जीवन क्या जिया : प्रस्थान

प्रभात झा, केदार कानन, सुभाष चंद्र यादव, रमण कुमार के साथ तारानंद वियोगी

राजकमल चौधरी की प्रासंगिकता इस कारण और बढ़ जाती है कि उन्होंने उपेक्षित लोगों के संसार को एक अलग नजरिये से देखा जो समाज के लिए गाली बनता जा रहा था...बिना किसी पूर्वाग्रह और लाग–लपेट के। सभ्यता एवं जीवन के उन वर्जित इलाकों में उन्होंने प्रवेश किया जहाँ बहुतेरों की हिम्मत आज भी नहीं होती। उन्होंने अपनी शर्तों एवं सिद्धांतों पर जीवन जिया। उनके जीवन की बहुत-सी बातें एवं प्रसंग जो छूट रहे थे, बहुत सी कड़ियाँ जो जोड़ी जानी थीं, का विषद वर्णन तारानंद वियोगी की रचना 'जीवन क्या जिया : राजकमल चौधरी के उत्तर–प्रसंग' में हुआ है। विश्व पुस्तक मेला , नई दिल्ली में इस पुस्तक के आ जाने की उम्मीद है जिसमें आप जान पाएंगे कि फूल बाबू का गांव उनके बारे में क्या राय रखता है, परिवार एवं बिरादरी की कौन-सी परंपराओं को उन्होंने झटके से तोड़ डाला जो रूढ बनती जा रही थी एवं साहित्य जगत में क्यों आज भी उनपर सभी एकमत नहीं हो पाते हैं। धूमिल कहते हैं―"वह एक ऐसा आदमी था जिसका मरना / कविता से बाहर नहीं है।" जीवन क्या जिया के प्रस्थान भाग में हम वहाँ पहुँच गए हैं जिसका उल्लेख रचना के शुरू में है तो अंत में भी वही जगह समाज के लिए सवाल खड़ा करती है यानी कि फूल बाबू का घर। तस्वीर में राजकमल के घर के आगे कुछ लेखक खड़े हैं। वहाँ पर लेखकों का जत्था आखिर क्या महसूस कर रहा था, क्या सब याद आ रहा था उन्हें...क्या देखा उन्होंने कि वे बेचैन हो गए थे। सुनिए स्वयं 'जीवन क्या जिया' के रचनाकार तारानंद वियोगी की जुबानी।


–––तो, मैं बता रहा था कि उस दिन केदार और सुभाष भाई आए थे। बरसों बरस के बाद हम राजकमल का घर देखने गए थे। घर देखकर हमारी आंखें भर आई थीं। वापस आकर हम ‘बदरिकाश्रम’ में बैठ गए थे और हजार तरह की चिंताओं में मुखर हो गए थे। केंद्र में राजकमल थे। केदार को ‘फूलबाबू का बंगला’ बेहद याद आ रहा था। उसका इस तरह नहीं होना उन्हें सदमे में डाल गया था। वह नहीं रहा तो उसके बदले में कुछ और होता! जैसे कोई स्मारक। वह नहीं तो कोई घर ही, जो उनका होता। कुछ भी नहीं होना यानी कि जंगल झाड़ फूस होना वाकई दुखी करता था। एक बार का जयंती समारोह हमने उसी बंगले पर मनाया था। वह केदार को याद था। देर तक हम उस बारे में चर्चा करते रहे। उन्होंने पूछा–उस बंगले का कोई फोटो है ? फोटो था। मैंने उन्हें दिखाया। उन्हें याद आया कि उस बंगले पर एक सरकारी साइनबोर्ड लगा रहता था, जिस पर लिखा था–पशुपालन विभाग, कृत्रिम प्रजनन केंद्र। मैंने उन्हें बताया कि उस बंगले के बारे में बनगांव के एक कवि रमेश चंद्र खां ‘किशोर’ ने एक कविता भी लिखी थी–राजकमल के देहांत के एक दो बरस बाद। केदार को कविता मालूम थी, फिर भी उसका एक बार फिर पाठ किया गया― " पत्थर पर दूब / कठिन है अथवा / असंभव, यह तो माटी का संयोग / या फिर तृप्ति का आकर्षण / या फिर वासना का योग! भखड़ी हुई चिकनी माटी पर / सुस्पष्ट है तुलसी के सिर पान की जड़ / जैसे आपरेशन टेबुल पर चिथड़े–चिथड़े हुआ उसका शरीर–––सचमुच, इसीलिए तो भूल गई / वह बेशरम उग्रतारा / उस भंगीबे को / निर्लज्जी को आज भी लाज नहीं कि खड़ी है अब तक / कचहरी में पुरुषों के बीच / डाइवोर्स के कठघरे में–––इसीलिए तो / महिषी का काटेज नुमा घर / माहिष्मती का दरिद्र ‘राज मंदिर’ / स्वार्थ की आंधी में / ढह गया/ बन गया भैंसों बैलों का बथान / टंग गया प्लेट मवेशी अस्पताल का / जिसमें कोष्ठित हुआ–कृत्रिम प्रजनन केंद्र / नन्हें नन्हें अक्षरों में–––‘कृत्रिम’ और ‘स्वतः' के मध्य की यह रेखा / दरअसल विरोध की रेखा / बहुत गहरी हो गई है अब / जैसे कि फूलबाबू की यही हो वसीयत / और जिसका साक्षी हो महिषी गांव / और यहां वाली उग्रतारा–––वह तो भूल ही गई बेटखौकी / निस्पृह हुई डायन / तभी तो उसी के लिए खिला गुलाब / उसी के निमित्त अर्पित गेंदा / बन गया पीला कपीस / उजला सफेद / जैसे मरीज श्वेत कुष्ठ का / कि जैसे गोबर के ढेर पर / भादो की बदली में जनमा कोई कुकुरमुत्ता–––" कविता ने हमें और भी उदास कर दिया।

–जानते हो केदार, वह जमीन जिस पर उन्होंने बंगला बनवाया, उन्हें आराम से मिल गया हो, ऐसा भी नहीं था। वह जब 1966 में गांव आए तो इसी जमीन को उन्होंने घर बनाने के लिए पसंद किया। पुराने खतियान में वह उनके पुरखों की थी भी। लेकिन नया सर्वे चालू था। और यह जमीन दबंगों के कब्जे में थी। दबंग भी उन्हीं के गोतिया थे। स्थानीय प्रशासन और राजनीति पर दबंगों की पक्की पकड़ थी। मधुसूदन बाबू से तो यह सात जनम में नहीं होनेवाला था। राजकमल ने इसे लड़कर हासिल किया था। यानी कि देह के स्तर पर लड़कर–––

–लेकिन आज यह जमीन नीलू के कब्जे से कैसे निकल गई ?

–नहीं। निकली नहीं। निकाल दी गई। दरअसल यह प्लॉट राजकमल तीनों भाइयों के ही हिस्से में आया था। लेकिन केदार, शरम की बात है लेकिन सच है कि उस स्थल को बुधवारय परिवार घोर अशुभ मानता था। पंडितों के विधान के मुताबिक उस पर शौच कर्म के अतिरिक्त कुछ भी नहीं किया जा सकता था। सभी तो चाहते थे कि वह नीलू ही ले, लेकिन शशिकांता जी अड़ गर्इं। उन्होंने यहां तक कह दिया कि नीलू को हिस्सा न दें सो ठीक, लेकिन वह जमीन नहीं चाहिए! तुमने देखा न, नीलू के चचेरे भाई को वह जमीन मिली है, लेकिन उस जगह उसने घर नहीं बनाया, हटकर बनाया। वहां जंगल है–––

–ओह! वहां कोई स्मारक होता!

–हम तो बीस बरस से यह चाहत लेकर बूढ़े हो रहे हैं केदार! जानते हो, 1978 में हरिमोहन बाबू (प्रख्यात लेखक) हमारे गांव आए थे। उग्रतारा के दर्शन के बाद खासतौर पर वह उस बंगला को देखने पहुंचे थे, और उस क्षण की अनुभूति को उन्होंने एक मार्मिक कविता में उतारा था–" मन में आया–रहता यदि यहां उनका कोई स्मारक / छोटी सी भी कोई प्रस्तर मूर्ति / फूल मैं चढ़ाता उनके सम्मान में/ लेकिन वहां कीचड़ मात्र कीचड़ था ठेहुने भर तक / कमल जा चुका था, कीचड़ ही कीचड़ था अब शेष। ऐसी ठेस लगी हृदय में कि जैसे / वहां बहुमूल्य अपना कुछ खो आया हूं–––"

–ओह!

–बहुत बोझ महसूस करते हैं यार! लेकिन उससे क्या होगा ? वे तैयार हों तभी तो!

फिर हम बात करने लगे कि राजकमल का परिवार उस घर, उस जगह को अशुभ क्यों मानता था। उसमें रहते हुए राजकमल मरे, केवल इतनी सी बात नहीं थी। रेणुजी के धरमपुर इलाके से माहिर कलाकारों को बुलवाकर राजकमल ने फूस के बने उस बंगले का सुरुचिपूर्ण निर्माण कराया था। इसका उपयोग वह अपने ऑफिस के रूप में करते थे, जिसमें शयनकक्ष और अतिथिकक्ष भी अलग अलग थे। शशिकांता जी पुराने आंगन में रहती थीं, जिसे हम ‘फूलबाबू का आंगन’ कहते थे, और वह मधुसूदन बाबू के आंगन से लगा हुआ था। केवल खाना खाने के लिए राजकमल आंगन जाते थे। बाकी सारा समय यहीं बिताते थे। उस जमाने के पारिवारिक बच्चों से पूछो तो वे यही बताते हैं कि जब भी कभी चाय पहुंचाने या किसी दूसरी बात के लिए वे वहां जाते तो उन्हें हमेशा लिखते हुए ही पाते थे। लेकिन, यह सच का केवल एक पहलू था। दूसरा यह था कि पड़ोस की एक विधवा युवती लगभग हमेशा उनके आस पास पाई जाती थी। गांव में फूलबाबू का रुतबा लगभग वैसा ही था, जैसा ‘पाथर फूल’ के फूलबाबू का हम देखते हैं। यानी कि कोई भी विरोध उन्हें मंजूर नहीं था। उस विधवा के बारे में समूचा गांव ‘जानता’ था कि बड़े बड़े अघोरियों से उसकी सांठ–गांठ है और यह कि वह ‘हक्कल डायन’ (विनाशक तांत्रिक अभिचारों में निष्णात) है। यह प्रसिद्धि थी कि राजकमल उस स्त्री का केवल दैहिक भोग ही नहीं करते बल्कि उससे ‘डायन’ सीख रहे थे। प्रख्यात लेखक सोमदेव, जो तंत्र विद्या के भी पारंगत हैं और राजकमल के मित्र भी रहे हैं, ने बताया था कि हां, राजकमल की मौत साधारण मृत्यु नहीं थी, तांत्रिक अभिचार में ही उनकी जान गई थी। उनका कथन था कि उच्चाटन प्रक्रिया सीखते हुए उनका संतुलन बिगड़ा और उन्हें जान गवांनी पड़ी थी। दूसरी ओर, यह भी कहा जाता था कि उस स्त्री की नकेल उन दबंगों के हाथ में थी, जिनसे लड़कर राजकमल ने वह जमीन हासिल की थी। विश्वास किया जाता था कि उस समूची जमीन को इस तरह ‘बांध’ दिया गया है कि उस पर बसकर सुखी जीवन बिताना असंभव है। शशिकांता जी का इस बात पर अटल विश्वास था। और, उस बंगले में एक और बात यह थी कि इलाके भर के मुफ्तखोर नशेड़ी दिन दिन भर वहां बैठकर फूलबाबू का दरबार करते, उनकी चिलम भरते रहते थे, या फिर मांस मछली भांग दारू का इंतजाम करते थे। और इन सबके बीच, राजकमल जीवन में आखिरी बार प्रेम की तलाश में थे। वह अलकनंदा दासगुप्त थीं, जो बनारस में रहती थीं। हर दिन उन्हें पत्र लिखते। उनके लिए कविताएं लिखते। इन दिनों तो वह गजलें और शेरो शायरी लिखने लगे थे, जो शायद जरा भी जमती नहीं थी। लेकिन वह हमारे आपके लिए शायद थी भी नहीं। वह जिसके लिए थी, उस पर जमती हो! मृत्यु से सिर्फ 126 दिन पहले, 12 फरवरी 1967 को इसी बंगला में बैठकर राजकमल ने अपने मित्र शंभुनाथ मिश्र को लिखा था–‘अलका को बीवी बनाकर रख लेना होगा, चाहे धर्म से, या कानून से, सहमति लेकर नहीं, सिर्फ उसे हमेशा के लिए साथ रख लिया जाए, मगर मुझे तो गांव में ही रहना होगा–और, गांव की अपनी सीमाएं होती हैं। क्या वह एक किसान लेखक की बीबी या प्रेमिका या रखैल बनकर स्थायी रूप से रह सकेगी ? वह कहती है, मगर, मुझे यकीन नहीं होता है।’

वह बंगला अब नहीं बचा था। लेकिन, उधर ‘फूलबाबू का आंगन’ भी नहीं बचा था–वह आंगन जहां हम अतिथियों के लिए भोजन बनवाते थे। पर, वह नीलू के दखल में था। चारों ओर से घेरकर नीलू ने लोहे का ग्रिल लगवा दिया था, जिस पर लिखा था–राजकमल निवास। ग्रिल की छेद से झांककर देखो अंदर जंगल झाड़ उगा दिखता था। और मधुसूदन बाबू का वह मकान–जिसमें 1934 का भूकंप आया, और जिसमें बंगालन संन्यासिन आर्इं, और जिसके कोठे पर प्रवेश की अनुमति मधुसूदन चैधरी और त्रिवेणी देवी को छोड़कर किसी को भी नहीं थी, और जहां राजकमल ने अपनी अनंत यात्रा का पहला कदम उठाया, और जहां नागार्जुन किसुन जैसे कितने ही दिग्गजों की ‘पानी पीढ़ी’ लगी थी, और जिसके बरामदे पर बैठाकर हम अपने अतिथियों को भोजन कराते थे–वह जर्जर हवेली, सुनसान वीराने में चीत्कार कर रही थी। टूटा ही सही, लेकिन किवाड़ अब तक मौजूद था। दीवारें ढह रही थीं। ऊपर चढ़ने की सीढ़ियां ध्वस्त हो चुकी थीं। नीचे आंगन में विशाल ‘झाड़ झंखाड़’ उग आए थे। वहां अब कोई आदमी नहीं रहता था। वहां रहने वाले अंतिम आदमी सरोज बाबू थे। उनकी मृतात्मा के प्रति हमने कृतज्ञता ज्ञापित की कि जब तक वह जीवित रहे, इस घर को घर की गरिमा मिलती रही। केदार बोले–लेकिन मित्र, उस आंगन में जाकर तो तुम बिल्कुल से बेचैन आत्मा दिख रहे थे! कुछ ज्यादा ही विचलित नहीं थे ?

मैं झेंप गया। अब मैं केदार को कैसे समझाता कि उस वक्त मेरे साथ क्या हुआ था! हुआ यह था कि दो वीर बांकुरे मेरी आंखों में आकर खड़े हो गए थे। वे दोनों लालकाका और फूलबाबू थे। और, मैं एक ही साथ दोनों की ‘उचिती’ कर रहा था–आप दोनों ही गलती पर थे महाराज! दोनों ही कुपंथ चढ़े थे! बाप बेटे भी कहीं इस तरह लड़ते हैं! ज्ञानी बाप बेटे!

संपर्क :
तारानंद वियोगी
मोबाइल – 09431413125
ईमेल – tara.viyogi@gmail.com

कुमार श्याम की ग़ज़लें



जब साहित्य में विमर्श की गुंजाईश कम होती जा रही हो, आलोचनाएं दिग्भ्रमित कर रही हों तो ऐसे समय में पाठक क्या करे? क्या यह जरूरी है कि रचनाएँ स्वयं चलकर पाठकों तक पहुँचे? क्या यह उचित नहीं कि पाठक भी रचनाओं तक पहुंचने का कष्ट उठाए। आज के डिजिटल युग में ये दोनों काम आसान हो गए हैं। रचनाओं तक पाठकों एवं पाठकों तक रचनाओं की आमद–रफ़त बढ़ गई हैं। ऐसे ही प्रयास में कुमार श्याम, ग्राम–बरमसर, तहसील–रावतसर, जिला–हनुमानगढ़ (राजस्थान) की रचनाएं सामने आई हैं जो समकालीन यथार्थ को बयां करती हैं। थार के इस किशोर की कहानियों, ग़ज़लों एवं कविताओं में यथार्थ की समझ एवं जन की पक्षधरता दिखती है। उनकी पूरी–अधूरी ग़ज़लों में 'कहन' है जो पाठकों तक निर्बाध पहुँचती हैं। भले ही भाषा एवं शिल्प में समय के साथ परिष्कार आए, पर संवेदना अहम है और स्नातक द्वितीय वर्ष के इस संवेदनशील रचनाकार की ग़ज़लें आप सबके समक्ष है।


1

इस शहर में नया एक शहर बनाते हैं

आओ घर अपना दिले-बशर बनाते हैं

रंगो-खुशबू  भर इन पंखुड़ि‍यों में

ये गुले - मुहब्‍बत इस क़दर बनाते हैं

टपकता है जितना शहद लबों से

मग़र उतना  ही ज़हर  बनाते हैं

बुहार कर तारों को राह  से ख़ुद
महताब मुक़म्‍मल सफ़र बनाते हैं

सूख गया पानी इन सियासतदानों का

मग़र ये आखें क्‍यों समन्‍दर बनाते हैं

2


घर से निकल काम करने चले हैं लोग

इस सुबह को शाम करने चले हैं लोग

हम नहीं है वैसे इज्‍़जतदार लेकिन

फिर भी बदनाम करने चले हैं लोग

दफ़न है सीने में उस वक्‍़त के निशान

पर क्‍यों सरेआम करने चले हैं लोग

क़ागज़, क़लम और दर्द ही हैं ज़ागीर हमारी

लेकिन इनको भी नीलाम करने चले हैं लोग

3


चराग़ हवाओं से डरते कहां हैं

हम मिजाज़ अपना बदलते कहां है

लहू की रंग़त है अब तक मिट्टी में

वो मरते हैं, मग़र मरते कहां है

क़दमों तले जहां लगती हो दुनिया

हम उस चढ़ाई पर चढ़ते कहां है

वो तो हम हैं के ज़ि‍गर दिए बैठे हैं

वैसे आजकल उधार करते कहां है

फूलों की चोट से उनको कुछ न होगा

वो पत्‍थर हैं, पत्‍थर पिघलते कहां हैं

4


तुझमें ऐसे शामिल हो जाऊं

के तू धड़कन मैं दिल हो जाऊं

तुमसे हम मिलें या हमसे तुम मिलो

मैं नदी बनूं के साहिल हो जाऊं

साथ हमारा ऐसा हो जाए

ग़र राह तुम तो मंज़ि‍ल हो जाऊं

इश्‍क़ न मिले, रूसवाई तो मिले

जब तू मरे मैं क़ातिल हो जाऊं

5


शाम ढ़ली, फ़लक़ मुरझाने वाला है

ज़मीन पर  अंधेरा  छाने वाला है

आंखे-ख़ामोशी कुछ कहती है

शायद  तूफ़ान आने वाला है

हुआ बहुत नफ़रतों का शोर यहां

कोई   मुहब्‍बत  गाने  वाला है

6


नामों-निशां हमारा मिट भी जाए तो क्या

शाख से कोई पता गिर भी जाए तो क्‍या

हुस्‍न की महफ़ि‍लों में कोशिशें बहुत हुई मग़र

समंदर के लिये दरिया रित भी जाए तो क्‍या

पत्‍थर से मोहब्‍बत की, पर मोहब्‍बत थी

इत्‍तेफ़ाकन ग़र हीरा मिल भी जाए तो क्‍या।

संपर्क :
कुमार श्याम
मोबाइल – 9057324201
ईमेल – kumarshyam0605@gmail.com

कविता के विरुद्ध : योगेन्द्र कृष्णा



इस वर्ष आये हिंदी कविता–संग्रहों में बोधि प्रकाशन से आया 'कविता के विरुद्ध एवं अन्य कविताएं' कवि एवं अपने कलेवर के कारण सहज ही ध्यान खींचता है। कुँअर रवीन्द्र का अद्भुत आवरण–चित्र जिसमें अँधेरे की पृष्ठभूमि में चिंतनशील मानस जो थोड़ा थका–परेशां तो दिखता है, पर उसपर पड़ती सुनहरी आभा संकेत कर रही है कि शीघ्र ही वह अँधेरे के खिलाफ उठ खड़ा होगा। कवि योगेन्द्र कृष्णा हिंदी साहित्य के ऐसे सेवी हैं जो शुरू से ही कर्म में विश्वास कर श्रेय लेने से बचते रहे हैं।  

नब्बे के दशक के उत्तरार्ध में जब देश काफी कुछ बदल रहा था, चरित्रों पर मुखौटे कुछ अधिक ही चढाए जाने लगे थे, ग्लोबलाइजेशन एवं निजीकरण ने सार्वजनिक पूंजी को अधीन करना शुरू कर दिया था, स्वतंत्रता एवं समरसता भंग की जाने लगी थीं ; ठीक उसी समय योगेन्द्र कृष्णा आमजन का पक्ष रखने की शुरुआत करते हैं। 2001 में 'खोई दुनिया का सुराग' आई जिसमें समाज में व्याप्त रूढ़ि, असमानता एवं तत्कालीन राजनीतिक स्थिति पर प्रश्न–प्रतिप्रश्न करते कवि की बेचैनियां साफ–साफ नजर आती है। 2008 में आई 'बीत चुके शहर में' के पश्चात सितंबर 2016 में 'कविता के विरुद्ध एवं अन्य कविताएं' का पाठकों के समक्ष आना सिर्फ एक अवधि को इंगित नहीं करता, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि कवि ने अपने मानस में उठते हर प्रश्न पर मुकम्मल ढंग से सोचा है, उसमें विचारों के प्रस्तुतिकरण की हड़बड़ी नहीं है।

'बीत चुके शहर में' के आठ वर्षों बाद नए संग्रह को पढ़ने की प्रासंगिकता इस बात में निहित है कि इन सालों में क्या कुछ बदला, कवि ने इस बदलाव को कैसे महसूस किया एवं इन बदलावों के प्रति उसकी क्या प्रतिक्रिया रही। कवि 'बीत चुके शहर में' की कविता 'एक बदहवास दोपहर' में आशंका व्यक्त करते हैं― " पता नहीं / मौसम की यह बदहवासी / अब किधर जाएगी / किस मासूम पर अपना दोपहर बरसाएगी।" अब 'कविता के विरुद्ध एवं अन्य कविताएं' की कविता 'मेरे हिस्से की दोपहर' में कवि कहते हैं― " मेरे हिस्से आई / बस गर्मियों की लंबी / चिलचिलाती दोपहर...।" इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक तक आते–आते ऐसे परिवर्तन प्रत्यक्ष होने लगे थे जिसकी आशंका कवि अपने पूर्व संग्रहों में व्यक्त करता है।  हरेक दरवाजे पर दस्तक दी जाने लगी थी जो मानव–मन को आशंकित कर रहा था। द्रष्टा अब भोक्ता बन चुका था।

संग्रह की शुरुआत 'कविता के विरुद्ध' शीर्षक कविता से हुई है जिसे रचनाकार ने स्वयं 'कवियों–बुद्धिजीवियों के विरुद्ध एक शासनादेश' उद्धृत किया है। वे शुरुआत में कहते हैं– "ध्वस्त कर दो / कविता के उन सारे ठिकानों को / शब्दों और तहरीरों से लैस सारे उन प्रतिष्ठानों को / जहाँ से प्रतिरोध और बौद्धिकता की बू आती हो।" सत्ता के अपने तर्क हैं जिससे वह अपने पक्ष को मजबूत करने की कोशिश करती है― "तब तक उन्हें इतिहास और अतीत के / तिलिस्म में भटकाओ / नरमी से पूछो उनसे / क्या दांते की कविताएं / विश्वयुद्ध की भयावहता और / यातनाओं को कम कर सकीं / क्या गेटे नाजियों की क्रूरताओं पर / कभी भारी पड़े।" आगे की एक पंक्ति 'पोएट्री मेक्स नथिंग हैपेन' की स्थापना के बावजूद सत्ता एवं व्यवस्था अंदर से भयभीत रहती है जो इन पंक्तियों में अभिव्यक्त होती है― "बावजूद इसके कि कविता के बारे में / महाकवियों की ये दिव्य स्थापनाएं / पूरी तरह निरापद और कालजयी हैं / घोर अनिश्चितता के इस समय में / हम कोई जोखिम नहीं उठा सकते।"

अब यह अपरिहार्य हो गया है कि पाठक 'कविता के विरुद्ध' से रूबरू हों। आगे चर्चा चलती रहेगी।


कविता के विरुद्ध

ध्वस्त कर दो
कविता के उन सारे ठिकानों को
शब्दों और तहरीरों से लैस
सारे उन प्रतिष्ठानों को
जहां से प्रतिरोध और बौद्धिकता
की बू आती हो…

कविता अब कोई बौद्धिक विलास नहीं
रोमियो और जुलिएट का रोमांस
या दुखों का अंतहीन विलाप नहीं
यह बौद्धिकों के हाथों में
ख़तरनाक हथियार बन रही है…

यह हमारी व्यवस्था की गुप्त नीतियों
आम आदमी की आकांक्षाओं
और स्वप्नों के खण्डहरों
मलबों-ठिकानों पर प्रेत की तरह मंडराने लगी है
सत्ता की दुखती रगों से टकराने लगी है…

समय रहते कुछ करो
वरना हमारे दु:स्वप्नों में भी यह आने लगी है…

बहुत आसान है इसकी शिनाख्त
देखने में बहुत शरीफ
कुशाग्र और भोली-भाली है
बाईं ओर थोड़ा झुक कर चलती है
और जाग रहे लोगों को अपना निशाना बनाती है
सो रहे लोगों को बस यूं ही छोड़ जाती है…

इसलिए
कवियों, बौद्धिकों और जाग रहे आम लोगों को
किसी तरह सुलाए रखने की मुहिम
तेज़ कर दो…

हो सके तो शराब की भटि्ठयों
अफीम के अनाम अड्डों और कटरों को
पूरी तरह मुक्त
और उन्हीं के नाम कर दो…

सस्ते मनोरंजनों, नग्न प्रदर्शनों
और अश्लील चलचित्रों को
बेतहाशा अपनी रफ्तार चलने दो…

संकट के इस कठिन समय में
युवाओं और नव-बौद्धिकों को
कविता के संवेदनशील ठिकानों से
बेदखल और महरूम रखो…

तबतक उन्हें इतिहास और अतीत के
तिलिस्म में भटकाओ
नरमी से पूछो उनसे…
क्या दान्ते की कविताएं
विश्वयुद्ध की भयावहता और
यातनाओं को कम कर सकीं…
क्या गेटे नाज़ियों की क्रूरताओं पर
कभी भारी पड़े…

फिर भी यकीन न हो
तो कहो पूछ लें खुद
जीन अमेरी, प्रीमो लेवी या रुथ क्लगर से...
ताद्युश बोरोवस्की, कॉरडेलिया एडवार्डसन
या नीको रॉस्ट से
कि ऑश्वित्ज़, बिरकेनाऊ, बुखेनवाल्ड
या डखाऊ के भयावह यातना-शिविरों में
कविता कितनी मददगार थी!

कवि ऑडेन से कहो… लुई मैकनीस से कहो…
वर्ड्सवर्थ और कीट्स से कहो
कि कविता के बारे में
उनकी स्थापनाएं कितनी युगांतकारी हैं…
पोएट्री मेक्स नथिंग हैपेन…
ब्यूटि इज़ ट्रुथ, ट्रुथ ब्यूटि…
पोएट्री इज़ स्पॉन्टेनियस ओवरफ्लो ऑफ पावरफुल फ़ीलिंग्स…
मीनिंग ऑफ अ पोएम इज़ द बीइंग ऑफ अ पोएम…

बावजूद इसके कि कविता के बारे में
महाकवियों की ये दिव्य स्थापनाएं
पूरी तरह निरापद और कालजयी हैं
घोर अनिश्चितता के इस समय में
हम कोई जोखिम नहीं उठा सकते…

कविता को अपना हथियार बनाने वालों
कविता से आग लगाने वालों
शब्दों से बेतुका और अनकहा कहने वालों
को अलग से पहचानो…

और देखते ही गोली दागो


संपर्क :
योगेन्द्र कृष्णा 
२/800, शास्त्रीनगर, पटना - 800023 
मो. : 9835070164 
ईमेल : yogendrakrishna@yahoo.com

राजू सारसर 'राज' की कविताएं


थार मानव की जिजीविषा का प्रतीक है। तेज आँधियों से थार के टीले भले ही अपनी आकृतियां बदलते रहें, पर थार की प्रीत कम नहीं होनेवाली। तभी तो उसकी गोद में बसे गांव किशनपुरा दिखनादा, जनपद हनुमानगढ़ के राजू सारसर 'राज' कहते हैं―थार, नहीं सिलवटों भरे / किरकिर वाले धोरे / थार घर है प्रीत का।

जनपथ का अगस्त 2016 अंक राजस्थान केंद्रित था। राजाराम भादू के संपादन में कविता–केंद्रित इस अंक का इंतजार बेसब्री से था। सबकुछ ठीक लगा, पर यह क्या ! राजस्थान केंद्रित अंक में थार कहीं भी नहीं था। भला थार बिन राजस्थान अपने अस्तित्व में रह सकता है? खैर इन बातों को जाने दें। नगरों में केंद्रित होते जाते साहित्यिक–संसार के बड़े रचनाकारों–संपादकों की ऐसी उपेक्षा अब हैरान–परेशान नहीं करती।

थार के कवि–कहानीकार राजू सारसर 'राज' की रचनाओं में वह राजस्थान नजर आता है जो पोस्टरों में नहीं दीखता। वे मानव की जीवेषणा देखते हैं तो शोषितों का संघर्ष भी। उनकी कविताओं में थार अपने पूरे अस्तित्व में है तो समकालीन परिस्थितियां, जन–प्रतिरोध पूरी मुखरता से समाहित होती है। उनकी कविताओं में उनका अंचल मुखरता से विद्यमान है। राजस्थानी एवं हिंदी में रची उनकी रचनाएँ अहम सवाल उठाती हैं। मुळकती माटी, म्हारै पांती रा सुपनां (राजस्थानी काव्य-संग्रह), मंडाण, थार सप्तक (राजस्थानी काव्य-संकलन), शब्दों की शीप, खुलते वातायन, अनुभूति के आयाम (हिन्दी काव्य-संकलन) के कवि को पढ़ा जाना आज प्रासंगिक हो गया है। 


1. जीवेषणा

थार की छाती पर,
नंगे पाँवों के निशान,
नहीं है फगत निशानी.
किसी के गुज़र जाने की ।

एक जीवेषणा है
जिन्दगी जीते जाने की
ले जाती है जो उस पार,
बनकर जीवन का आधार । 

जीनें का सच छिपाए.
थार की सलवटें,
फगत सिखाती हैं जीना,
सच में जीता है तो बस थार ।


2. थार एक दिल

थार नहीं सिलवटों भरे,
किरकिर वाले धोरे,
थार घर है प्रीत का ।

प्रीत के लिए,
घर नहीं, दिल चाहिए ।
दिल में हो प्रीत तो
घर बन ही जाता है,
धरती के किसी कोनें मे ।

तुम भी सुनना कभी,
इसकी धड़कनें ।
थार एक दिल है,
धरती की छाती में ।


3. थार यायावर

धूनी रमाते साधू सा,
अपनी ही धुन बहता,
निरपेक्ष पंथी जैसा,
उठाए हुए बरखान ।

अबखाइयां ओढ़ता,
अबखाइयां बिछाता ,
नहीं लेता बिसांई,
एक ठौड़ थम कभी ।

पीत समन्दर में,
उठती लहरों संग,
खाळों-पड़ालों से हो,
खींप-फोगों से बतियाता ।

मखमली रेत की छुअन से,
सहलाते धरती की छाती,
भींच लेता बाहों में भोगी सा,
झूम उठती है वह प्रीत पगी ।

पांवों में चक्कर लिए,
थार यायावर रुका कहाँ,
थिर नहीं है थार,
थिर है तो, थार में तृष्णा ।


4. खुद से दूर...

मौन ओढ़े सरकती रात में,
सोये हो चाँद सिरहानें रख ,
मैं भी लौट आया हूँ, तब
दिल से दिल का सफ़र कर ,

टूटकर बिखर चुके हैं,
मेरी कल्पनाओं में बसे,
मोतियों से मंहगे रिश्ते,
लोलुपता की लगी चोटों से |

साज़िशों की धूप में जले,
विश्वासों के पांव लेकर ,
तुम्हारी नींद में खलल ना पड़े,
फिर जाना चाहता हूँ, दूर कहीं 
बिना आह-आहट के ।

क्षमा करना, प्रियतम थार !
अब भग्नित भीतर लेकर,
यहाँ ज्यादा ठहरना नहीं चाहता,
खुद से खुद मिलना नहीं चाहता 
बस और अब जीना नही चाहता । 


5. मैं, थार और प्यास

थार-सा मैं,
प्यास-सी तुम !
आकुल-सी,
तुम बढ़ती गई,
मैं निढाल-सा,
पसरता गया ।

अंतस के झाड़खों में,
अनचाहे अवरोधों सी रेत,
बरक बांध,
मुळकती रही ।
जूण बूई सीणियों के हेत सी
टसकती रही ।

अपनें ही बनाए खोड-बिलों में
हमनें पाळ तो लिए,
सांप, बिच्छू, गोहरे ।
गलती ये रही,
हम जुगनू नही पाळ सके ।

हो सके तो लौट के देख,
जूण की एक जीवन्त आशा है ,
प्यास आज भी तड़पती है 
थार आज भी प्यासा है ।


6. रेत की नदी और तुम

हमनें कब खाई,
बेतवा की कसमें ।
कब डूबे कच्चे घड़ों पर
दरिया-ए चऩाब में ।
निहारे कहाँ थे,
अपनें अक्स यमुना में ।
कब भीगे सवसन,
किसी पहाड़ी झरनें तले ।

हम तो फगत चले,
रेत की नदी पर |
चलते-फिरते धोरों के बीच,
जहाँ खोए निशान फिर नहीं मिलते ।
कहीं कोई ऊंघता सा फोग,
भर प्रीत में दामन थाम ले ।

धोरों की ढाळ, पड़ालों के पार,
रेत की नदी के उस छोर से ।
तुम्हारे होने का मखमली अहसास,
मेरे दिल को छूता है ऐसे 
थार की रेत, नंगे पांवों को जैसे ।

तुम्हारी सौरम, थार के अमृत-सी
बह गई है भीतर तक,
झड़बेरी के खीचड़े, काचरों की,
सुगन्ध को एकाकार करती ।
यहीं कहीं हो तुम अभी भी
रेत की नदी में, लहर-सी घुली हुई ।

हां, मगर हमनें नही जाना,
बेतवा-चऩाब या झेलम की प्रीत ।
हो सकता है प्रीत के रंग ही हों, 
थार-सी मखमली रंगत वाले ।


7. नीम-नीम दवा

प्रिय मित्र , 
तुम खुश रहो,
शेष सब ठीक हैं
कैसी रहे चिन्ता कहो ।

शहर के सीने पर ये,
गंदी बस्तियां दाग-सी ।
गांव का गंवारपन भी,
फूंके सीने में आग-सी ।
बेशर्मी के ये उदारहण कैसे सटीक है 
बस तुम चिन्ता न करो, शेष सब ठीक है ।

यहाँ प्रजातंत्र का राज है,
जनता तो कोढ में खाज है |
भेड़ों के तो गले ही कटे हैं,
यही तो सनातन रिवाज है |
देश चलेगा उसी पर जो पुरातन लीक है ।
बस तुम चिन्ता न करो, शेष सब ठीक है ।

बाजार-सी सौदागरी है
फैसले हाथ दलालों के ।
जज भी ये तो कबूल चुके,
है हाथ खड़े न्यायालयों के |
डर तो बस आम को, शेष सब निर्भीक है ।
बस तुम चिन्ता न करो, शेष सब ठीक है  ।

नीम-नीम दवा है बस
पहाड़-पहाड़ सी पीर है ।
कह रहे हैं पंडित जी.
ये तुम्हारी तकदीर है ।
सोचता हूँ लिखने वाला भी कैसा गुणीक है ।
बस तुम चिन्ता न करो, शेष सब ठीक है ।


8. समय आएगा

घड़ी का बढ़ता हुआ कांटा,
उद्वेलित नहीं आनन्दित करता है ।
समय गुज़र नही रहा,
आ रहा है ।
मैं साफ पदचाप सुन रहा हूँ ।
मेरे लिए मगर नहीं गाए जाएं,
विदाई गीत ।
बस मैं चाहता हूँ मूक मिलन ।
जो अधूरा रहा,
वो कोई ओर लिखेगा ।
जितना कुछ छूट गया,
वो कोई और संभालेगा ।
चलाचली की वेला में,
तुम साथ दो तो एक बार,
मैं मेरे ही अंदाज़ में हँसना चाहता हूँ ।
समय को आना है आएगा,
मैं, समय को आगोश में कसना चाहता हूँ ।


9. इतिहास गवाह है

राजनीति पर जब भी,
कोई संकट खड़ा हुआ है,
या कि नीति पर सवाल उठा है ।

भूख-गरीबी-बेरोजगारी का,
ग्राफ ज्यौं ऊपर चढ़ा है ।
धूप- हवा- पानी का सौदा,
पूंजीवाद के हक में हुआ है ।

धूल-सनी खेतों की पगडंडी से
राजमार्गों नें जब़रजीना किया है
लाचार गांव कस्बाई गलियों नें,
बहे लहू का हक मांगा है ।

चूल्हों को डुसकता देख,
फटेहाल मजदूर झोंपड़ा,
विरोध को मज़बूर हुआ है ।

मूर्ख बनाने के लिए तब,
हर प्रयास सायास हुआ
सत्ता ने बना तब नशा धर्म को,
जन की रगों में उतार दिया है ।
इतिहास गवाह है स्वयं सत्ता ने
युद्धोन्माद पैदा किया है ।


10. अंतिम कड़ी का बंध

मुंह, सिर, हाथ, चेहरा,
लिसकाए, पुस्काए जाते रहे है ।
सदियों से,
सजाए जाते रहेगे सदियों तक ।

धर्म, वर्ण, वर्ग भाग्य से
टिकाए, बरगलाए जाते रहे हैं
सदियों से,
बचाए जाते रहेंगे सदियों तक ।

किस तरह कुछ चेहरों को,
अपनाया गया, अपने लिए,
बनाने को मोहरे, जन-मन को उनींदा कर
सत्ता द्वारा, सत्ता के लिए ।

घांटियों के बीच विलुम्बी सांसे,
ना भीतर गई ना बाहर निकली,
भीतर जाती, जीवन मिलता,
बाहर आती, पिंड छुटता ।

फिर से कुछ सिर उठेंगे ही,
हां, कुछ हाथ हवा में लहराएं ही,
नाउम्मीद अब भी नहीं हूँ मैं,
अंतिम कड़ी के बंध काटे जाएंगे ही ।



संपर्क :
राजू सारसर 'राज'
शिक्षा विभाग राजस्थान में वरिष्ठ अध्यापक (अंग्रेजी) पद पर कार्यरत
निवास – किशनपुरा दिखनादा 
जनपद – हनुमानगढ़ (राज.)
पिनकोड – 335513
मो. – 9587100377

मणि मोहन की कविताएं


कवि एवं अनुवादक मणि मोहन अपनी सहज काव्यशैली की वजह से जाने जाते हैं। शब्दों के मामले में मितव्ययी ! छोटी-से-छोटी घटनाओं एवं उपेक्षित पात्रों में सहजता से वे कथ्य ढूँढ लेते हैं। प्रकृति एवं परिवेश का असाधारण चित्रण उनकी रचनाओं में मिलता है तथा अनुभूतियों को वे मूर्त रूप दे देते हैं। कविताएं पढ़ने के बाद पाठक बरबस कह उठता है – अरे यार! कवि ने तो मेरी ही बात कह दी। यहीं पर कवि अपनी सार्थकता प्रमाणित करते हैं। उनकी छोटी कविताएं जिन्हें शब्दचित्र कहना उचित होगा, अपने पाठकों से जुड़कर अद्भुत रूप धारण कर लेती हैं। उनकी कविताओं में जीवन के गूढ़ दर्शन समाहित होते हैं तो बिंब समाज के यथार्थ को यथारूप सामने रख देते हैं। कविताओं में शब्दों के चयन पर खास ध्यान रखने वाले कवि अपनी रचनाओं के मामले में भी सजग एवं धैर्यवान हैं। देश की महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्र - पत्रिकाओं के माध्यम से उनकी कविताएं तथा अनुवाद पाठकों तक पहुंचते रहते हैं। कविता–संग्रह 'कस्बे का कवि एवं अन्य कवितायें' और 'शायद' के पश्चात अभी हाल में ही बोधि प्रकाशन की पुस्तक–पर्व योजना के अंतर्गत एक काव्य–संकलन 'दुर्दिनों की बारिश में रंग' पाठकों के बीच आ चुकी है। उनकी कविताओं ने भाषाई सीमाओं का अतिक्रमण भी किया है। इस क्रम में कुछ कवितायें उर्दू , मराठी और पंजाबी में अनूदित हुई हैं। वर्ष 2012 में रोमेनियन कवि मारिन सोरेसक्यू की कविताओं की अनुवाद पुस्तक 'एक सीढ़ी आकाश के लिए' खासी चर्चित रही है एवं मुइसेर येनिया की तुर्की कविताओं के संग्रह का अनुवाद 'अपनी देह और इस संसार के बीच' पाठकों के समक्ष आ चुका है। तो चलिये अपने कवि की अनुभूतियों के साथ अनोखे सफर पर !

1. अपनी भाषा

उदास हुए हम
अपनी भाषा में
मुस्कराए...खिलखिलाए
अपनी भाषा में ।
प्रेम पत्र लिखे
लिखीं प्रेम कवितायेँ
धड़कते रहे दिल
अपनी भाषा में ।
उत्सवों में
रात भर नाचती रही
हमारी भाषा...
भाषा में
मदमस्त हुए हमारे उत्सव ।
प्रार्थनाओं में
गूंजती रही हमारी भाषा...
भाषा में
गूंजती रहीं
हमारी प्रार्थनाएं ।
सुख - दुःख बहते रहे
दीप बनकर
भाषा की नदी में
दूर तक ......


2. थोड़ी - सी भाषा

बच्चों से बतियाते हुए
अंदर बची रह जाती है
थोड़ी - सी भाषा
बची रह जाती है
थोड़ी - सी भाषा
प्रार्थना के बाद भी ।
थोड़ी - सी भाषा
बच ही जाती है
अपने अंतरंग मित्र को
दुखड़ा सुनाने के बाद भी ।
किसी को विदा करते वक़्त
जब अचानक आ जाती है
प्लेटफॉर्म पर धड़धड़ाती हुई ट्रेन
तो शोर में बिखर जाती है
थोड़ी - सी भाषा ...
चली जाती है थोड़ी - सी भाषा
किसी के साथ
फिर भी बची रह जाती है
थोड़ी - सी भाषा
घर के लिए ।
जब भी कुछ कहने की कोशिश करता हूँ
वह रख देती है
अपने थरथराते होंठ
मेरे होंठो पर
थोड़ी - सी भाषा
फिर बची रह जाती है ।
दिन भर बोलता रहता हूँ
कुछ न कुछ
फिर भी बचा रहता है
बहुत कुछ  अनकहा
बची रहती है
थोड़ी - सी भाषा
इस तरह  ।
अब देखो न !
कहाँ - कहाँ से
कैसे - कैसे बचाकर लाया हूँ
थोड़ी - सी भाषा
कविता के लिए ।


3. सौदागर

उन्होंने पेड़ों से कहा
खाली करो यह धरती
हम यहां एक खूबसूरत
शहर बनाने जा रहे हैं
पेड़ों ने सुनी
उनकी यह धमकी
और भय से सिहर उठे
पेड़ों की छाती से चिपके
घोंसलों में दुबके
परिंदे भी सहम गए
सौदागर दरिंदे अपने साथ
कुछ दुभाषिये भी लाये थे
( जो पेड़ों और परिंदों की
भाषा जानने का दावा करते थे )
दरिंदों ने दुभाषियों से पूछा
क्या कहा पेड़ों ने ?
क्या कहते हैं परिंदे ?
दुभाषिये बोले -
हुज़ूर , पेड़ों ने अपनी
सहमति दे दी है ...
और परिंदे भी
उत्साहित हैं
किसी नए ठिकाने पर जाने के लिए
खूब खुश हुए दरिंदे
और दुभाषियों ने ताली बजाईं ।


4. उऋण

अकसर तो यही होता है
कि सर्जक ही करता है आह्वान
अपने शब्दों का ...
पर कभी-कभी
इसके ठीक उलट भी होता है ,
जब शब्द खुद पुकारने लगते हैं
अपने सर्जक को !
जो सुन लेता है
अपने ही शब्दों की पुकार
और चल पड़ता है
समय के अन्धकार में
शब्दों के पीछे-पीछे
उऋण हो जाता है !


5. निर्वस्त्र

अपने चेहरे
उतार कर रख दो
रात की इस काली चट्टान पर
कपड़े भी !
अब घुस जाओ
निर्वस्त्र
स्वप्न और अन्धकार से भरे
भाषा के इस बीहड़ में
कविता तक पहुंचने का
बस यही एक रास्ता है ।


6. इतवार

खूँखार कुत्तों के जबड़ों से
बमुश्किल
छीन के लाया हूँ
सप्ताह का यह दिन
हाथ अभी तक लहुलुहान है ।


7. यह रात

कहीं नींद है
कहीं चीखें
कहीं दहशत
पर सबसे भयावह बात है
कि यह बिना स्वप्न की रात है ।

8. गिनती

गिन रहा हूँ
अपराजिता की लता में लगे
छोटे छोटे नीले शंख
गिन रहा हूँ
अपने अन्डे उठाये
भागती चींटियों को
गिन रहा हूँ
अमरुद के पेड़ पर बैठे हरियल तोतों
और सिर के ऊपर से उड़ान भरते
सफेद कबूतरों को
गिन रहा हूँ
अनगिनित
पेड़ , परिंदे
फूल , तितली
स्कूल से घर लौटते
धींगा मस्ती करते बच्चों को
बहुत अबेर हुई
बन्द हो चुके  तमाम बैंक
खत्म हुए
संसद और विधानसभाओं के सत्र
बन्द हुए
गिनती से जुड़े तमाम कारोबार
धीरे-धीरे फैलने लगा है अँधेरा
पर अभी चैन कहाँ
अभी तो सितारों से सजा
पूरा आसमान बाकी है ।


संपर्क :
डॉ. मणि मोहन
शा. स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गंज बासौदा ( म.प्र ) में अध्यापन।
मो. – 9425150346
ई-मेल : profmanimohanmehta@gmail.com

भावना शेखर की कविताएं



अक्सर बहुत कम ही ऐसा हो पाता है कि व्यक्ति बचपन में उपजे शौक को अपनी पूरी जिंदगी में आकार दे। बहुत–से शौक एवं सपने तो इस भाग–दौड़ भरी जिंदगी में पीछे छूटते चले जाते हैं। परन्तु ऐसे व्यक्तित्व जो इन्हें अपने जीवन में उतार लेते हैं, निश्चित रूप से प्रेरक हैं। डॉ. भावना शेखर ऐसे ही बहुआयामी व्यक्तित्व की स्वामिन हैं जिन्होंने अपने बूते पारिवारिक, सामाजिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक परिवेश में अपनी सक्रिय भागीदारी तय की है। यह बचपन से ही लेखन का शौक एवं पारिवारिक परंपरा का प्रभाव था कि अचानक उन्होंने लेडी श्रीराम कॉलेज में राजनीति शास्त्र को छोड़ भाषा के विषय हिंदी एवं संस्कृत में मास्टर डिग्री हासिल कर डॉक्टरेट की उपाधि धारण की। संप्रति पटना के प्रतिष्ठित नोट्रेडैम एकेडमी की वरिष्ठ शिक्षिका के कई कविता–संग्रह एवं कहानी–संग्रह का पाठकों के पास पहुंचना हिंदी साहित्य के प्रति उनके लगन एवं समर्पण की कहानी बयां करता है। सत्तावन पंखुड़िया, साँझ की नीली किवाड़ (काव्य–संकलन) जुगनी, खुली छतरी (कथा–संकलन) एवं जीतो सबका मन, मिलकर रहना (बालगीत–संग्रह) के पश्चात् एक नया काव्य–संग्रह 'बन गई हूं एक जंगल' प्रकाशनाधीन है। उनकी कहानियों ने कई संस्थाओं के प्रथम पुरस्कार जीते हैं तो कविताओं ने संवेदना के नए आयाम तय किए हैं। पटना एवं बाहर के शैक्षिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों में लगातार शिरकत करते हुए वे अपने पाठकों एवं प्रशंसकों से जुड़ी रहती हैं।

भावना शेखर की कविताओं को पढ़ें तो पता चलता है कि वे कहीं से उसके निर्माण की सामग्रियां नहीं जुटाती...शब्दों की बाजीगरी के फेर में नहीं पड़ती बल्कि निज–जीवन के अनुभव, संवेदना, परिवेश सभी सहजता से उनकी कविताओं में समाहित होते जाते हैं तथा एक ख़ूबसूरत सृजन पाठकों के समक्ष होता है। कविताओं में वे अतिरेक से बचती हैं तो यथार्थ का सामना भी करती हैं। उपेक्षित मूक चीजों में वे अभिव्यक्ति ढूंढती हैं तथा संवेदना के सूक्ष्म स्तर तक उनकी पहुँच है। उनका प्रतिनिधित्व करती कविताएं आपके लिए !

1. हक़

वो खड़ा है बरसों से
गली के कोने में
रोज़ सुबह देखती हूँ
किसी बच्चे, अधेड़ पुरुष 
या युवा महिला को
उसका रुख करते 
सबके हाथ में है
एक–एक छोटा बड़ा 
अमूमन काला पॉलीथिन
जिसमे ठूंसे हैं 
धूल–धक्कड़, गन्दगी 
सब्ज़ियों, अण्डों के छिलके
गले हुए टमाटर

मुँह पर कसी गाँठ में क़ैद है
घर भर की कालिख और दुर्गन्ध
लाने वाले के माथे पर 
शिकन है घिन की
एक झटके से
खुले मुँह के हवाले कर देते हैं सब
अपना–अपना कचरा
खींचते हैं 
लम्बी साँस चैन की
गोया सर पर का गट्ठर
उतार फेंका हो ज़मीन पर

अब उसमें पसरी है
मुहल्ले भर की बेतरतीबी
टूटन और बिखरन
समूची मलिनता
कितना बड़ा है इसका जिगर
कितना दिलदार है
बाहें फैलाए 
अतिथि देवो भव की तर्ज़ पर
सबकी अगवानी को तैयार
हर सुबह, हर दोपहर
शाम तलक
हर किस्म के ज़हर को
हलक में उकेरता 
जैसे नीलकंठ

कलयुग में भी होते हैं
ऐसे नीलकंठ
ताउम्र ढोते औरों की गन्दगी
ग़लती, कचरा और अपराध
ख़ामोशी से
ठीक कूड़ेदान की तरह

उन्हें भी चाहिए
अपने हिस्से की 
थोड़ी ज़मी थोडा आसमां
बराबर का हक़
हमे सुनना है
समझना है
उस मौन को
विस्फोट से पहले


2. जानवर

कल मिले हैं दो बोरे
लहू के चकत्तों वाले
हाईवे से सटे जंगल में
झाड़ियों के भीतर

कई जानवर रहते हैं
इस जंगल में
जो दुबके हैं
अपनी अपनी मांद में
बेहद डरे हुए
और फिक्रमंद

आज बुज़ुर्गों ने बुलाई थी मीटिंग
किया है फैसला
अब छोड़ना होगा सबको
यह ठिकाना
उनकी खैर नहीं
कहीं फिर से न आ जाए
दूसरे जंगल से
दो पैरों वाले जानवरों का 
वही जत्था

कहीं उनका शिकार न बन जाएँ
इस बार
ये बेचारे जंतु
पैने दांतों और नाखूनों से
काम नही चलेगा
उनके हथियार
ज़्यादा कारगर हैं

तरीका भी कितना अनोखा
शिकार को ठूंस देते हैं
बन्द बोरे में
फिर ज़ोरदार वार
अपने ही खिलौनों से
हाँ, सुना है
इन्हीं खिलौनों से खेलते हैं
मैदान में 
बारह जानवर एक साथ
खिलौना कब हथियार बन जाए
भरोसा नहीं

सो, 
कल मुँह अँधेरे 
छोड़ देना है जंगल
क्या जाने
सुबह फिर से
घुटी–घुटी चीखों वाले 
कसमसाते बोरों को घसीटता 
चला आए
हमसे भी ताक़तवर
वही झुण्ड जानवरों का


3. औरत और पायदान 

रोज़ शाम वो लौटता है घर
कितनी धूल मिट्टी और
बीमारी के कीटाणु लिए
अपनी कमीज़, जूतों और मन पर
थकन, कोफ़्त, झल्लाहट
उदासी और मायूसी लिए
दफ्तर, मेट्रो, सड़क, ट्रैफिक
सारी चिल्ल–पौं
आग में घी डालती है
दौड़ता है एक ज्वालामुखी
घर की ओर फटने से पहले
गोकि जानता है
जूतों के साथ साथ 
मन भी हल्का हो जाएगा
घर ने दो साधन जो मुहैया करा रखे हैं
दरवाज़े पर पड़ा एक पायदान
और इंतज़ार में खड़ी 
औरत..!


4. चुल्लू भर प्रेम

कल आकाश ने उंडेल दिए थे
अनगिन अमृत कलश
रेत के टीलों पर
न पसीजा उनका मन
न भीगी उनकी रूह
टीले रहे वैसे ही 
सूखे और बंजर

फिर से आई है आज
झीनी–झीनी बारिश
टूटे दिल से बरसा है
बादल ज़रा–ज़रा

टीलों के पास पड़े हैं
कुछ ठीकरे, कुछ टूटे हुए मटके
उथली सतह वाले
सबके पेंदे में है
धूसर पानी
कल की बारिश का
जीने की तृष्णा को सींचता
मटियाली हँसी बिखेरता

हताश टीलों के पायताने
धूसर पानी के आगोश में
नाचती है
आज की मद्धम बारिश

जब भी गिरतीं नन्ही बूंदें
पेंदे के पानी में
जिजीविषा के घाघरे से
दस बीस वर्तुल 
जनमते हैं
खिलखिलाते हैं
ओझल होने से पहले

छिन भर का जीवन देती हैं
मासूमियत से लबरेज़ बूंदें
जी उठता है ठीकरों में जमा
धूसर पानी
भर देती बूंदें
संगीत, स्पंदन, नर्तन, कीर्तन
टूटे हुए मटकों में

नेह से ही उपजता है नेह
बस तोडना पड़ता है
ज़िद्दी टीलों को
बनानी पड़ती है
कुछ नीची ज़मीन
भरना पड़ता है
चुल्लू भर प्रेम
मन के पेंदे में।


5. चाहतों का सूत 

सितारों सा टाँक रखा है
तेरी आवाज़ के मनकों को
निगाह को भी चुन लिया 
धूप के कतरों सा

अपनी चाहतों का सूत 
कातती हूँ रोज़ ब रोज़
तेरी यादों की तकली पर

क्या मालूम ख्वाबों की झालर 
कब पूरी होगी
कब सजाऊँगी वन्दनवार
सूने मन की ड्योढ़ी पर


6. प्रेम को मुक्त करो प्रिय !!

कैसे उठाऊँ वो फंदे 
जो गिर गए है
कई सलाइयों नीचे
उधड़ता जा रहा है 
वक़्त का नीला स्वेटर

मैं कैसे भरूँ 
उन झिर्रियों को
जिनसे बह गयी
समूची तरावट

कैसे तेरा मन सिक्त करूँ
मिल सके जो मुझे भी
चिन्दी चिन्दी नमी 

मैं तलाशती थी पहले भी
प्रेम की उद्दाम धारा
तेरे अव्यक्त मन के बियाबान में 

अब तो लगता है 
तुम बन्द कर आये हो उसे 
पाताल की किसी गुफा के 
सात तालों में

दे दो मुझे वो चाबी 
मेरे प्रियतम!
बहाने दो रसधार

मुझे भय है 
कहीं लुप्त न हो जाए
सरस्वती की तरह
मेरे प्रेम की गंगा जमुनी धार

संपर्क :
डॉ. भावना शेखर
ईमेल – bhavnashekhar8@gmail.com