इंतजार

शहर के कोलाहल से दूर
एकांत वृद्धाश्रम में
माँ की साँसों के धागे उलझ रहे
गोता लगाने को तैयार

उम्मीद की कोई किरण नहीं
पर आँखें दरवाजे पर जमीं
शायद अभी भी है इंतजार
किसी चिंतित, परेशान चेहरे की

हिसाब

रक्त–बंध टूटता हुआ,
हर अपना छूटता हुआ।

शीत युद्ध कब तक,
जिंदा हैं दोनों जब तक।

अब एक को कोई मारे,
या निज ही उसे संहारे।

दूसरा तब राज करेगा,
कुछ ऐसा काज करेगा।

खंडहरों को भी ध्वस्त कर
अपना हिसाब करेगा।

एक रात

अपने ही बोझ से लदा
वह घर लौटता है
थोड़े पैसे और
ज्यादा पसीने के साथ
गली के कुत्ते
करते हैं तसदीक
एक भद्दी गाली..!
फिर से सबकुछ शांत !

बिस्तर में कुनमुनाते बच्चे
नींद में ही कर रहे शिकायत
पत्नी की आँखों में है
उसके देर रात
बाहर रहने का गम
या घर लौटने की खुशी
जानने की इच्छा भी नहीं होती
दूसरी इच्छाओं की तरह


कुत्ते

हाँ, वे शिकारी कुत्ते थे
उन्नत  प्रजाति के
पर थे तो कुत्ते ही
मालिकों के इशारे पर
किसी भी शिकार को घेरते
फिर  मार देते
गर्म मांस के टुकड़े पाकर
बने रहते वफादार

समय बदला
अपनी मेहनत को पहचान
मांस के टुकड़े पाना
समझने लगे अधिकार
बढता गया दुस्साहस
अकेले, बिना मालिक के
करने लगे शिकार

मालिकों को चिंता हुई
आनन-फानन में सभा हुई
सब एकमत थे
कुत्तों की फिर से हो पहचान
उनपर लगाम लगाने का
जारी हुआ फरमान
जो समय से चूकेंगे
पिंजरे में जाके भूकेंगे

प्रेमिका या माँ

तुम मिली इन गर्मियों में
सड़क पर छतरी लिए
धूल और पसीने पोंछती
कुछ परेशान-सी
इंतजार करती

मुझे याद आ गये वे दिन
ढूंढने लगा वह मुस्कान
तुमने बाँहें फैलाई
एक लम्हा जुड़ गया फिर से
तुम प्रेमिका ही तो थी

सहसा तुम खिलखिला पड़ी
एक किलकारी गूँजी थी

सफर में

सफर में
बगल बैठी
वह सोच रही है
अपने समय की
सच्चाई या
वह मजबूरी
जिसके चलते
मेरे पास की
सीट मिली थी

बीच-बीच में
सेलफोन पर
बतियाती
अपने होने को
बयां कर रही है
विस्तार से...

राजनीति

उसे पलायन करने से रोको
खाली दिमाग मत रहने दो
कुछ मुद्दे दो, कुछ वादे दो

वापस बुलाओ
जातिवाद तक जाने दो
अधिक खुले तो
क्षेत्रवाद पर रोको
आगे बढ न पाये
धर्म को सामने रख दो
इतने पर भी उदार बने
देशभक्ति में आकंठ डूबा दो

उसके बाद भी अगर..!
क्या बेतुका सवाल है?
फिर हम हैं
हमारा कानून है

तू-तू मैं-मैं

तू-तू मैं-मैं में
न तुम थे
न मैं था
बस...
दोनों की जिद थी
दोनों का भय था

कुत्ते

राजतिलक की तैयारी थी
करो या मरो की बारी थी
बाघों के पिंजरे खोल दिये
जनता भयभीत भागी

मालिक ने पुचकारा
सबने दुम हिलाई

तुम्हारा शहर

घर से निकला आदमी
देहरी के बाहर
पाँव रखते ही
खो जाता हो
भीड़ में

गाड़ियों में
आगे निकलने की
सोची-समझी होड़ हो

घरों की नालियां
बाहर निकल
मिल जाती हों
बड़े नाले में
बनने को नहर

क्या तुम्हारा शहर भी
कुछ ऐसा ही है

विरासत

जानता हूँ
तुम्हारे यहाँ
महफिलें नहीं सज रही
बचे हैं बस
टेंट के टूटे खंभे
फटे टाट और
कुछ कनस्तर

पता है
तुम कभी भी
घोषित कर सकते हो
इसे राष्ट्रीय विरासत

पट्टिकाओं पर
तुम होगे
तुम्हारे पुरखे भी
ठहाकों की चर्चा
सब चाव से सुनेंगे
पसीने की गंध
कहीं नहीं होगी

पर्यावरण दिवस

माली गड्ढा खोद चुका था
गड्ढे में गोबर-पानी डाला जा चुका था
बगल के गड्ढे से उखाड़ा हुआ
पौधा भी कुम्हला रहा था
मीडिया पूरी तरह अलर्ट थी
बस नेताजी का इंतजार था

नेताजी पधारे
एक बाबू ने पौधा उठाया
नेताजी के हाथ लगाते ही
तालियां बज उठी
वृक्षारोपण समाप्त हो चुका था
आज पर्यावरण दिवस था

बावनदास की वापसी

यह कौन रो रहा है
राजपथ पर
क्रंदन के बीच अस्पुष्ट स्वर.. ..
भारथमाता जार-बेजार रो रही है
अरे बावनदास..!
तुम तो पूँजीवाद के मारे मर गए
दुलारचंद कापरा के
गाड़ियों के नीचे दब गए
फिर कैसे पहुंचे
राजपथ पर
क्या सरकार ने देखा नहीं ?
आत्माओं के लिए जैमर नहीं!!

पंचसितारा होटल में
कापरा के औलाद की
नींद टूटती है
बियर से कुल्ला करता है
जवान जागता है पहाड़ियों पर
गोली चलती है
किसान-मजदूर का बेटा
प्यासा मरता है

सारे ग्लूकोज पी गए
जवानों को पत्ते चबाना है
फिर से खड़ा होता है जवान
पत्ते चबाता है, रायफल उठाता है
आबनूस के फर्नीचर पर
पूँजीवाद रंभाता है

इसी बीच कहीं...
किसान फंदे लगाता है
जवान खुद को रेगिस्तान में पाता है
पेड़ नहीं, पत्ते नहीं
फिर गोली लगती है
उसके पास पेनकिलर नहीं
सार दर्द तो देश चलाने वालों के पास है

नेता कहता है
जवान पैसे के लिए मरता है
नेता पैसे के लिए जीता है
बार-गर्ल्स के कंधे पर हाथ रख
उद्घाटन के फीते काटता है
रोड पर चीखें आती हैं
पूँजीवाद बलात्कार करता है

लेकिन यह तो कोई–न–कोई
रोज चिल्लाता है
नुक्कड़ों पर, ड्राइंग रूम में
फिर तुम्हें क्या तकलीफ थी
बावनदास...?

उसके चेहरा विद्रूप हो जाता है
कहता है―
यही तो तकलीफ है !!!

(बावनदास और दुलारचंद कापरा फणीश्वरनाथ रेणु रचित महान आंचलिक उपन्यास "मैला आँचल"के पात्र हैं।)

अंगूठा

सरकार कहती है
योजनाओं की पहुंच
पंक्ति में खड़े
अंतिम व्यक्ति तक हो

पंक्ति में खड़ा
अंतिम व्यक्ति
अपनी अंगुली पर
नीली स्याही का निशान
दिखाता है

सरकार..!
अंगूठा दिखाती है

स्मरण

जिन्होंने मुझे
जाना नहीं
उनके सहारे
जानने चले हो

भावमुक्त होकर
मेरी रचनाएं
जोर-जोर से
पढ़ते हो
कि तुम्हें भी
अपनी यश गाथा
सुनानी है
मेरे ही शब्दों में

और...
मेरे शब्द
हल्के होकर
गायब हो रहे है

अधूरेपन की आवाज

किस्तों में रचो
अपना अधूरापन
किस्तों में ही
पाये तूने
सारे सुख और दुख
फिर रुके क्यूँ ?
किया क्यों इंकार ?
आवाज क्यों मंद पड़ी ?
क्या हुआ
जो रच न पाए
श्रेष्ठ महाकाव्य
मुक्तकों में अभी
जान बाकी है
अपनी ताकत समेट
फिर देख..!
छोटी पारियां भी
जिंदगी का रुख
बदल जाती हैं