अंतिम अरण्य - आंतरिक दुनियाओं का पारदर्शी यथार्थ : योगेंद्र कृष्णा



निर्मल वर्मा का उपन्यास ‘अंतिम अरण्य’ बीसवीं सदी की तरफ से इक्कीसवीं सदी की किवाड़ पर एक आत्मीय दस्तक की तरह था, जिसे हिंदी साहित्य के बड़े ही आत्मीय पाठकों ने उतनी ही आत्मीयता से पढ़ा। आज भी इस उपन्यास के पाठक इसकी ओर फिर-फिर लौटते हैं। योगेंद्र कृष्णा हमारे बीच के ऐसे ही आत्मीय कवि, गद्यकार एवं गंभीर पाठक हैं जिन्होंने इस रचना की गहराइयों में जाकर निर्मल की अनिभूतियों को संजीदगी से महसूस किया और वागर्थ के जूलाई 2001 अंक में यह पुस्तक-समीक्षा के रूप में सामने आई। अब आपके लिए अक्षरछाया पर उपलब्ध है।


अंतिम अरण्य : आंतरिक दुनियाओं का पारदर्शी यथार्थ
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कुछ समीक्षकों ने निर्मल वर्मा की औपन्यासिक कृति अंतिम अरण्य को मृत्यु का आख्यान कहा है। यह मान लेना समकालीन समीक्षा के परिदृश्य में पनप रही अतिसरलीकरण की सुविधाजनक प्रवृत्ति को स्वीकार कर लेना होगा। वास्तविकता यह है कि यह सिर्फ मृत्यु के आख्यान तक सीमित नहीं है। किसी की मृत्यु उसके जीवन की सत्ता का कितना सच्चा और कितना जीवंत दस्तावेज हो सकती है, इस सत्य का सूक्ष्म एवं संवेदनात्मक उद्घाटन भी है। यह जीवन और मृत्यु के व्यापक संदर्भों को व्यक्ति के नैतिक और आत्मिक संघर्षों के बीच परत-दर-परत खोलता है।

यहां पात्रों के जीवन का एक संपूर्ण कालखंड उनकी गहनतम संवेदना की परती भावभूमि पर उनके जीवन में एक बार पुनः घटित होता दिखता है। पात्रों के भीतर जीवन के एक खास समय तक जो कुछ घटित हो चुका है और जो कुछ अब तक अघटित रह गया है उसका इतना जीवंत और सशक्त चित्रण हमें इस औपन्यासिक कृति में मिलता है कि शब्दों को पढ़ते हुए अहसास होता है कि हम पढ़ नहीं रहे घटनाओं को घटित होते हुए, जीवंत दृश्यों की तरह देख रहे हैं… पात्रों के अन्तःस्वरों को सुन रहे हैं।

सारे चरित्र एक धुरी पर घूमते हुए… जीवन के एक खास मुकाम पर आकर जैसे ठहर-से गए हों… बावजूद इसके वे जितना ठहर-से गए हैं, उससे कहीं अधिक अपने भीतर की यात्रा पर निकल पड़े जान पड़ते हैं… अपने आत्मा की तलाश में अपने जिए क्षणों, न जी सके क्षणों के सुख-दुख, पछतावों, निर्णीत-अनिर्णीत क्षणों के बीच के शाश्वत द्वंद्व और यंत्रणाओं को एक बार फिर से अपने ही भीतर, अपने से दूर छिटककर देखते हुए।

उपन्यास के केंद्रीय चरित्र मेहरा साहब का, मृत्यु के हाशिए पर, जीवन की तमाम अर्जित-संचित क्लांति के साथ, नैतिक और आत्मिक संशयों के बीच विचरता जीवन इसका जीवंत प्रमाण है। मृत्यु के हाशिए पर जब हम अपने संपूर्ण जिए हुए जीवन की ओर एक बार पुनः लौटते हैं तो हम अपने उन पड़ावों को सिर्फ छूकर नहीं निकल पाते जिन्हें अपने चुने रास्ते जीने की अनिवार्यता में सिर्फ छूकर निकल जाना हमारी विवशता थी। उन छूटे हुए पड़ावों का संपूर्ण सच इस पलट-यात्रा में परत-दर-परत खुलता नजर आता है और कहीं हमारे चुने रास्तों के बारे में इन अंतिम क्षणों में हमें अनुत्तरित प्रश्नाकुलताओं से भर देता है। अपनी प्रश्नाकुल मनःस्थितियों से बार-बार टकराकर भी हम कुछ नहीं कर पाने की यंत्रणा झेलने को विवश होते हैं।

“हमारी जिंदगी में ऐसे मौके आते हैं, जब हम अपने को ही बाहर से देखने लगते हैं… हम जैसे खुद अपने ही दर्शक बन जाते हैं… अपनी देह के–जो मुझसे अलग होकर मुझे हिला रही थी–अपने रोने में जिसे मैं अपने से बाहर सुन रही थी।” (पृष्ठ - 148)

“कैसे कोई आदमी अपनी देह को छोड़कर अलग विचरता रहता है, किसी अजाने प्रदेश में, जहाँ हर पीड़ा की अपनी गली है, हर स्मृति का अपना आंगन, हर पछतावे का अपना पिछवाड़ा…” (पृष्ठ - 174)

कई-कई जिंदगियां जीने के क्रम में हम वह जिंदगी जीने का अवसर गंवा चुके होते हैं जिसे हम नितांत अपनी जिंदगी कह सकें। यह अहसास भी हमें तब होता है जब हम कुछ कर नहीं सकते।

“कितना अजीब है, जो रास्ता मुझे यहां तक लाया था, वह मुझे अपने से इतना दूर ले गया है कि वहां खुद मैं अपने को नहीं ढूंढ़ पाता।” (पृष्ठ - 170)

“जानते हो, इस दुनिया में कितनी दुनियाएं खाली पड़ी रहती हैं, जबकि लोग गलत जगह पर रहकर सारी जिंदगी गंवा देते हैं…” (पृष्ठ - 179)

“कभी-कभी तो उनकी बातें सुनते हुए लगता है कि वह अपनी नहीं, किसी दूसरे की जिंदगी के बारे में बता रहे हैं” (पृष्ठ - 43)

“जब (ज्ञान) आता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है… तब आदमी उसके काबिल नहीं रहता। वह अपने चिमटे से सुख नहीं, उसकी राख उठाने आता है…” (पृष्ठ - 79)

उपन्यास के प्रारंभ में उद्धृत मार्सेल प्रूस्त के ये शब्द “हममें से किसी के पास समय नहीं था कि हम अपने जीवन के असली नाटकों को जी सकें, जो हमारी नियति में लिखे थे। यही चीज़ हमें बूढ़ा बनाती है–सिर्फ यह, और कोई नहीं। हमारे चेहरों की झुर्रियां और सलवटें उन विराट उन्मादों, व्यसनों और अंतर्दृष्टियों की ओर संकेत करती हैं, जो हमसे मिलने आए थे और हम घर पर नहीं थे।” इस उपन्यास के पात्रों के संदर्भ में विशेष अर्थवत्ता ग्रहण कर लेते हैं, और मेहरा साहब, निरंजन बाबू, अन्ना जी, तिया आदि के मन-प्रांतर में घटित हो रही दुनियाओं को समझने के लिए हमें आवश्यक उपकरणों से लैस करते हैं।

मेहरा साहब के मन की परतों से अंधेरे में, अपने स्वाभाविक रंगों में टिमटिमाते भरा-पूरा एक संपूर्ण आकाश उमगता है जो अंततः उन्हीं की बनाई सीमाओं या वर्जनाओं में, उनके एकांत कमरे की दीवारों और छतों से टकराकर, लहुलुहान, मन की उन्हीं परतों में लौट जाता है। यह ‘उमगना’ और ‘लौटना’ हम तिया के साथ अथवा तिया या दीवा के संदर्भ में उनके संवाद में, और संवादों के बीच तिरते सन्नाटे में, अकसर सुन सकते हैं।

सीधे किसी पात्र की मृत्यु (या जीवन ही) कोई अर्थ नहीं रखती। रचनाकार किसी पात्र को कई रास्तों में से किस रास्ते से मृत्यु तक– मृत्यु के स्वीकार या अस्वीकार तक या जीवन तक ही, उसे किन प्रयोजनों से ले जाता है, यह महत्वपूर्ण है। सांसारिक जीवन में, सामाजिक, पारिवारिक दवाबों से असंपृक्त जीवन का कोई रास्ता चुन लेना प्रायः कल्पनातीत है। वैराग्य संभव है पर वह सांसारिक जीवन का रास्ता नहीं है। सांसारिक जीवन की भाग-दौड़ में समाज और दुनिया को अप्रत्याशित सदमों, झटकों से मुक्त रखने की विवशता में, हमें अपने जीवन के कई रास्तों के विकल्प में से किन्हीं ‘व्यावहारिक’ रास्तों का चुनाव कर लेना होता है।

इन कई विकल्पों के सत्य को निर्मल वर्मा ने अपने एक महत्वपूर्ण व्याख्यान में इस प्रकार व्यक्त किया है : ...चौराहे की विशेषता यह है कि वहां से अनेक रास्ते अलग-अलग दिशाओं में जाते हैं। हर दिशा का अपना सत्य है… हमारे जीवन की दुखद बाध्यता यह है कि हमें अपने जीवन काल में एक दिशा चुननी पड़ती है… बाकी रास्ते छोड़ देने पड़ते हैं।… जीवन में हम एक राह चुनकर बाकी विकल्पों से मुंह मोड़ लेते हैं… किंतु वे वहां हैं, हमारे जीवन के अंडरग्राउंड अंधेरे में उनकी प्रेत छायाएं उतनी ही जीवित हैं, जितनी दिन की रौशनी में चमकते वे स्टेशन जो हमारी राह में आते हैं। उपन्यास के यथार्थ और जीवन के यथार्थ के बीच यह एक भारी अंतर है… उसमें छूटे हुए रास्तों की विरह वेदना उतनी ही तीव्र होती है, जितना जिए हुए अनुभवों की सघन सांद्रता। न किए का पश्चात्ताप उतना ही गहरा जितना किए हुए कर्मों की बीहड़ और बदहवास चेतना”... (साहित्य की परती परिकथा, साक्ष्य – 10, साहित्य अंक, पृष्ठ 17)

निर्मल वर्मा के उपन्यास ‘अंतिम अरण्य’ या विश्व की किसी भी महान औपन्यासिक कृति (चाहे वह टालस्टाय की ‘अन्ना कैरेनिना’ हो, या ‘मादाम बावेरी’ या शेक्सपियर के नाटक ‘हेलमेट’) के विशिष्ट संसार में प्रवेश करने के लिए हमें जीवन के यथार्थ और उपन्यास के बीच इस महत्वपूर्ण और अपरिहार्य (किंतु हिंदी के मनोविश्लेषणात्मक उपन्यासों में भी अज्ञेय, जैनेन्द्र और यशपाल के बाहर प्रायः अलक्षित) अंतर की महीन परतों से गुजरना होगा।

निर्मल वर्मा के उपन्यास ‘अंतिम अरण्य’ में इन परतों से गुजरना इसलिए भी सार्थक है कि इस अंतर का यथार्थ यहां इतना शाश्वत और इतना पारदर्शी होकर उद्घाटित हुआ है कि हमें महसूस होने लग जाता है कि हम अपने या आस-पास के जीवन के ही कोने-अंतरों से गुजर रहे हैं।

संवेदनशील पात्रों के अन्तरप्रदेशों का यह आंतरिक यथार्थ निर्मल वर्मा की कलम से इतना अनुशासित और संयमित ढंग से ‘अंतिम अरण्य’ के पात्रों की अन्तःक्रियाओं में विन्यस्त है कि यह उसे एक ऐसी गरिमा और विश्वसनीयता प्रदान करता है जो मनोविज्ञान की स्थापित विश्लेषणात्मक दृष्टि से भी पूरी तरह अप्रश्नेय रहती है।

हमारे वर्तमान सृजन परिदृश्य की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि हमें जीवन के भौतिक यथार्थ ने इतना आक्रांत कर रखा है कि हम इस आंतरिक यथार्थ के बिना जीवन की कल्पना करने की भूल कर बैठे हैं। किसी उत्कृष्ट कृति से हमें एक जीवन ऊर्जा या आंतरिक आस्था की अपेक्षा होती है, जिसके अभाव में आज हमारा भौतिकवादी वैश्विक समाज स्वयं को निपट वैचारिकता और वादों के ऐसे जंगल में भटकता, बढ़ता, ठिठकता और लौटता पाता है जहां आगे बढ़ने के लिए आवश्यक जीवन ऊर्जा का क्षरण हो चुका है। हम जहाँ से चले थे, वहीं बार-बार लौट आते हैं- जैसे कोई चीज यात्रा पर निकलने के पहले कहीं छोड़ दी हो, हमें पता नहीं चलता वह कौन-सी चीज थी, और जिसके बिना हमारी कोई भी वैचारिक यात्रा अर्थहीन होगी। यह चीज वह आंतरिक ऊर्जा है जो विश्व की किसी भी उत्कृष्ट कृति के आंतरिक जगत में उसी तरह मौजूद रहती है जिस तरह किसी जीव की आत्मा, जिसके बिना वह जीवित नहीं रह सकता।

साहित्य को उसकी आत्मा से निर्वासित, असंपृक्त कर देने का ही एक नतीजा यह है कि समाज से आज साहित्य और कला भी निर्वासित होते जान पड़ते हैं। प्राकारांतर से, ‘अंतिम अरण्य’ को इस चुनौतीपूर्ण साहित्यिक परिदृश्य में, साहित्य को उसकी मूल संवेदना, उसकी आंतरिक ऊर्जा के स्रोतों की ओर लौटाने की दिशा में एक बीहड़ उपक्रम के रूप में भी देखा जा सकता है।

इस संदर्भ में निर्मल वर्मा ने अपने एक व्याख्यान में अपनी गहरी चिंता इन शब्दों में व्यक्त की है : ‘क्या यह अजीब विडंबना नहीं है कि पिछले वर्षों से हमारा अधिकांश कथा-साहित्य उन प्रश्नों को अप्रासंगिक मानता रहा है, जिनके बिना स्वयं मनुष्य का ‘मनुष्यत्व’ एकांगी, अधूरा और बंजर पड़ा रहता है? यथार्थवाद के नाम पर हमने मनुष्य को उस यथार्थ से विलगित कर दिया जो उसके जीवन और मृत्यु के प्रश्नों को अर्थ प्रदान करता है।’ (साहित्य के प्रासंगिक प्रश्न : कसौटी-4, पृष्ठ - 78)

‘अंतिम अरण्य’ के पात्रों की आंतरिक दुनियाओं को सही-सही समझने में मनुष्य जीवन के संपूर्ण सच के बारे में निर्मल वर्मा की यह व्याख्या भी अत्यंत प्रासंगिक है : ‘असली जीवन में हमारे भीतर के अनेक कपाट बंद पड़े रहते हैं, जिन्हें हम खोलने का साहस नहीं कर पाते। साहित्य जब अपनी चाबी से उनके बंद ताले खोलता है, तो हमें एक अजीब आश्चर्य होता है, कि जब हम अपनी दबी-छिपी आकांक्षाओं को उनसे बाहर निकलता हुआ पाते हैं। वे हमारे जिए हुए, भोगे हुए अनुभव न भी हों, तो भी हमारे अनुभूति क्षेत्र में उनका अस्तित्व उतना ही ठोस और जीवंत है, जितना हमारे नींद के स्वप्न, जो हमारी जागृतावस्था की ही उपज है। आइसबर्ग की तरह मनुष्य का एक छोटा अंश ही हमें पानी के ऊपर उजाले में दिखाई देता है, बाकी हिस्से चूंकि सतह के नीचे डूबे रहते हैं, उससे उनका अस्तित्व नकारा नहीं जा सकता। वे अदृश्य होते हुए भी हमारी दृश्य जीवन-लीला में हस्तक्षेप करते हैं। ये हमारे अनुभूत यथार्थ की सीमाओं पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं, मानो पूछ रहे हों, क्या इसमें मनुष्य का पूरा सत्य समा सकता है? (‘साहित्य के प्रासंगिक प्रश्न’ : कसौटी-4, पृष्ठ - 78)

‘अंतिम अरण्य’ के हर पात्र के सृजन में, विशेषकर मेहरा साहब के लगभग पारदर्शी चित्रण में, इस ‘अदृश्य’ का हस्तक्षेप निरंतर प्रतिध्वनित होता है। इन प्रतिध्वनियों का स्वर उपन्यास के चरित्र की छोटी-बड़ी भूमिका के अनुरूप पूरी तरह संयमित और अनुशासित है। इसलिए पूरी तरह गरिमामय और विश्वसनीय भी। पहली बार उपन्यास को पढ़ते हुए मैं विस्मित था कि आखिर मृत्यु के हाशिए से मृत्यु तक मेहरा साहब की लंबी, थकान भरी यात्रा अपने ‘अंतिम प्रभाव’ में इतनी गरिमामय और विश्वसनीय कैसे बन जाती है! उपन्यास को दुबारा पढ़ते हुए मुझे अनायास ही अमेरिकन उपन्यासकार अर्नेस्ट हेमिंग्वे की वे पंक्तियां याद हो आईं जिनमें उन्होंने कहा था कि आइसबर्ग के बहाव की गरिमा इस बात में निहित होती है कि उसका आठवां हिस्सा ही सतह के ऊपर दिखाई देता है।

शायद यही कारण है कि कोई भी उत्कृष्ट कृति वास्तविक जीवन के फ्रेम से बड़ी दिखती है– लार्जर दैन लाइफ। दिखती है, वास्तव में वैसी है नहीं। ऐसा इसलिए दिखती है कि जीवन के वे अदृश्य हिस्से भी कला में, किसी-न-किसी रूप में उद्घाटित होते रहते हैं, जो वास्तविक जीवन में सामान्यतः दिखाई नहीं पड़ते।

मृत्यु के हाशिए से लेकर मृत्यु तक की मेहरा साहब की यात्रा (बहाव) अपने अंतिम प्रभाव में इसलिए इतनी गरिमामय और विश्वसनीय बन पड़ी हैं कि लेखक ने मेहरा साहब के व्यक्तित्व के बाहर के आठवें हिस्से के साथ-साथ सतह के भीतर के अधिकांश अदृश्य हिस्सों के अदम्य अस्तित्व का अहसास बड़ी ही सावधानीपूर्वक कराया है।

सतह के भीतर की दुनियाओं की संवेदनात्मक भावभूमि को समझने के लिए इस उपन्यास के शिल्प में जो अंतर्दृष्टियां सूक्तियों की तरह बुनी गई हैं वे समकालीन साहित्य में प्रायः दुर्लभ हैं। इसलिए, ऐसा भी नहीं है कि ‘अंतिम अरण्य’ बूढ़ों का एक अपना अलग संसार रचती है। दरअसल, यह संसार बहुसंख्यक युवाओं को ‘अपनी’ जिंदगी जीने, समझने-परखने के लिए कई-कई खिड़कियां-दरवाजे खोलता है कि कोई ‘विराट उन्माद, व्यसन और अंतर्दृष्टियां’ उनसे मिलने उनके घर आएं तो उनके दरवाजे पर उन्हें ‘आउट’ की तख्तियां लगी न मिलें।

परिचय :

योगेंद्र कृष्णा

जन्म : 1 जनवरी, 1955 ( मुंगेर, बिहार )

शिक्षा : अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर

लेखन : हिंदी और अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं में रचनारत। पहली रचना श्रीपत राय संपादित पत्रिका कहानी में प्रकाशित।
पहल, हंस, कथादेश, वागर्थ, नया ज्ञानोदय, साक्षात्कार, पूर्वग्रह, अक्षरपर्व, परिकथा, पल प्रतिपल, आजकल, लमही, इंडिया टुडे, आउटलुक, शुक्रवार, समयांतर, समावर्तन, लोकमत समाचार, जनपथ समेत देश की लगभग सभी स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं तथा अन्य विधाओं में रचनाएं प्रकाशित। पटना दूरदर्शन एवं आकाशवाणी से समय-समय पर रचनाएं प्रसारित।

प्रकाशित कृतियां :

  • खोई दुनिया का सुराग ( कविता संग्रह )
  • बीत चुके शहर में ( कविता संग्रह )
  • कविता के विरुद्ध ( कविता संग्रह )
  • गैस चैंबर के लिए कृपया इस तरफ : नाज़ी यातना शिविर की कहानियां (तादयुष बोरोवस्की की कहानियों का हिंदी अनुवाद)
  • संस्मृतियों में तोलस्तोय ( हिंदी अनुवाद )
  • तीसरी कोई आवाज़ नहीं ( कविता संग्रह प्रकाशनाधीन )

संप्रति : बिहार विधान के प्रकाशन विभाग की जिम्मेदारियों से मुक्त होकर अब पूर्णकालिक स्वतंत्र लेखन।

संपर्क : 2 / 800, शास्त्री नगर, पटना : 800023
मो. 09835070164

ईमेल : yogendrakrishna@yahoo.com

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