड के डेनिश अभियुक्त किम डेवी की चर्चा करते हैं जिसके कारण भारत और डेनमार्क के रिश्तों में खटास आई तो वहीं वह दो डेनिश युवा इंजीनियरों - एच लार्सन और एस के टुब्रो को भी नहीं भूलते जिनकी कंपनी एल एंड टी आज देश की शान है।

उर्मिलेश जी ने यूरोपीय समाज का पर्यवेक्षण भी बहुत गहराई से किया है और उसे भारतीय समाज के बरक्स परखा है, पर उनका मन प्रवासी भारतीयों के मनोविज्ञान को समझने में खूब लगा है। जहां उनकी सफलता और सामाजिक स्वीकृति से वह संतुष्ट हैं तो उनकी कुंठाओं को लेकर सजग भी हैं। मसलन डेनमार्क में मिले एक प्रवासी भारतीय का उर्मिलेश जी के सरनेम में उत्सुकता दिखाना और कांशीराम, लालू यादव या करुणानिधि जैसे नेताओं की राजनीतिक सक्रियता पर यह कहना कि ऐसे लोग सत्ता में आते रहे तो भारतीय संस्कृति का विनाश हो जायेगा, ऐसे ही उदाहरण हैं।


यह चिंताजनक है कि प्रवासी भारतीय हिन्दुत्व की पहचान को लेकर मुखर हैं और दक्षिणपंथी, अनुदारवादी विचारों के प्रभाव में हैं। एक तरफ यूरोपीय विचारक भारत से अपेक्षा रखते हैं कि उसमे दुनिया का भला करने की अपार संभावनाएं हैं और इस महादेश को करूणा और सहिष्णुता की महाशक्ति बनकर उभरना चाहिए, जबकि दूसरी ओर हम भारतीय लोकतंत्र और स्वतंत्रता का दायरा लगातार संकुचित करते जा रहे हैं।


ठीक इस समय जब भारतीय मीडिया की रिपोर्टिंग सवालों के घेरे में है और उसपर विश्वसनीयता का गंभीर संकट है, 'लोकतंत्र और मीडिया-आजादी का डेनिश मॉडल' पढ़ा जाना चाहिए। यहां के अखबार अपने कंटेंट, विश्वसनीयता और संपादकीय स्वायत्तता को लेकर बेहद सजग हैं। जब भारतीय मीडिया हाऊसेस में संपादक नाम की संस्था दम तोड़ रही है और इनकी जगह मैनेजर ले रहे हैं तब यह जानकर आश्चर्य होता है कि डेनमार्क के सभी प्रमुख मीडिया संस्थानों में संपादक ही नहीं, ओम्बुड्समैन भी नियुक्त होते हैं और वहां पत्रकारों की यूनियनें काफी ताकतवर हैं...और ये संस्थान सरकारी हस्तक्षेप से पूरी तरह मुक्त हैं।

इसका अर्थ यह नही है कि वहां सबकुछ अच्छा ही है। प्राय: डेनिश मीडिया में स्वच्छंदता की हद तक स्वतंत्रता का मजा लेने की मानसिकता मौजूद है और यहां भी एथनिक और अल्पसंख्यक समुदायों के पत्रकार नहीं हैं और इन मसलों पर एक तरह की अज्ञानता ही नजर आती है। फिर भी भारतीय मीडिया की तुलना में यह अपने प्रोफेशन के प्रति ज्यादा जिम्मेदार है।

किताब के आरम्भिक छह लेख उर्मिलेश जी की डेनमार्क यात्रा से संचित अनुभव पर आधारित हैं तो अगले तीन लेख अमेरिकी यात्रा के अनुभव को साझा करते हैं। 'पहली बार न्यूयार्क' उनकी नेपाल के बाद पहली विदेश यात्रा का वृतांत है जिसे उन्होंने विश्व हिंदी सम्मेलन में प्रतिभाग करने के लिए किया था। यह यात्रा वृतांत से अधिक मीडिया हाऊस के अंदर की उठा-पटक को सामने लाता है।


संपर्क :
डा. अनिल अविश्रांत
हिंदी विभाग
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, हमीरपुर
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