जमीन अपनी तो थी : स्मिता सिन्हा




जगदीश चन्द्र ने उपन्यास त्रयी ‘धरती धन न अपना’, ‘नरककुण्ड में बास’ तथा ‘जमीन अपनी तो थी’ की रचना की, जिनमें उन्होंने भारतीय समाज के अत्यंत दीन-हीन एवं उत्पीड़ित वर्ग दलित मजदूरों की त्रासद स्थिति का वर्णन किया है। उनकी बेबाक लेखन-शैली से युग-स्थिति का यथार्थ चित्र हमारे सामने उभरता है। स्मिता सिन्हा ने उस त्रयी का अंतिम भाग अभी पढ़कर खत्म किया है। वे कृति को संजीदगी से पढ़ने एवं मनन करने में विश्वास करती हैं।  तो आइए, उनके पाठकीय अनुभव से अवगत होते हैं।


देश के राजनीतिक हलके पर भले ही सामाजिक, आर्थिक और वर्गीय समानता व विकास की बातें जोर-शोर से प्रचारित-प्रसारित की जाती रही हों, लेकिन इससे विलग जो परिदृश्य यथार्थ के मानचित्र पर हमें देखने को मिलते हैं, वह न सिर्फ हमें वैचारिक स्तर पर प्रभावित करते हैं, बल्कि सच और झूठ का आईना भी दिखला जाते हैं।

         

पिछले दिनों बहुत सारी बेहतरीन किताबों के संगत में रही। किताबों को पढ़ने के बाद उन पर लिखने की हड़बड़ी मुझे कभी नहीं रही। किसी किताब को पढ़कर उसे मन में गुनना वनिस्पत आपको ज्यादा समृद्ध बनाता है लिखने के। कागजों पर शब्दों को उतार कर हम कहीं न कहीं खुद को खाली करते जाते हैं। खैर! तो ऐसी ही एक किताब रही 'जगदीश चंद्र' की 'जमीन अपनी तो थी'। मजदूर जीवन के संघर्ष का एक पूरा दस्तावेज… श्रमिक व पिछड़े समाज पर होने वाले अत्याचार व शोषण की मार्मिक दास्तान!

          

यह उत्पीड़ित वर्ग कोई भी हो सकता है... भूमिहीन खेतिहर मजदूर या कि डोम, चमार, भंगी जैसे वर्ण-व्यवस्था के अंतिम सोपान पर फेंक दिए गए लोग! अब आप चाहे मजदूर कहकर उनका शोषण करिए... चाहे जातिगत विडंबनाओं के हाशिए पर धकेल दीजिए... अपने अधिकारों के लिए उनका संघर्ष कभी कम नहीं होने वाला। ऊँची जातियों के लोग कृषि पर आश्रित होते हैं, मगर वे जमीन के मालिक होते हैं… जमीन पर काम करने वाले मजदूर नहीं। तो अगड़े और पिछड़े दोनों ही वर्गों में संघर्ष इसी जमीन को लेकर है। आर्थिक विपन्नता ने सामाजिक तौर पर न सिर्फ श्रमिक वर्ग को शोषित किया, अपितु एक हद तक उनका बहिष्कार भी किया। पहले दबे-कुचले कमजोर वर्ग को जमींदारी प्रथा ने हाशिए पर रखा था, आजादी के बाद भी उनकी स्थिति में कोई खास फर्क नहीं पड़ा। इसी संदर्भ में बाबा साहेब आंबेडकर की उद्धृत एक पंक्ति याद आती है कि, "हर आदमी जो मिल के सिद्धांत को दोहराता है कि एक देश किसी दूसरे देश पर शासन करने के लिए उपयुक्त नहीं है, उसे यह भी मानना होगा कि एक जाति भी दूसरी जाति पर शासन करने के लिए उपयुक्त नहीं है”।

     

‘जमीन अपनी तो थी’ इसी जातीय संघर्ष से उपजी कहानी है। यह कहानी तब शुरू होती है जब पिछड़ा वर्ग अपनी मान मर्यादा के प्रति सचेत और अपने मूलभूत अधिकारों के प्रति जागरूक हुआ। यह कहानी है नंद सिंह और काली की... जो जातिपाँति की रूढ़ियों और अमानवीय सामंतवाद का शिकार हो अपने ही गांव से विस्थापित कर दिए गए और अपनी ही जमीन के लिए जीवन पर्यंत संघर्षरत रहे। पाठक पंजाब के घोड़ेवाहा गांव की जगह बिहार और यूपी का चाहे कोई भी गांव रख लें। काली की जगह हरिया और नंद सिंह की जगह मधुसूदन ही कर लें। परिस्थितियां कहीं भी और किसी के लिए भी आसान नहीं होने वाली। लखबीर सिंह की बेटियां… ज्ञानो और पाशो जैसी औरतें आज भी चौधरियों के हवस का शिकार बनती हैं। आज भी हर जगह पृतपाल सिंह, तरलोक सिंह और दलीप सिंह जैसे सरदार मिल जाएंगे, जो एक ओर इन दलित मजदूरों के हित के लिए सोसाइटी का गठन करते हैं तो दूसरी ओर उन्हीं के हलक में हाथ डालकर उनका निवाला निकाल लेते हैं। मुरारीलाल और शिवदत्त जैसे लोग भी मिलेंगे जिसे कहने के लिए काली भले अपना दोस्त कह ले, पर आरक्षण से लेकर सीलिंग एक्ट की खबरें इन्हीं दोस्तों के सीने पर छुरियों सी चलती हैं। बर्दाश्त के बाहर गुजरती है यह बात कि शैक्षिक एवं आर्थिक स्तर पर अब काली जैसे लोग भी उनकी बराबरी करने में सक्षम हो जाएंगे। राजनैतिक महत्वाकांक्षा में गले तक डूबे हुए सेठ राम प्रकाश जैसे जनप्रतिनिधि भी हर गांव में, हर जगह हैं जो इन पिछड़ी जातियों को अपने खेल का मोहरा भर समझते हैं… खुलकर कहते हैं… "बुजुर्गोंं! इन मामूली बातों को छोड़ो। अन्याय की ओर ध्यान दो। जो ब्राह्मणवादी समाज हमारे साथ सदियों से करता आया है। असली लड़ाई तो उन  ताकतों से हैै। तुम्हें पाँच किल्ले जमीन चले जाने का दुख है। मुझे इस मुल्क का मालिक होने के बावजूद महकूम होने का दुख है। आप लोग छोटी-छोटी शिकायतों को भूल जाओ और बड़ी लड़ाई के लिए कमर कसकर तैयार हो जाओ"। और हैं उन्हीं की बिरादरी से पढ़ लिख कर बड़ा ऑफिसर बन गये कुलतार सिंह जौहल जैसे लोग, जो भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। अपने ही लोगों का खून पी पीकर अपना कद बढ़ाते चले जा रहे हैं।

         

‘जमीन अपनी तो थी’ सदियों पुरानी वैयक्तिक अस्मिता की लड़ाई की बड़ी ही बेजोड़ कहानी है। लेखक ने बड़ी ही काबिलियत से पंजाब की क्षेत्रीय भाषा और पृष्ठभूमि को अपने शब्दों में उकेरा है। हर्फ़-दर-हर्फ़  शानदार तरीके से दर्ज करते गए दलित पात्रों के संघर्षों को, उनके अधिकारों की विषमताओं को, उनकी जागृत होती चेतना को और उनके बड़े होते सपनों को। पात्रों के चरित्र के साथ अंतर्विरोध की राजनीति भी बड़ी मुखरता से उभरती है और उनकी बेचैनी व रात-दिन की जद्दोजहद भी। सामंती एवं पूँजीवादी व्यवस्था की निडरता से खिलाफत करता काली जहाँ आपको सहज स्वाभिमान से भर देगा, वहीं ज्ञानप्रकाश जैसे पढ़े-लिखे युवा अपनी कुंठा दिखला कर आपको सोचने पर विवश कर देंगे कि हमारा समाज कहाँ और कितना बदला है! कहाँ बदली है हमारी विचारधारा! कहाँ बदला है हमारा देश !


परिचय :
स्मिता सिन्हा
स्वतंत्र पत्रकार, 
फिलहाल रचनात्मक लेखन में सक्रिय
मोबाइल : 9310652053
ईमेल : smita_anup@yahoo.com



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