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श्रीधर करुणानिधि की कविताएं



श्रीधर करुणानिधि का पहला कविता-संग्रह है, ‘खिलखिलाता हुआ कुछ’। उनकी कहानियां और कविताएँ हमारे बीच लगातार आ रही हैं। वे यथार्थ के बदलते स्वरूप से आगाह करते हैं, उसके लिए चिंता करते हैं... पर अवसाद में ही रहने नहीं देते, उम्मीद भी बँधाते हैं। आइए, हम उनकी कविताएँ पढ़ते हैं।


1. थोड़ा और अंधेरा दे दो

अंधेरगर्दी में कितना अंधेरा मिलाया जाता है
अंधेर को अंधेरे की और कितनी जरूरत होती है?
है कम तो थोड़ा और बढ़ा लो‌ भाई
रोशनी के स्याह अंधेरे में
हॉकी स्टिक, कट्टे और पेट्रोल बमों के साथ
चौराहे पर रंगबाज की तरह मंडराने आओ
बांए हाथ से आग का खेल खेलने आओ
गुटखे की दुकान से सिगरेट और माचिस मांगते हुए
अचानक माचिस की आग को
शांत और खुशमिजाज शहर पर पिघलाए लोहे की तरह
उड़ेल दो
हो सकता है भाई तुम मेरे मित्र-परिचित होओ
फिर भी शहर के किसी सुन्दर पार्क की बेंच से
अचानक निहत्था आदमी समझ कर मुझे ही
खींचकर चौराहे पर ले आओ
देश की सेवा करने की गुस्ताखी करो
यह कहते हुए कि 'प्यारे देश वासियो
हमें इस धर्म के संकट से उबार लीजिए
हमें अपना काम करने दीजिए
वे हमारे देह के पसीने में बदबू की तरह घुस आए हैं’

ये सोचना गलत है तुम सतर्क नहीं करते
हम तुम्हारी आदतों को इग्नोर कर जाते हैं
ये सोचना गलत है कि तुम और तुम्हारे जैसों
की भाषा को चाय के छन्ने की तरह छाना नहीं जा सकता
बस हम चाय गटक कर भाषा के पीछे छिपे विचार पर
बात करना भूल जाते हैं
ये सोचना भी ग़लत है कि तुम और तुम्हारे जैसे लोग
माला पहने हुए गलियों में
नहीं घूमते खुलेआम
तुम पर फूलों की बरसात करने वाले हम नहीं हैं
शायद ये सोचना भी ग़लत ही है

जब भी कोई सचेत होकर भाषा पर बात करेगा
उसपर भी बात करने में तुमको कोई गुरेज नहीं होगा
ये सोचना गलत होगा कि तुम अहिंसा पर बात नहीं कर सकते
रोशनी पर बात नहीं कर सकते
हम किस मुंह से कहें
किस वक़्त के आगे
हाथ फैलाएं
क्या यह कहते हुए
कि थोड़ा और अंधेरा ही दे दो भाई...


2. भुतकही

पारखी आँखे नजरें भांप लेती हैं
आवाज का वजन आवाजें खुद नाप लेंती हैं
और बोलने से रास्ते में क्या
भूगोल नहीं आता है?
फुसफुसाने से
कहानियों में पालथी मार कर बैठे 
आदिम मुहावरे बाहर नहीं आते?
इतिहास हमारे न थे
और न उन गपों के संदर्भ
क्या देवता ऐसी डींगें हाँक सकते हैं?
क्या देवता दासों के सिर पगड़ी रखकर
बेइंतहा खुश हो सकते हैं 
क्या बालों में फूलों का जूड़ा लगाई 
सुन्दर स्त्रियों की ओर 
मंत्र बाण चलाए बिना रुक सकते हैं
हवाएँ चलती रहती हैं चलती रहती हैं
मौसम बदलते रहते हैं बदलते रहते हैं
देवताओं के स्वाद भी!
आमीन!
और क्या ऐसा हो सकता है 
कि छीनी गई जमीनों पर स्वर्ग न बने
राजपथ की बिना गड्ढे वाली समतल काली चिकनाई पर कैद से छूटा दास-अपराधी
मूर्छित न हो?
क्या रक्त-पिपाषु जबड़े की पकड़ से आक्रांत
क्रांति-क्रांति चिल्लाते राजशी वेशधारी
देवताओं के महलों की ओर ना जाकर
उस ओर चले जाएँ
जहाँ बगीचे के सड़े फल फेके जाते हैं..
वहाँ जहाँ गुप्त गुफाओं में बन्दी रखे जाते हैं

3. रोटी

कछुए की उभरी पीठ की लगभग दुगूनी 
उसकी छाती और पीठ है..
क्योंकि ये मेरे अनुमान का कच्चा सा हिसाब है
वसंत के आने की आहट में 
गालों के फूलने और सिंदूरी रंग के हौले से पसर जाने को 
इसमें मिला कर देख लें 
हो सकता है वो तब भी मिले
पंजाब हरियाणा और दिल्ली से लौटते 
रेल के डिब्बे में मजदूर के गमछे में 
सूखे पापड़ की शक्ल में 
छंटनी के बाद उनके
बटुए वसंत के सूखे पत्तों से पड़े-पड़े 
हवा के थपेड़ों से यहाँ-वहाँ हो रहे
अब आप कहीं चाँद के बारे में तो नहीं सोच रहे
वो बौराकर कहीं फूल गया होगा
अगर सपने में यह हो भी गया हो
गुदरी लपेटे बुढ़िया अपने चूल्हे से उतार कर
चिमटे से उसको फोड़ देगी
फूले गाल सा मचलता वसंत
बुढ़िया के खोंइछे में सूखी रोटी होकर
पंजाब से लौटे बेटे की बाट जोहता है...

4. माँ को धरती पुकारता हूँ

पृथ्वी को इतना धीरे बुलाता हूँ
कि एक गेंद लुढ़कती हुई मेरे पास आती है
जिससे मैं दिन भर खेलता हूँ, उसे पटकता हूँ...
तितली के पीछे दिन भर 
इस कदर भूखा- प्यासा भटकता हूँ 
कि चाँद सा दूध का कटोरा सामने आ जाता है
जिसे मैं फेकता हूँ इधर-उधर गुस्से से
कितने मनुहार के बाद चम्मच- चम्मच दूध जाता है मेरे दुधिया दाँतों के पार
मैं एक बच्चा हूँ हमेशा से 
बड़ा होकर भी एक बच्चा होता हूँ
मेरे नाखून बड़े हो रहे हैं दिनों दिन
वे जख्मी करने लगे हैं सबको
तब भी वे बाहें मुझे सहारा देती हैं 
तब भी एक गोद मेरा भार उठाने को तत्पर है
एक पुचकार है 
जैसे हवा पेड़ों को देती है
जैसे चाँदनी रतजगे पक्षी को देती है
जैसे धरती अपनी गोद में सोए बीजों को देती है
इसलिए
माँ को धरती पुकारता हूँ....


5. टकटकी भरी निगाह

सारी उम्मीदें वहीं टिक जाती हैं
जहाँ कतार बाँधकर नन्हीं चीटियाँ
अपने से दूना आकाश उठाए 
धरती के एक छोर से दूसरे छोर चलती चली जाती हैं
कड़ी धूप में मजदूरों का समूह
हाइवे की रोड़ियाँ बिछाता हुआ
दुनिया की सीमाओं को छोटा कर 
एक अन्तहीन रास्ता बनाता चला जाता है
सड़क किनारे घास चरते पशुओं के नथुने की हवा से
उड़ा तिनका सबसे जुल्मी तानाशाह की आँख में जाकर
उसके साम्राज्य में खलबली मचा देता है
समूह को लड़ने की शक्ति देकर
अकेले में रोज दुख से कराहता एक आदमी
अपने सबसे प्रिय व्यक्ति की गोद में
सिर रखने की जगह तलाशता है
और समूह को अपनी पहचान देकर
कमर कसता है रोटी की लड़ाई के लिए
उम्मीदें वहीं टिक जाती हैं....


6. तय कर लेते हो

बस्तियाँ खाली हो रही हैं...
'खाली होना' कितना छोटा शब्द है
पर है कितना हहाकार भरा
हथियारों के ज़खीरे भरे जा रहे हैं
'भरा जाना' कितना बड़ा शब्द है
पर है कितना खोखला
नंगी आँखों दिखतीं हुई उल्का पिंड की बारिश
तिनके- तिनके जलते हुए जंगल 
बसे हुए घरों की छतों पर होतीं आतिशबाजियाँ...
जिसने भी कर रखी है 
इन दृश्यों के ख्वाबों की खेती..
क्या उन्हें नहीं पता खाली होने का अर्थ
क्या उन्हें खंडहर के चेहरे याद नहीं
वे जो तय कर लेते हैं मिनटों में
सुकून का सौदा
वे जो बड़े ठाठ से उगा लेते हैं बम और बारूद
वे जो टैंकों का मुँह मोड़ देते हैं बस्तियों की तरफ
पूछो उनसे
पूछो कि कैसे संभाले हो हुनर 
फिजा बदलने की???

7. थाप

हवा का शोर मद्धिम है...
सन्नाटे की उदासी नहीं
सड़कों के दोनों तरफ अनवरत
जिंदगी के काफिले..
शोर नहीं 
आहटें 
कितना सूखा?
फिर भी सफर के वे दोस्त 
वे हरे दरख्त
थाप की तरह बजते हुए
एकांत के संगीत में...


8. पतझड़

'थोड़ा रुको', 'साँस लो'
मैंने टूटे पत्ते से कहा
पके अमरुद की खुशबू 
मेरे पास पसरी किताबों पर बिखर गई
पन्नों में जीवन इतना था
जितना नीचे झड़े पत्तों में खुद पेड़
सूखे में एक विचार पत्ता हो गया था
'पतझड़ आया हुआ है
और विचार पत्तों की तरह झर रहे हैं'
एक राजपुरुष घोषणा करता है....


9. पृथ्वी के पास

पूछ ही लेंगे
मिट्टी होने पर 
पौधों की जड़ों में चिपकी मिट्टी का तजुर्बा 
जान ही लेंगे
फलों को पकते देखकर 
एक छोटी चिड़िया के चोंच में हुई 
अजीब सी अकुलाहट
देख ही लेंगे
खिलते फूलों की ओर 
जहाँ से आती तितली के पंखों से
बनते हैं इस धरती के रंग
कि फूलों के रंग से तितली
कि मिट्टी के रंग से हम-तुम 
कि पकते फलों से खूशबू की अनंत परतें
कि एक चिड़िया की अकुलाहट
और हरेपन की छाया में बादल का बनना
और फिर
पृथ्वी अपने हरे सपने से
कूदकर गिरती है एक सूखे जंगल में..


10. कौवे

तीतर और मुर्गे के सामने
जब भी प्रश्न आएगा 
कौवे उत्तर देने के लिए आगे आ जाएँगे 
और इस तरह से 
दुनिया के तमाम सवालों पर कौवे की राय
महत्वपूर्ण हो जाएगी..
कर्कश आवाज 
अब जानी पहचानी हो जाएगी
जानते जानते लोगों को मिर्च की तासीर 
जँच जाएगी...
कहते हैं आवाज को आवाज से नहीं 
उम्मीद से बाँधा जाता है
इसलिए
एक साथ काले डैनों वाली उम्मीदें
आसमान को बांध लेंगी...
किसी प्रश्न के जवाब में 
तीतर, बटेर, गोरैया, मुर्गे या अबाबील की आवाजों के बदले
सिर्फ कौवे की आवाज आकाशवाणी की तरह गूंजेगी...


11. पुकारते हुए उन्हें....

बुझौवल सा उलझा हुआ
एक रस्ता बन्द सा कि जाओ कहीं भी
घूम कर पहाड़ सा एक अंधेरा डर का
एक तन्हाई सफेद दिखती चादर में लिपटी 
अंधेरी स्याह गुफाओं सी .......... पड़ी है
पुराने खत- सी छूटी हुई यादें 
कोई अन्जान गली 
कोई शहर अनचीन्हा
बस इतना भर कि देर रात चाँदनी से नहाई मुंडेरें
पुकारने की हद तक बुलाती हुई.....
टूटे-फूटे मटके से कुछ रिश्ते
बेडौल सी कुछ आकृतियाँ
एक पुल ऊपर जाता हुआ 
सड़े पानी के तालाब में तैरती गेंदें
उन्हें ललचाई आँखों से देखते खेलने को आतुर बच्चे...
मैंने अब जाना
किसी को पुकारने के लिए जिन्दगी बहुत थोड़ी है...


12. बक्सा

मोह से खुलता है प्यार 
प्यार से बादल के हल्के भीगे गट्ठर
गट्ठर की भीगी बासी खुशबू से 
खुलता है तन 
मन की चाबी पास हो तो मुझे दो
ताजा होकर जाओ 
कुएँ की पीठ पर ईंट के टुकड़े से
मेरा नाम लिख दो
बहुत सहेज कर एक खुशबू को 
पानी की सतह पर
बंद कर दिया
तेरे नाम के साथ 
मैंने...


13. बुलबुले

हवा का रंगहीन 
पानी के रंग से अलग 
झील में लाश सा डूबे दरख्त पर
मीठे शब्दों की इबारत लिखता है
'सूखा' एक भूरा रंग है
पहाड़ से लिपटा, धरती की गोद में सोया
पानी के बुलबुले का आईना 
कितनी झूलती गर्दनें दिखाता है...
'किसान' एक गूंजती आवाज है
हर जगह, हर ओर
कितनी छातियाँ फटती हैं
नकली उम्मीदों के सूखे से!
धरती फट रही है
दिखाता है झील के पानी में 
पत्थर की हिलकोर से बना एक बुलबुला....


परिचय :

नाम - श्रीधर करुणानिधि
जन्म - पूर्णिया जिले के दिबरा बाजार गाँव में
शिक्षा - एम॰ ए॰ (हिन्दी साहित्य) स्वर्ण पदकपी-एच॰ डी॰पटना विश्वविद्यालयपटना।
प्रकाशित रचनाएँ- दैनिक हिन्दुस्तान’,‘उन्नयन’ (जिनसे उम्मीद है काॅलम में),‘पाखी’, ‘वागर्थ’ ‘बया’, 'वसुधा', ‘परिकथा’ ‘साहित्य अमृत’, ‘जनपथ’ ‘छपते छपते’, ‘संवदिया’, ‘प्रसंग’, ‘अभिधा’, ‘साहिती सारिका’, ‘शब्द प्रवाह’, ‘पगडंडी’, ‘साँवली’, ‘अभिनव मीमांसा’, ‘परिषद पत्रिका’ आदि पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ,कहानियाँ और आलेख प्रकाशित। आकाशवाणी पटना से कहानियों का तथा दूरदर्शनपटना से काव्यपाठ का प्रसारण।
प्रकाशित पुस्तकें-1. ‘वैश्वीकरण और हिन्दी का बदलता हुआ स्वरूप’ (आलोचना पुस्तकअभिधा प्रकाशन,मुजफ्फरपुरबिहार)
2. ‘खिलखिलाता हुआ कुछ’ (कविता-संग्रहसाहित्य संसद प्रकाशननई दिल्ली)
संप्रति-
बिहार सरकार की सेवा में
(वाणिज्य-कर पदाधिकारीवाणिज्यकर अन्वेषण ब्यूरो,मगध प्रमंडल,गया )
संपर्क- श्रीधर करुणानिधि
द्वारा- श्री श्याम बाबू यादव
चौधरी टोलापत्थर की मस्जिदमहेन्द्रूपटना-800006
मोबाइल- 09709719758
ई-मेल- shreedhar0080@gmail.com

कहानियों की तरह हैं उनके चेहरे : श्रीधर करुणानिधि



श्रीधर करुणानिधि एक कवि होने के साथ ही आलोचक एवं कहानीकार भी हैं। उनका पहला कविता-संग्रह है 'खिलखिलाता हुआ कुछ'। आये दिन दैनिकों एवं पत्रिकाओं में उनकी कहानियां आती रहती हैं। उनकी कविताओं के लय एवं प्रवाह की झलक उनकी कहानियों में देखने को मिलती है और यह उन्हें बिखरने नहीं देती। अपनी कहानियों के कथानक वे हमारे बीच से चुनते हैं और पढ़ते हुए पाठक महसूस करता है कि यही हमारे समाज का सच है। तो आइए पढ़ते हैं उनकी कहानी

कहानियों की तरह हैं उनके चेहरे : श्रीधर करुणानिधि
इधर दुनिया में एक बड़ी घटना घट गई लेकिन तेज-तर्रार मीडिया में यह खबर आई ही नहीं। सरसों के पौधों में फूल आ गए हैं....पीले-पीले फूल!”....हा....हा...हा बी सीरियस यार!” “ओके...ओके... नहीं मैं उस घटना की बात नहीं कर रहा। गाँवों से बैल खत्म हो चुके हैं। हाँ सीरियसली कोई भी बैल नहीं बचा गाँवों में।आप जरूर कहेंगे वाहयात! हाउ बोरिंग न! एवरी यूथ हैज इनट्रेस्ट इन गोशिप्स लाइक लव स्टोरी आॅफ सलमान-कैटरीना, करीना-सैप...आॅर रणवीर-पदुकोने व्हाट पेटी सब्जेक्स आर यू टाॅकिंग अबाउट!नहीं नहीं दोस्त! आपके पीले फूलों में कुछ भी नया नहीं। फूल हर साल आते हैं। इस बार भी आए होगें, मुझे क्या?
बात दरअसल यह है कि अभी-अभी होण्डा की चिता सरसों के खेत के पास जली है। लेकिन देखिए सरसों के फूलों को! फिर भी खिल रहे हैं और हवा के साथ हिल रहे हैं।
....उसे हम प्यार से होण्डा कहते थे। उसका नाम था करण। वह होण्डा कार का दीवाना था और अक्सर कहता कि देखना मैं एक दिन होण्डा कार ड्राइव करते सीधे गाँव आऊँगा। कल ही उसी शहर के रेलवे स्टेशन पर लाश मिली है उसकी, जहाँ वह सपने बुनता...जहाँ थे सिर्फ पैसे और पैसे का मायाजाल....। साल भर से गायब था। करोड़पति बनने के ख्वाब सजाए भागा था। साल भर से लोग ढूंढ रहे थे उसे। होण्डा की माँ परेशान। पिता परेशान। साथ में पूरा गाँव परेशान।
गायब होने वक्त शहर के मशहूर काॅलेज के हाॅस्टल में वह ग्लोबल विश्व की भाषा अंग्रेजी का स्टूडेंट था और ठीक उसी दिन उसके पिता गाँव से आए थे रूपये लेकर। उसके पिता की भाषा हिन्दी थी, जिसमें देहाती बोली की छोंक मिली थी। पिता के वापस होते ही वह भी गायब हो गया।
जिस समय उसके पिताजी हाॅस्टल के कमरे में थे, होण्डा के हाथ में इंगलिश की एक ब्रांडेड शराब की बोतल थी जिसे पीकर भी नशा नहीं हुआ था उसे। पूरे होशो-हवास में उसने अपने पिता को हिकारत भरी नजर से देखा और अंग्रेजी का सबसे आसान जुमला...नाॅनसेन्स कहा। और साथ ही कहा पुअर’!
यू विल बी आॅलवेज पुअर। एण्ड लुक! माइसेल्फ इज करण रस्तोगी...आई विल बी मिलयेनयर बिदिन फ्यू वीक्स। यू नो मिस्टर स्कूल मास्टर!।
उसने फिल्मों के किसी पात्र के प्रभाव में अपना नाम करण कुमार से करण रस्तोगी कर लिया था। पिता ने आरजू की कि वह उसके महीने के खर्च को बढ़ाकर 5 हजार कर देगा। यह जानकर कि वह यानी करण, उसके खानदान का पहला आदमी है जो इस बड़े शहर में आया है और अपने खानदान का नाम रोशन करने की ख्वाहिश को जीवित रखने वाला एक मात्र उम्मीद!
खुद उनके पुरखों ने उन्हें पढ़ने किसी शहर नहीं भेजा और गाँव के स्कूल से मिडिल पास कर वे शिक्षक बने....शिक्षक बनने से पहले तक डोरिया पैंट पहन कर ही उसने जिंदगी काटी, भले आज धोती-कुर्ता पहनने लगे। पर होण्डा के लिए तो उसने पूरी छूट दी। लेकिन होण्डा बोलता रहा....बड़बड़ाता रहा।
आई कांट सरवाइव लेस देन टेन थाउजेण्ड। इफ यू विल नाॅट गिव द मनी, आई विल कमिट सुसाइड।
मास्टर साहब ने बेटे को पहली बार अंग्रेजी बोलते सुना था। खुश तो बहुत हुए वे लेकिन थोड़े डर भी गए जबकि उन्होने शोले फिल्म में वीरू को सुसाइड की धमकी देते देखा था और वो जानते थे कि सुसाइड की धमकी कितनी खोखली होती है अक्सर। फिर भी अपने इकलौते बेटे के पुल से कूदने के नाम पर वो थर-थर कांपने लगे।...होण्डा लगातार फिप्टी लैक्स’ ‘फिप्टी लैक्सकी रट लगाता रहा। न जाने उसने ये शब्द कहाँ से सुने थे। अपने काॅलेज में दोस्तों के बीच सिगरेट के धुएँ के छल्ले बनाने की प्रायक्टिस करते वक्त। या पहली बार शहर के रैस्टोरेंट में किसी लड़की को गर्ल फ्रैंड समझ कर डिनर कराकर उल्लू बनते वक्त।

इस लड़के का कुछ नहीं हो सकता। ही इज ए बिग चीटर। ही इज जस्ट चीटिंग हिज फादर!
और इस तरह से इस शताब्दी के गाँव के एक होनहार आखिरी उम्मीद का अंत होता है। विचारधारा का अंत और सदी के आखिरी आदमी की तरह।
गाँव के पीएचसी के डाॅक्टर ने लाश का मुआयना करते हुए कहा था। इसकी कमर के पास चीरा लगा हुआ है। दोनों किडनी निकाल ली गई है। यह किसी किडनी-चोर रैकेट का शिकार हुआ है।” “हारिबल! रियली ए केस आॅफ बिट्रेयल!
पगडंडी के सहारेे सड़क पर पहुँचते हैं सब लोग। लाश जलाकर भीड़ तितर-बितर हो रही है। कई लोग तालाब में नहाएँगे कई लोग कुएँ पर और कई पास चल रहे पंप सेट पर। फिर भीगे शरीर ही घर की देहरी पर खड़े हो जाएँगे और घर की महिलाएँ सरसों के दाने जलाकर आग की परिक्रमा करा कर ही उन्हें घर में प्रवेश करने देंगी। कैसी रस्म है यह!
झाड़ियों में भी जहाँ-तहाँ इक्के-दुक्के फूल खिले हैं।
जंगली गेंदा के फूल हैं कि किसी प्यारे बच्चे के फूले गाल!
इस धरती का न जाने कौन सा वसंत है। इस गाँव का सबसे पुराना बरगद का पेड़ भी नहीं बता सकता। मैं तो झाड़ियों के जंगली फूलों और सरसों को खिलते देखकर अपने शरीर में तेइसवां वसंत या सूखा जो कहें- महसूस कर रहा हूँ और मुझे होण्डा यानी करण रस्तोगी के इस भयानक अंत के बाद हीरो चाचा की कहानी याद आ रही है।
हीरो चाचा! न जाने धरती के किस भाग में किस ऋतु का शीत-ताप झेल रहे हैं।
बारह बरस पहले एक दिन की बात। गाँव के रेलवे हाॅल्ट पर रोज की तरह ट्रेन आती है। दो घंटे देर अपनी आदत मुताबिक। उसी ट्रेन में अपनी किताबों की पोटली सहित चढ़ जाते हैं हीरो चाचा। दमघोट भीड़ में भी नीचे बैठ कर किताब खोले उसमें खो जाते हैं हीरो चाचा।
ऐसे खोये… ऐसे खोये जैसे झुंड से बिछड़ती है चिड़िया...ऐसे डूबे ऐसे डूबे जैसे नदी में डूबता है पनडुब्बा! वह ट्रेन भी क्या ट्रेन थी!...खूब चली खूब चली....जाने कहाँ-कहाँ गई। जाने किस-किस नदी-नाले के ऊपर से गुजरी। शायद दुनिया के सबसे शक्तिशाली घोड़े की तरह दौड़ी....खेत-खलिहानों को रौंदती… और उसपर बैठे हीरो चाचा न जाने क्यों किताबों मे पन्नों में घुसते ही चले गए... भीतर और भीतर! हूबहू हैरी पोटर की तरह।
कोई खंडहर दुनिया का आखिरी खंडहर नहीं हो सकता
कोई घर सिर्फ आदमी से नहीं बनता
बिना पतंग के यह धरती आसमान में नहीं उड़ सकती
किताबों की सुरंगो से ही सपनों तक पहुँचना होता है
हमारा घर खंडहर बना पड़ा है। यह सही है कि यह आखिरी खंडहर नही।(एक दूसरा खंडहर तो होण्डा का ही घर है।) जब वह घर था, खंडहर बनने से पहले तब उसमें सिर्फ आदमी ही नहीं रहते थे। गोरैया छप्पर में खोता बनाकर खूब उत्पात मचाती। देहरी पर पिंजड़े में कैद सुग्गा खूब बोलता। छोटा सा कुत्ता मिक्की खूब दुलार मांगता और दरबे में चितकबरा कबूतर उड़-उड़ कर पतंग बन जाता और हमारी छोटी सी दुनिया को अपने नन्हे पंखों में लेकर वह उड़ा करता...खूब ऊँचे आसमान में।
दुनिया बदल रही है। क्यों बदल रही है दुनिया, क्योंकि किसी ने इशारे ही इशारे में कहा है कि बिना चोला बदले खूबसूरत नहीं हो सकती है यह दुनिया। क्या हुआ है?...बस पूछो मत दोस्त!...कहो कि क्या नहीं हुआ है....सुनो केवल..... महसूस करो अगर कर सकते हो। अगर सूंघ सकते हो तो सूंघो कि हवा में किस शराब के किस ब्रांड की दुर्गंध तैर रही है। देखो जाकर शराब की दुकानों पर...कौन खरीद रहे हैं! एक बार चस्का लगा दो फिर देखो इसका मार्केट! कोई जरूरत नहीं विज्ञापन की....बड़ी चेन है लौंडों की.....फिर क्या! कंडोम बेचो....हा...हा...हा।
पगडंडियों से गुजरते हुए एक सपना बहुत याद आया
ठूंठ पेड़ देखकर एक चिड़िया बहुत याद आयी।
मौसम खिलने का था पर जाने क्यों एक सूखा-दिन याद आया
बबुआ सुने कि हीरो बड़का आदमी बन गया है। हमरा त पहले लग गया था। जेतना किताब उ पढ़ रहा था लगता था बड़का आदमी बन के रहेगा। हम तो हरदमे देखते थे कि खेत के आर पर, गाछी के नीचे, मचान पर, मैदान मेें सब जगह किताब खोल के खोया रहता। जाए घड़ी भी पोटली में किताब बाँधे मिला था टीशन पर...हम आ रहे थे बीज और दवाई लेके...बस खाली हाथ भर हिला दिया....बाय बाय कह दिया। हम का जाने बबुआ कि कहाँ जा रहा है। तू तो शहर में रहे तेरे पिताजी कित्ता खोजे हीरो के! अब लोग बोलते हैं कि बड़ा आदमी बन गया है हीरो...एकदम हीरो जइसा!
रामधन काका से सुना हीरो चाचा का मिथक! है न सुन्दर। हीरो को तो हीरो ही होना चाहिए। उसे लड़ना चाहिए। टकराना चाहिए हर जुल्म से। मुझे तो हिन्दी सिनेमा में एक ही हीरो लगते हैं हीरो जैसे। सन्नी देओल। एक-एक हाथ ढाई किलो का...जब पड़ता है तो आदमी उठता नहीं उठ जाता है.....आदमी के शरीर में ट्यूबवेल धंसा देने वाले....पाकिस्तान जाकर...अकेले ही पूरी फौज से लड़ कर वापस आ जाने वाले। पर यकीन कीजिए हमारे हीरो चाचा ऐसे नहीं थे...बदन भी इकहरा...नाटा कद....सांवले...बहुत कम बोलते...चिल्लाते कभी नहीं। लेकिन हीरो से कम नहीं थे।
.....न जाने कहाँ-कहाँ टकरा रहे हैं हीरो चाचा....जाने किस ट्रेन की किस बौगी में बैठे अपनी किताबों में खोए कौन-कौन से सपने बुन रहे हैं वो। जाने कौन सी सड़क उन्हें कहाँ ले जा रही है। किसी दोराहे-तिराहे पर खड़े अपनी किताबों को पलट कर कितनी बार देखते होंगे वो कि कौन सी राह होगी जिसपर चलने से वो पहुँच जाएँगे सपनों तक! मैं तो कहता हूँ बिना डरे-सहमे, बिना खाए-पीए, बिना रूपये-पैसे के वो किसी भी राह को चुनकर चलते चलें गए होंगे। उनके सामने पहाड़ आया होगा....धत्! बोलकर उसे अपने हाथों से बगल कर वे आगे बढ़ गए होंगे और उसी की पीठ पर लदा बादल उनका साथी बन गया होगा। बार-बार समझाने पर भी न मानने पर उन्हें गुस्सा आया होगा और  फिर छड़ी उठाकर उसने बादल को पीट दिया होगा। वही बादल मेरी तरह भरभराकर रो दिया होगा। नहीं मैं तो कहता हूँ दुखी नहीं कर सकते वे किसी को। वो तो जिद्दी बादल को वापस भेजने  का उनका तरीका होगा जैसा कि वो अपने प्यारे कुत्ते मिक्की के साथ करते जब खेत जाते वक्त वह मना करने पर भी उनका साथ धर लेता।
...बढ़ते-बढते फिर वो बढ़ गए होंगे किसी अद्भुत अदृश्य सपने की तलाश में। उन्हें नहीं पता कहाँ मिलेंगे वो। हमारे साथ हमारे गाँव में भी उन्होंने कम नहीं ढूंढा। नदियाँ...तालाब...गाछ-वृक्ष...जंगल...कुएँ... गाय-गोरू के झुंड, जंगल-झाड़ों में, फसलों के बीच, खेतों की मेड़ पर। हर जगह...जहाँ उन्हें लगता। हर उस जगह जहाँ लोगों को नहीं लगता कि यहाँ भी कुछ हो सकता है।
किताब थी छोटी
उसमें एक महल था बड़ा
कहीं तहखाने में खजाना था एक
उसकी छोटी सी चाबी थी कहीं
ढूंढना जरूरी था सपनों को
बदलना जरूरी था दुनिया को
और सपनों को बदलने के लिए ही तो चला था होण्डा भी! गोबर लीद और कचरे के बीच ही वह गया था एक बड़े शहर में। इतनी रोशनी में तो उसकी आँखें रहने की आदी ही नहीं थीं फिर कैसे सपने और कैसी ख्वाहिशें। चूहे की तरह अंदर ही अंदर दौड़ लगाता रहा वो। छटपटाता रहा। अपने खानदान का पुअर होने का कलंक जल्दी से जल्दी धो डालने के लिए व्याकुल हो करता रहा भाग-दौड़।
सबसे पहले अपने खानदानी रंग-जमुनिया फास्ट कलर-को पोंछ डालने के लिए उसने बाजार के विख्यात माॅल से एक मशहूर क्रीम खरीदी और बड़ा सा आईना लाकर उसके सामने खड़ा होकर चेहरे और बांहों पर उसे लेप लिया। शाहरूख खान उसके सामने नाचने लगा...मर्द होकर लड़कियों वाली क्रीम क्यों! फेयर एंड हेंडसम बनने के लिए इस्तेमाल कीजिए”..... चंद मिनटों में गोरा कर देने वाली क्रीम!
अगर आप चाहते हैं कि लड़कियाँ आपसे चिपकी रहें। अगर आप चाहते हैं कि द पाइपर आफ हेमिलीनकी तरह लड़कियाँ आपकी मादक देह की धुन पर खिंची चली आएँ तो इस्तेमाल कीजिए धान के सड़े हुए पुआल और पेसाबी पसीने की गंध को दूर करने के लिए पावरफुल डियोडरेन्ट! एक्स’ ‘वाइल्ड स्टोन‘ ‘एटीन प्लस’ ‘इट गिव्स ए माचो फिलिंग’....बस बस काफी है।
ये तो ट्रेलर है इस कहानी का। चलिए अनुमान लगाते हैं कि क्या-क्या हुआ होगा होण्डा के साथ और हीरो चाचा के साथ। सोनी चैनल पर आने वाले सीआईडी में भी तो किसी के साथ हुए हादसे में मिले क्लू के आधार पर ही तहकीकात की जाती है.....आईए हम और आप मिल कर खेलते हैं यह अद्भुत खेल...माफ कीजिएगा मेरा ध्यान भटक कर सोनी पर आ रहे एक और महासीरियल कौन बनेगा करोड़पति पर चला गया....लेकिन देखिए मेरा उद्देश्य आपको भटकाना नहीं...बल्कि आपके अंदर के छिपे सीआईडी तक पहुँचना है ताकि आपकी प्रतिभा के साथ न्याय हो सके। कोई भी नहीं चाहेगा कि होण्डा के साथ जो कुछ हुआ वह किसी और के साथ हो।
.....दरअसल इसमें कोई बुराई नहीं कि किसी घटना के बारे में अनुमान लगाया जाए। हमारा सारा इतिहास लेखन हमारे पूर्वजों के क्रियाकलापों का अनुमान भर है। वो छोड़ क्या गए हैं टूटे-फूटे खंडहर....कुछ गहने....टूटे हुए मटके..और क्या? बस इतनी चीजों पर ही हम उनकी गतिविधि उनके पतन का इतिहास लिख डालते हैं तो फिर होण्डा और हीरो चाचा के बारे में क्यों नहीं!
पूरे एक साल तक होण्डा उर्फ करण कुमार उर्फ करण रस्तोगी ठोकरें खाता रहा होगा...ऐसा अनुमान किया जाना चाहिए। कल ही उसकी डेड बाॅडी बरामद हुई है और बाॅडी की स्थिति देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि उसकी डेथ तीन दिन पहले हुई होगी यानी उसकी दूसरी किडनी इन्हीं दिनों निकाली गई होगी।(यह अनुमान किया जाना बुरा नहीं है कि कोई जालिम भी दोनों किडनी एक साथ नहीं निकाल सकता। हो सकता है कि एक किडनी का दाम तय कर होण्डा की एक किडनी निकाल ली गई हो और बाद में दूसरी का दाम तय होने के बाद दूसरी किडनी। हालाँकि ऐसा भी हो सकता है कि दोनों किडनी एक ही साथ निकाली गई हो।)
फिर उसे शहर के उस बड़े रेलवे स्टेशन पर वेटिंग रूम में रोगी के समान ट्रीट करते हुए अर्थात सहारा देते हुए लाया गया होगा। भीड़ तो वहाँ होगी ही लेकिन लोग समझ रहे होंगे कि एक रोगी है। लाश को ऐसे लाया जा सकता है इसका किसी को अनुमान नहीं होगा। फिर उसे वहीं लिटा के चादर से ढक कर कातिल चलते बने होंगे। दिन भर सोते रहने और कोई हरकत न करने के बाद लोगों का ध्यान उस ओर गया होगा और तब स्टेशन पर काफी हलचल मच गई होगी। इस सिचुएशन के बाद आप चश्मदीद गवाह मुझे बना सकते हैं क्योंकि उस लावारिश लाश की पहचान मैंने ही होण्डा की लाश के रूप में की जब मैं उस बड़े स्टेशन के रिजर्वेशन काउंटर पर टिकट की बुकिंग करा रहा था। ओ माय गाॅड!आप शायद शिवाजी साटम अर्थात सीआईडी के एसीपी प्रद्युम्न की तरह कह रहे होंगे या फिर हाथ हिला-हिला कर कर रहे होंगे पता करो अभिजीत! पता करो दया!
हो सकता है आप मुझे अपने शक के दायरे में लेना चाहें। इट्स ए हाॅरिबल स्टोरी...इट्स केस आॅफ प्रोपर बिट्रेयल! लेट्स फाइंड आउट द इंगेजमेंट आॅफ एनी किलर लेडी! किलर लेडी! इट्स आलवेज पाॅसिबल।”
.....जाते वक्त होण्डा अपने हाॅस्टल के कमरे में कपड़े टांगने की खूंटी पर अपनी लगभग सारी प्यारी शर्ट छोड़कर गया था। उसकी प्यारी मरून कलर शर्ट जिसे वह लाल ही कहा करता, खूंटी पर ही टंगी थी। बेग-पाइपर की कुछ बोतलें और सिगरेट के कुछ डब्बे उसके टेबुल पर थे। उसने अपने जूते भी रूम में ही छोड़े हुए थे...यानी वह स्लिपर पहन कर ही गायब हुआ।
जरूरी नहीं कि दुनिया के अंत के समय
बड़ा धमाका हो और उसके बाद
अंत हो जाए सपनों का
सपनों के अंत के साथ ताश के महल के समान
दुनिया खत्म हो सकती है
रात हो गई है। और गांव में वैसे भी रात कुछ ज्यादा ही लंबी होती है...न बिजली न बत्ती बस लालटेन की फीकी तंबई रोशनी! होण्डा के घर से उसके माँ के सुबकने का स्वर भी दूर तक सुना जा सकता है। हम ठंड की दबिश महसूस कर सकते हैं जैसे कोई अपराधी और उसका परिवार पुलिस की दबिश महसूस करता है।
रामधन काका के दरवाजे पर अलाव के पास बैठे हैं हम। हमारे साथ दो बुजुर्ग हैं। एक रामधन काका और दूसरे सरजुग काका। हम दोनों बुजुर्गों का स्वागत करते हैं इस कार्यक्रम में जिसका नाम है....दो चरित्रों होण्डा और हीरो चाचा में से एक हीरो चाचा के गायब होने के बाद उनके जीवन की संभावनाओं और उनकी मृत्यु की आशंकाओं के बीच उनके संघर्ष के पहलुओं की तलाश। यह बताते हुए कि होण्डा की लाश तो जल चुकी है और हीरो चाचा के बारे में पूरा गांव जानता है कि वे बड़े आदमी बन गए हैं। कहाँ बने? बड़ा आदमी का मतलब क्या? कोई नहीं जानता। इसलिए हम दोनों बुजुर्गो से सिर्फ उनकी स्मृति में बसे हीरो चाचा की तस्वीर का विश्लेशण करेंगे। उन्हें यह एहसास नहीं होने देंगे कि हीरो चाचा आज भी गायब हैं। यह बारहवाँ साल है। अब कौन पूछेगा उस ट्रेन से जो उसे ले गई। हम सिर्फ उनके सपनों के आधार पर जान सकते हैं कि वो कहाँ होगें या होंगे भी कि नहीं। देखिए! जानता हूँ आप फिर जोर से चिल्लाएँ और कहेंगे कि सोनी के सीआईडी के साथ आपने ये दूसरा कार्यक्रम शुरू कर दिया....इंडिया टीवी की तरह स्वर्ग और नर्क की यात्रा के रास्ते बताने लगे!
दरअसल ऐसा कुछ भी नहीं है। आपकी सुविधा के लिए बता दूँ मैं मुद्दे से भटक नहीं रहा। हीरो चाचा के बारे में भी मैं अपनी बचपन की स्मृति के आधार पर बहुत कुछ बता सकता हूँ। इस आधार पर आप मुझे भी एक गवाह के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं।
हाँ सचमुच मुझे लगता है कि हमारी छोटी सी दुनिया को बदलने चल पड़े हीरो चाचा एक लंबे सफर पर।.......
एक ऐसा था बचपन
जैसे सफेद दूध बिल्कुल दूध की तरह
जैसे रसगुल्ला भक-भक सफेद रसगुल्ले की तरह
और बतासा चिन्नी की तरह मीठा
बचपन बचपन की तरह ही मीठा
एक पूरे चाँद की रात में शहतूत के पौधों पर गिरती चांदनी...और हमारी जिद शहतूत के खट्टे फल तोड़ने की!.....ऐसी ही एक और मादक चाँदनी रात.....खेतों में फसलों पर बरसता अमृत....पानी का सोता फसलों के बीच जा रहा है और कुदाल लिए खड़े हीरो चाचा की बगल में खड़ा हूँ मैं....चाँद पानी में तैर रहा है....। मैं पूछता हूँ....
ये खेत किसके हैं चाचा?”
तुम्हारे हैं और किसके हो सकते हैं इतने सुन्दर खेत।
ये चाँद किसका है?”
चाचा चुप हैं। फिर अचानक हँसते हुए बोलते हैं
इतना गोल मटोल चाँद तुम्हारे सिवा दूसरे का हो ही नहीं सकता।
क्या वास्तव में ये खेत हमारे हैं। क्या लगता है उनपर किसी और की नजर नहीं है।
सवाल अजीब हैं
जवाब कठिन हैं इनके
चलिए ढूंढते हैं कोई आसान तरीका
चलिए सवाल को कर देते हैं आसान
छोड़िये बंद ही कर देते हैं सवाल करना
इलाके में एक ही तो किसान था बबुआ हीरो। क्या नहीं उपजाया उसने। ईख उगाया तो बांस जैसा मोटा। रस से सराबोर। टमाटर उपजाया तो एक टमाटर सवा किलो का।....लाल-लाल टमाटर देख के लोग-बाग गदगद हो जाए। लेकिन न हाट में बिका न कोल्ड स्टोर खाली। पड़ा-पड़ा सड़ गया खेत में। पूरा गांव छक कर खाया। सूद पर उठाया पैसा डूब गया। फिर पटुआ का खेती किया लेकिन भाग का खेल देखो पटुआ तो इतना उपजा कि रखने की जगह नहीं और भाव भी खूब शुरू में लेकिन फिर भाव जो गिरना शुरू हुआ जो गिरना शुरू हुआ सो रूकने का ही नाम न ले। बहुत घाटा हुआ बहुत। फिर सनक गया हीरो। खूब किताब पढ़ने लगा। शायद इसकी काट किताब में ही खोजने लगा।
नहीं सरजुग काका! किताब तो वो पहले भी खूब पढ़ते थे।
पढ़ता तो था बिटवा पहले भी। लेकिन जब हीरो बीमार पड़ा। का कहे उ बीमारी को मैजाइटिस।
काका मेनेंजाईटिस! मस्तिष्क ज्वर।
हाँ! और बचने की कोई उम्मीद नहीं थी तब तुम्हारे पापा शहर ले गए हीरो को और डाॅक्टर से कहा जितना पैसा खरच होगा तो होगा पर बचा लिजिए इसे। और लाख रूपया खरच हुआ होगा। ठीक होके वापस गाँव आया और खूब किताब पढ़ने लगा हीरो। और ई देखो बहुत पहले रेल में चढ़ते बखत रामधन को मिला था। अब क्या सुनते हैं कि बड़ा आदमी बन गया है। चलो अच्छा हुआ। भगवान ने न्याय कर दिया हीरो के साथ।
क्या आप भी न्याय और अन्याय को मानते हैं? क्या आप भी पुण्य और पाप स्वर्ग या नर्क को मानते हैं। अगर हाँ तो अभी भी वक्त है होशियार हो जाइए। इधर बेचारे होण्डा उर्फ करण कुमार उर्फ करण रस्तोगी के पिता मास्टर साहब! बुरा हाल है उनका। सच कहूँ तो उन्होने शायद ही अपने जीवन में कोई पाप किया हो। वे स्कूल भी बिना नागा किए जाते रहे। किसी से भी झगड़ा नहीं कोई किसी तरह का लफड़ा नहीं। अपने बेटे को उन्होंने अच्छे संस्कार दिए फिर क्यों....।
मैं जानता था कि हीरो चाचा साधु नहीं हो सकते
ये बात मैंने तब कही थी जब हीरो चाचा के साधु के रूप में भिक्षा माँगने की अफवाह फैली थी। छोटी बुआ के घर एक साधु को पकड़ कर रखा गया था जो सारंगी बजाते हुए भिक्षा मांगता था। उसके झोले में भी किताबें थीं और उसका चेहरा हीरो चाचा से बहुत मिलता था। वह बार-बार कहता कि वह ज्ञानीदास है हीरो नहीं। लेकिन लोग उसकी सुनते ही नहीं। कहा जाता है कि जबतक कोई साधु अपनी बहन से भिक्षा न ग्रहण कर ले तब तक उसका धर्म सफल नहीं होता। लेकिन छोटी बुआ को ख्याल आया कि हीरो की जाँघ पर बड़ा सा काला तिल था....और वह साधु अपने कपड़े हटाने ही न दे। बड़ी मशक्कत के बाद उसके कपड़े हटाए गए....लोग देखकर अवाक थे कि तिल नहीं था।.....वो हीरो चाचा नहीं थे...
किसी ने ऐसा रिक्शा बनाया है जो सड़क पर चलने के साथ पानी पर तैर सकता है। किसी ने ऐसा ठेला बनाया है जिसमें स्कूटर का इंजन लगाकर कम खर्च में तेज सामान ढो सकता है....कहाँ है सरकार! और कहाँ है इंटलेक्चुअल प्रोपर्टी राइट की संस्था। कंपनी के इस उत्तरआधुनिक युग में जुगार टेक्नोलाॅजी को पेटेंट कौन देगा। कौन इन कमारों को इन लोहारों को वैज्ञानिक घोषित करेगा जो पढ़े-लिखे नहीं हैं लेकिन काम के औजार बनाने में उस्ताद! आप कहेंगे कि मैं कहाँ भटक रहा हूँ! नहीं नहीं मैं भटक नहीं रहा मैं तो हीरो चाचा की बात कह रहा हूँ....कितनी ही चीजें बनाई थीं उन्होंने उन दिनों! दुनिया में कोई भी चीज फालतू नहीं है। सबका उपयोग है अगर आप उपयोग करना जानें। अपनी साईकिल वो खुद ठीक करते....पंपिंगसेट की मशीन कम तेल खाए इसके लिए भी उन्होनें दिमाग लगाया। कहीं भी कोई चीज गिरी मिलती...आलपीन, लोहे की रड...सबका कोई न कोई काम में इस्तेमाल कर लेते हीरो चाचा।.....मुझे तो लगता है कि इन्हीं सब प्रश्नों से जूझते....दो-दो हाथ करते निकल गए हीरो चाचा बुद्ध की तरह ज्ञान प्राप्त करने....कोई अदृश्य शक्ति से अपने को लैस करने...। बुद्ध ने मृत्यु रोग और वृद्धावस्था से लड़ने की खातिर..घर छोड़ा। लेकिन हीरो चाचा भौतिक समस्याओं से लड़ने के लिए ढूंढ रहे हैं कोई उपाय...
समंदर को चीरना था बड़ी आरी से
पहाड़ों को दोनों हाथों से हटाना था
बने हुए रास्तों से अलग एक रास्ता बनाना था
माई नेम इज करण रस्तोगी उर्फ होण्डा! ओ सिट! आई मीन माइसेल्फ इज करण रस्तोगी! आई एम ए ओ नो! आई एम नथिंग बट प्लीज सर! आई नीड ए जाॅब आई वांट टू फुलफिल माई ड्रीम। आई नीड मनी सर! आई वांट टू बी ए मिलयेनेयर।
ओके ओके मिस्टर! आई नो आई नो। यंग पीपुल हैव ए ड्रीम लाइक बटरफ्लाई! माई नेफ्यू आशीष हैज सैड एवरीथिंग एबाउट यू!
आप विश्वास नहीं करें, लेकिन मेरे हिसाब से होण्डा के साथ कुछ ऐसा ही हुआ होगा। उसके काॅलेज में कोई करोड़पति घराने का बनावटी लड़का मिला होगा और करोड़पति बनाने के सपनों के साथ उसे ले गया होगा किसी आलीशान दफ्तर में...और जैसा कि आप जानते हैं कि बड़े शहरों में ऐसे रईसजादे थोक के भाव में मिलते हैं।
सपनों के पंख कुतर डालेंगे खूंखार जानवर
और किसी स्ट्रीटलाइट के नीचे मिलेंगे बेपंख कबूतर
भीड़ लगेगी इर्द-गिर्द पर नहीं चिन्हेगा कोई
क्योंकि उड़ान भरते पंछी ही पहचानते हर कोई
और होण्डा एक कबूतर की तरह ही पकड़ में आ गया होगा शिकारी के।
दुनिया एक रोगी है और उसके लिए दवा तैयार करने में कंपनियों के खरीदे वैज्ञानिक जुटे हैं खबास की तरह। इतना पैसा है इतना खाना है कि लोग मोटे हो रहे हैं....दुनिया में इतनी मिठास है कि लोगों को इन्सुलीन की सुई चाहिए मिठास को पचाने के लिए.....और कंपनियों ने ठेका लिया है इस दुनिया को निरोग बनाने के लिए!....प्रयोग पर प्रयोग हो रहे हैं........बंदरों पर....चूहों पर.....खरगोशों पर ...और जानवर जैसे इंसानों पर........जो अपनी पेट के लिए अंग बेचते हैं.....खून बेचते हैं...। जो रोग जहाँ नहीं है वहाँ भी लोगों को दवाइयाँ खिलाई जा रही हैं...। होण्डा को भी कई दवाइयाँ खिलाई गई होंगीं....उसे भी बेहोशी का इंजेक्सन दिया गया होगा।.....उसके सस्ते शरीर पर भी खबास वैज्ञानिकों ने प्रयोग किए होंगे....किसी बड़े पिंजड़े में जकड़ कर रखा गया होगा... होण्डा को.... रह रह के जब उसे होश आता होगा तो वह....चिल्लाता होगा...आई वांट टू बी ए मिलयेनेयर सर! प्लीज लीव मी! आई वांट टू बाय ए लक्जरी होंडा कार सर!...मुझे अपने पिता को कार दिखानी है....मुझे अपने खानदान का नाम रोशन करना है.....पर भुक्खर शिकारी नहीं माने होंगे। एक साल कम नहीं होता...और उस एक साल तक होण्डा अपनी वही शर्ट और वही पैंट पहने रहा होगा...उसकी प्यारी मरून कलर की शर्ट तो हाॅस्टल के कमरे में ही टंगी है....उसकी शर्ट भी उसी तरह घिस-घिस कर रद्दी हुई जैसा घिस-घिस कर खुद होण्डा रद्दी बन गया....।
ब्रूटल कीलिंग इन ब्राॅड डे लाइट। इट्स ए होरिबल स्टोरी।
मुझमें अब इतना साहस नहीं कि आपको सीआईडी के शिवाजी साटम की तरह इस कहानी के अंत तक ले जा सकूँ....अपराधी को पकड़ कर आपके सामने कर सकूँ और कह सकूँ कि तुमको तो फाँसी होगी!....किस किस को फाँसी देंगे...।
....रात काफी हो चुकी है सो जाइए आप...फिर सोनी पर कोई हाॅरर सीरियल शुरू हो जाएगा।
..... मैं सोने के बाद नींद में एक सपना देखना चाहता हूँ....जानता हूँ हकीकत में ऐसा नहीं हो सकता। फिर भी मैं देखना चाहता हूँ कि हीरो चाचा....ट्रेन से उतरे हैं.......किताबें अब भी उनके पास...और जैसा कि रामधन काका कहते हैं कोई बड़ा आदमी बन गया है हीरो ठीक वैसा हीं....और होण्डा अपनी होण्डा कार से चश्मा लगाकर उतरा है और कह रहा है....हैलो! मास्टर साहब!.....और भीड़ जमा है...मास्टर साहब के दरवाजे पर भी...छोटे से स्टेशन पर भी....मास्टर साहब भी हैरान हैं और मैं भी....पता नहीं आप हैरान हैं या नहीं......।        

परिचय :
नाम - श्रीधर करुणानिधि
जन्म - पूर्णिया जिले के दिबरा बाजार गाँव में
शिक्षा - एम॰ ए॰ (हिन्दी साहित्य) स्वर्ण पदक, पी-एच॰ डी॰, पटना विश्वविद्यालय, पटना।
प्रकाशित रचनाएँ- दैनिक हिन्दुस्तान’,‘उन्नयन’ (जिनसे उम्मीद है काॅलम में),‘पाखी’, ‘वागर्थ’ ‘बया’, 'वसुधा', ‘परिकथा’ ‘साहित्य अमृत’, ‘जनपथ’ ‘छपते छपते’, ‘संवदिया’, ‘प्रसंग’, ‘अभिधा’, ‘साहिती सारिका’, ‘शब्द प्रवाह’, ‘पगडंडी’, ‘साँवली’, ‘अभिनव मीमांसा’, ‘परिषद पत्रिकाआदि पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ और आलेख प्रकाशित। आकाशवाणी पटना से कहानियों का तथा दूरदर्शन, पटना से काव्यपाठ का प्रसारण।
प्रकाशित पुस्तकें-1. ‘वैश्वीकरण और हिन्दी का बदलता हुआ स्वरूप’ (आलोचना पुस्तक, अभिधा प्रकाशन, मुजफ्फरपुर, बिहार)
2. ‘खिलखिलाता हुआ कुछ’ (कविता-संग्रह, साहित्य संसद प्रकाशन, नई दिल्ली)
संप्रति-
बिहार सरकार की सेवा में
(वाणिज्य-कर पदाधिकारी, वाणिज्यकर अन्वेषण ब्यूरो, मगध प्रमंडल,गया )
संपर्क- श्रीधर करुणानिधि
द्वारा- श्री श्याम बाबू यादव
चौधरी टोला, पत्थर की मस्जिद, महेन्द्रू, पटना-800006
मोबाइल- 09709719758
ई-मेल- shreedhar0080@gmail.com