कविता के विरुद्ध : योगेन्द्र कृष्णा



इस वर्ष आये हिंदी कविता–संग्रहों में बोधि प्रकाशन से आया 'कविता के विरुद्ध एवं अन्य कविताएं' कवि एवं अपने कलेवर के कारण सहज ही ध्यान खींचता है। कुँअर रवीन्द्र का अद्भुत आवरण–चित्र जिसमें अँधेरे की पृष्ठभूमि में चिंतनशील मानस जो थोड़ा थका–परेशां तो दिखता है, पर उसपर पड़ती सुनहरी आभा संकेत कर रही है कि शीघ्र ही वह अँधेरे के खिलाफ उठ खड़ा होगा। कवि योगेन्द्र कृष्णा हिंदी साहित्य के ऐसे सेवी हैं जो शुरू से ही कर्म में विश्वास कर श्रेय लेने से बचते रहे हैं।  

नब्बे के दशक के उत्तरार्ध में जब देश काफी कुछ बदल रहा था, चरित्रों पर मुखौटे कुछ अधिक ही चढाए जाने लगे थे, ग्लोबलाइजेशन एवं निजीकरण ने सार्वजनिक पूंजी को अधीन करना शुरू कर दिया था, स्वतंत्रता एवं समरसता भंग की जाने लगी थीं ; ठीक उसी समय योगेन्द्र कृष्णा आमजन का पक्ष रखने की शुरुआत करते हैं। 2001 में 'खोई दुनिया का सुराग' आई जिसमें समाज में व्याप्त रूढ़ि, असमानता एवं तत्कालीन राजनीतिक स्थिति पर प्रश्न–प्रतिप्रश्न करते कवि की बेचैनियां साफ–साफ नजर आती है। 2008 में आई 'बीत चुके शहर में' के पश्चात सितंबर 2016 में 'कविता के विरुद्ध एवं अन्य कविताएं' का पाठकों के समक्ष आना सिर्फ एक अवधि को इंगित नहीं करता, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि कवि ने अपने मानस में उठते हर प्रश्न पर मुकम्मल ढंग से सोचा है, उसमें विचारों के प्रस्तुतिकरण की हड़बड़ी नहीं है।

'बीत चुके शहर में' के आठ वर्षों बाद नए संग्रह को पढ़ने की प्रासंगिकता इस बात में निहित है कि इन सालों में क्या कुछ बदला, कवि ने इस बदलाव को कैसे महसूस किया एवं इन बदलावों के प्रति उसकी क्या प्रतिक्रिया रही। कवि 'बीत चुके शहर में' की कविता 'एक बदहवास दोपहर' में आशंका व्यक्त करते हैं― " पता नहीं / मौसम की यह बदहवासी / अब किधर जाएगी / किस मासूम पर अपना दोपहर बरसाएगी।" अब 'कविता के विरुद्ध एवं अन्य कविताएं' की कविता 'मेरे हिस्से की दोपहर' में कवि कहते हैं― " मेरे हिस्से आई / बस गर्मियों की लंबी / चिलचिलाती दोपहर...।" इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक तक आते–आते ऐसे परिवर्तन प्रत्यक्ष होने लगे थे जिसकी आशंका कवि अपने पूर्व संग्रहों में व्यक्त करता है।  हरेक दरवाजे पर दस्तक दी जाने लगी थी जो मानव–मन को आशंकित कर रहा था। द्रष्टा अब भोक्ता बन चुका था।

संग्रह की शुरुआत 'कविता के विरुद्ध' शीर्षक कविता से हुई है जिसे रचनाकार ने स्वयं 'कवियों–बुद्धिजीवियों के विरुद्ध एक शासनादेश' उद्धृत किया है। वे शुरुआत में कहते हैं– "ध्वस्त कर दो / कविता के उन सारे ठिकानों को / शब्दों और तहरीरों से लैस सारे उन प्रतिष्ठानों को / जहाँ से प्रतिरोध और बौद्धिकता की बू आती हो।" सत्ता के अपने तर्क हैं जिससे वह अपने पक्ष को मजबूत करने की कोशिश करती है― "तब तक उन्हें इतिहास और अतीत के / तिलिस्म में भटकाओ / नरमी से पूछो उनसे / क्या दांते की कविताएं / विश्वयुद्ध की भयावहता और / यातनाओं को कम कर सकीं / क्या गेटे नाजियों की क्रूरताओं पर / कभी भारी पड़े।" आगे की एक पंक्ति 'पोएट्री मेक्स नथिंग हैपेन' की स्थापना के बावजूद सत्ता एवं व्यवस्था अंदर से भयभीत रहती है जो इन पंक्तियों में अभिव्यक्त होती है― "बावजूद इसके कि कविता के बारे में / महाकवियों की ये दिव्य स्थापनाएं / पूरी तरह निरापद और कालजयी हैं / घोर अनिश्चितता के इस समय में / हम कोई जोखिम नहीं उठा सकते।"

अब यह अपरिहार्य हो गया है कि पाठक 'कविता के विरुद्ध' से रूबरू हों। आगे चर्चा चलती रहेगी।


कविता के विरुद्ध

ध्वस्त कर दो
कविता के उन सारे ठिकानों को
शब्दों और तहरीरों से लैस
सारे उन प्रतिष्ठानों को
जहां से प्रतिरोध और बौद्धिकता
की बू आती हो…

कविता अब कोई बौद्धिक विलास नहीं
रोमियो और जुलिएट का रोमांस
या दुखों का अंतहीन विलाप नहीं
यह बौद्धिकों के हाथों में
ख़तरनाक हथियार बन रही है…

यह हमारी व्यवस्था की गुप्त नीतियों
आम आदमी की आकांक्षाओं
और स्वप्नों के खण्डहरों
मलबों-ठिकानों पर प्रेत की तरह मंडराने लगी है
सत्ता की दुखती रगों से टकराने लगी है…

समय रहते कुछ करो
वरना हमारे दु:स्वप्नों में भी यह आने लगी है…

बहुत आसान है इसकी शिनाख्त
देखने में बहुत शरीफ
कुशाग्र और भोली-भाली है
बाईं ओर थोड़ा झुक कर चलती है
और जाग रहे लोगों को अपना निशाना बनाती है
सो रहे लोगों को बस यूं ही छोड़ जाती है…

इसलिए
कवियों, बौद्धिकों और जाग रहे आम लोगों को
किसी तरह सुलाए रखने की मुहिम
तेज़ कर दो…

हो सके तो शराब की भटि्ठयों
अफीम के अनाम अड्डों और कटरों को
पूरी तरह मुक्त
और उन्हीं के नाम कर दो…

सस्ते मनोरंजनों, नग्न प्रदर्शनों
और अश्लील चलचित्रों को
बेतहाशा अपनी रफ्तार चलने दो…

संकट के इस कठिन समय में
युवाओं और नव-बौद्धिकों को
कविता के संवेदनशील ठिकानों से
बेदखल और महरूम रखो…

तबतक उन्हें इतिहास और अतीत के
तिलिस्म में भटकाओ
नरमी से पूछो उनसे…
क्या दान्ते की कविताएं
विश्वयुद्ध की भयावहता और
यातनाओं को कम कर सकीं…
क्या गेटे नाज़ियों की क्रूरताओं पर
कभी भारी पड़े…

फिर भी यकीन न हो
तो कहो पूछ लें खुद
जीन अमेरी, प्रीमो लेवी या रुथ क्लगर से...
ताद्युश बोरोवस्की, कॉरडेलिया एडवार्डसन
या नीको रॉस्ट से
कि ऑश्वित्ज़, बिरकेनाऊ, बुखेनवाल्ड
या डखाऊ के भयावह यातना-शिविरों में
कविता कितनी मददगार थी!

कवि ऑडेन से कहो… लुई मैकनीस से कहो…
वर्ड्सवर्थ और कीट्स से कहो
कि कविता के बारे में
उनकी स्थापनाएं कितनी युगांतकारी हैं…
पोएट्री मेक्स नथिंग हैपेन…
ब्यूटि इज़ ट्रुथ, ट्रुथ ब्यूटि…
पोएट्री इज़ स्पॉन्टेनियस ओवरफ्लो ऑफ पावरफुल फ़ीलिंग्स…
मीनिंग ऑफ अ पोएम इज़ द बीइंग ऑफ अ पोएम…

बावजूद इसके कि कविता के बारे में
महाकवियों की ये दिव्य स्थापनाएं
पूरी तरह निरापद और कालजयी हैं
घोर अनिश्चितता के इस समय में
हम कोई जोखिम नहीं उठा सकते…

कविता को अपना हथियार बनाने वालों
कविता से आग लगाने वालों
शब्दों से बेतुका और अनकहा कहने वालों
को अलग से पहचानो…

और देखते ही गोली दागो


संपर्क :
योगेन्द्र कृष्णा 
२/800, शास्त्रीनगर, पटना - 800023 
मो. : 9835070164 
ईमेल : yogendrakrishna@yahoo.com

राजू सारसर 'राज' की कविताएं


थार मानव की जिजीविषा का प्रतीक है। तेज आँधियों से थार के टीले भले ही अपनी आकृतियां बदलते रहें, पर थार की प्रीत कम नहीं होनेवाली। तभी तो उसकी गोद में बसे गांव किशनपुरा दिखनादा, जनपद हनुमानगढ़ के राजू सारसर 'राज' कहते हैं―थार, नहीं सिलवटों भरे / किरकिर वाले धोरे / थार घर है प्रीत का।

जनपथ का अगस्त 2016 अंक राजस्थान केंद्रित था। राजाराम भादू के संपादन में कविता–केंद्रित इस अंक का इंतजार बेसब्री से था। सबकुछ ठीक लगा, पर यह क्या ! राजस्थान केंद्रित अंक में थार कहीं भी नहीं था। भला थार बिन राजस्थान अपने अस्तित्व में रह सकता है? खैर इन बातों को जाने दें। नगरों में केंद्रित होते जाते साहित्यिक–संसार के बड़े रचनाकारों–संपादकों की ऐसी उपेक्षा अब हैरान–परेशान नहीं करती।

थार के कवि–कहानीकार राजू सारसर 'राज' की रचनाओं में वह राजस्थान नजर आता है जो पोस्टरों में नहीं दीखता। वे मानव की जीवेषणा देखते हैं तो शोषितों का संघर्ष भी। उनकी कविताओं में थार अपने पूरे अस्तित्व में है तो समकालीन परिस्थितियां, जन–प्रतिरोध पूरी मुखरता से समाहित होती है। उनकी कविताओं में उनका अंचल मुखरता से विद्यमान है। राजस्थानी एवं हिंदी में रची उनकी रचनाएँ अहम सवाल उठाती हैं। मुळकती माटी, म्हारै पांती रा सुपनां (राजस्थानी काव्य-संग्रह), मंडाण, थार सप्तक (राजस्थानी काव्य-संकलन), शब्दों की शीप, खुलते वातायन, अनुभूति के आयाम (हिन्दी काव्य-संकलन) के कवि को पढ़ा जाना आज प्रासंगिक हो गया है। 


1. जीवेषणा

थार की छाती पर,
नंगे पाँवों के निशान,
नहीं है फगत निशानी.
किसी के गुज़र जाने की ।

एक जीवेषणा है
जिन्दगी जीते जाने की
ले जाती है जो उस पार,
बनकर जीवन का आधार । 

जीनें का सच छिपाए.
थार की सलवटें,
फगत सिखाती हैं जीना,
सच में जीता है तो बस थार ।


2. थार एक दिल

थार नहीं सिलवटों भरे,
किरकिर वाले धोरे,
थार घर है प्रीत का ।

प्रीत के लिए,
घर नहीं, दिल चाहिए ।
दिल में हो प्रीत तो
घर बन ही जाता है,
धरती के किसी कोनें मे ।

तुम भी सुनना कभी,
इसकी धड़कनें ।
थार एक दिल है,
धरती की छाती में ।


3. थार यायावर

धूनी रमाते साधू सा,
अपनी ही धुन बहता,
निरपेक्ष पंथी जैसा,
उठाए हुए बरखान ।

अबखाइयां ओढ़ता,
अबखाइयां बिछाता ,
नहीं लेता बिसांई,
एक ठौड़ थम कभी ।

पीत समन्दर में,
उठती लहरों संग,
खाळों-पड़ालों से हो,
खींप-फोगों से बतियाता ।

मखमली रेत की छुअन से,
सहलाते धरती की छाती,
भींच लेता बाहों में भोगी सा,
झूम उठती है वह प्रीत पगी ।

पांवों में चक्कर लिए,
थार यायावर रुका कहाँ,
थिर नहीं है थार,
थिर है तो, थार में तृष्णा ।


4. खुद से दूर...

मौन ओढ़े सरकती रात में,
सोये हो चाँद सिरहानें रख ,
मैं भी लौट आया हूँ, तब
दिल से दिल का सफ़र कर ,

टूटकर बिखर चुके हैं,
मेरी कल्पनाओं में बसे,
मोतियों से मंहगे रिश्ते,
लोलुपता की लगी चोटों से |

साज़िशों की धूप में जले,
विश्वासों के पांव लेकर ,
तुम्हारी नींद में खलल ना पड़े,
फिर जाना चाहता हूँ, दूर कहीं 
बिना आह-आहट के ।

क्षमा करना, प्रियतम थार !
अब भग्नित भीतर लेकर,
यहाँ ज्यादा ठहरना नहीं चाहता,
खुद से खुद मिलना नहीं चाहता 
बस और अब जीना नही चाहता । 


5. मैं, थार और प्यास

थार-सा मैं,
प्यास-सी तुम !
आकुल-सी,
तुम बढ़ती गई,
मैं निढाल-सा,
पसरता गया ।

अंतस के झाड़खों में,
अनचाहे अवरोधों सी रेत,
बरक बांध,
मुळकती रही ।
जूण बूई सीणियों के हेत सी
टसकती रही ।

अपनें ही बनाए खोड-बिलों में
हमनें पाळ तो लिए,
सांप, बिच्छू, गोहरे ।
गलती ये रही,
हम जुगनू नही पाळ सके ।

हो सके तो लौट के देख,
जूण की एक जीवन्त आशा है ,
प्यास आज भी तड़पती है 
थार आज भी प्यासा है ।


6. रेत की नदी और तुम

हमनें कब खाई,
बेतवा की कसमें ।
कब डूबे कच्चे घड़ों पर
दरिया-ए चऩाब में ।
निहारे कहाँ थे,
अपनें अक्स यमुना में ।
कब भीगे सवसन,
किसी पहाड़ी झरनें तले ।

हम तो फगत चले,
रेत की नदी पर |
चलते-फिरते धोरों के बीच,
जहाँ खोए निशान फिर नहीं मिलते ।
कहीं कोई ऊंघता सा फोग,
भर प्रीत में दामन थाम ले ।

धोरों की ढाळ, पड़ालों के पार,
रेत की नदी के उस छोर से ।
तुम्हारे होने का मखमली अहसास,
मेरे दिल को छूता है ऐसे 
थार की रेत, नंगे पांवों को जैसे ।

तुम्हारी सौरम, थार के अमृत-सी
बह गई है भीतर तक,
झड़बेरी के खीचड़े, काचरों की,
सुगन्ध को एकाकार करती ।
यहीं कहीं हो तुम अभी भी
रेत की नदी में, लहर-सी घुली हुई ।

हां, मगर हमनें नही जाना,
बेतवा-चऩाब या झेलम की प्रीत ।
हो सकता है प्रीत के रंग ही हों, 
थार-सी मखमली रंगत वाले ।


7. नीम-नीम दवा

प्रिय मित्र , 
तुम खुश रहो,
शेष सब ठीक हैं
कैसी रहे चिन्ता कहो ।

शहर के सीने पर ये,
गंदी बस्तियां दाग-सी ।
गांव का गंवारपन भी,
फूंके सीने में आग-सी ।
बेशर्मी के ये उदारहण कैसे सटीक है 
बस तुम चिन्ता न करो, शेष सब ठीक है ।

यहाँ प्रजातंत्र का राज है,
जनता तो कोढ में खाज है |
भेड़ों के तो गले ही कटे हैं,
यही तो सनातन रिवाज है |
देश चलेगा उसी पर जो पुरातन लीक है ।
बस तुम चिन्ता न करो, शेष सब ठीक है ।

बाजार-सी सौदागरी है
फैसले हाथ दलालों के ।
जज भी ये तो कबूल चुके,
है हाथ खड़े न्यायालयों के |
डर तो बस आम को, शेष सब निर्भीक है ।
बस तुम चिन्ता न करो, शेष सब ठीक है  ।

नीम-नीम दवा है बस
पहाड़-पहाड़ सी पीर है ।
कह रहे हैं पंडित जी.
ये तुम्हारी तकदीर है ।
सोचता हूँ लिखने वाला भी कैसा गुणीक है ।
बस तुम चिन्ता न करो, शेष सब ठीक है ।


8. समय आएगा

घड़ी का बढ़ता हुआ कांटा,
उद्वेलित नहीं आनन्दित करता है ।
समय गुज़र नही रहा,
आ रहा है ।
मैं साफ पदचाप सुन रहा हूँ ।
मेरे लिए मगर नहीं गाए जाएं,
विदाई गीत ।
बस मैं चाहता हूँ मूक मिलन ।
जो अधूरा रहा,
वो कोई ओर लिखेगा ।
जितना कुछ छूट गया,
वो कोई और संभालेगा ।
चलाचली की वेला में,
तुम साथ दो तो एक बार,
मैं मेरे ही अंदाज़ में हँसना चाहता हूँ ।
समय को आना है आएगा,
मैं, समय को आगोश में कसना चाहता हूँ ।


9. इतिहास गवाह है

राजनीति पर जब भी,
कोई संकट खड़ा हुआ है,
या कि नीति पर सवाल उठा है ।

भूख-गरीबी-बेरोजगारी का,
ग्राफ ज्यौं ऊपर चढ़ा है ।
धूप- हवा- पानी का सौदा,
पूंजीवाद के हक में हुआ है ।

धूल-सनी खेतों की पगडंडी से
राजमार्गों नें जब़रजीना किया है
लाचार गांव कस्बाई गलियों नें,
बहे लहू का हक मांगा है ।

चूल्हों को डुसकता देख,
फटेहाल मजदूर झोंपड़ा,
विरोध को मज़बूर हुआ है ।

मूर्ख बनाने के लिए तब,
हर प्रयास सायास हुआ
सत्ता ने बना तब नशा धर्म को,
जन की रगों में उतार दिया है ।
इतिहास गवाह है स्वयं सत्ता ने
युद्धोन्माद पैदा किया है ।


10. अंतिम कड़ी का बंध

मुंह, सिर, हाथ, चेहरा,
लिसकाए, पुस्काए जाते रहे है ।
सदियों से,
सजाए जाते रहेगे सदियों तक ।

धर्म, वर्ण, वर्ग भाग्य से
टिकाए, बरगलाए जाते रहे हैं
सदियों से,
बचाए जाते रहेंगे सदियों तक ।

किस तरह कुछ चेहरों को,
अपनाया गया, अपने लिए,
बनाने को मोहरे, जन-मन को उनींदा कर
सत्ता द्वारा, सत्ता के लिए ।

घांटियों के बीच विलुम्बी सांसे,
ना भीतर गई ना बाहर निकली,
भीतर जाती, जीवन मिलता,
बाहर आती, पिंड छुटता ।

फिर से कुछ सिर उठेंगे ही,
हां, कुछ हाथ हवा में लहराएं ही,
नाउम्मीद अब भी नहीं हूँ मैं,
अंतिम कड़ी के बंध काटे जाएंगे ही ।



संपर्क :
राजू सारसर 'राज'
शिक्षा विभाग राजस्थान में वरिष्ठ अध्यापक (अंग्रेजी) पद पर कार्यरत
निवास – किशनपुरा दिखनादा 
जनपद – हनुमानगढ़ (राज.)
पिनकोड – 335513
मो. – 9587100377

मणि मोहन की कविताएं


कवि एवं अनुवादक मणि मोहन अपनी सहज काव्यशैली की वजह से जाने जाते हैं। शब्दों के मामले में मितव्ययी ! छोटी-से-छोटी घटनाओं एवं उपेक्षित पात्रों में सहजता से वे कथ्य ढूँढ लेते हैं। प्रकृति एवं परिवेश का असाधारण चित्रण उनकी रचनाओं में मिलता है तथा अनुभूतियों को वे मूर्त रूप दे देते हैं। कविताएं पढ़ने के बाद पाठक बरबस कह उठता है – अरे यार! कवि ने तो मेरी ही बात कह दी। यहीं पर कवि अपनी सार्थकता प्रमाणित करते हैं। उनकी छोटी कविताएं जिन्हें शब्दचित्र कहना उचित होगा, अपने पाठकों से जुड़कर अद्भुत रूप धारण कर लेती हैं। उनकी कविताओं में जीवन के गूढ़ दर्शन समाहित होते हैं तो बिंब समाज के यथार्थ को यथारूप सामने रख देते हैं। कविताओं में शब्दों के चयन पर खास ध्यान रखने वाले कवि अपनी रचनाओं के मामले में भी सजग एवं धैर्यवान हैं। देश की महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्र - पत्रिकाओं के माध्यम से उनकी कविताएं तथा अनुवाद पाठकों तक पहुंचते रहते हैं। कविता–संग्रह 'कस्बे का कवि एवं अन्य कवितायें' और 'शायद' के पश्चात अभी हाल में ही बोधि प्रकाशन की पुस्तक–पर्व योजना के अंतर्गत एक काव्य–संकलन 'दुर्दिनों की बारिश में रंग' पाठकों के बीच आ चुकी है। उनकी कविताओं ने भाषाई सीमाओं का अतिक्रमण भी किया है। इस क्रम में कुछ कवितायें उर्दू , मराठी और पंजाबी में अनूदित हुई हैं। वर्ष 2012 में रोमेनियन कवि मारिन सोरेसक्यू की कविताओं की अनुवाद पुस्तक 'एक सीढ़ी आकाश के लिए' खासी चर्चित रही है एवं मुइसेर येनिया की तुर्की कविताओं के संग्रह का अनुवाद 'अपनी देह और इस संसार के बीच' पाठकों के समक्ष आ चुका है। तो चलिये अपने कवि की अनुभूतियों के साथ अनोखे सफर पर !

1. अपनी भाषा

उदास हुए हम
अपनी भाषा में
मुस्कराए...खिलखिलाए
अपनी भाषा में ।
प्रेम पत्र लिखे
लिखीं प्रेम कवितायेँ
धड़कते रहे दिल
अपनी भाषा में ।
उत्सवों में
रात भर नाचती रही
हमारी भाषा...
भाषा में
मदमस्त हुए हमारे उत्सव ।
प्रार्थनाओं में
गूंजती रही हमारी भाषा...
भाषा में
गूंजती रहीं
हमारी प्रार्थनाएं ।
सुख - दुःख बहते रहे
दीप बनकर
भाषा की नदी में
दूर तक ......


2. थोड़ी - सी भाषा

बच्चों से बतियाते हुए
अंदर बची रह जाती है
थोड़ी - सी भाषा
बची रह जाती है
थोड़ी - सी भाषा
प्रार्थना के बाद भी ।
थोड़ी - सी भाषा
बच ही जाती है
अपने अंतरंग मित्र को
दुखड़ा सुनाने के बाद भी ।
किसी को विदा करते वक़्त
जब अचानक आ जाती है
प्लेटफॉर्म पर धड़धड़ाती हुई ट्रेन
तो शोर में बिखर जाती है
थोड़ी - सी भाषा ...
चली जाती है थोड़ी - सी भाषा
किसी के साथ
फिर भी बची रह जाती है
थोड़ी - सी भाषा
घर के लिए ।
जब भी कुछ कहने की कोशिश करता हूँ
वह रख देती है
अपने थरथराते होंठ
मेरे होंठो पर
थोड़ी - सी भाषा
फिर बची रह जाती है ।
दिन भर बोलता रहता हूँ
कुछ न कुछ
फिर भी बचा रहता है
बहुत कुछ  अनकहा
बची रहती है
थोड़ी - सी भाषा
इस तरह  ।
अब देखो न !
कहाँ - कहाँ से
कैसे - कैसे बचाकर लाया हूँ
थोड़ी - सी भाषा
कविता के लिए ।


3. सौदागर

उन्होंने पेड़ों से कहा
खाली करो यह धरती
हम यहां एक खूबसूरत
शहर बनाने जा रहे हैं
पेड़ों ने सुनी
उनकी यह धमकी
और भय से सिहर उठे
पेड़ों की छाती से चिपके
घोंसलों में दुबके
परिंदे भी सहम गए
सौदागर दरिंदे अपने साथ
कुछ दुभाषिये भी लाये थे
( जो पेड़ों और परिंदों की
भाषा जानने का दावा करते थे )
दरिंदों ने दुभाषियों से पूछा
क्या कहा पेड़ों ने ?
क्या कहते हैं परिंदे ?
दुभाषिये बोले -
हुज़ूर , पेड़ों ने अपनी
सहमति दे दी है ...
और परिंदे भी
उत्साहित हैं
किसी नए ठिकाने पर जाने के लिए
खूब खुश हुए दरिंदे
और दुभाषियों ने ताली बजाईं ।


4. उऋण

अकसर तो यही होता है
कि सर्जक ही करता है आह्वान
अपने शब्दों का ...
पर कभी-कभी
इसके ठीक उलट भी होता है ,
जब शब्द खुद पुकारने लगते हैं
अपने सर्जक को !
जो सुन लेता है
अपने ही शब्दों की पुकार
और चल पड़ता है
समय के अन्धकार में
शब्दों के पीछे-पीछे
उऋण हो जाता है !


5. निर्वस्त्र

अपने चेहरे
उतार कर रख दो
रात की इस काली चट्टान पर
कपड़े भी !
अब घुस जाओ
निर्वस्त्र
स्वप्न और अन्धकार से भरे
भाषा के इस बीहड़ में
कविता तक पहुंचने का
बस यही एक रास्ता है ।


6. इतवार

खूँखार कुत्तों के जबड़ों से
बमुश्किल
छीन के लाया हूँ
सप्ताह का यह दिन
हाथ अभी तक लहुलुहान है ।


7. यह रात

कहीं नींद है
कहीं चीखें
कहीं दहशत
पर सबसे भयावह बात है
कि यह बिना स्वप्न की रात है ।

8. गिनती

गिन रहा हूँ
अपराजिता की लता में लगे
छोटे छोटे नीले शंख
गिन रहा हूँ
अपने अन्डे उठाये
भागती चींटियों को
गिन रहा हूँ
अमरुद के पेड़ पर बैठे हरियल तोतों
और सिर के ऊपर से उड़ान भरते
सफेद कबूतरों को
गिन रहा हूँ
अनगिनित
पेड़ , परिंदे
फूल , तितली
स्कूल से घर लौटते
धींगा मस्ती करते बच्चों को
बहुत अबेर हुई
बन्द हो चुके  तमाम बैंक
खत्म हुए
संसद और विधानसभाओं के सत्र
बन्द हुए
गिनती से जुड़े तमाम कारोबार
धीरे-धीरे फैलने लगा है अँधेरा
पर अभी चैन कहाँ
अभी तो सितारों से सजा
पूरा आसमान बाकी है ।


संपर्क :
डॉ. मणि मोहन
शा. स्नातकोत्तर महाविद्यालय, गंज बासौदा ( म.प्र ) में अध्यापन।
मो. – 9425150346
ई-मेल : profmanimohanmehta@gmail.com

भावना शेखर की कविताएं



अक्सर बहुत कम ही ऐसा हो पाता है कि व्यक्ति बचपन में उपजे शौक को अपनी पूरी जिंदगी में आकार दे। बहुत–से शौक एवं सपने तो इस भाग–दौड़ भरी जिंदगी में पीछे छूटते चले जाते हैं। परन्तु ऐसे व्यक्तित्व जो इन्हें अपने जीवन में उतार लेते हैं, निश्चित रूप से प्रेरक हैं। डॉ. भावना शेखर ऐसे ही बहुआयामी व्यक्तित्व की स्वामिन हैं जिन्होंने अपने बूते पारिवारिक, सामाजिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक परिवेश में अपनी सक्रिय भागीदारी तय की है। यह बचपन से ही लेखन का शौक एवं पारिवारिक परंपरा का प्रभाव था कि अचानक उन्होंने लेडी श्रीराम कॉलेज में राजनीति शास्त्र को छोड़ भाषा के विषय हिंदी एवं संस्कृत में मास्टर डिग्री हासिल कर डॉक्टरेट की उपाधि धारण की। संप्रति पटना के प्रतिष्ठित नोट्रेडैम एकेडमी की वरिष्ठ शिक्षिका के कई कविता–संग्रह एवं कहानी–संग्रह का पाठकों के पास पहुंचना हिंदी साहित्य के प्रति उनके लगन एवं समर्पण की कहानी बयां करता है। सत्तावन पंखुड़िया, साँझ की नीली किवाड़ (काव्य–संकलन) जुगनी, खुली छतरी (कथा–संकलन) एवं जीतो सबका मन, मिलकर रहना (बालगीत–संग्रह) के पश्चात् एक नया काव्य–संग्रह 'बन गई हूं एक जंगल' प्रकाशनाधीन है। उनकी कहानियों ने कई संस्थाओं के प्रथम पुरस्कार जीते हैं तो कविताओं ने संवेदना के नए आयाम तय किए हैं। पटना एवं बाहर के शैक्षिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों में लगातार शिरकत करते हुए वे अपने पाठकों एवं प्रशंसकों से जुड़ी रहती हैं।

भावना शेखर की कविताओं को पढ़ें तो पता चलता है कि वे कहीं से उसके निर्माण की सामग्रियां नहीं जुटाती...शब्दों की बाजीगरी के फेर में नहीं पड़ती बल्कि निज–जीवन के अनुभव, संवेदना, परिवेश सभी सहजता से उनकी कविताओं में समाहित होते जाते हैं तथा एक ख़ूबसूरत सृजन पाठकों के समक्ष होता है। कविताओं में वे अतिरेक से बचती हैं तो यथार्थ का सामना भी करती हैं। उपेक्षित मूक चीजों में वे अभिव्यक्ति ढूंढती हैं तथा संवेदना के सूक्ष्म स्तर तक उनकी पहुँच है। उनका प्रतिनिधित्व करती कविताएं आपके लिए !

1. हक़

वो खड़ा है बरसों से
गली के कोने में
रोज़ सुबह देखती हूँ
किसी बच्चे, अधेड़ पुरुष 
या युवा महिला को
उसका रुख करते 
सबके हाथ में है
एक–एक छोटा बड़ा 
अमूमन काला पॉलीथिन
जिसमे ठूंसे हैं 
धूल–धक्कड़, गन्दगी 
सब्ज़ियों, अण्डों के छिलके
गले हुए टमाटर

मुँह पर कसी गाँठ में क़ैद है
घर भर की कालिख और दुर्गन्ध
लाने वाले के माथे पर 
शिकन है घिन की
एक झटके से
खुले मुँह के हवाले कर देते हैं सब
अपना–अपना कचरा
खींचते हैं 
लम्बी साँस चैन की
गोया सर पर का गट्ठर
उतार फेंका हो ज़मीन पर

अब उसमें पसरी है
मुहल्ले भर की बेतरतीबी
टूटन और बिखरन
समूची मलिनता
कितना बड़ा है इसका जिगर
कितना दिलदार है
बाहें फैलाए 
अतिथि देवो भव की तर्ज़ पर
सबकी अगवानी को तैयार
हर सुबह, हर दोपहर
शाम तलक
हर किस्म के ज़हर को
हलक में उकेरता 
जैसे नीलकंठ

कलयुग में भी होते हैं
ऐसे नीलकंठ
ताउम्र ढोते औरों की गन्दगी
ग़लती, कचरा और अपराध
ख़ामोशी से
ठीक कूड़ेदान की तरह

उन्हें भी चाहिए
अपने हिस्से की 
थोड़ी ज़मी थोडा आसमां
बराबर का हक़
हमे सुनना है
समझना है
उस मौन को
विस्फोट से पहले


2. जानवर

कल मिले हैं दो बोरे
लहू के चकत्तों वाले
हाईवे से सटे जंगल में
झाड़ियों के भीतर

कई जानवर रहते हैं
इस जंगल में
जो दुबके हैं
अपनी अपनी मांद में
बेहद डरे हुए
और फिक्रमंद

आज बुज़ुर्गों ने बुलाई थी मीटिंग
किया है फैसला
अब छोड़ना होगा सबको
यह ठिकाना
उनकी खैर नहीं
कहीं फिर से न आ जाए
दूसरे जंगल से
दो पैरों वाले जानवरों का 
वही जत्था

कहीं उनका शिकार न बन जाएँ
इस बार
ये बेचारे जंतु
पैने दांतों और नाखूनों से
काम नही चलेगा
उनके हथियार
ज़्यादा कारगर हैं

तरीका भी कितना अनोखा
शिकार को ठूंस देते हैं
बन्द बोरे में
फिर ज़ोरदार वार
अपने ही खिलौनों से
हाँ, सुना है
इन्हीं खिलौनों से खेलते हैं
मैदान में 
बारह जानवर एक साथ
खिलौना कब हथियार बन जाए
भरोसा नहीं

सो, 
कल मुँह अँधेरे 
छोड़ देना है जंगल
क्या जाने
सुबह फिर से
घुटी–घुटी चीखों वाले 
कसमसाते बोरों को घसीटता 
चला आए
हमसे भी ताक़तवर
वही झुण्ड जानवरों का


3. औरत और पायदान 

रोज़ शाम वो लौटता है घर
कितनी धूल मिट्टी और
बीमारी के कीटाणु लिए
अपनी कमीज़, जूतों और मन पर
थकन, कोफ़्त, झल्लाहट
उदासी और मायूसी लिए
दफ्तर, मेट्रो, सड़क, ट्रैफिक
सारी चिल्ल–पौं
आग में घी डालती है
दौड़ता है एक ज्वालामुखी
घर की ओर फटने से पहले
गोकि जानता है
जूतों के साथ साथ 
मन भी हल्का हो जाएगा
घर ने दो साधन जो मुहैया करा रखे हैं
दरवाज़े पर पड़ा एक पायदान
और इंतज़ार में खड़ी 
औरत..!


4. चुल्लू भर प्रेम

कल आकाश ने उंडेल दिए थे
अनगिन अमृत कलश
रेत के टीलों पर
न पसीजा उनका मन
न भीगी उनकी रूह
टीले रहे वैसे ही 
सूखे और बंजर

फिर से आई है आज
झीनी–झीनी बारिश
टूटे दिल से बरसा है
बादल ज़रा–ज़रा

टीलों के पास पड़े हैं
कुछ ठीकरे, कुछ टूटे हुए मटके
उथली सतह वाले
सबके पेंदे में है
धूसर पानी
कल की बारिश का
जीने की तृष्णा को सींचता
मटियाली हँसी बिखेरता

हताश टीलों के पायताने
धूसर पानी के आगोश में
नाचती है
आज की मद्धम बारिश

जब भी गिरतीं नन्ही बूंदें
पेंदे के पानी में
जिजीविषा के घाघरे से
दस बीस वर्तुल 
जनमते हैं
खिलखिलाते हैं
ओझल होने से पहले

छिन भर का जीवन देती हैं
मासूमियत से लबरेज़ बूंदें
जी उठता है ठीकरों में जमा
धूसर पानी
भर देती बूंदें
संगीत, स्पंदन, नर्तन, कीर्तन
टूटे हुए मटकों में

नेह से ही उपजता है नेह
बस तोडना पड़ता है
ज़िद्दी टीलों को
बनानी पड़ती है
कुछ नीची ज़मीन
भरना पड़ता है
चुल्लू भर प्रेम
मन के पेंदे में।


5. चाहतों का सूत 

सितारों सा टाँक रखा है
तेरी आवाज़ के मनकों को
निगाह को भी चुन लिया 
धूप के कतरों सा

अपनी चाहतों का सूत 
कातती हूँ रोज़ ब रोज़
तेरी यादों की तकली पर

क्या मालूम ख्वाबों की झालर 
कब पूरी होगी
कब सजाऊँगी वन्दनवार
सूने मन की ड्योढ़ी पर


6. प्रेम को मुक्त करो प्रिय !!

कैसे उठाऊँ वो फंदे 
जो गिर गए है
कई सलाइयों नीचे
उधड़ता जा रहा है 
वक़्त का नीला स्वेटर

मैं कैसे भरूँ 
उन झिर्रियों को
जिनसे बह गयी
समूची तरावट

कैसे तेरा मन सिक्त करूँ
मिल सके जो मुझे भी
चिन्दी चिन्दी नमी 

मैं तलाशती थी पहले भी
प्रेम की उद्दाम धारा
तेरे अव्यक्त मन के बियाबान में 

अब तो लगता है 
तुम बन्द कर आये हो उसे 
पाताल की किसी गुफा के 
सात तालों में

दे दो मुझे वो चाबी 
मेरे प्रियतम!
बहाने दो रसधार

मुझे भय है 
कहीं लुप्त न हो जाए
सरस्वती की तरह
मेरे प्रेम की गंगा जमुनी धार

संपर्क :
डॉ. भावना शेखर
ईमेल – bhavnashekhar8@gmail.com

जीवन क्या जिया : उत्कर्ष

'जीवन क्या जिया' के उत्कर्ष खंड को उसके सर्जक से ही शुरू करना उचित समझता हूं। राजकमल चौधरी के सगे चाचा नरेंद्र नारायण चौधरी बालक तारानंद के गुरु थे, ऐसे में फूल बाबू की चर्चाओं से भला वे कैसे विलग रह पाते। परिवार में कई प्रसंगों पर चर्चाएं होती थीं तथा यह भी ज्ञात हो चुका था कि वे लेखन करते थे, पर अद्भुत लेखन! इसका पता अभी तक नहीं चला था। इसका भी श्रेय महिषी के तारास्थान को मिलना था। वहीं राजेंद्र की पान–दूकान पर पोस्ट ऑफिस में नौकरी करनेवाले विनोदजी द्वारा यह जानकारी मिली कि राजकमल ने लेखन के क्षेत्र में हिला देने जैसी घटना की सृष्टि की है। फिर क्या, किशोर होते तारानंद एवं अन्य साथियों में जूनून पैदा हो गया। उन्होंने राजकमल परिवार के सरस्वती पुस्तकालय से शुरू कर सहरसा, सुपौल, दरभंगा, पटना आदि शहरों की दूरियां नाप डाली।  'राजकमल रचनावली' अपना आकार ले रही थी, पर उनके व्यक्तित्व की कई उलझी कड़ियां तब सुलझी जब राजकमल के रिश्ते में चाचा उपेन्द्र चौधरी उर्फ़ परदेशी काका से इस मार्फ़त बातचीत हुई। ये उत्साही लड़के उन्हें परदेशी काका क्यों कहते थे, उन्हें भी पता नहीं था। बस कहते थे क्योंकि फूल बाबू उन्हें इसी नाम से पुकारते थे। रूढ़ियों एवं वर्जनाओं को तोड़ने खातिर राजकमल की तस्वीर पूरे ग्राम–प्रांतर एवं साहित्य जगत में कुछ अलग ही बन रही थी, जिसका अंत उनकी मृत्यु के बाद भी नहीं था। परदेशी काका ने ही उनके व्यक्तित्व को खोलकर इन उत्साहियों के सामने रखा। राजकमल का कहना था― " मुझे बनना या बर्बाद हो जाना है, इसका निर्णय सिर्फ मेरे हाथ में है। फैसला मैं करूँगा। किसी दूसरे को न फैसला करने दूंगा न श्रेय लेने दूंगा। " इसी प्रसंग में महिषी में परदेशी काका एवं उत्साही जिज्ञासुओं के बीच हुए संवाद का अंश आप सबके समक्ष, सादर !


–देखो तारानंद, वह लड़का बारह की उमर के बाद ही अकेला पड़ गया था। हमेशा सोचता रहता। स्कूल में लोकप्रिय था। वहां तरह तरह की प्रवृत्ति के लड़के रहते थे। सबकी पारिवारिक पृष्ठभूमि भी अलग अलग थी। आदतें भी अलग अलग थीं। फिर, वह बाजार में रहता था। पिता के साथ रहता था तब भी, हॉस्टल में रहने लगा, तब भी। बाजार की अपनी जीवनशैली होती है। वह गांव के जीवन की तरह शांत स्थिर नहीं होता। वहां तरह तरह के बुलबुले उगते रहते हैं। अच्छी चीज रहती है, तो बुरी चीज भी रहती है। वह सबकी संगत में आता गया। दूसरी एक बात क्या होती है कि अगर तुम्हारा जीवन उपेक्षित है तो तुमको उपेक्षितों के प्रति हमदर्दी होगी। उसका दर्द तुम समझना चाहोगे। अब, कोई पासी का बेटा है। परिवार से उपेक्षित है। उसकी संगत में आया। वह पासी का बेटा ताड़ खजूर से ताड़ी उतारना जानता है। वह उसके कुल का पुश्तैनी रोजगार है। फिर, यह भी बात है कि पासी के बेटे की हिम्मत तो ऐसी नहीं होगी कि इतने बड़े हेड मास्टर साहब के बेटे को कहे कि चलो, ताड़ी उतारकर पीते हैं। तो, शुरुआत इस तरह हुई कि अकेलेपन के उपेक्षित समय में, तनाव से मुक्ति पाने की प्लानिंग कर रहा है तो आइडिया आया कि उस लड़के को साथ करके तड़बन्ना चला जाए और ताड़ी उतारकर पीया जाए। इस तरह उसके जीवन में दुर्व्यसनों का आरंभ हुआ। ताड़ीवाली बात तो हम बिलकुल ही वास्तविक बोले हैं। एक बार तो गाछ पर चढ़कर ताड़ी उतारने के चक्कर में वह गिर भी गया था। हड्डी टूट गई थी।
–हां काकाजी, संगत की भी तो रंगत होती ही है ।
–देखो, मानते हैं कि होता है। कहावत भी है संगत से गुण होत है संगत से गुण जात। लेकिन, राजकमल के साथ ठीक ठीक यही हुआ, यह भी तुम नहीं कह सकते हो।
–उनके साथ क्या हुआ था ?
–यह तुमको हमेशा याद रखना पड़ेगा कि राजकमल के व्यक्तित्व का निर्माण बहुत उदात्त तरीके से शुरू हुआ था। और, तुम यह भी नहीं कह सकते हो कि यह उदात्तता बारह की उमर के बाद खतम हो गई। बहुत चीजें तो ऐसी थीं, जो कुल का संस्कार थीं। चारों तरफ वैसा ही होता था। वैसा ही होते वह देखता आया था। लालभाई में दोनों चीजें थीं–नैष्ठिकता भी थी और आभिजात्य का गुण भी था। पितामह फूदन चैधरी की प्रतिष्ठा का भी असर था। बुधवारय कुल के गौरव की परंपरा सामने थी। फिर, ऐसी बात भी नहीं थी कि वह आर्थिक रूप से विपन्न परिवार का हो। वह आर्थिक कष्ट में था, यह अलग बात है। लेकिन जिस माहौल में पालन पोषण हुआ, वह विपन्न नहीं था। ऊपर से ब्राह्मण था। मैथिल ब्राह्मणों में बुधवारय कुल को एक जमाने में श्रोत्रिय कुल माना जाता था। इसलिए बाकी ब्राह्मण इसे सम्मान की दृष्टि से देखते थे।
–हां काकाजी, यह बात तो है ।
–राजकमल के व्यक्तित्व में, तुम देखोगे कि शालीनता की कमी कभी नहीं हुई। संस्कारहीन वह कहीं भी दिखाई नहीं पड़ेगा। उजड्ड गंवार जिसको कहा जाए, ऐसा कहीं देखते हो उसको ?
–नहीं। कभी नहीं।
–फिर देखो। जो दायित्व उसने एक बार मन से स्वीकार कर लिया, उसको जिंदगी भर निभाया। किसी बात के विरुद्ध हुआ तो विरोध भी लगातार बना रहा। किसी भी दृष्टि से तुम देखो तो पाओगे कि वह एक जिम्मेवार आदमी था। अगर उसने किसी के साथ बदतमीजी की, कोई झूठ बोला, किसी को धोखा दिया–तो वह सब जान बूझकर, सोच समझकर, प्लानिंग बनाकर किया। उस आदमी के साथ उसको यही करना चाहिए था, इसलिए किया।
–हां, ये बात तो समझ में आने लायक है।
–इसलिए तुम जो बोले संगत और रंगत। वह बात उसमें नहीं थी कि कहीं किसी के साथ हुए तो फिर उसी के रंग में रंग गए। उसको दौरा चढ़ता कि उस रंग में रंगना है, तब वह उस तरफ बढ़ता था।
–बहुत पते की बात आप कह रहे हैं और कह भी आप ही सकते हैं काकाजी!
–तो फिर, धीरे धीरे क्या होने लगा कि वह ज्यादा से ज्यादा समय घर से बाहर रहने लगा। नवादा की बात बताते हैं। बस स्टैंड के पास एक चाय की दुकान थी। वहां वह दस बजे जाकर बैठ जाता और शाम चार बजे तक वहीं बैठा रहता था। उसके पास एक नोटबुक रहती थी। दिनभर वह लिखता रहता था। और, यह तो थोड़ा आगे चलकर हुआ। इसके पहले यह दौर चला कि वह घर से भाग जाता था। पंद्रह दिन, महीना तक गायब रहता था। लेकिन, फिर बताते हैं, वह कहां जाएगा, किसके साथ क्या करेगा–इसका फैसला कोई दूसरा आदमी नहीं कर सकता था। हमेशा इसका फैसला वह खुद करता था। नवादा के दिनों के बारे में कई बातें उग्रानंद ने भी अपने संस्मरण में लिखी हैं। उनका यह संस्मरण अब तक अप्रकाशित है। मुझे इसकी प्रति डॉ– रमानंद झा रमण (प्रसिद्ध मैथिली समालोचक) के पास देखने को मिली। उग्रानंद ने लिखा है कि नवादा में कोई भी आदमी उन्हें राजकमल के नाम से नहीं जानता था। लिखने पढ़ने में तो उनकी गति बाद को हुई, उसके पहले वह वहां एक बदमाश गुंडे के रूप में कुख्यात थे। वहां एक दबंग सरकारी ठेकेदार था, जो अपनी दबंगई कायम रखने के लिए हर अनैतिक काम करता था, तरह तरह के हथकंडे अपनाता था। राजकमल यूं तो उमर में उससे काफी छोटे थे, लेकिन उनकी साहसी प्रवृत्ति ने उन्हें ठेकेदार का बहुत करीबी बना दिया था। किसी को भी पीट देना उनके लिए बहुत मामूली बात थी। उग्रानंद के ही शब्दों में–‘वह इतना जीवट का आदमी था कि कितनी भी भीड़ हो, अकेले वह हाथ छोड़ देता था। वह अपने घर पर भी नहीं रहता था। हॉस्टल के ही एक कमरे में दो–तीन विद्यार्थियों के साथ रहता था। हॉस्टल के अहाते में ही उसका डेरा था और हॉस्टल से सटा हुआ। मगर वह जाता था केवल खाना खाने के लिए। इसके अतिरिक्त उसे अपने पिता के क्वार्टर से कोई वास्ता नहीं था। दिनभर वह उस गंदी गली के उस गंदे कमरे में अपने दोस्तों के साथ ठर्रा पिया करता था और फ्लश खेला करता था।’
–भागलपुर के दिनों में वह कहां जाते थे ? आपको तो कुछ कुछ जरूर बताते होंगे!
–झूठ बताता था कि दुलारीबाई कि प्यारीबाई वेश्या के पास गए थे, वही पंद्रह दिन नहीं आने दी। कभी बताता कि आसाम बोर्डर पर स्मगलिंग का धंधा कर रहे थे। बताने का मकसद यह होता कि हमारी मारफत लालभाई को पता चले और वे दुखी हों। लेकिन हम थोड़ा सोच समझकर ही उनको जानकारी देते थे। कभी–कभी पिता के प्रति आक्रोश में आता तो उनको पतित, धूर्त, अय्याश, मक्कार वगैरह कहता। हम उसको शांत कराते। दूसरी तरफ लालभाई भी उसके लिए इसी प्रकार का संबोधन व्यवहार करते। दबी जुबान से हम उनको कहते भी कि लालभाई, उसको क्षमा कीजिए, अपनत्व दीजिए। पिता के साथ राजकमल के कठिन संबंध का कुछ जिक्र उग्रानंद के संस्मरण में भी आया है। उन्होंने लिखा है कि अपने स्कूल के हीरो थे। पढ़ने में सचमुच तेज थे लेकिन पढ़ाई से अधिक आवारागर्दी में मन लगता था। दो–चार लड़के हमेशा उनके साथ पाए जाते । शुरू शुरू में उनके पिता इस सबके लिए उन्हें बहुत पीटते थे। मगर, बाद में उन्होंने ऐसा विद्रोह किया कि पिता ही उनसे डरकर रहने लगे। उन दिनों राजकमल खुलेआम बोला करते थे कि एक दिन वह समूचा छुरा उनकी लंबी तोंद में घुसेर देगा और सारी अंतड़ियां बाहर निकाल लेगा। ऐसा इसलिए था कि पिता उन्हें बहुत सताते थे, उसकी अवहेलना करते थे। उन्होंने यह भी लिखा है कि ‘उसके पिता बहुत ही पुराने खयाल के आदमी थे। अधिकतर पूजा पाठ में समय बिताते थे। बड़े कड़े मिजाज के आदमी थे। इतना तक कि अपने स्कूल के एक शिक्षक को उन्होंने इसलिए हटा दिया था कि वह सिगरेट पीता था। मगर इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि उस धार्मिक पिता का पुत्र इतना अधार्मिक कैसे हुआ! राजकमल की अधार्मिकता उसके पिता की अवहेलना की प्रतिक्रिया थी। पिता बहुत अधिक भोजन करते थे। अच्छी–अच्छी चीजें खाते थे। मगर राजकमल तथा उसके दोनों छोटे भाइयों को नौकरों जैसा खाना मिलता था। राजकमल के कपड़े फट जाते थे, जूते टूट जाते थे, मगर पिता को इसकी परवाह नहीं रहती थी। राजकमल यह सब देखकर गुस्से से भर जाता था। मगर पिता का दबदबा ऐसा था कि उनके सामने वह अपना गुस्सा अच्छी तरह प्रकट भी नहीं कर सकता था । इसीलिए पिता को तंग करने की नीयत से वह गलत रास्ते पर आ गया था ।’
–काकाजी, इस प्रकार का आक्रोश क्या किसी दूसरे के प्रति भी होता था ?
–देखो, आक्रोश उत्पन्न करनेवाला एक ही व्यक्ति उसके जीवन में था। वे थे उसके पिता । लेकिन देखना पड़ेगा न कि पिता से क्यों आक्रोश होता था, क्या बात थी, क्योंकि उसके सबसे प्रिय व्यक्ति भी तो पिता ही थे। तब, बात यह थी कि पिता में आक्रोश उत्पन्न करनेवाली जो बात थी, वह बात, वह प्रवृत्ति यदि कहीं दूसरे व्यक्ति में दिखती थी तो उसके प्रति भी आक्रोश होता था। उसमें मूल बात यह थी कि साहब, जैसे आप दिखाई पड़ रहे हैं या अपने आपको घोषित कर रहे हैं, वैसे असल में हैं नहीं । तो उसने ऐसा भी किया कि जो बात उसको सही लगी, उसको उसी रूप में आचरण करने लगा। यही बात उसके साहित्य में भी है। सुनते हैं कि उसके जमाने में और भी कई लेखक विश्व–साहित्य में थे, जो इसी विचारधारा को मानते थे। उसका पत्राचार भी था उन लोगों से।
–काका जी, हम उनकी कल्पनाशीलता के बारे में बात करना चाह रहे थे। और, खास करके इस बारे में कि आप बोले थे कि इसी ने उनको मार दिया।
–देखो तारानंद, राजकमल जब यह बात बोला कि जीवन तो मैंने सिर्फ बारह साल की आयु तक जीया, बाकी समय तो दुःस्वप्न में बीता, तो वह वैसे ही नहीं बोल रहा था। इस बात में बहुत भारी मर्म है। उस मर्म को समझना चाहिए ।
–बताइए ।
–एक तो यह कि बारह वर्ष के बाद का जो उसका जीवन था, वह लगातार तनाव, संघर्ष और उथल–पुथल से भरा रहा। शुरुआती समय में तो यह केवल मानसिक था, बाद में इसका दायरा दिनोंदिन बढ़ता ही गया। कभी वह चैन से रहा ही नहीं। ऊपर से, उसकी जीवनशैली ऐसी थी कि वह हमेशा एक्टिव दिखता था। हमेशा कुछ नया करने की ताक में लगा रहता था। नए–नए विचार आते थे। यह कल्पनाशीलता के ही कारण होता था। हमेशा किसी–न–किसी अभियान में लगा ही रहता था। मित्रों की संख्या भी अनगिनत थी। बहुत लोग तो समझ भी नहीं पाते थे कि वह लिखता कब है, क्योंकि लोग तो हमेशा उसको किसी न किसी मामले में व्यस्त ही देखते। वह अक्सर बताता था कि उसको नींद नहीं आती है। लिखने का काम भी वह रात में बिस्तर पर जाने के बाद ही करता था। इस कारण से आई हुई नींद भी भाग जाती थी। कभी–कभी वह यह भी बताता था कि खौफनाक दृश्य दिखाई पड़ते हैं। अब भाई, शरीर की तो सीमा होती है। नींद तो स्वास्थ्य के लिए जरूरी चीज है। और नींद तो आपको तभी आएगी, जब आपका दिमाग चैन में होगा। और, उसका दिमाग कभी चैन में रहा ही नहीं। उधर से भागा तो इधर, इधर से भागा तो उधर। यही चलता रहा। हम समझते हैं कि यह उसकी भयानक कल्पनाशीलता के ही कारण हुआ। शुरू में तो होता यह था कि समय काटना था या पिता से बदला चुकाना था। बाद में उसका रूप बदलकर रचनात्मक हो गया। लिखने पढ़ने में वह लग गया। लेकिन दिमाग कभी थके नहीं, कल्पनाशीलता लगातार बरकरार रहे, बल्कि और बढ़े और बढ़े–इसके लिए वह जीवननाशक चीजों की ओर बढ़ गया। उसका नशा सेवन या गलत लोगों की संगति–यही चीज थी। और, इसका तो कोई अंत नहीं है न! फिर आप आइडिया मास्टर भी हैं। सिगरेट पर सिगरेट पिये जा रहे हैं लेकिन ताजगी नहीं आ रही है, थकान नहीं मिट रही है, तब आप क्या करते हैं कि एक बार में दो सिगरेट ओठ पर लगाते हैं। फिर, दो और लगाते हैं, फिर लगाते हैं । उस दिन तो आपको ताजगी मिल जाती है, लेकिन फिर अगले दिन ? इस दुष्चक्र में वह फंस गया था जी। उसका टेलेंटेड दिमाग ही उसको लेकर डूब गया। नशा का तो अंत नहीं है, लेकिन जीवन का तो अंत है न!

संपर्क :
तारानंद वियोगी
मोबाइल – 09431413125 
ईमेल – tara.viyogi@gmail.com

संजय कुमार 'कुंदन' की नज़्में


यह कहना कतई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि संजय कुमार 'कुंदन' अपनी ग़ज़लों एवं नज़्मों को जीते हैं। उन्हें जाननेवाले जानते हैं कि रचनाकर्म के प्रति इतना समर्पण दुर्लभ है। उनकी रचनाओं में जीवन के हरेक पहलू आते हैं...अपने पूरे यथार्थ एवं पूरी बेबाकी के साथ। बेचैनियाँ, एक लड़का मिलने आता है एवं तुम्हें क्या बेकरारी है के रचनाकार को पढ़ना–सुनना उम्मीदों एवं अहसासों की दुनिया में यात्रा करने जैसा है। उनकी रचनाओं में कभी हम समय के साथ होते हैं तो कभी भावों की दुनियां में बहुत आगे निकल जाते हैं। उनकी शुरुआती ग़ज़लें एवं नज्में आज भी समय से संवाद करती हैं। यही उनकी सार्थकता है। उनकी रचनाओं का सफर एक आम आदमी का सफर है। चलिए उनकी नज़्मों के साथ अनोखे सफर पर।


1. इक मुहज़्ज़ब सी दूरी

हाँ, वही रास्ते...हाँ, वही रास्ते
कितने दिल की
उन्ही नारसा सरहदों को
इक मुहज़्ज़ब सी दूरी से
छूकर गुज़रते रहे
इक मुहज़्ज़ब सी दूरी

दिल की सरहद के सारे मकाँ
अपने दरवाज़ों पे
कुछ तकल्लुफ़ के ताले लगाए हुए
अपने कमरों और आँगन के
ख़ुदसर तपाकों पे कुछ आहनी
सख़्त परदे गिराए हुए
दूर ही दूर से यूँ ही मिलते रहे
ऐसे मिलने का हासिल था वीरानापन
एक सहरा की हू
जैसे सूखे हुए ज़र्द पत्तों पे
चलने की आवाज़ हो

ऐसे वीरानों में
जिनपे आबादियों का हो प्यारा गुमाँ
सुब्ह से शाम तक
चंद सायों से मिलते हुए
घुलते मिलते हुए
अब तो वो शाम का
कुछ फ़सुर्दा दिया
टिमटिमाने लगा
जाँ की कमज़ोर लौ
थरथराने लगी

अब उन्ही रास्तों पे
थकन गिर गई
सोच का वो शातिर सा मुनकिर
उभरने लगा
छीनने के लिए
एतबारों के नाज़ुक खिलोने
दिल के बच्चे की जागीर से

बेअमां रास्तों का मुसाफ़िर
गर्मजोशी का रख़्ते-सफ़र
एतबारों की गठरी सहेजे हुए
हाँ, इन्हीं रास्तों पे
चले कब तलक

_________________________________
नारसा–पहुँच के बाहर, मुहज़्ज़ब–शिष्टाचारी, ख़ुदसर–ज़िद्दी, आहनी–लौह, सहरा–रेगिस्तान, फ़सुर्दा–उदास, शातिर–चालाक, मुनकिर–नहीं माननेवाला, बेअमां–आश्रयहीन, रख़्ते-सफ़र–यात्रा का सामान.


2. यूँ ही बेसबब

यूँ ही बेसबब...
ज़रा शह्र की आज
सड़कों पे घूमा

न दफ़्तर का चक्कर,
न घर के मसाइल
न सोचा के हैं मुल्क के कैसे रहबर
न देखा उसे रास्ते के किनारे
जिसे कोई भी देखता ही नहीं है
न चाहा के
बाँटूँ मैं ग़म दूसरों का
न कोशिश ये की
शब की नादानियों में
जो ख़्वाबों को देखा है
ताबीर कर लूँ
न तरसा के
जो शायरी अब तलक की
उसे बैठकर चाय की इक दुकाँ पे
सुनाकर करूँ
ख़ुदसताइश का सामाँ

यूँ ही बेसबब और यूँ ही बेइरादा
ज़रा शह्र की आज सड़कों पे घूमा
मगर आज जब थक के बिस्तर पे लेटा
वो ख़्वाबों का चेहरा बड़ा अजनबी था
कुछ ऐसे सवालात थे सब्त जिसपे
जवाबात जिनके थे सड़कों पे बिखरे


3. कैटवॉक

मुक़ाबिल आईने के
मेकअप के लिए मसरूफ़
ये दुनिया
ये नस्लो-ज़ात के मेकअप
ये मज़हब का भड़कता तुन्द ख़ू ग़ाज़ा
अजब मेकअप के जो इन्सान की
सूरत बदल दे
और फिर
फ़सादों के इन्हीं स्टेजों पर
मुनक़्क़द हों कई फ़ैशन परेड
और फिर फैशन परेडों के
ये संजीदा से जज
यही पंडित, यही मुल्ला, यही अपने सियासत दाँ
ये देखें रैंप पर ये कैट वॉक
के जिसमें मुल्क के हर गोशे से
आए नुमाइन्दे
असलहे हाथों में लेकर
कई चौंकानेवाले पैरहन में
के जिनपे ख़ून के धब्बे हों
हाँ, उसी मासूम ख़ूँ के
जो बहते थे कभी
किसी मासूम बच्चे,किसी पुर मामता माँ,
सजीले से जवाँ, किसी लाग़र से बूढ़े की
रगोँ में
बड़ी मेहनत हुई होगी,
अजब फ़नकारी की होगी
खेंच कर ऐसा लहू पैरहन को
अपने रंगने में
सिला इसका तो देंगे
ये मुन्सिफ़
यही पंडित, यही मुल्ला, यही अपने सियासत दाँ
ये जन्नत बख़्श देंगे, खोल देंगे स्वर्ग के दर
ओहदे भी देंगे,
हुब्बुलवतनी के कई एजाज़ देंगे
मगर मैं सोचता हूँ
ये घबराई हुई दुनिया
हज़ारो ही मसाइल सर पे ले के
खुली सड़कों पे
अजब इक बदहवासी में
लिए चेहरे पे दीवाना तआस्सुर
बस इक रोटी के पीछे
दौड़ती और भागती दुनिया
भला कब तक
अपने ख़ूँ के क़तरे-क़तरे को
इन्हीं फैशन परेडों में रंग भरने
के लिए बिना कुछ सोचे समझे
अता करती रहेगी 


4. ज़िन्दगी सख़्त है

ज़िन्दगी सख़्त है
ज़िन्दगी सख़्त है

बख़्शती ही नहीं
इक ज़रा भी ख़ता
कोई लम्हा करे
कोई पोशीदा सा एक जज़्बा बदलता हो जब पैरहन
चोरी चुपके उसे देख ले
बख़्शती ही नहीं कोई मासूम सी भूल हो

चाँदनी रात में
चन्द यादों की पकड़े हुए ऊँगलियाँ
घूमते उस मुसाफ़िर को माफ़ी नहीं
ज़िन्दगी के कई काम उसके तआक़ुब में हैं
ये ही बेहतर है दूकाँ पे जा के कहीं
घर की ख़ातिर रसोई का सामाँ मुहैय्या करे
अपने दफ़्तर की फ़ाइल पे ख़म हो ज़रा
अपने आक़ाओं की इर्तिक़ा के लिए
झूठ-सच की मिलावट का धन्धा करे
चाँदनी रात में
एक बेकल सफ़र का है क्या फ़ायदा
ज़िन्दगी सख़्त है
ज़िन्दगी सख़्त है

देख लो, देख लो
अपने अहबाब के ऊँचे-ऊँचे मकाँ देख लो
क़ीमती कार का कारवाँ देख लो
बैंक में उनके लॉकर को देखो ज़रा
उनकी फ़र्बा अहलिया, हसीं दाश्ता
हर  क़दम पर हिफ़ाज़त का इक सिलसिला

है सलाम उन रफ़ीक़ों को
जो बिक गए
चाँदनी रात से उनको मतलब न था
है सलाम  उन हबीबों को
दाना थे जो
तर्क मासूमियत को जिन्होंने किया

फिर भी लगता है ये
चाँदनी रात में
भूली-बिसरी हुई याद की ऊँगलियाँ
रूह के ज़र्फ़ में
क़तरा-क़तरा है ताक़त कोई डालती
चाँदनी रात की बेसबब राह पर
घूमता राह-रौ
जिससे ये कह सके
हम लताफ़त के लश्कर के जाँबाज़ हैं
सख़्ती गर है परिन्दा तो शहबाज़ हैं
तुम ये कहते रहो
ज़िन्दगी सख़्त है
ज़िन्दगी सख़्त है