कहानी कोकिलाशास्त्र की - 1





“न चिड़ियों की आवाज रही और न हवा की सनसनाहट। अब न फूल खिलते हैं और न ही आंधियों में पीपल की टहनियां झुककर जमीन को सलाम करती हैं। लोगों के कानों को मोर की आवाज़ और पपीहे की किलकारी में फर्क भी पता नहीं रहा।”

संदीप मील की कहानी ‘कोकिलाशास्त्र’ में यह एक गाँव की व्यथा-कथा की आरंभिक पंक्तियाँ हैं। पर, व्यापक अर्थ में यह गाँव की नहीं बल्कि पूंजीवादी सत्ता द्वारा तैयार की जा रही उस दुनिया का सच है, जहां मानव प्रकृति एवं संवेदना से बिछुड़ता जा रहा है। उसकी आत्मसत्ता इस बाहरी सत्ता के समक्ष घुटने टेकती जा रही है या उसके लिए मजबूर की जा रही हैं। 

जब कोई सत्ता मनुष्य को प्राप्त नैसर्गिक अधिकारों से वंचित करने लगे तो एक विवेकशील मनुष्य में इसका प्रतिकार करने का भाव जागता है और समांतर सत्ता का आविर्भाव होता है। अपने स्वतन्त्रता संग्राम के आन्दोलनों पर दृष्टिपात करें तो हमें उन कालखंडों में कई जगहों पर देशवासियों द्वारा समांतर सता चलाने की जानकारी मिलती है। वे लोग आज आजाद राष्ट्र के गौरव हैं तथा उनसे हमें प्रेरणा मिलती है, किसी अन्यायपूर्ण व्यवस्था के प्रतिकार करने की...जूझने की...लड़ने-भिड़ने की। पर, आज के परिप्रेक्ष्य में वैसी ही अन्यायपूर्ण व्यवस्था से जूझने वाली समांतर सत्ता को क्या हमारे लोकतंत्र में वही गौरव मिल पाता है?

संदीप मील की कहानियों से गुजरते हुए जो एक बात पकड़ में आती है कि इस कथाकार की मनुष्य-मात्र में आस्था है...तभी तो उसकी सार्वभौम सत्ता की रक्षा के लिये वे अपनी कहानी में अन्यायी व्यवस्था के खिलाफ समांतर सत्ता की कल्पना करते हैं, जो उत्पीड़क के सामने घुटने नहीं टेकता, बल्कि दृढ-संकल्पित होकर खुलेआम संघर्ष की घोषणा करता है।

जब सत्ता आवारा पूँजी के उड़नखटोले पर सवार होकर सभी संसाधनों पर अपना कब्ज़ा जमाना चाहती है तो परिणाम होता है – संसाधनों का अन्यायपूर्ण बंटवारा। यह नीति धीरे-धीरे मानव की गरिमा को क्षति पहुंचाने लगती है। अपनी गरिमा एवं अस्तित्व को विस्मृत करने को मजबूर होता मनुष्य संख्या में बदलता चला जाता है, जो पूंजीवादी सत्ता चाहती है। ऐसी ही परिस्थियों में समांतर सत्ता भीड़ में तब्दील होते मनुष्य की आवाज बनती है। 

‘कोकिलाशास्त्र’ कहानी के गाँव को देखें तो वह पूंजीवादी नगरीय व्यवस्था का एक तस्वीर पेश करती है। यह व्यवस्था सत्ता के सहयोग से फल-फूल रही है, जहां साधारण मनुष्य का स्वामित्व उसके अपने ही संसाधनों पर से ख़त्म किया जा रहा है तथा वे चीजें जो उन्हें सहज सुलभ थीं, पैसे पर मिलने लगती हैं या सरकार की लोक-कल्याणकारी योजनाओं के नाम पर।

ऐसा ही कुछ हाल था कहानी की नायिका सरिता के गाँव नीमागढ़ का, जहां वह ब्याह कर आयी थी। आप उस गाँव की जगह अपना गाँव, शहर, महानगर या देश को रखके भी सोच सकते हैं। बहुआयामी एवं बहुस्तरीय कहानियों की यही तो विशेषता होती है। गाँव की स्थिति देखिये – “हाँ, बिल्कुल बिना पेड़ का गांव था। करीब दस साल पहले गांव के दो फौजी रिटार्यड होकर आये और उन्होंने हिसाब लगाया कि एक पेड़ को पालने में दस हजार का खर्चा होता है। आमदनी कुछ नहीं। ऐसा करें कि सारे पेड़ों को काटकर बेच दिया जाये और उन पैसों को ब्याज पर दे दिया जायेगा तो हर महीने गांव के प्रत्येक परिवार को दो हजार रुपये ब्याज के मिलेंगे। पूरे गांव में घने पेड़ थे। सारे काटे गये और अब हर घर को दो हजार रुपये ब्याज के मिलते हैं।” ( जारी...) 

रवीन्द्र भारती की कविताएं

रवीन्द्र भारती के साथ लेखक अरुण नारायण



कवि एवं नाटककार रवीन्द्र भारती कहते हैं, “ मैं कविता का एक होलटाइमर कार्यकर्ता हूं। जहां भी अन्याय हकमारी है, वहां मुझे आप प्रतिकार में खड़ा पाएंगे। ” उन्हें एकदम से कविता की मुख्यधारा से बाहर समझा जाता रहा है। अपने ही रौ में रहनेवाले बिहार के इस कवि की खासियत यही है कि वे असहजता को सहजता से व्यक्त करते हैं। उनकी कविताओं में संवेदना है तो वैज्ञानिक सोच भी। उम्मीद है की उनकी रचनाएं आपको ठहर कर सोचने को विवश जरूर करेगी। तो चल पड़ते हैं रवीन्द्र भारती की रचनाओं के साथ एक अनूठे सफ़र पर।


1. महाब्राह्मण

वहां कोई नहीं है
धिकते हुए लोहे की तरह लगती हैं
अपनी ही सांसे खांसते हुए
अपाढ़ है उठना-बैठना
आवाज जो रहती थी समय-असमय में तत्पर
वह भी काया के भीतर कहीं जाकर बैठी है छुपकर
बहुत पुकारने पर बेमन से आती है बाहर।

अकेला है महाब्राह्मन
उसकी तिरस्कृत देह पड़ी है उसके ही मन के आगे
जो मन खाकर मृतकों का अन्न
हंसता रहा सदैव शोक में
कांख में दबाये मृतकों के बरतन
मृतकों की सेज पर सोता रहा
यजमानों को कर शुद्ध, अशुद्ध बना रहा
आता-जाता रहा गांव के बाहर-बाहर
कहां कभी छोटा हुआ कि होगा आज
यह दशा देखकर !

कहां कभी घबराया
परंतु आज क्यों हो रही घबराहट
क्यों लग रहा है कि
मृतक देह के निमित्त मिली साड़ी, आलता, शाल
खूंटी में टंगे झोले से निकाल रही है प्रेतात्मा।
वह निकाल लेगी तो क्या दूंगा
बेटी मायके में आयी है पहली बार!

सोचते पसीने से लथपथ हो गया महाब्राह्मन
उसने उठने का किया बार-बार यत्न
जब उठ न सका तब जमाता को इशारे से बुलाया
गड़ा धन बताएंगे
ऐसा सोचकर आये सभी परिजन।

हवा तेज थी
कि फड़फड़ाने लगे चांद-तारे
देखते-देखते पोथी से निकल
खिड़की से हो गए बाहर।
जमाता दौड़ने लगा कमरे में धरने को उन्हें
संभाले हुए हाथ में कुश की पैंती...

2. बिछिया

फुटपाथ पर संवर रही है कचरा चुनने वाली लड़कियां
एक-दूसरे के हाथ में थम्हाकर आईना
बना रही हैं चोटी, लगा रही हैं किलिप
फुदक रही हैं मन-ही-मन।

नहीं है कोई दीवाल दरवाजों और आंगन के बीच
नहीं हैं कुंडियों से झूलती जंजीरें
खुली राह में काली के ब्याह का बज रहा है ढोल
हो रही हुलिहुली।

सरग-नरक के किस पिछवाड़े से उठाकर
लाती हैं वे ऐसा अपूर्व उल्लास
कचरा चुनते-चुनते कहां से चुन लेती हैं
इतनी मुहब्बत, इतनी बेफ्रिकी
कि हजार राहों की आतिशबाजियों की रोशनियां
थिरकते हुए लगती हैं बिखेरने!

भविष्य की चिंता में मुस्कराते दृश्यों से नजर चुराने वाले
कल्पना भी नहीं कर सकते
जिस आह्लाद के साथ पचासों अनाम लोग
काली के दूल्हे के साथ खा रहे हैं माछ-भात
पूरा फुटपाथ जलतरंग की तरह बज रहा है
और लड़कियों की आंखों में चमक रही है
काली के पैरों की बिछिया।

3. भाषा - 1

पलटने से नहीं पलट रहे हैं पृष्ठ
पाथर हो गई है काया
घाट की सीढ़ियों के पास खुली पड़ी है किताब।
भाषा को कंधा देनेवाले विमर्श कर रहे हैं
कि क्या किया जाए, दहा दिया जाए
या दाह-संस्कार कर यहां बना दी जाए समाधि।
विमर्श में चूंकि नामचीन लोग हैं
कई बोलियों की शवयात्रा में शरीक होने का उन्हें अनुभव है
स्वाभाविक है कि उन्होंने विमर्श को गंभीरता से लिया
और उसे सेमिनार का रूप दे दिया।
ऐसा संयोग कभी-कभी होता है कि
जिसका कोई वारिस न हो उसके लिए हो ऐसा आयोजन।
छूटे चले आये शहर भर के ज्ञानी, गुनिया।

धकियाकर आगे जानेवालों से पिछली कतार में बैठी
संस्कृत ने इशारतन कहा
भाषा ने जीवन में जो कुछ अर्जित किया
उसे सिरजकर रखा है इस पत्थर की किताब में
यह उसकी मुखाकृति नहीं
सृष्टि की पहली संदूक भी है
बिना खोले संदूक, भला कोई कैसे कह सकता है
क्या है भाषा का अवदान !

पता नहीं उसकी आवाज मंचासीनों तक पहुंची कि नहीं
कि इस बीच आ गए
कई नामचीनों की जगह कई नामचीन
कुछ नामचीन बैठे रहे हैं बाहर
अपनी बारी के इंतजार में
भाषा के शव के पास।

4. भाषा - 2

पानी में झूलती धूल-भरी घासों से लगी जड़ों की फुनगियां
फिजी, सुरीनाम, मारीशस के आसमान को जो हैं छूतीं
हां, उसी की भाषा का घर है।
धरोहर बोलकर ले जाने वाला ऐसा यहां कुछ भी नहीं
कुएं की जगत पर कुछ पुरनियों की पैरों की छाप है-
जिसे न तो दिखाया जा सकता है, न उठाया
गिन्नी, अशर्फी नहीं, हमारे बच्चों के नाम हैं
मिरजई, मारकीन, पसीना
कोई बही नहीं, खाता नहीं
हस्तलिखित अक्षरों की परछाइयों में
किसी के पैरों के नीचे से खिसककर आई कोई जमीन नहीं
मन की पताका देह में फहरती है
कोई कोठी, अटारी नहीं।

कुछ भी नहीं है गोपन, कुछ भी नहीं है अनंत
सलाई की एक तीली की रोशनी में है अपनी दुनिया।

5. पंडित रविशंकर 

मात्राओं की काया में अक्षरों के होते विसर्जित
फूटता है जिस राग का रूप
उसी रूप के हैं पंडित रविशंकर।
अपनी लय में जब आते थे
हो जाते अपने से छह गुन, आठ गुन उंचे
समान भाव से पानी में, हवा में लगते थे तैरने
दबी हुई मन के भीतर लोगों की कितनी ही बातें
पहुंचने को आतुर हो जाती थीं
अपने प्रिय के कानों में।

मैंने उन्हें जब भी बैरागी तोड़ी, भैरव ठाठ में देखा
राग के अलग-अलग टुकड़ों, अलग-अलग अंग में देखा
चाहा उतार लूं कैमरे में
खुशबू की उतर नहीं पाई, उतर गई फूलों की छवि
दीवाल पर टांगने के लिए
मेरे पास नहीं हैं पंडित रविशंकर।

6. कमरे का एकांत

डेरा बदला जा रहा है
टलना, खूंटियों से उतारे जा रहे हैं कपड़े।
उन कुरतों से आ रही है पसीने की गंध जो है ही नहीं वहां
एक बार उठती है मेरी तरफ घर भर की आंखें
फिर लग जाती हैं काम में।
समेटे जा रहे हैं बिखरे सामान
बांधे जा रहे हैं बिस्तर
अपने-अपने पाताल में रखे सामान को चुपके से निकाल
स्त्रियां रख रही हैं गठरी, मोटरी में।
कुछ सामान मिलते ही होने लगता है शोर
कि देखो यहां दबी-पड़ी थी
कितना हलकान था घर उसके लिए
काठ की मथनी भी मिल गई जो परछने के समय आती है बाहर
जब कोई कनिया चैखट के अंदर रखती है गोड़।
लो, संभाल कर रखो इसे
जाने वाले सामान के साथ।

नहीं पता, कौन-कौन जाने वाले सामान के साथ गया
कौन-कौन नहीं
उन दोनों में मेरा कोई सामान नहीं है।
सारा माल-असबाब जाने के बाद
सबसे अंत में मेरी पगध्वनियों को पहचानने वाले कमरे का एकांत
गाड़ी में आकर बैठ गया
मेरी बगल में चुपचाप।

कवि परिचयः जन्मः 1951 ई.
कविता संग्रहः जड़ों की आखिरी पकड़ तक, धूप के और करीब, यह मेरा ही अंश है, नचनिया और नाभिनाल।
नाटकः कंपनी उस्ताद, फूकन का सुथन्ना, जनवासा, अगिन तिरिया और कौआहंकनी
1975 में आपातकाल के दौरान कविता पर कारावास। 
सपर्कः 9835426043

वो अजीब लड़की : प्रियंका ओम





आज के दौर में अन्य साहित्यिक विधाओं की तरह कहानी भी संक्रमण के दौर से गुजर रही है। कुछ नए चेहरे कहानी में जीवन के उन पहलुओं पर बेबाकी से बात रख रहे हैं, जिन पर साहित्य में इक्का-दुक्का लोग ही खुलकर बात कर पाते हैं। इन रचनाओं में स्थापित वर्जनाएं टूट रही हैं तो कई बार रचनाएं इस फेर में लाउड भी हो जाती हैं। प्रियंका ओम के पहले कहानी-संग्रह 'वो अजीब लड़की' पर परितोष कुमार 'पीयूष' की सारगर्भित समीक्षा पढ़ते हैं। परितोष कवि एवं साहित्य के गंभीर पाठक हैं
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'वो अजीब लड़की' (कहानी संग्रह) प्रियंका ओम की पहली पुस्तक है। कुंठित मानसिकता के सारे ठिकानों पर धावा बोलती हुई, तमाम पोषित सामाजिक वर्जनाओं को खंडित करती यह संग्रह पाठकों के बीच अपनी ठोस जमीन तैयार कर चुकी है। फिलवक्त तंजानिया (अफ्रीका) में रह रहीं प्रियंका ओम अंग्रेजी साहित्य में स्नातक फिर 'सेल्स एण्ड मार्केटिंग' में एम बी ए तक पढ़ी, बिहार (भारत) की मूल निवासी है। क्षणिक मुलाकात भर में अपने व्यक्तित्व वा खुले विचारों का लोगों पर अमिट छाप छोड़ने वाली यह युवा लेखिका बेहद संवेदनशील, शालीन, सामाजिक और आज के समय की एक स्पष्टतावादी जागरुक महिला है। अपने आस-पास में चल रहे हर सूक्ष्म से सूक्ष्म घटनाक्रमों पर उनकी पैनी नजर होती है। 

प्रियंका ओम उन मुठ्ठी भर कथाकारों में से है जो 'सच को सच' और 'झूठ को झूठ' कहने का हौसला बुलंदी के साथ रखते हैं। और यही वजह है की उनकी तमाम कहानियों में थोपे हुए कथ्य और जबरन घसीटाते पात्रों की झलक लेशमात्र भी नहीं मिलती। उनकी कहानियाँ परिवार, रिश्ते, परिवेश, सोशल मीडिया, गाँव, शहर, बाज़ार से गुजरते हुए वर्तमान समय तथा उनमें व्याप्त विडंबनाओं के साथ स्त्री-पुरुष के बीच संबंधों की बारीकियों का गहन पड़ताल करती है। 

इस संग्रह में कुल चौदह कहानियाँ हैं, सभी कहानियाँ उतनी ही अलहदा और अपनी सी कहानी लगती है, जो पाठक को अंतः तक झकझोरती ही नहीं बल्कि सोचने पर विवश करती है। और यही एक रचनाकार की वास्तविक सफलता भी है कि अनायास ही पाठकों का रचनाओं से जुड़ाव हो जाना, पाठकों को ऐसा प्रतीत होने लगना कि अरे यह घटना तो हमारे पास की है, घटना का शिकार तो हमारा परिवार भी रहा है, कहानियों में पाठक को लगे वही पात्र है...उसकी ही कहानी है। 

बहरहाल, संग्रह की पहली कहानी 'सौतेलापन' एक जीवंत-सी कहानी प्रतीत होती है। हाँ, वही सौतेलापन जिसकी भयावह त्रासदी से आज भी हमारा सभ्य मानव समाज पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया है, आज भी समाज के कई परिवारों में माता-पिता के मन में व्याप्त है, और मासूम, निश्छल वा अबोध बच्चे इसका शिकार होते जा रहें हैं। यहाँ सोचने पर हम विवश हैं कि आखिर ऐसा क्या है जो एक ही गर्भ में नौ महीने तक पले बच्चों में से किसे एक से ज्यादा प्यार, ज्यादा ममत्व और अपने ही दूसरे बच्चे से कम क्यों? हम अकसर अपने समाज में देखते आयें हैं एक परिवार में अगर तीन-चार या दो बच्चें हैं तो उनमें से एक से ज्यादा प्यार किया जाता है, दूसरे से कम! दोनों या सभी आपके ही बच्चे हैं तो फिर ऐसा सौतेलापन क्यों? एक के हिस्से में दूध और दूसरे के हिस्से में पानी क्यों? इन्हीं तमाम उलझे हुए सवालों के जवाब तलाशती हुई लेखिका 'सौतेलापन' शीर्षक कहानी की जीवंत रचना कर बैठती है, जो हमें अपने ही तथाकथित विकसित समाज के एक विद्रुप सच को इस कहानी के माध्यम से परत-दर-परत उकेर कर हमारे सामने रखती है। लेखिका कितनी डूब कर कहानी के बरक्स सौतेलेपन की विद्रुपताओं से आत्मसात कराकर और इस कुकृत्य के दुष्प्रभावों सेे पाठकों को सतर्क करना चाहती है, इस कहानी के अंश में हम साफ साफ महसूस कर सकते हैं 

" सौतेलापन नाम की बीमारी चुपचाप नहीं आती। इसके लक्षण शुरुआती दिनों में ही दिखने लगते हैं। न ही ये एड्स की तरह होती है। जी, इसमें शरीर के अंत का खतरा नहीं होता, बल्कि आत्मा मर जाती है!" (पृष्ठ सं.13/सौतेलापन) 

संग्रह में आगे बढ़ते हैं - लावारिस लाश, मृगमरीचिका, वो अजीब लड़की, लालबाबू, ईमोशन एक से बढ़कर एक कहानियाँ हैं। यहाँ यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि प्रियंका ओम की बोल्ड कहानियों में सआदत हसन मण्टो, इश्मत चुगताई से लेकर समकालीन कथाकार सूरज प्रकाश तक के कहानियों की झलक कहीं न कहीं मिलती है। इनकी कहानियों में भाषा पक्ष में कसावट के साथ-साथ पात्रों के बीच वार्तालाप का तरीका अद्भुत है जो इनकी लेखनी को पूर्व से चली आ रही या ढ़ोये जा रहे शिल्प से पृथक कर एक अलग पहचान देती है। 

लावारिस लाश एक ऐसी लड़की की कहानी है जिसका जन्म कुँवारी माँ के गर्भ से होता है और उसे जन्मने के बाद ऑरफेन्ज के दरवाजे पर छोड़ दिया जाता है। और एक वार्डन की देखरेख में वह बड़ी होती है, इस रिश्ते को बड़ी गंभीरता के साथ इस कहानी में लेखिका ने पिरोया है। ऑरफेन्ज के बाद का सफर भी पढ़ना काफी दिलचस्प है जहाँ कदम-कदम पुरुषों की मानसिकता, यौन-लोलुपता और कुंठा पर जबरदस्त प्रहार करती हुई लेखिका समय के यथार्थ को बड़ी बेबाकी से सामने लाती है। इस कहानी के कुछ अंश से गुजरते हैं।

"पिछड़े हुए पुरुष शरीर और पहनने वाले कपड़े में फर्क नहीं समझते। जब तक नयी रहती है उसके कलफ लगे सम्मोहन में होते हैं...।" (पृष्ठ सं-30/लावारिस लाश) 

"औरत की सबसे बड़ी क्वालिफिकेशन उसका शरीर है। प्रिंटेड वाली डिग्रियाँ सिर्फ कागज का टुकड़ा होती है जो फ़ाइल की खूबसूरती के लिए होती है, जिसे खूबसूरत लड़कियाँ अपने सीने से लगाकर वॉक इन इन्टरव्यू के लिए तैयार रहती हैं। इन्टरव्यूअर के सामने जब वो फ़ाइल सीने से हटाकर सामने टेबुल पर रखती है तो उसकी फाइल से पहले उसके सीने की उभार का मुआइना होता है...।" (पृष्ठ सं- 31/लावारिस लाश) 

पुरुषों के धोखे, प्रेम के झाँसे देकर इजाजत से यौन सुख प्राप्त करना आज भी हमारे समाज में किस तरह बदस्तूर जारी है, अपने ही प्रेमी द्वारा उसे इस बात पर रिजेक्ट कर दिया जाता है कि वह ऑर्फेन है, उसकी कोई जाति नहीं, कोई धर्म नहीं। अपने रिजेक्शन पर वह कहती है- "सोते वक्त तो धर्म नहीं पूछा था तुमने?" 

"शारीरिक संबंध बनाना और बात है और पारिवारिक संबंध बनाना अलग बात है", लड़के ने यह कहकर बात साफ कर दी थी। (पृष्ठ सं- 36/लावारिस लाश) 

'फिरंगन से मोहब्बत' एक स्पेनिश लड़की 'डल्स' और एक भारतीय लड़के के बीच की एक संस्मरणात्मक कहानी है, जिनकी दोस्ती फेसबुक के जरिये होती है। डल्स कुछ दिनों के लिए भारत भ्रमण पर आती है वहीं वह भारतीय लड़का डल्स का गाइड बनकर साथ रहता है। दो अलग-अलग भाषा, संस्कृति और देश के हैं वो दोनों, उनके बीच के बेतकल्लुफी, संबंध और संवेदनाओं का खुला जिक्र इस कहानी में है। 

"कई बार उसके पारदर्शी कपड़ों से झांकते उसके अंतः वस्त्र मेरे अंदर के पुरुष को झकझोर कर रख देते हैं। लेकिन मैं मर्द और जानवर के बीच के फर्क को नहीं मिटाना चाहता।" (पृष्ठ सं- 66/फिरंगन से मोहब्बत) 

"रात की चाँदनी में चमकती हुई सफ़ेद रेत पर उसका चमकीला शरीर मेरे ऊपर था....हमारे हाथ एक दूसरे के शरीर के सारे रहस्य को बेपर्दा कर रहे थे। मैं...पहनने ही वाला था कि उसने कहा 'मैं प्रस्टीच्यूट हूँ।" (पृष्ठ सं- 69/फिरंगन से मोहब्बत) 

'लालबाबू' ढ़ेर सारे सदस्यों से भरे एक ग्रामीण परिवेश वाले परिवार की कहानी है जहां लालबाबू एवं छोटकी चाची के साथ-साथ लालबाबू एवं घर आयी नयी दुल्हन के बीच चल रहे गुप्त रिश्तों की बारीकियों एवं यौनाकर्षण को दिखाया गया है। लालबाबू को कहानी का मुख्य पात्र बनाकर उसके द्वारा एक समय, परिवेश और बड़े कुनबे में रिश्तों का गूढ़ चित्रण किया गया है। 

"चाची कौन-सी रेखा थी जो इतना बड़ा जोखिम ले लिया। लेकिन ऊ हमको अमिताभ से कम कहाँ समझती थी।...उस दिन भी उसी ने कहा था आज रात को आ जाओ लल्ला, तुहार चच्चा तो खेत पर ही सोयेंगे फसल की रखवाली के लिए।" (पृष्ठ सं- 120/लालबाबू) 

"मैया के साथ भंशा में ऐसी जुगत लगाई कि एक ही आँगन के दूसरे कोने में खाना पकाती अदितवा की कनियाँ को सारा दिन ताड़ते रहते।" (पृष्ठ सं- 121/लालबाबू) 
इसी तरह आगे इमोशन भी एक स्वतः बनी कॉल गर्ल की बेहतरीन कहानी है। पूरे संग्रह में यह कहानी सबसे ज्यादा प्रभावित करती है।हमारे समाज के कई आयामों को खोलती यह कहानी पाठकों को भीतर तक झकझोर कर रख देती है। 

"क्योंकि मुझे पूरा यकीन है एक मर्द का ईमान औरत के ब्लाउज में छिपा होता है।" 

"सभ्य आचरण के बहाने से मर्द मेरी मदद करने आते हैं और तय हो जाता है उसी वक्त, कहाँ और कितने दिन!" (पृष्ठ सं- 142/इमोशन) 

"जब पापा काम के सिलसिले में बाहर गये थे तब पापा के बॉस घर आये थे।...डाइनिंग टेबल पर जूठे बरतन के साथ शराब के खाली ग्लास भी पड़े थे। बॉस का डिनर शूट वहीं सोफे पे पड़ा था मम्मी के बेडरूम से चूड़ी बजने की आवाज आ रही थी।" 

पापा सुबह सुबह आ गये थे...आते ही मम्मी से पूछा था 'डन'? 
मम्मी ने कहा था 'डन डना डन'।" (पृष्ठ सं- 148/इमोशन) 

हिन्दी साहित्य में 'वो अजीब लड़की' प्रियंका ओम का बेशक पहला हस्तक्षेप है लेकिन उनकी कहानियों में परिपक्वता की कमी नहीं।जरुरत है तो थोड़ी और गंभीरता की, बोल्डनेस या सपाटबयानी का यह कतई मतलब नहीं की हम सारी सीमाएँ लाँघ दें। इस संग्रह की कहानियों में कहीं-कहीं पर अति बोल्डनेस के प्रयोग ने कथ्य की मारकता को निश्चित ही प्रभावित किया है। कहन की जल्दबाजी और आतुरता भी कथ्यों की गोपनीयता के संवहन को कमजोर बनाते हैं।बहरहाल, लेखिका की यह पहली पुस्तक है, उनमें गद्य रचने की सलाहयित है, प्रचुर मात्रा में शब्द हैं, अपने शिल्प के साथ भाषा पर अच्छी पकड़ भी है। कहानियों को थोड़ा वक्त देंगी तो जल्द ही अपनी मंजिल साध लेंगी।




लेखिका- प्रियंका ओम

प्रकाशक- अंजुमन प्रकाशन

इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश
मूल्य- 140/-


समीक्षक :
परितोष कुमार 'पीयूष'
जमालपुर, बिहार
रचनाएँ-
विभिन्न साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं, ब्लागों,
ई-पत्रिकाओं एवं साझा काव्य-संकलनों में कविताएँ प्रकाशित।
संप्रति- अध्ययन एवं स्वतंत्र लेखन।
मो०-7870786842, 7310941575
ईमेल- 842pari@gmail.com