अंतिम अरण्य - आंतरिक दुनियाओं का पारदर्शी यथार्थ : योगेंद्र कृष्णा



निर्मल वर्मा का उपन्यास ‘अंतिम अरण्य’ बीसवीं सदी की तरफ से इक्कीसवीं सदी की किवाड़ पर एक आत्मीय दस्तक की तरह था, जिसे हिंदी साहित्य के बड़े ही आत्मीय पाठकों ने उतनी ही आत्मीयता से पढ़ा। आज भी इस उपन्यास के पाठक इसकी ओर फिर-फिर लौटते हैं। योगेंद्र कृष्णा हमारे बीच के ऐसे ही आत्मीय कवि, गद्यकार एवं गंभीर पाठक हैं जिन्होंने इस रचना की गहराइयों में जाकर निर्मल की अनिभूतियों को संजीदगी से महसूस किया और वागर्थ के जूलाई 2001 अंक में यह पुस्तक-समीक्षा के रूप में सामने आई। अब आपके लिए अक्षरछाया पर उपलब्ध है।


अंतिम अरण्य : आंतरिक दुनियाओं का पारदर्शी यथार्थ
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कुछ समीक्षकों ने निर्मल वर्मा की औपन्यासिक कृति अंतिम अरण्य को मृत्यु का आख्यान कहा है। यह मान लेना समकालीन समीक्षा के परिदृश्य में पनप रही अतिसरलीकरण की सुविधाजनक प्रवृत्ति को स्वीकार कर लेना होगा। वास्तविकता यह है कि यह सिर्फ मृत्यु के आख्यान तक सीमित नहीं है। किसी की मृत्यु उसके जीवन की सत्ता का कितना सच्चा और कितना जीवंत दस्तावेज हो सकती है, इस सत्य का सूक्ष्म एवं संवेदनात्मक उद्घाटन भी है। यह जीवन और मृत्यु के व्यापक संदर्भों को व्यक्ति के नैतिक और आत्मिक संघर्षों के बीच परत-दर-परत खोलता है।

यहां पात्रों के जीवन का एक संपूर्ण कालखंड उनकी गहनतम संवेदना की परती भावभूमि पर उनके जीवन में एक बार पुनः घटित होता दिखता है। पात्रों के भीतर जीवन के एक खास समय तक जो कुछ घटित हो चुका है और जो कुछ अब तक अघटित रह गया है उसका इतना जीवंत और सशक्त चित्रण हमें इस औपन्यासिक कृति में मिलता है कि शब्दों को पढ़ते हुए अहसास होता है कि हम पढ़ नहीं रहे घटनाओं को घटित होते हुए, जीवंत दृश्यों की तरह देख रहे हैं… पात्रों के अन्तःस्वरों को सुन रहे हैं।

सारे चरित्र एक धुरी पर घूमते हुए… जीवन के एक खास मुकाम पर आकर जैसे ठहर-से गए हों… बावजूद इसके वे जितना ठहर-से गए हैं, उससे कहीं अधिक अपने भीतर की यात्रा पर निकल पड़े जान पड़ते हैं… अपने आत्मा की तलाश में अपने जिए क्षणों, न जी सके क्षणों के सुख-दुख, पछतावों, निर्णीत-अनिर्णीत क्षणों के बीच के शाश्वत द्वंद्व और यंत्रणाओं को एक बार फिर से अपने ही भीतर, अपने से दूर छिटककर देखते हुए।

उपन्यास के केंद्रीय चरित्र मेहरा साहब का, मृत्यु के हाशिए पर, जीवन की तमाम अर्जित-संचित क्लांति के साथ, नैतिक और आत्मिक संशयों के बीच विचरता जीवन इसका जीवंत प्रमाण है। मृत्यु के हाशिए पर जब हम अपने संपूर्ण जिए हुए जीवन की ओर एक बार पुनः लौटते हैं तो हम अपने उन पड़ावों को सिर्फ छूकर नहीं निकल पाते जिन्हें अपने चुने रास्ते जीने की अनिवार्यता में सिर्फ छूकर निकल जाना हमारी विवशता थी। उन छूटे हुए पड़ावों का संपूर्ण सच इस पलट-यात्रा में परत-दर-परत खुलता नजर आता है और कहीं हमारे चुने रास्तों के बारे में इन अंतिम क्षणों में हमें अनुत्तरित प्रश्नाकुलताओं से भर देता है। अपनी प्रश्नाकुल मनःस्थितियों से बार-बार टकराकर भी हम कुछ नहीं कर पाने की यंत्रणा झेलने को विवश होते हैं।

“हमारी जिंदगी में ऐसे मौके आते हैं, जब हम अपने को ही बाहर से देखने लगते हैं… हम जैसे खुद अपने ही दर्शक बन जाते हैं… अपनी देह के–जो मुझसे अलग होकर मुझे हिला रही थी–अपने रोने में जिसे मैं अपने से बाहर सुन रही थी।” (पृष्ठ - 148)

“कैसे कोई आदमी अपनी देह को छोड़कर अलग विचरता रहता है, किसी अजाने प्रदेश में, जहाँ हर पीड़ा की अपनी गली है, हर स्मृति का अपना आंगन, हर पछतावे का अपना पिछवाड़ा…” (पृष्ठ - 174)

कई-कई जिंदगियां जीने के क्रम में हम वह जिंदगी जीने का अवसर गंवा चुके होते हैं जिसे हम नितांत अपनी जिंदगी कह सकें। यह अहसास भी हमें तब होता है जब हम कुछ कर नहीं सकते।

“कितना अजीब है, जो रास्ता मुझे यहां तक लाया था, वह मुझे अपने से इतना दूर ले गया है कि वहां खुद मैं अपने को नहीं ढूंढ़ पाता।” (पृष्ठ - 170)

“जानते हो, इस दुनिया में कितनी दुनियाएं खाली पड़ी रहती हैं, जबकि लोग गलत जगह पर रहकर सारी जिंदगी गंवा देते हैं…” (पृष्ठ - 179)

“कभी-कभी तो उनकी बातें सुनते हुए लगता है कि वह अपनी नहीं, किसी दूसरे की जिंदगी के बारे में बता रहे हैं” (पृष्ठ - 43)

“जब (ज्ञान) आता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है… तब आदमी उसके काबिल नहीं रहता। वह अपने चिमटे से सुख नहीं, उसकी राख उठाने आता है…” (पृष्ठ - 79)

उपन्यास के प्रारंभ में उद्धृत मार्सेल प्रूस्त के ये शब्द “हममें से किसी के पास समय नहीं था कि हम अपने जीवन के असली नाटकों को जी सकें, जो हमारी नियति में लिखे थे। यही चीज़ हमें बूढ़ा बनाती है–सिर्फ यह, और कोई नहीं। हमारे चेहरों की झुर्रियां और सलवटें उन विराट उन्मादों, व्यसनों और अंतर्दृष्टियों की ओर संकेत करती हैं, जो हमसे मिलने आए थे और हम घर पर नहीं थे।” इस उपन्यास के पात्रों के संदर्भ में विशेष अर्थवत्ता ग्रहण कर लेते हैं, और मेहरा साहब, निरंजन बाबू, अन्ना जी, तिया आदि के मन-प्रांतर में घटित हो रही दुनियाओं को समझने के लिए हमें आवश्यक उपकरणों से लैस करते हैं।

मेहरा साहब के मन की परतों से अंधेरे में, अपने स्वाभाविक रंगों में टिमटिमाते भरा-पूरा एक संपूर्ण आकाश उमगता है जो अंततः उन्हीं की बनाई सीमाओं या वर्जनाओं में, उनके एकांत कमरे की दीवारों और छतों से टकराकर, लहुलुहान, मन की उन्हीं परतों में लौट जाता है। यह ‘उमगना’ और ‘लौटना’ हम तिया के साथ अथवा तिया या दीवा के संदर्भ में उनके संवाद में, और संवादों के बीच तिरते सन्नाटे में, अकसर सुन सकते हैं।

सीधे किसी पात्र की मृत्यु (या जीवन ही) कोई अर्थ नहीं रखती। रचनाकार किसी पात्र को कई रास्तों में से किस रास्ते से मृत्यु तक– मृत्यु के स्वीकार या अस्वीकार तक या जीवन तक ही, उसे किन प्रयोजनों से ले जाता है, यह महत्वपूर्ण है। सांसारिक जीवन में, सामाजिक, पारिवारिक दवाबों से असंपृक्त जीवन का कोई रास्ता चुन लेना प्रायः कल्पनातीत है। वैराग्य संभव है पर वह सांसारिक जीवन का रास्ता नहीं है। सांसारिक जीवन की भाग-दौड़ में समाज और दुनिया को अप्रत्याशित सदमों, झटकों से मुक्त रखने की विवशता में, हमें अपने जीवन के कई रास्तों के विकल्प में से किन्हीं ‘व्यावहारिक’ रास्तों का चुनाव कर लेना होता है।

इन कई विकल्पों के सत्य को निर्मल वर्मा ने अपने एक महत्वपूर्ण व्याख्यान में इस प्रकार व्यक्त किया है : ...चौराहे की विशेषता यह है कि वहां से अनेक रास्ते अलग-अलग दिशाओं में जाते हैं। हर दिशा का अपना सत्य है… हमारे जीवन की दुखद बाध्यता यह है कि हमें अपने जीवन काल में एक दिशा चुननी पड़ती है… बाकी रास्ते छोड़ देने पड़ते हैं।… जीवन में हम एक राह चुनकर बाकी विकल्पों से मुंह मोड़ लेते हैं… किंतु वे वहां हैं, हमारे जीवन के अंडरग्राउंड अंधेरे में उनकी प्रेत छायाएं उतनी ही जीवित हैं, जितनी दिन की रौशनी में चमकते वे स्टेशन जो हमारी राह में आते हैं। उपन्यास के यथार्थ और जीवन के यथार्थ के बीच यह एक भारी अंतर है… उसमें छूटे हुए रास्तों की विरह वेदना उतनी ही तीव्र होती है, जितना जिए हुए अनुभवों की सघन सांद्रता। न किए का पश्चात्ताप उतना ही गहरा जितना किए हुए कर्मों की बीहड़ और बदहवास चेतना”... (साहित्य की परती परिकथा, साक्ष्य – 10, साहित्य अंक, पृष्ठ 17)

निर्मल वर्मा के उपन्यास ‘अंतिम अरण्य’ या विश्व की किसी भी महान औपन्यासिक कृति (चाहे वह टालस्टाय की ‘अन्ना कैरेनिना’ हो, या ‘मादाम बावेरी’ या शेक्सपियर के नाटक ‘हेलमेट’) के विशिष्ट संसार में प्रवेश करने के लिए हमें जीवन के यथार्थ और उपन्यास के बीच इस महत्वपूर्ण और अपरिहार्य (किंतु हिंदी के मनोविश्लेषणात्मक उपन्यासों में भी अज्ञेय, जैनेन्द्र और यशपाल के बाहर प्रायः अलक्षित) अंतर की महीन परतों से गुजरना होगा।

निर्मल वर्मा के उपन्यास ‘अंतिम अरण्य’ में इन परतों से गुजरना इसलिए भी सार्थक है कि इस अंतर का यथार्थ यहां इतना शाश्वत और इतना पारदर्शी होकर उद्घाटित हुआ है कि हमें महसूस होने लग जाता है कि हम अपने या आस-पास के जीवन के ही कोने-अंतरों से गुजर रहे हैं।

संवेदनशील पात्रों के अन्तरप्रदेशों का यह आंतरिक यथार्थ निर्मल वर्मा की कलम से इतना अनुशासित और संयमित ढंग से ‘अंतिम अरण्य’ के पात्रों की अन्तःक्रियाओं में विन्यस्त है कि यह उसे एक ऐसी गरिमा और विश्वसनीयता प्रदान करता है जो मनोविज्ञान की स्थापित विश्लेषणात्मक दृष्टि से भी पूरी तरह अप्रश्नेय रहती है।

हमारे वर्तमान सृजन परिदृश्य की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि हमें जीवन के भौतिक यथार्थ ने इतना आक्रांत कर रखा है कि हम इस आंतरिक यथार्थ के बिना जीवन की कल्पना करने की भूल कर बैठे हैं। किसी उत्कृष्ट कृति से हमें एक जीवन ऊर्जा या आंतरिक आस्था की अपेक्षा होती है, जिसके अभाव में आज हमारा भौतिकवादी वैश्विक समाज स्वयं को निपट वैचारिकता और वादों के ऐसे जंगल में भटकता, बढ़ता, ठिठकता और लौटता पाता है जहां आगे बढ़ने के लिए आवश्यक जीवन ऊर्जा का क्षरण हो चुका है। हम जहाँ से चले थे, वहीं बार-बार लौट आते हैं- जैसे कोई चीज यात्रा पर निकलने के पहले कहीं छोड़ दी हो, हमें पता नहीं चलता वह कौन-सी चीज थी, और जिसके बिना हमारी कोई भी वैचारिक यात्रा अर्थहीन होगी। यह चीज वह आंतरिक ऊर्जा है जो विश्व की किसी भी उत्कृष्ट कृति के आंतरिक जगत में उसी तरह मौजूद रहती है जिस तरह किसी जीव की आत्मा, जिसके बिना वह जीवित नहीं रह सकता।

साहित्य को उसकी आत्मा से निर्वासित, असंपृक्त कर देने का ही एक नतीजा यह है कि समाज से आज साहित्य और कला भी निर्वासित होते जान पड़ते हैं। प्राकारांतर से, ‘अंतिम अरण्य’ को इस चुनौतीपूर्ण साहित्यिक परिदृश्य में, साहित्य को उसकी मूल संवेदना, उसकी आंतरिक ऊर्जा के स्रोतों की ओर लौटाने की दिशा में एक बीहड़ उपक्रम के रूप में भी देखा जा सकता है।

इस संदर्भ में निर्मल वर्मा ने अपने एक व्याख्यान में अपनी गहरी चिंता इन शब्दों में व्यक्त की है : ‘क्या यह अजीब विडंबना नहीं है कि पिछले वर्षों से हमारा अधिकांश कथा-साहित्य उन प्रश्नों को अप्रासंगिक मानता रहा है, जिनके बिना स्वयं मनुष्य का ‘मनुष्यत्व’ एकांगी, अधूरा और बंजर पड़ा रहता है? यथार्थवाद के नाम पर हमने मनुष्य को उस यथार्थ से विलगित कर दिया जो उसके जीवन और मृत्यु के प्रश्नों को अर्थ प्रदान करता है।’ (साहित्य के प्रासंगिक प्रश्न : कसौटी-4, पृष्ठ - 78)

‘अंतिम अरण्य’ के पात्रों की आंतरिक दुनियाओं को सही-सही समझने में मनुष्य जीवन के संपूर्ण सच के बारे में निर्मल वर्मा की यह व्याख्या भी अत्यंत प्रासंगिक है : ‘असली जीवन में हमारे भीतर के अनेक कपाट बंद पड़े रहते हैं, जिन्हें हम खोलने का साहस नहीं कर पाते। साहित्य जब अपनी चाबी से उनके बंद ताले खोलता है, तो हमें एक अजीब आश्चर्य होता है, कि जब हम अपनी दबी-छिपी आकांक्षाओं को उनसे बाहर निकलता हुआ पाते हैं। वे हमारे जिए हुए, भोगे हुए अनुभव न भी हों, तो भी हमारे अनुभूति क्षेत्र में उनका अस्तित्व उतना ही ठोस और जीवंत है, जितना हमारे नींद के स्वप्न, जो हमारी जागृतावस्था की ही उपज है। आइसबर्ग की तरह मनुष्य का एक छोटा अंश ही हमें पानी के ऊपर उजाले में दिखाई देता है, बाकी हिस्से चूंकि सतह के नीचे डूबे रहते हैं, उससे उनका अस्तित्व नकारा नहीं जा सकता। वे अदृश्य होते हुए भी हमारी दृश्य जीवन-लीला में हस्तक्षेप करते हैं। ये हमारे अनुभूत यथार्थ की सीमाओं पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं, मानो पूछ रहे हों, क्या इसमें मनुष्य का पूरा सत्य समा सकता है? (‘साहित्य के प्रासंगिक प्रश्न’ : कसौटी-4, पृष्ठ - 78)

‘अंतिम अरण्य’ के हर पात्र के सृजन में, विशेषकर मेहरा साहब के लगभग पारदर्शी चित्रण में, इस ‘अदृश्य’ का हस्तक्षेप निरंतर प्रतिध्वनित होता है। इन प्रतिध्वनियों का स्वर उपन्यास के चरित्र की छोटी-बड़ी भूमिका के अनुरूप पूरी तरह संयमित और अनुशासित है। इसलिए पूरी तरह गरिमामय और विश्वसनीय भी। पहली बार उपन्यास को पढ़ते हुए मैं विस्मित था कि आखिर मृत्यु के हाशिए से मृत्यु तक मेहरा साहब की लंबी, थकान भरी यात्रा अपने ‘अंतिम प्रभाव’ में इतनी गरिमामय और विश्वसनीय कैसे बन जाती है! उपन्यास को दुबारा पढ़ते हुए मुझे अनायास ही अमेरिकन उपन्यासकार अर्नेस्ट हेमिंग्वे की वे पंक्तियां याद हो आईं जिनमें उन्होंने कहा था कि आइसबर्ग के बहाव की गरिमा इस बात में निहित होती है कि उसका आठवां हिस्सा ही सतह के ऊपर दिखाई देता है।

शायद यही कारण है कि कोई भी उत्कृष्ट कृति वास्तविक जीवन के फ्रेम से बड़ी दिखती है– लार्जर दैन लाइफ। दिखती है, वास्तव में वैसी है नहीं। ऐसा इसलिए दिखती है कि जीवन के वे अदृश्य हिस्से भी कला में, किसी-न-किसी रूप में उद्घाटित होते रहते हैं, जो वास्तविक जीवन में सामान्यतः दिखाई नहीं पड़ते।

मृत्यु के हाशिए से लेकर मृत्यु तक की मेहरा साहब की यात्रा (बहाव) अपने अंतिम प्रभाव में इसलिए इतनी गरिमामय और विश्वसनीय बन पड़ी हैं कि लेखक ने मेहरा साहब के व्यक्तित्व के बाहर के आठवें हिस्से के साथ-साथ सतह के भीतर के अधिकांश अदृश्य हिस्सों के अदम्य अस्तित्व का अहसास बड़ी ही सावधानीपूर्वक कराया है।

सतह के भीतर की दुनियाओं की संवेदनात्मक भावभूमि को समझने के लिए इस उपन्यास के शिल्प में जो अंतर्दृष्टियां सूक्तियों की तरह बुनी गई हैं वे समकालीन साहित्य में प्रायः दुर्लभ हैं। इसलिए, ऐसा भी नहीं है कि ‘अंतिम अरण्य’ बूढ़ों का एक अपना अलग संसार रचती है। दरअसल, यह संसार बहुसंख्यक युवाओं को ‘अपनी’ जिंदगी जीने, समझने-परखने के लिए कई-कई खिड़कियां-दरवाजे खोलता है कि कोई ‘विराट उन्माद, व्यसन और अंतर्दृष्टियां’ उनसे मिलने उनके घर आएं तो उनके दरवाजे पर उन्हें ‘आउट’ की तख्तियां लगी न मिलें।

परिचय :

योगेंद्र कृष्णा

जन्म : 1 जनवरी, 1955 ( मुंगेर, बिहार )

शिक्षा : अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर

लेखन : हिंदी और अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं में रचनारत। पहली रचना श्रीपत राय संपादित पत्रिका कहानी में प्रकाशित।
पहल, हंस, कथादेश, वागर्थ, नया ज्ञानोदय, साक्षात्कार, पूर्वग्रह, अक्षरपर्व, परिकथा, पल प्रतिपल, आजकल, लमही, इंडिया टुडे, आउटलुक, शुक्रवार, समयांतर, समावर्तन, लोकमत समाचार, जनपथ समेत देश की लगभग सभी स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं तथा अन्य विधाओं में रचनाएं प्रकाशित। पटना दूरदर्शन एवं आकाशवाणी से समय-समय पर रचनाएं प्रसारित।

प्रकाशित कृतियां :

  • खोई दुनिया का सुराग ( कविता संग्रह )
  • बीत चुके शहर में ( कविता संग्रह )
  • कविता के विरुद्ध ( कविता संग्रह )
  • गैस चैंबर के लिए कृपया इस तरफ : नाज़ी यातना शिविर की कहानियां (तादयुष बोरोवस्की की कहानियों का हिंदी अनुवाद)
  • संस्मृतियों में तोलस्तोय ( हिंदी अनुवाद )
  • तीसरी कोई आवाज़ नहीं ( कविता संग्रह प्रकाशनाधीन )

संप्रति : बिहार विधान के प्रकाशन विभाग की जिम्मेदारियों से मुक्त होकर अब पूर्णकालिक स्वतंत्र लेखन।

संपर्क : 2 / 800, शास्त्री नगर, पटना : 800023
मो. 09835070164

ईमेल : yogendrakrishna@yahoo.com

उपासना की कहानी 'सर्वाइवल' : एक मूल्यांकन



नया ज्ञानोदय के उत्सव अंक (अक्टूबर, 2017) में भारतीय ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार प्राप्त उपासना की कहानी ‘सर्वाइवल’ ने अपने भाषा-शिल्प एवं कथ्य से सहज ही आकर्षित कर लिया। जिन्होंने उस कहानी को पढ़ा होगा, उनके पास तारीफ के ही शब्द होंगे। कथ्य पर ध्यान देते हुए मुझे याद आया कि कभी एक ऐसी ही एक कहानी पढ़ चुका हूँ। स्मृतियों को रिवाइंड करने पर याद आया कि ऐसी ही एक कहानी ‘अज्ञेय’ ने लिखी है। फिर से उस कहानी को पढ़ा। तो, वह कहानी है – ‘हीली-बोन् की बत्तखें’।

अज्ञेय की कहानी में मुख्य पात्र है, स्त्री – हीली-बोन्, जो पर्वतीय क्षेत्र के सौंदर्य में अपने अकेलेपन को भोगने के लिए अभिशप्त है। कभी उसने प्यार भी पाया था, पर उसने स्वयं ही तो अकेलेपन का चयन भी किया था। उस अकेलेपन से उपजे खालीपन को दूर करने के लिए हीली बत्तखें पालती है, जिनके अंडों से उसके जीवन-यापन का खर्च भी निकल आता है। वहाँ के लोग उसके बारे में कहते हैं कि वह सुंदर है, पर स्त्री नहीं है। वह बाँबी क्या, जिसमें साँप नहीं बसता? 

वहीं उपासना अपनी कहानी ‘सर्वाइवल’ में मुख्य पात्र पुरुष को बनाती है – एक बेरोजगार छात्र, जो हीली-बोन की तरह ही घर-बाहर ‘अनप्रोडक्टिव’ का तमगा पाता है। वह भी टिप्पणी पाता है – “काम का ना काज का”। वह जिस मोहल्ले में रहता है, वह कबूतरों का मोहल्ला है। वह भी कबूतरों को पालता है और उसे अपने कबूतरों पर गर्व है, जैसा कि हीली अपने बत्तखों पर गर्व करती हैं कि इतनी सुंदर बत्तखें ख़ासिया प्रदेश में और नहीं हैं।

दोनों ही कहानियों में एक दिन अचानक परिवर्तन आता है। हीली की बत्तखें मारी जाती हैं…हर दूसरे-तीसरे दिन और वह कुछ कर नहीं पाती। उसके चार बत्तख इसी तरह मारे चले जाते हैं। इसी तरह ‘सर्वाइवल’ कहानी में मुख्य पात्र के कबूतर एक बाद एक, तीन मारे जाते हैं। चौथा लापता हो जाता है।

दोनों ही कहानियों में हत्यारे की पहचान होती है। हीली-बोन् की बत्तखों को लोमड़ी मार ले जाती है, वहीं उपासना की कहानी में कबूतरों की हत्यारिन रहती है – बिल्ली। सर्वाइवल कहानी का नायक, बेरोजगार छात्र, बिल्ली को मारने की ताक में रहता है और उसे मौका भी मिल जाता है, जब उसके माता-पिता एक रिश्तेदार के यहाँ शादी में शरीक होने चले जाते हैं। पहली बार वह दूध में जहर की गोली मिलाकर देता है, पर वह उसके पास नहीं आती। फिर वह रोज दूध-रोटी देते हुए उसे एक तरह से आश्वस्त कर देता है। ऐसे ही एक दिन मौका पाकर वह दूध पीती बिल्ली पर पेपरवेट दे मारता है और वह दम तोड़ देती है।

अज्ञेय की कहानी में हीली-बोन् के मरते हुए बत्तखों की बात जानकर एक फौजी अफसर उसकी सहायता को आता है। हीली को विश्वास होता है कि वह लोमड़ी को जरूर मार देगा। और उसी रात बंदूक की आवाज भी होती है तथा सुबह कैप्टन दयाल आकर कहते हैं कि शिकार जख़्मी हो गया है। फिर वे उसे दिखाने ले जाते हैं।

अब अज्ञेय और उपासना अपने पात्रों के जरिये कहानी के उपसंहार तक पहुंचते हैं, जहाँ एक की मौत के बाद दूसरी जिंदगियां किस तरह सामने आती हैं…यह देखना है। हीली को कैप्टन दयाल एक दृश्य दिखाते हैं। अज्ञेय लिखते हैं – “अंधकार में कई-एक जोड़े अंगारे से चमक रहे थे।"

उपासना की कहानी का नायक गाँव से आकर तीखी असहनीय गंध का पीछा करते हुए देखता है कि “दो बेहद कृशकाय बच्चे थे। एक निश्चेष्ट पड़ा था। दूसरा मुझे देख भयभीत हो कोने में दुबक गया।“ अज्ञेय की तरह ही वे आगे लिखती हैं – “कोने में अंधेरा-सा है। अंधेरे में बस उसकी कंचे-सी आँखें चमक रही हैं।”

हीली जो दृश्य देखती है, उसका वर्णन अज्ञेय ने जिस तरह किया है, आप भी देखें – “खोह की देहरी पर लोमड़ी का प्राणहीन आकार दुबका पड़ा था – कास के फूल की झाड़-सी पूंछ उसकी रानों को ढंक रही थी जहाँ गोली का जख्म होगा। भीतर शिथिल-गात लोमड़ी उस शव पर झुकी थी, शव के सिर के पास मुँह किये मानो उसे चाटना चाहती हो और फिर सहमकर रूक जाती हो। लोमड़ी के पाँवों से उलझते हुए तीन छोटे-छोटे बच्चे कुनमुना रहे थे। उस कुनमुनाने मे भूख की आतुरता नहीं थी, न वे बच्चे लोमड़ी के पेट के नीचे घुसड़-पुसड़ करते हुए भी उसके थनों को ही खोज रहे थे।”

कैप्टन दयाल कहते हैं “यह भी तो डाकू होगी – । कोई उत्तर नहीं मिलने पर उन्होंने फिर कहा – “इसे भी मार दें – तो बच्चे पाले जा सकें।” फिर पीछे हीली को न देख उसी तरफ चल देते हैं। वहीं उस करुण दृश्य को झेलने में असमर्थ हीली उन्माद की तेजी से दौड़ते हुए सीधे बत्तखों के बाड़े में पहुंचती है तथा एक-एक करके अपने ग्यारह बत्तखों को ‘डाओ’ से गला काटकर हत्या कर देती है। वह सहानुभूति दिखाते कैप्टन को ‘हत्यारा’ कहती है और उसकी आँखों में एक सूनापन शेष रह जाता है। ‘सर्वाइवल’ कहानी का पुरुष पात्र बस बिल्ली की भयभीत आँखों में ‘पंखों की बेचैन फड़फड़ाहट' महसूस करता है और पसीने में भींग जाता है। उसके पास एक भी कबूतर नहीं बचा है, फिर उसकी कौन-सी प्रतिक्रिया की किसीको जरूरत है। 

अज्ञेय की कहानी में हीली को लोमड़ी के परिवार को हुआ अभाव अपने अभाव जैसा लगता है तथा सभी बत्तखों को मारकर अकेले हो जाने की तैयारी उसकी नारी संवेदना है जिसका तादात्म्य मादा लोमड़ी से जुड़ जाता है। ज्ञात हो कि कहानी की शुरुआत में ही एक वाक्य आता है कि हीली सुंदर है, पर स्त्री नहीं है। अज्ञेय जहाँ जीवन की विडंबना एवं मानवीय संवेदना दिखाने में गहरे जाते हैं तथा सफल भी हुए हैं, वहीं उपासना अपनी कहानी में चूक गयी हैं तथा कहानी मुख्य-पात्र के अवसाद में ही खत्म हो जाती है। वे कहानी के आरंभ से अंत का कोई सूत्र जोड़ नहीं पाती हैं।


निवेदिता झा की कवितायें



निवेदिता झा का सृजन संसार विस्तृत है। वे हिंदी एवं मैथिली में अपने मनोभावों को अभिव्यक्ति देती हैं। स्कूली जीवन के साहित्य-प्रेम ने उन्हें कविताओं की दुनिया की तरफ आकर्षित किया और फिर वे पड़ाव-दर-पड़ाव अपनी साहित्यिक यात्रा पर चल पड़ी। इस क्रम में उनका पहला कविता-संग्रह आया 'नीरा मेरी माँ है'। उसके बाद 'मैं नदी हूँ' और 'देवदार के आँसू'। कई साझा संग्रहों में अपनी सहभागिता सुनिश्चित करती उनकी कविताओं का अपना मनोविज्ञान है। उनकी कविताओं की स्त्री प्रगति-पथ पर लगातार आगे बढ़ रही है। प्रकृति एवं प्रेम को आख्यायित करती उनकी कविताओं में नैसर्गिकता दिखती है। यथार्थ की व्याख्या में बनावटीपन से दूर उनकी रचनाएं किसी खास वाद के घेरे में गिरफ्त दिखायी नहीं देती और रचनाओं का अपना सहज प्रवाह है। तो चलिए, उनके जीवन-दर्शन को उनकी कविताओं से गुजरते हुए समझा जाय।

1. एक स्त्री
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प्यार के दो बोल
दो गज़ ज़मीन
दस कदम
चार दिन
एक घर

इन्हीं अंको के
जोड़-घटाव में
काट लेती है
सम्पूर्ण जीवन
एक स्त्री....!

2. विदाई
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रात आँखो में कटती है
जब बात दूसरे घर
जाने की होती है

और कई रतजगे के बाद तय
विदाई की तारीख
हर्ष-विषाद में झूलता
परायापन
बिटिया का जन्म
अब तो सुखकर भी
कहीं लड्डू कहीं पेड़े
अचानक लत्तर की तरह बढकर
ताड के पेड़ की तरह
और ब्याह की उम्र होते ही
खलबली-सी

पलकों का मूंदना
शनै: शनै: वक्त बढता है
टटोलती है अपने सिरहाने
धीमे से दीवार
भीतर ही भीतर वो खुश्बू
जिसमें उसकी यादें रचती बसती थी
माँ का चेहरा
और सर्द हो जाता है शरीर

भाई को सौंपती
अपने गुड्डे, घर, खिलौनें, किताबें
हाथों पर लडाई के बाद चिकोटी के निशान
सब तुम्हारा
पापा माँ महला दुमहला
वो तो ले जायेगी मात्र
नितांत वही सुबकता गोदरेज आलमारी का कोना
या बडा सा पेटार
जहाँ कुछ पैसे कुछ पुरानी तस्वीरें
और नैहर की स्मृतियाँ

वो जीवन पर्यन्त चाहती है
अन्न धन से भरा रहे मायका
जीवित रहे गाँव का खेत खलिहान
कुकुर बिलाय तक अमर हो जाये

विस्थापन या स्थानांतरण
कोई लिखता क्यों नही
लम्बी कविता इसपर
उनके इस वेदना पर

सुबह हो गयी
कहार आ गये
चली लाडो नयी दुनिया बसाने ।

3. स्मृतियाँ
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घुटने पर हाथ रखे
स्मृतियाँ
और बेंच के किनारे, थका वर्तमान
सामने पसरा वो यादों का मैदान
लौटते दूर से पूर्वज

कुछ लोगों का चेहरा देखा नहीं
कुछ तैलीय चित्र जैसी हिलती यादें
बाबा का चाय का लोटा
और कंधे पर लाल तौलिया
कुछ दूर पर कुछ और अपने
बडे चाचा और सामने किताबों की ढेर
जंगल से लौटते तरबतर पिता
और
आँगन में मुस्कुराती माँ
जो नहीं थक सकती कभी
उसे नहीं लगती थी भूख
और दुखता नहीं था उसका कभी पांव
ढेकी पर कूटती चूडा मितन की कनियां
नैनाजोगिन गाकर लौटकर थकी दादी
कुछ और शामें
कुछ पनधट और पोखर के पास की यादें

सब आ रहे एक एक सामनें
मुझे क्या कोई याद करेगा कभी
ठहरकर.....

4. कल वो भी इतिहास
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मैनें रोम नहीं देखा
इतिहास में दूर तक लौटती रही

मनोविश्लेषण से कुछ दूरी
तय की जा सकती है
आँखो से कुछ किताबें
फिर भी मिला बहुत कुछ उन दीमक चाटे
लाईब्रेरी के दुबके पन्नों में
कालों में खुद बंटा, जहाँ था काल
पुरूष स्त्री पूरक, पहिए आधार जड़
सब मिला वहाँ

जब स्त्री मिली
तो अग्निपरीक्षा देती
कभी गणिका तो कभी दांव पर लगती
हार जीत क्या होती है
परिभाषा में मेरे शब्द सदैव संकुचित

मैनें वर्तमान को देखा
नीरो की बांसुरी आज भी बज रही है
धृतराष्ट्र पट्टी में बैठा कान को आगे बढाए
अग्नि परीक्षा देती कई ललनायें
बिकती रातें है आज़ भी
मॉल के बाहर यक्षिणी रूपी मूर्तियाँ फव्वारे से
अाँसू बहाती .....

वर्तमान को पता तो है
कल वो भी इतिहास होगा
नया युग नहीं पीछे देखता

5. एक बार मुस्कुरा दे
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ऐ लड़की
क्यों गाती हो चेरो राजा की वीरगाथा संगीत में
दीवारों पर पीला रंग उतर आता है
पहले भी ऐसा होता था
तुम जानती हो न
रोपती हो जब भी स्मृतियाँ
माथे पर गुदना का
जाग जाता है तुम्हारा सारा दुख
तुम उदास दिखती हो उस दिन

तुम भूल जाओ सबकुछ
देखो न उफन रही है दुमुहान नदी
उतर रही है वहाँ साँझ
पैरों में पहन चांदी के मोटे पायल
तुम जाओ नाचो अपनी धरती की चुनरी ओढ
सर पर बनफूल लगा
मुझे भी ले चल संग

अब जानले ,
तुमसे जीवन है
तुम ही से संगीत है
एक बार मुस्कुरा दे

6. तालियाँ
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निहायत बेकार की बातें है
उनकी समस्याओं पर बातें
अवकाश मिलते ही गहरी नींद से जागे वो
और उबासी के बाद
ये पक्तियां सामने आयी बेखौफ़

शुरू हो गई देश-विदेश
तुलनात्मक अध्ययन जैसी घिसी पिटी कहानी
मर्द औरत का अंतर
औरतों के कम कपडे पर गुस्सा
बेटी की पढाई पर लम्बे भाषण
हाँ में हाँ मिलाते तमाम नामचीन सर लोग
देश में तरक्की बढी है
रोजगार व्यापार और उम्मीदार
किरायेदार सबकी तरक्की हुई है

सिंधु सभ्यता पर टिप्पणी
टटका बच्चे की इतिहास किताब का ज्ञान
और नालंदा के छात्रावास से लेकर
बिहार की बोली तक लम्बा सिलसिला
बीच में पान की पीक फेकते
और सार्वजनिक उदगार कि
अमेरिका साफ देश है भई मेरी नज़र में

अब तो सीधे लोगों का गुज़ारा मुश्किल है
क्या हो गया एक बार
वहाँ चले गये तो
बडे लोगों के शौक में है ये सब
खानदानी लोग की ये सभा परहेज करती है
गाती है वैसे जैसे जद्दन बाई जी उठी हो अब वहाँ
लपलपाते जीभ सबके सब
ढेर सारी समस्याओं पर बात करते हैं
मगर

किन्नरों की स्थिति ......बेकार की बातें
तालियाँ तो अब
यही कुछ बडे लोग बजा रहे हैं !

7. कद
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पहाड
तुम औघढ हो
बडी-बडी जटायें
उसमें अपने आप पड़ जाते
अनगिनत गिरह
जटाधारी किसकी याद में ये साधना
क्या प्रेम की हवा तो नहीं लगी तुम्हें
उम्र कितनी, सच बताना

छोडो तपस्या
सांसारिक हो जाओ
कद के पीछे पागल है दुनिया
तुम वहाँ भी आगे होगे
शायद खजूर से बडा नाम हो
साथ में ले चलना कुछ बादलों को
कुछ नदियाँ
कुछ यादें
कुछ फूल

लेकिन शहर से एक रास्ता भी बनाना
जहाँ मन ना लगने पर लौट जाओ ।

8. जीवन
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सुख और दुख का क्षणिक उदय
और होना कहीं गायब
ऋतुओं के परिवर्त्तन जैसा होता है
नहीं चाहते जैसे हम
ठहरे कहीं ग्रीष्म
चाहते तो हैं कि
बरसे और झमझम करती आये बहार
किसान खेत से हटाये नहीं कभी अपना मन
और बसन्त जाये कहीं दूर

हमें रहना ही चाहिए अविचल
जैसे सागर में आते नदियों के जल
या नदियों में बहते नाव के बिछड़े कील और पट्टे
मगर घूमती धरती और बदलता कहीं मौसम
ग्रीष्म को रूकने को कह उठता है
रोक लेता है पत्तों का हँसना
प्रेम भी समाप्त होता है कभी-कभी

विजय की आदत जो है हमारी
शरद को विदाई दे जाते हैं हम तत्काल
और बसन्त से ईर्ष्या शुरू हो जाती है
कौन समझाये किसे
जीवन है, तो इसमें सुबह भी है और शाम भी
आदि है और अन्त भी !


9. आज की कविता
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गुज़र रही है
संकरी गली से
लांछन के दौर के बीच

परे हटाती कालिमा
मरूभूमि पर  खड़ी
ज़ल रहे हैं पैर
तप रही है वो

सामने हैं 
दुर्गम रास्ते 
अदम्य साहस  
युग के बदलाव की सोच लिए
धरती के आँचल पर
समय के सामने
लिखेगी शब्द दो चार

आज की कविता 

10. गौरैया
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पलाश पर शाम से बैठी 
मगन वो गौरैया
कुछ सुना रही थी
शायद कोई गीत गा रही थी

मत छेड़ो इन्हें
जगाओ मत कुंजों  को
वो कोई राग है
या कोई वेदना
जिसके दीप अंतस में जल रहे हैं 
अंधकार है कैसा ये कारा है
जहाँ विलुप्त होते जा रहे एक एक खग
प्रकृति के मौन विलाप पर
सबने बाँध ली है चुप्पी

चैत्र की शीतलता
एक मन की व्याकुलता को नहीं देखती
वन-वन आस लिए व्यथित कह रही है 
रहने दो मेरा जीवन और 
बनने दो मेरा रैन बसेरा 

परिचय
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निवेदिता झा
एम ए ( मनोविज्ञान )
पत्रकार एंव काउन्सलर (अम्बेदकर मेडिकल कालेज) रोहिणी, दिल्ली
ईमेल - niveditaart@gmail.com
मो. - 9811783898