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जीवन क्या जिया : प्रस्थान

प्रभात झा, केदार कानन, सुभाष चंद्र यादव, रमण कुमार के साथ तारानंद वियोगी

राजकमल चौधरी की प्रासंगिकता इस कारण और बढ़ जाती है कि उन्होंने उपेक्षित लोगों के संसार को एक अलग नजरिये से देखा जो समाज के लिए गाली बनता जा रहा था...बिना किसी पूर्वाग्रह और लाग–लपेट के। सभ्यता एवं जीवन के उन वर्जित इलाकों में उन्होंने प्रवेश किया जहाँ बहुतेरों की हिम्मत आज भी नहीं होती। उन्होंने अपनी शर्तों एवं सिद्धांतों पर जीवन जिया। उनके जीवन की बहुत-सी बातें एवं प्रसंग जो छूट रहे थे, बहुत सी कड़ियाँ जो जोड़ी जानी थीं, का विषद वर्णन तारानंद वियोगी की रचना 'जीवन क्या जिया : राजकमल चौधरी के उत्तर–प्रसंग' में हुआ है। विश्व पुस्तक मेला , नई दिल्ली में इस पुस्तक के आ जाने की उम्मीद है जिसमें आप जान पाएंगे कि फूल बाबू का गांव उनके बारे में क्या राय रखता है, परिवार एवं बिरादरी की कौन-सी परंपराओं को उन्होंने झटके से तोड़ डाला जो रूढ बनती जा रही थी एवं साहित्य जगत में क्यों आज भी उनपर सभी एकमत नहीं हो पाते हैं। धूमिल कहते हैं―"वह एक ऐसा आदमी था जिसका मरना / कविता से बाहर नहीं है।" जीवन क्या जिया के प्रस्थान भाग में हम वहाँ पहुँच गए हैं जिसका उल्लेख रचना के शुरू में है तो अंत में भी वही जगह समाज के लिए सवाल खड़ा करती है यानी कि फूल बाबू का घर। तस्वीर में राजकमल के घर के आगे कुछ लेखक खड़े हैं। वहाँ पर लेखकों का जत्था आखिर क्या महसूस कर रहा था, क्या सब याद आ रहा था उन्हें...क्या देखा उन्होंने कि वे बेचैन हो गए थे। सुनिए स्वयं 'जीवन क्या जिया' के रचनाकार तारानंद वियोगी की जुबानी।


–––तो, मैं बता रहा था कि उस दिन केदार और सुभाष भाई आए थे। बरसों बरस के बाद हम राजकमल का घर देखने गए थे। घर देखकर हमारी आंखें भर आई थीं। वापस आकर हम ‘बदरिकाश्रम’ में बैठ गए थे और हजार तरह की चिंताओं में मुखर हो गए थे। केंद्र में राजकमल थे। केदार को ‘फूलबाबू का बंगला’ बेहद याद आ रहा था। उसका इस तरह नहीं होना उन्हें सदमे में डाल गया था। वह नहीं रहा तो उसके बदले में कुछ और होता! जैसे कोई स्मारक। वह नहीं तो कोई घर ही, जो उनका होता। कुछ भी नहीं होना यानी कि जंगल झाड़ फूस होना वाकई दुखी करता था। एक बार का जयंती समारोह हमने उसी बंगले पर मनाया था। वह केदार को याद था। देर तक हम उस बारे में चर्चा करते रहे। उन्होंने पूछा–उस बंगले का कोई फोटो है ? फोटो था। मैंने उन्हें दिखाया। उन्हें याद आया कि उस बंगले पर एक सरकारी साइनबोर्ड लगा रहता था, जिस पर लिखा था–पशुपालन विभाग, कृत्रिम प्रजनन केंद्र। मैंने उन्हें बताया कि उस बंगले के बारे में बनगांव के एक कवि रमेश चंद्र खां ‘किशोर’ ने एक कविता भी लिखी थी–राजकमल के देहांत के एक दो बरस बाद। केदार को कविता मालूम थी, फिर भी उसका एक बार फिर पाठ किया गया― " पत्थर पर दूब / कठिन है अथवा / असंभव, यह तो माटी का संयोग / या फिर तृप्ति का आकर्षण / या फिर वासना का योग! भखड़ी हुई चिकनी माटी पर / सुस्पष्ट है तुलसी के सिर पान की जड़ / जैसे आपरेशन टेबुल पर चिथड़े–चिथड़े हुआ उसका शरीर–––सचमुच, इसीलिए तो भूल गई / वह बेशरम उग्रतारा / उस भंगीबे को / निर्लज्जी को आज भी लाज नहीं कि खड़ी है अब तक / कचहरी में पुरुषों के बीच / डाइवोर्स के कठघरे में–––इसीलिए तो / महिषी का काटेज नुमा घर / माहिष्मती का दरिद्र ‘राज मंदिर’ / स्वार्थ की आंधी में / ढह गया/ बन गया भैंसों बैलों का बथान / टंग गया प्लेट मवेशी अस्पताल का / जिसमें कोष्ठित हुआ–कृत्रिम प्रजनन केंद्र / नन्हें नन्हें अक्षरों में–––‘कृत्रिम’ और ‘स्वतः' के मध्य की यह रेखा / दरअसल विरोध की रेखा / बहुत गहरी हो गई है अब / जैसे कि फूलबाबू की यही हो वसीयत / और जिसका साक्षी हो महिषी गांव / और यहां वाली उग्रतारा–––वह तो भूल ही गई बेटखौकी / निस्पृह हुई डायन / तभी तो उसी के लिए खिला गुलाब / उसी के निमित्त अर्पित गेंदा / बन गया पीला कपीस / उजला सफेद / जैसे मरीज श्वेत कुष्ठ का / कि जैसे गोबर के ढेर पर / भादो की बदली में जनमा कोई कुकुरमुत्ता–––" कविता ने हमें और भी उदास कर दिया।

–जानते हो केदार, वह जमीन जिस पर उन्होंने बंगला बनवाया, उन्हें आराम से मिल गया हो, ऐसा भी नहीं था। वह जब 1966 में गांव आए तो इसी जमीन को उन्होंने घर बनाने के लिए पसंद किया। पुराने खतियान में वह उनके पुरखों की थी भी। लेकिन नया सर्वे चालू था। और यह जमीन दबंगों के कब्जे में थी। दबंग भी उन्हीं के गोतिया थे। स्थानीय प्रशासन और राजनीति पर दबंगों की पक्की पकड़ थी। मधुसूदन बाबू से तो यह सात जनम में नहीं होनेवाला था। राजकमल ने इसे लड़कर हासिल किया था। यानी कि देह के स्तर पर लड़कर–––

–लेकिन आज यह जमीन नीलू के कब्जे से कैसे निकल गई ?

–नहीं। निकली नहीं। निकाल दी गई। दरअसल यह प्लॉट राजकमल तीनों भाइयों के ही हिस्से में आया था। लेकिन केदार, शरम की बात है लेकिन सच है कि उस स्थल को बुधवारय परिवार घोर अशुभ मानता था। पंडितों के विधान के मुताबिक उस पर शौच कर्म के अतिरिक्त कुछ भी नहीं किया जा सकता था। सभी तो चाहते थे कि वह नीलू ही ले, लेकिन शशिकांता जी अड़ गर्इं। उन्होंने यहां तक कह दिया कि नीलू को हिस्सा न दें सो ठीक, लेकिन वह जमीन नहीं चाहिए! तुमने देखा न, नीलू के चचेरे भाई को वह जमीन मिली है, लेकिन उस जगह उसने घर नहीं बनाया, हटकर बनाया। वहां जंगल है–––

–ओह! वहां कोई स्मारक होता!

–हम तो बीस बरस से यह चाहत लेकर बूढ़े हो रहे हैं केदार! जानते हो, 1978 में हरिमोहन बाबू (प्रख्यात लेखक) हमारे गांव आए थे। उग्रतारा के दर्शन के बाद खासतौर पर वह उस बंगला को देखने पहुंचे थे, और उस क्षण की अनुभूति को उन्होंने एक मार्मिक कविता में उतारा था–" मन में आया–रहता यदि यहां उनका कोई स्मारक / छोटी सी भी कोई प्रस्तर मूर्ति / फूल मैं चढ़ाता उनके सम्मान में/ लेकिन वहां कीचड़ मात्र कीचड़ था ठेहुने भर तक / कमल जा चुका था, कीचड़ ही कीचड़ था अब शेष। ऐसी ठेस लगी हृदय में कि जैसे / वहां बहुमूल्य अपना कुछ खो आया हूं–––"

–ओह!

–बहुत बोझ महसूस करते हैं यार! लेकिन उससे क्या होगा ? वे तैयार हों तभी तो!

फिर हम बात करने लगे कि राजकमल का परिवार उस घर, उस जगह को अशुभ क्यों मानता था। उसमें रहते हुए राजकमल मरे, केवल इतनी सी बात नहीं थी। रेणुजी के धरमपुर इलाके से माहिर कलाकारों को बुलवाकर राजकमल ने फूस के बने उस बंगले का सुरुचिपूर्ण निर्माण कराया था। इसका उपयोग वह अपने ऑफिस के रूप में करते थे, जिसमें शयनकक्ष और अतिथिकक्ष भी अलग अलग थे। शशिकांता जी पुराने आंगन में रहती थीं, जिसे हम ‘फूलबाबू का आंगन’ कहते थे, और वह मधुसूदन बाबू के आंगन से लगा हुआ था। केवल खाना खाने के लिए राजकमल आंगन जाते थे। बाकी सारा समय यहीं बिताते थे। उस जमाने के पारिवारिक बच्चों से पूछो तो वे यही बताते हैं कि जब भी कभी चाय पहुंचाने या किसी दूसरी बात के लिए वे वहां जाते तो उन्हें हमेशा लिखते हुए ही पाते थे। लेकिन, यह सच का केवल एक पहलू था। दूसरा यह था कि पड़ोस की एक विधवा युवती लगभग हमेशा उनके आस पास पाई जाती थी। गांव में फूलबाबू का रुतबा लगभग वैसा ही था, जैसा ‘पाथर फूल’ के फूलबाबू का हम देखते हैं। यानी कि कोई भी विरोध उन्हें मंजूर नहीं था। उस विधवा के बारे में समूचा गांव ‘जानता’ था कि बड़े बड़े अघोरियों से उसकी सांठ–गांठ है और यह कि वह ‘हक्कल डायन’ (विनाशक तांत्रिक अभिचारों में निष्णात) है। यह प्रसिद्धि थी कि राजकमल उस स्त्री का केवल दैहिक भोग ही नहीं करते बल्कि उससे ‘डायन’ सीख रहे थे। प्रख्यात लेखक सोमदेव, जो तंत्र विद्या के भी पारंगत हैं और राजकमल के मित्र भी रहे हैं, ने बताया था कि हां, राजकमल की मौत साधारण मृत्यु नहीं थी, तांत्रिक अभिचार में ही उनकी जान गई थी। उनका कथन था कि उच्चाटन प्रक्रिया सीखते हुए उनका संतुलन बिगड़ा और उन्हें जान गवांनी पड़ी थी। दूसरी ओर, यह भी कहा जाता था कि उस स्त्री की नकेल उन दबंगों के हाथ में थी, जिनसे लड़कर राजकमल ने वह जमीन हासिल की थी। विश्वास किया जाता था कि उस समूची जमीन को इस तरह ‘बांध’ दिया गया है कि उस पर बसकर सुखी जीवन बिताना असंभव है। शशिकांता जी का इस बात पर अटल विश्वास था। और, उस बंगले में एक और बात यह थी कि इलाके भर के मुफ्तखोर नशेड़ी दिन दिन भर वहां बैठकर फूलबाबू का दरबार करते, उनकी चिलम भरते रहते थे, या फिर मांस मछली भांग दारू का इंतजाम करते थे। और इन सबके बीच, राजकमल जीवन में आखिरी बार प्रेम की तलाश में थे। वह अलकनंदा दासगुप्त थीं, जो बनारस में रहती थीं। हर दिन उन्हें पत्र लिखते। उनके लिए कविताएं लिखते। इन दिनों तो वह गजलें और शेरो शायरी लिखने लगे थे, जो शायद जरा भी जमती नहीं थी। लेकिन वह हमारे आपके लिए शायद थी भी नहीं। वह जिसके लिए थी, उस पर जमती हो! मृत्यु से सिर्फ 126 दिन पहले, 12 फरवरी 1967 को इसी बंगला में बैठकर राजकमल ने अपने मित्र शंभुनाथ मिश्र को लिखा था–‘अलका को बीवी बनाकर रख लेना होगा, चाहे धर्म से, या कानून से, सहमति लेकर नहीं, सिर्फ उसे हमेशा के लिए साथ रख लिया जाए, मगर मुझे तो गांव में ही रहना होगा–और, गांव की अपनी सीमाएं होती हैं। क्या वह एक किसान लेखक की बीबी या प्रेमिका या रखैल बनकर स्थायी रूप से रह सकेगी ? वह कहती है, मगर, मुझे यकीन नहीं होता है।’

वह बंगला अब नहीं बचा था। लेकिन, उधर ‘फूलबाबू का आंगन’ भी नहीं बचा था–वह आंगन जहां हम अतिथियों के लिए भोजन बनवाते थे। पर, वह नीलू के दखल में था। चारों ओर से घेरकर नीलू ने लोहे का ग्रिल लगवा दिया था, जिस पर लिखा था–राजकमल निवास। ग्रिल की छेद से झांककर देखो अंदर जंगल झाड़ उगा दिखता था। और मधुसूदन बाबू का वह मकान–जिसमें 1934 का भूकंप आया, और जिसमें बंगालन संन्यासिन आर्इं, और जिसके कोठे पर प्रवेश की अनुमति मधुसूदन चैधरी और त्रिवेणी देवी को छोड़कर किसी को भी नहीं थी, और जहां राजकमल ने अपनी अनंत यात्रा का पहला कदम उठाया, और जहां नागार्जुन किसुन जैसे कितने ही दिग्गजों की ‘पानी पीढ़ी’ लगी थी, और जिसके बरामदे पर बैठाकर हम अपने अतिथियों को भोजन कराते थे–वह जर्जर हवेली, सुनसान वीराने में चीत्कार कर रही थी। टूटा ही सही, लेकिन किवाड़ अब तक मौजूद था। दीवारें ढह रही थीं। ऊपर चढ़ने की सीढ़ियां ध्वस्त हो चुकी थीं। नीचे आंगन में विशाल ‘झाड़ झंखाड़’ उग आए थे। वहां अब कोई आदमी नहीं रहता था। वहां रहने वाले अंतिम आदमी सरोज बाबू थे। उनकी मृतात्मा के प्रति हमने कृतज्ञता ज्ञापित की कि जब तक वह जीवित रहे, इस घर को घर की गरिमा मिलती रही। केदार बोले–लेकिन मित्र, उस आंगन में जाकर तो तुम बिल्कुल से बेचैन आत्मा दिख रहे थे! कुछ ज्यादा ही विचलित नहीं थे ?

मैं झेंप गया। अब मैं केदार को कैसे समझाता कि उस वक्त मेरे साथ क्या हुआ था! हुआ यह था कि दो वीर बांकुरे मेरी आंखों में आकर खड़े हो गए थे। वे दोनों लालकाका और फूलबाबू थे। और, मैं एक ही साथ दोनों की ‘उचिती’ कर रहा था–आप दोनों ही गलती पर थे महाराज! दोनों ही कुपंथ चढ़े थे! बाप बेटे भी कहीं इस तरह लड़ते हैं! ज्ञानी बाप बेटे!

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जीवन क्या जिया : उत्कर्ष

'जीवन क्या जिया' के उत्कर्ष खंड को उसके सर्जक से ही शुरू करना उचित समझता हूं। राजकमल चौधरी के सगे चाचा नरेंद्र नारायण चौधरी बालक तारानंद के गुरु थे, ऐसे में फूल बाबू की चर्चाओं से भला वे कैसे विलग रह पाते। परिवार में कई प्रसंगों पर चर्चाएं होती थीं तथा यह भी ज्ञात हो चुका था कि वे लेखन करते थे, पर अद्भुत लेखन! इसका पता अभी तक नहीं चला था। इसका भी श्रेय महिषी के तारास्थान को मिलना था। वहीं राजेंद्र की पान–दूकान पर पोस्ट ऑफिस में नौकरी करनेवाले विनोदजी द्वारा यह जानकारी मिली कि राजकमल ने लेखन के क्षेत्र में हिला देने जैसी घटना की सृष्टि की है। फिर क्या, किशोर होते तारानंद एवं अन्य साथियों में जूनून पैदा हो गया। उन्होंने राजकमल परिवार के सरस्वती पुस्तकालय से शुरू कर सहरसा, सुपौल, दरभंगा, पटना आदि शहरों की दूरियां नाप डाली।  'राजकमल रचनावली' अपना आकार ले रही थी, पर उनके व्यक्तित्व की कई उलझी कड़ियां तब सुलझी जब राजकमल के रिश्ते में चाचा उपेन्द्र चौधरी उर्फ़ परदेशी काका से इस मार्फ़त बातचीत हुई। ये उत्साही लड़के उन्हें परदेशी काका क्यों कहते थे, उन्हें भी पता नहीं था। बस कहते थे क्योंकि फूल बाबू उन्हें इसी नाम से पुकारते थे। रूढ़ियों एवं वर्जनाओं को तोड़ने खातिर राजकमल की तस्वीर पूरे ग्राम–प्रांतर एवं साहित्य जगत में कुछ अलग ही बन रही थी, जिसका अंत उनकी मृत्यु के बाद भी नहीं था। परदेशी काका ने ही उनके व्यक्तित्व को खोलकर इन उत्साहियों के सामने रखा। राजकमल का कहना था― " मुझे बनना या बर्बाद हो जाना है, इसका निर्णय सिर्फ मेरे हाथ में है। फैसला मैं करूँगा। किसी दूसरे को न फैसला करने दूंगा न श्रेय लेने दूंगा। " इसी प्रसंग में महिषी में परदेशी काका एवं उत्साही जिज्ञासुओं के बीच हुए संवाद का अंश आप सबके समक्ष, सादर !


–देखो तारानंद, वह लड़का बारह की उमर के बाद ही अकेला पड़ गया था। हमेशा सोचता रहता। स्कूल में लोकप्रिय था। वहां तरह तरह की प्रवृत्ति के लड़के रहते थे। सबकी पारिवारिक पृष्ठभूमि भी अलग अलग थी। आदतें भी अलग अलग थीं। फिर, वह बाजार में रहता था। पिता के साथ रहता था तब भी, हॉस्टल में रहने लगा, तब भी। बाजार की अपनी जीवनशैली होती है। वह गांव के जीवन की तरह शांत स्थिर नहीं होता। वहां तरह तरह के बुलबुले उगते रहते हैं। अच्छी चीज रहती है, तो बुरी चीज भी रहती है। वह सबकी संगत में आता गया। दूसरी एक बात क्या होती है कि अगर तुम्हारा जीवन उपेक्षित है तो तुमको उपेक्षितों के प्रति हमदर्दी होगी। उसका दर्द तुम समझना चाहोगे। अब, कोई पासी का बेटा है। परिवार से उपेक्षित है। उसकी संगत में आया। वह पासी का बेटा ताड़ खजूर से ताड़ी उतारना जानता है। वह उसके कुल का पुश्तैनी रोजगार है। फिर, यह भी बात है कि पासी के बेटे की हिम्मत तो ऐसी नहीं होगी कि इतने बड़े हेड मास्टर साहब के बेटे को कहे कि चलो, ताड़ी उतारकर पीते हैं। तो, शुरुआत इस तरह हुई कि अकेलेपन के उपेक्षित समय में, तनाव से मुक्ति पाने की प्लानिंग कर रहा है तो आइडिया आया कि उस लड़के को साथ करके तड़बन्ना चला जाए और ताड़ी उतारकर पीया जाए। इस तरह उसके जीवन में दुर्व्यसनों का आरंभ हुआ। ताड़ीवाली बात तो हम बिलकुल ही वास्तविक बोले हैं। एक बार तो गाछ पर चढ़कर ताड़ी उतारने के चक्कर में वह गिर भी गया था। हड्डी टूट गई थी।
–हां काकाजी, संगत की भी तो रंगत होती ही है ।
–देखो, मानते हैं कि होता है। कहावत भी है संगत से गुण होत है संगत से गुण जात। लेकिन, राजकमल के साथ ठीक ठीक यही हुआ, यह भी तुम नहीं कह सकते हो।
–उनके साथ क्या हुआ था ?
–यह तुमको हमेशा याद रखना पड़ेगा कि राजकमल के व्यक्तित्व का निर्माण बहुत उदात्त तरीके से शुरू हुआ था। और, तुम यह भी नहीं कह सकते हो कि यह उदात्तता बारह की उमर के बाद खतम हो गई। बहुत चीजें तो ऐसी थीं, जो कुल का संस्कार थीं। चारों तरफ वैसा ही होता था। वैसा ही होते वह देखता आया था। लालभाई में दोनों चीजें थीं–नैष्ठिकता भी थी और आभिजात्य का गुण भी था। पितामह फूदन चैधरी की प्रतिष्ठा का भी असर था। बुधवारय कुल के गौरव की परंपरा सामने थी। फिर, ऐसी बात भी नहीं थी कि वह आर्थिक रूप से विपन्न परिवार का हो। वह आर्थिक कष्ट में था, यह अलग बात है। लेकिन जिस माहौल में पालन पोषण हुआ, वह विपन्न नहीं था। ऊपर से ब्राह्मण था। मैथिल ब्राह्मणों में बुधवारय कुल को एक जमाने में श्रोत्रिय कुल माना जाता था। इसलिए बाकी ब्राह्मण इसे सम्मान की दृष्टि से देखते थे।
–हां काकाजी, यह बात तो है ।
–राजकमल के व्यक्तित्व में, तुम देखोगे कि शालीनता की कमी कभी नहीं हुई। संस्कारहीन वह कहीं भी दिखाई नहीं पड़ेगा। उजड्ड गंवार जिसको कहा जाए, ऐसा कहीं देखते हो उसको ?
–नहीं। कभी नहीं।
–फिर देखो। जो दायित्व उसने एक बार मन से स्वीकार कर लिया, उसको जिंदगी भर निभाया। किसी बात के विरुद्ध हुआ तो विरोध भी लगातार बना रहा। किसी भी दृष्टि से तुम देखो तो पाओगे कि वह एक जिम्मेवार आदमी था। अगर उसने किसी के साथ बदतमीजी की, कोई झूठ बोला, किसी को धोखा दिया–तो वह सब जान बूझकर, सोच समझकर, प्लानिंग बनाकर किया। उस आदमी के साथ उसको यही करना चाहिए था, इसलिए किया।
–हां, ये बात तो समझ में आने लायक है।
–इसलिए तुम जो बोले संगत और रंगत। वह बात उसमें नहीं थी कि कहीं किसी के साथ हुए तो फिर उसी के रंग में रंग गए। उसको दौरा चढ़ता कि उस रंग में रंगना है, तब वह उस तरफ बढ़ता था।
–बहुत पते की बात आप कह रहे हैं और कह भी आप ही सकते हैं काकाजी!
–तो फिर, धीरे धीरे क्या होने लगा कि वह ज्यादा से ज्यादा समय घर से बाहर रहने लगा। नवादा की बात बताते हैं। बस स्टैंड के पास एक चाय की दुकान थी। वहां वह दस बजे जाकर बैठ जाता और शाम चार बजे तक वहीं बैठा रहता था। उसके पास एक नोटबुक रहती थी। दिनभर वह लिखता रहता था। और, यह तो थोड़ा आगे चलकर हुआ। इसके पहले यह दौर चला कि वह घर से भाग जाता था। पंद्रह दिन, महीना तक गायब रहता था। लेकिन, फिर बताते हैं, वह कहां जाएगा, किसके साथ क्या करेगा–इसका फैसला कोई दूसरा आदमी नहीं कर सकता था। हमेशा इसका फैसला वह खुद करता था। नवादा के दिनों के बारे में कई बातें उग्रानंद ने भी अपने संस्मरण में लिखी हैं। उनका यह संस्मरण अब तक अप्रकाशित है। मुझे इसकी प्रति डॉ– रमानंद झा रमण (प्रसिद्ध मैथिली समालोचक) के पास देखने को मिली। उग्रानंद ने लिखा है कि नवादा में कोई भी आदमी उन्हें राजकमल के नाम से नहीं जानता था। लिखने पढ़ने में तो उनकी गति बाद को हुई, उसके पहले वह वहां एक बदमाश गुंडे के रूप में कुख्यात थे। वहां एक दबंग सरकारी ठेकेदार था, जो अपनी दबंगई कायम रखने के लिए हर अनैतिक काम करता था, तरह तरह के हथकंडे अपनाता था। राजकमल यूं तो उमर में उससे काफी छोटे थे, लेकिन उनकी साहसी प्रवृत्ति ने उन्हें ठेकेदार का बहुत करीबी बना दिया था। किसी को भी पीट देना उनके लिए बहुत मामूली बात थी। उग्रानंद के ही शब्दों में–‘वह इतना जीवट का आदमी था कि कितनी भी भीड़ हो, अकेले वह हाथ छोड़ देता था। वह अपने घर पर भी नहीं रहता था। हॉस्टल के ही एक कमरे में दो–तीन विद्यार्थियों के साथ रहता था। हॉस्टल के अहाते में ही उसका डेरा था और हॉस्टल से सटा हुआ। मगर वह जाता था केवल खाना खाने के लिए। इसके अतिरिक्त उसे अपने पिता के क्वार्टर से कोई वास्ता नहीं था। दिनभर वह उस गंदी गली के उस गंदे कमरे में अपने दोस्तों के साथ ठर्रा पिया करता था और फ्लश खेला करता था।’
–भागलपुर के दिनों में वह कहां जाते थे ? आपको तो कुछ कुछ जरूर बताते होंगे!
–झूठ बताता था कि दुलारीबाई कि प्यारीबाई वेश्या के पास गए थे, वही पंद्रह दिन नहीं आने दी। कभी बताता कि आसाम बोर्डर पर स्मगलिंग का धंधा कर रहे थे। बताने का मकसद यह होता कि हमारी मारफत लालभाई को पता चले और वे दुखी हों। लेकिन हम थोड़ा सोच समझकर ही उनको जानकारी देते थे। कभी–कभी पिता के प्रति आक्रोश में आता तो उनको पतित, धूर्त, अय्याश, मक्कार वगैरह कहता। हम उसको शांत कराते। दूसरी तरफ लालभाई भी उसके लिए इसी प्रकार का संबोधन व्यवहार करते। दबी जुबान से हम उनको कहते भी कि लालभाई, उसको क्षमा कीजिए, अपनत्व दीजिए। पिता के साथ राजकमल के कठिन संबंध का कुछ जिक्र उग्रानंद के संस्मरण में भी आया है। उन्होंने लिखा है कि अपने स्कूल के हीरो थे। पढ़ने में सचमुच तेज थे लेकिन पढ़ाई से अधिक आवारागर्दी में मन लगता था। दो–चार लड़के हमेशा उनके साथ पाए जाते । शुरू शुरू में उनके पिता इस सबके लिए उन्हें बहुत पीटते थे। मगर, बाद में उन्होंने ऐसा विद्रोह किया कि पिता ही उनसे डरकर रहने लगे। उन दिनों राजकमल खुलेआम बोला करते थे कि एक दिन वह समूचा छुरा उनकी लंबी तोंद में घुसेर देगा और सारी अंतड़ियां बाहर निकाल लेगा। ऐसा इसलिए था कि पिता उन्हें बहुत सताते थे, उसकी अवहेलना करते थे। उन्होंने यह भी लिखा है कि ‘उसके पिता बहुत ही पुराने खयाल के आदमी थे। अधिकतर पूजा पाठ में समय बिताते थे। बड़े कड़े मिजाज के आदमी थे। इतना तक कि अपने स्कूल के एक शिक्षक को उन्होंने इसलिए हटा दिया था कि वह सिगरेट पीता था। मगर इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि उस धार्मिक पिता का पुत्र इतना अधार्मिक कैसे हुआ! राजकमल की अधार्मिकता उसके पिता की अवहेलना की प्रतिक्रिया थी। पिता बहुत अधिक भोजन करते थे। अच्छी–अच्छी चीजें खाते थे। मगर राजकमल तथा उसके दोनों छोटे भाइयों को नौकरों जैसा खाना मिलता था। राजकमल के कपड़े फट जाते थे, जूते टूट जाते थे, मगर पिता को इसकी परवाह नहीं रहती थी। राजकमल यह सब देखकर गुस्से से भर जाता था। मगर पिता का दबदबा ऐसा था कि उनके सामने वह अपना गुस्सा अच्छी तरह प्रकट भी नहीं कर सकता था । इसीलिए पिता को तंग करने की नीयत से वह गलत रास्ते पर आ गया था ।’
–काकाजी, इस प्रकार का आक्रोश क्या किसी दूसरे के प्रति भी होता था ?
–देखो, आक्रोश उत्पन्न करनेवाला एक ही व्यक्ति उसके जीवन में था। वे थे उसके पिता । लेकिन देखना पड़ेगा न कि पिता से क्यों आक्रोश होता था, क्या बात थी, क्योंकि उसके सबसे प्रिय व्यक्ति भी तो पिता ही थे। तब, बात यह थी कि पिता में आक्रोश उत्पन्न करनेवाली जो बात थी, वह बात, वह प्रवृत्ति यदि कहीं दूसरे व्यक्ति में दिखती थी तो उसके प्रति भी आक्रोश होता था। उसमें मूल बात यह थी कि साहब, जैसे आप दिखाई पड़ रहे हैं या अपने आपको घोषित कर रहे हैं, वैसे असल में हैं नहीं । तो उसने ऐसा भी किया कि जो बात उसको सही लगी, उसको उसी रूप में आचरण करने लगा। यही बात उसके साहित्य में भी है। सुनते हैं कि उसके जमाने में और भी कई लेखक विश्व–साहित्य में थे, जो इसी विचारधारा को मानते थे। उसका पत्राचार भी था उन लोगों से।
–काका जी, हम उनकी कल्पनाशीलता के बारे में बात करना चाह रहे थे। और, खास करके इस बारे में कि आप बोले थे कि इसी ने उनको मार दिया।
–देखो तारानंद, राजकमल जब यह बात बोला कि जीवन तो मैंने सिर्फ बारह साल की आयु तक जीया, बाकी समय तो दुःस्वप्न में बीता, तो वह वैसे ही नहीं बोल रहा था। इस बात में बहुत भारी मर्म है। उस मर्म को समझना चाहिए ।
–बताइए ।
–एक तो यह कि बारह वर्ष के बाद का जो उसका जीवन था, वह लगातार तनाव, संघर्ष और उथल–पुथल से भरा रहा। शुरुआती समय में तो यह केवल मानसिक था, बाद में इसका दायरा दिनोंदिन बढ़ता ही गया। कभी वह चैन से रहा ही नहीं। ऊपर से, उसकी जीवनशैली ऐसी थी कि वह हमेशा एक्टिव दिखता था। हमेशा कुछ नया करने की ताक में लगा रहता था। नए–नए विचार आते थे। यह कल्पनाशीलता के ही कारण होता था। हमेशा किसी–न–किसी अभियान में लगा ही रहता था। मित्रों की संख्या भी अनगिनत थी। बहुत लोग तो समझ भी नहीं पाते थे कि वह लिखता कब है, क्योंकि लोग तो हमेशा उसको किसी न किसी मामले में व्यस्त ही देखते। वह अक्सर बताता था कि उसको नींद नहीं आती है। लिखने का काम भी वह रात में बिस्तर पर जाने के बाद ही करता था। इस कारण से आई हुई नींद भी भाग जाती थी। कभी–कभी वह यह भी बताता था कि खौफनाक दृश्य दिखाई पड़ते हैं। अब भाई, शरीर की तो सीमा होती है। नींद तो स्वास्थ्य के लिए जरूरी चीज है। और नींद तो आपको तभी आएगी, जब आपका दिमाग चैन में होगा। और, उसका दिमाग कभी चैन में रहा ही नहीं। उधर से भागा तो इधर, इधर से भागा तो उधर। यही चलता रहा। हम समझते हैं कि यह उसकी भयानक कल्पनाशीलता के ही कारण हुआ। शुरू में तो होता यह था कि समय काटना था या पिता से बदला चुकाना था। बाद में उसका रूप बदलकर रचनात्मक हो गया। लिखने पढ़ने में वह लग गया। लेकिन दिमाग कभी थके नहीं, कल्पनाशीलता लगातार बरकरार रहे, बल्कि और बढ़े और बढ़े–इसके लिए वह जीवननाशक चीजों की ओर बढ़ गया। उसका नशा सेवन या गलत लोगों की संगति–यही चीज थी। और, इसका तो कोई अंत नहीं है न! फिर आप आइडिया मास्टर भी हैं। सिगरेट पर सिगरेट पिये जा रहे हैं लेकिन ताजगी नहीं आ रही है, थकान नहीं मिट रही है, तब आप क्या करते हैं कि एक बार में दो सिगरेट ओठ पर लगाते हैं। फिर, दो और लगाते हैं, फिर लगाते हैं । उस दिन तो आपको ताजगी मिल जाती है, लेकिन फिर अगले दिन ? इस दुष्चक्र में वह फंस गया था जी। उसका टेलेंटेड दिमाग ही उसको लेकर डूब गया। नशा का तो अंत नहीं है, लेकिन जीवन का तो अंत है न!

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जीवन क्या जिया : आविर्भाव


यह अद्भुत संयोग था कि बिहार के सहरसा जिले के गांव महिषी में एक विद्रोही रचनाकार के जीवनरूपी दीपक की बाती से तेल शेष हो चला था, ठीक उन्हीं दिनों उसी गांव में एक नन्हा शिशु अपनी ज्योति से सभी दिशाओं को आलोकित कर रहा था। कौन जानता था कि आगे चलकर वह शिशु उस विद्रोही रचनाकार के जीवन एवं रचनाकर्म पर पड़ी धूल को झारने–पोंछनेवाला था जोकि समय एवं समाज की उपेक्षा से पड़ती चली गयी थी। महिषी के उस विद्रोही रचनाकार राजकमल चौधरी की कई दुर्लभ रचनाओं को आज के समय में हम पढ़ पा रहे हैं तो उसके पीछे वहां के उस शिशु के संघर्ष एवं अथक परिश्रम का बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान है। अपनी किसी भी रचना पर धैर्यपूर्वक काम करनेवाले मैथिली एवं हिंदी के प्रसिद्ध रचनाकार तारानन्द वियोगी की 'राजकमल चौधरी' के जीवन पर आधारित रचना 'जीवन क्या जिया!' तद्भव–33 के अंक में आ चुकी है। जब आप उस शिशु को पहचान ही गए हैं तो यह जानना आवश्यक हो जाता है कि उसने राजकमल चौधरी को जानने–समझने की कोशिश कैसे शुरू की। उस राह में क्या–क्या बाधाएं आईं तथा कौन लोग इस राह के संबल बने। 'जीवन क्या जिया'  संस्मरण, जीवनी एवं उपन्यास के तत्वों को अपने में समेटे हुए है। इस रचना में एक तरफ राजकमल चौधरी तो दूसरी तरफ खुद तारानन्द वियोगी की कहानी एक-दूसरे के समानांतर चलती है जिन्हें जोड़ती है...वियोगी जी का समर्पण एवं वह उद्देश्य कि महिषी को सिर्फ मंडन मिश्र की वजह से ही नहीं बल्कि राजकमल चौधरी की वजह से भी जाना जाए। इस रचना के अंश आविर्भाव, उत्कर्ष एवं प्रस्थान शीर्षक से एक–एक कर आपके समक्ष आते जाएंगे। आज आविर्भाव !



–बाबा वो फूल बाबू थे न, मधुसूदन बाबू के लड़के–वो बहुत बड़े लेखक थे । ‘राजकमल चौधरी’ कहलाते थे । देश भर में उनका बहुत नाम है । लेकिन, अपने गांव में उन्हें कोई नहीं जानता । लोग जानते भी हैं तो अच्छी तरह से नहीं । उनका जन्मदिन 13 दिसंबर को है । इस अवसर पर हमलोग उनकी जयंती मनाना चाहते हैं, बाबा । –सोलह सतरह आयु वर्ग के कुछ लड़के गांव के सर्वाधिक प्रतिष्ठित मान्यजन से कह रहे थे ।

–तो, उस जयंती में क्या सब होगा ?

–उसमें हम बाबा, मिथिला के कुछ बड़े बड़े विद्वानों को बुलाएंगे । कवियों को भी बुलाएंगे । राजकमल जी के बारे में लोग बताएंगे । फिर काव्यपाठ होगा ।

बाबा ने एक लंबी हुंकारी भरी, फिर चुप हो गए । हमलोग उनकी ओर देखते रहे ।

–तुम किसके बेटे हो ?

मैंने अपने पिता का नाम बताया । मेरे पिता का नाम सुनकर उनके चेहरे का भाव और अधिक तिक्त हो गया ।

–तुमलोग किसके किसके बेटे हो ?
सबने अपने अपने पिता का नाम बताया ।
बाबा बोले–सब लड़के तो गरीब घर के हो । चंदा लेना पड़ेगा ।
–जी बाबा, हमलोग चंदा के लिए ही आए थे ।
–चंदा तो खैर, हम नहीं देंगे । इस तरह के काम में हम किसी को चंदा नहीं देते हैं । तब, एक मदद कर देंगे ।
–क्या बाबा ?
–हम दरोगा जी को बोल देंगे कि तुमलोगों की पकड़ धकड़ नहीं करें ।
–सो क्यों बाबा ?
–देखो, बात ये है–––
शुद्ध मैथिलों की जो शैली है, उस शैली में, मिचरा मिचराकर बाबा कहने लगे–जयंती मनाने का कुछ नियम कायदा होता है । इसमें विचार किया जाता है कि मृत व्यक्ति की आत्मा को किस बात से शांति मिलेगी, क्या करोगे तो प्रसन्नता होगी । तो, तुमलोग थोड़ा अच्छा से करो ।
–जी बाबा, बताइए ।
–मिट्टी तेल वाले डीलर के पास जो ड्राम होता है, वो दो ठो ड्राम कहीं से मंगनी कर लो । उसमें भरवाकर देसी दारू मंगवा लो । पाव भर गांजा का भी कहीं से प्रबंध करना पड़ेगा । और ये सब लेकर, महिषी गांव का जो सिमान है न, वहां पर बैठ जाओ । हरेक आने जानेवाले मुसाफिर को एक एक डबूक दारू दो । गांजा पिलाओ । इससे उसकी आत्मा को शांति मिलेगी । तुमलोगों का भी नाम होगा । श्रद्धांजलि अगर देना चाहते हो बाबू, तो सच्ची श्रद्धांजलि दो । हम सारे लड़के अकबका गए कि बाबा यह क्या कह रहे हैं! किसी के भी मुंह से बकार तक नहीं निकल रहा था । टक टक हम बाबा का मुंह ताके जा रहे थे । वह इतनी शांति से और आराम से अपनी बात कहे जा रहे थे कि हमारे लिए बातों के तथ्य का वजन समझ पाना मुश्किल था । लेकिन, बस इतने तक । जरा देर हम टकटकी लगाए होंगे कि उनका पारा चढ़ गया ।
–खच्चर बेहूदा सब कहीं का! जयंती मनाएंगे! इतना जूता मारेंगे कि मारेंगे दस तो गिनेंगे एक । भागते हो कि नहीं ?
–जी बाबा, हमलोग जाते हैं । आप शांत होइए ।
–रे, वो तो चोट्टा मर गया कि इस गांव का पाप टला! अभी तक अगर जिंदा रहता तो गांव का धर्म नहीं बचता–––जयंती मनाएंगे! हम जाते हैं सबके बाप को ‘परचारने’–––
इतनी बात तो हमने आधी सुनी, आधी सुनी भी नहीं, तेजी से भाग खड़े हुए । उस दिन, बातों बातों में यह बात चर्चा में आ गई । मैं गांव में था और केदार (कानन) आए थे । साथ में थे–सुभाष (चंद्र यादव) भाई, सुस्मिता (पाठक) जी, रमण (कुमार सिंह) और प्रभात (झा) । मेरे ये सभी आत्मीय मेरे गांव, मेरे घर आते रहते हैं । लेकिन, इस बार का आना अलग था । केदार बरसों से बोलते थे कि राजकमल का घर आंगन देखने जाना है । मैं टालता था । दुख को जितना टालो, अच्छा होता है । राजकमल का घर देखेंगे तो क्या होगा ? दुख होगा । संताप से भर जाएंगे आप । पीड़ा होगी कि मरने के इतने बरस बाद भी उन्हें माफ नहीं किया गया । कोफ्त होगी कि लोग राजकमल का सगा प्रियपात्र बता बताकर आपका भेजा खा जाएंगे । आप गहरे अफसोस में डूबेंगे । आंखें भर आएंगी । ‘नोर’ टपक पड़ेंगे। मित्र हूं तो इतनी तकलीफ में क्यों पड़ने दूं आपको ?
लेकिन, केदार ने इस बार जबर्दस्त जिद पकड़ी थी ।
हम राजकमल का घर देखने गए । घर नहीं था । हमें मालूम था कि घर अब नहीं है । नहीं मतलब बिल्कुल नहीं । वहां मिट्टी थी । जंगल झाड़ उगे हुए थे । पड़ोसियों ने खर पतवार जमा कर रखे थे। 

पपीते के गाछ पर तिलकोर, पनझोर, सपेता और न जाने कौन कौन सी लत्तियां लतरी हुई थीं । वहां घर नहीं था । वह जमीन अब राजकमल के हिस्से में रही भी नहीं । नीलू को किसी दूसरी जगह हिस्सा मिला, यहां नहीं मिला । यहां धीर बाबू और सुधीर बाबू के बच्चों का हिस्सा है । घर नहीं है, केवल स्मृतियां हैं, ताकि केदार जैसा कोई साहित्यकार कभी कभार टपक आए तो रोकर जाए । दस बरस से भी ज्यादा हुए । मुझे मालूम था कि घर अब नहीं है । घर नहीं, बंगला । इसे हम फूलबाबू का बंगला कहते थे । मिथिला के बौद्धिक लोग इसे ‘कवि कुटीर’ कहते थे । मालूम था । लोगों को मालूम है कि महिषी के पूरब धेमुड़ा बहती है और पच्छिम कोशी । मगर कितने लोग जा जाकर सत्यापन किया करते हैं ? कभी देख लिया, बस । दिमाग में उसका चित्र बना रहता है । आगे कभी 

पता चले कि धेमुड़ा की धारा अब सूख चली तो दिमाग के चित्र में बहते पानी को हम सुखा लेते हैं । सत्यापन कौन करने जाता है ? पचास तरह की झंझटों का नाम जीवन है । घर अब नहीं है, यह भी कोई सत्यापन की बात हुई ? हां, यदि यह पता चला होता कि बुधवारयवालों ने या किन्हीं और ने हीे राजकमल की ‘डीह’ पर स्मारक बनाया है तो आपकी जिम्मेवारी बनती थी । अच्छी तरह से पता था कि घर अब नहीं है । लेकिन घर नहीं तो आखिर क्या है, यह देखने 

दिखाने जब गया, तो जो हालत हुई उसकी बात पूछिए ही मत! और, मधुसूदन बाबू की हवेली को देखते–देखते जो हुआ, वह तो और भी मत पूछिए । मैं कोई अकेला नहीं था साहब, सबकी आंखें भर आई थीं।–––और, भरे दिल से दिन भर ‘बदरिकाश्रम’ में बैठकर हम उन पुराने किस्सों को याद करते रहे थे । 

वे दिन थे कि जब राजकमल चौधरी को गुजरे बारह बरस बीत चुके थे । और, कोशी में जाने कितना 

सारा पानी बह चुका था, और उसके साथ जमीनें भी । और, देवी तारा की बलि वेदी पर बीसियों हजार छागों की बलि दी जा चुकी थी । तीन चार बार अकाल पड़ चुका था, पांच छह बार अगलगी हो चुकी थी । सींकिया सामंतों की एक पीढ़ी तो गुजर गई थी, मगर ऐसे ढेर सारे नए लोग पूरी चमक में थे जो बातों के बम से संसद भवन को भी धराशायी कर सकते थे । यह राजकमल का गांव, महिषी था, जहां अब तक भी न तो सड़क पहुंची थी, न बिजली । गरीबी और बदहाली बदस्तूर कायम थी । साल दर साल कोशी की छाड़न उफनती और अगले एक साल तक रोते रहने का सौगात दे जाती । लोग फिर भी सहज जीवन जीते, भांग और गांजा और ताड़ी के भीतर से निकलनेवाले रास्तों में सुकून की तलाश करते पाए जाते थे । सुकून देने के लिए बहुत बड़ी ताकत मौजूद थी । वह थीं–देवी तारा, जिनके बारे में राजकमल कहा करते कि तेरह हजार साल पहले मेरुदंड पर्वत की काली चट्टानों से तराश ली गई तेरह साल की लड़की थीं वह, जबकि वह उग्र भी नहीं थीं, तारा भी नहीं, उनके लिए महज उग्रतारा थीं । लोग थे कि ये उलझन भरी बातें नहीं समझते थे, मगर वह उग्रतारा उनके लिए भी वही उग्रतारा थीं । और, वे दिन थे कि जब कोशी के इस पर्यावरण में हमारी आंखें खुल रही थीं । धीरे धीरे हम 

उस लायक हो रहे थे कि आदमी जिन्हें देखता है, उन्हें उनकी असलियत में जानना चाहता है । हर चीज के लिए एक आतुर जिज्ञासा । हर बात के भीतर से उभरती ढेर सारी नई बातें और प्रश्न––– । प्रश्न ढेर सारे थे मगर उनके ठीक ठीक उत्तर, जो हमें संतुष्ट कर सकें, दे सकनेवाले लोग नदारद थे । उपस्थितों से यदि काम न चले तो लोग अनुपस्थितों की तरफ मुखातिब होते हैं, और इसी दौरान उसकी मुलाकात ‘साहित्य’ नामक फेनोमेना से होती है । हमारी तो ऐसे ही मुलाकात हुई 
थी । गुलशन नंदा और कर्नल रंजीत पढ़ते पढ़ते कब हम प्रेमचंद और हरिमोहन झा और विमल मित्र
के पास पहुंच गए, हमें भी पता न चला था । और, ये ही वे दिन थे कि जब हमने राजकमल चौधरी का आविष्कार किया था।


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