जीवन क्या जिया : आविर्भाव


यह अद्भुत संयोग था कि बिहार के सहरसा जिले के गांव महिषी में एक विद्रोही रचनाकार के जीवनरूपी दीपक की बाती से तेल शेष हो चला था, ठीक उन्हीं दिनों उसी गांव में एक नन्हा शिशु अपनी ज्योति से सभी दिशाओं को आलोकित कर रहा था। कौन जानता था कि आगे चलकर वह शिशु उस विद्रोही रचनाकार के जीवन एवं रचनाकर्म पर पड़ी धूल को झारने–पोंछनेवाला था जोकि समय एवं समाज की उपेक्षा से पड़ती चली गयी थी। महिषी के उस विद्रोही रचनाकार राजकमल चौधरी की कई दुर्लभ रचनाओं को आज के समय में हम पढ़ पा रहे हैं तो उसके पीछे वहां के उस शिशु के संघर्ष एवं अथक परिश्रम का बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान है। अपनी किसी भी रचना पर धैर्यपूर्वक काम करनेवाले मैथिली एवं हिंदी के प्रसिद्ध रचनाकार तारानन्द वियोगी की 'राजकमल चौधरी' के जीवन पर आधारित रचना 'जीवन क्या जिया!' तद्भव–33 के अंक में आ चुकी है। जब आप उस शिशु को पहचान ही गए हैं तो यह जानना आवश्यक हो जाता है कि उसने राजकमल चौधरी को जानने–समझने की कोशिश कैसे शुरू की। उस राह में क्या–क्या बाधाएं आईं तथा कौन लोग इस राह के संबल बने। 'जीवन क्या जिया'  संस्मरण, जीवनी एवं उपन्यास के तत्वों को अपने में समेटे हुए है। इस रचना में एक तरफ राजकमल चौधरी तो दूसरी तरफ खुद तारानन्द वियोगी की कहानी एक-दूसरे के समानांतर चलती है जिन्हें जोड़ती है...वियोगी जी का समर्पण एवं वह उद्देश्य कि महिषी को सिर्फ मंडन मिश्र की वजह से ही नहीं बल्कि राजकमल चौधरी की वजह से भी जाना जाए। इस रचना के अंश आविर्भाव, उत्कर्ष एवं प्रस्थान शीर्षक से एक–एक कर आपके समक्ष आते जाएंगे। आज आविर्भाव !



–बाबा वो फूल बाबू थे न, मधुसूदन बाबू के लड़के–वो बहुत बड़े लेखक थे । ‘राजकमल चौधरी’ कहलाते थे । देश भर में उनका बहुत नाम है । लेकिन, अपने गांव में उन्हें कोई नहीं जानता । लोग जानते भी हैं तो अच्छी तरह से नहीं । उनका जन्मदिन 13 दिसंबर को है । इस अवसर पर हमलोग उनकी जयंती मनाना चाहते हैं, बाबा । –सोलह सतरह आयु वर्ग के कुछ लड़के गांव के सर्वाधिक प्रतिष्ठित मान्यजन से कह रहे थे ।

–तो, उस जयंती में क्या सब होगा ?

–उसमें हम बाबा, मिथिला के कुछ बड़े बड़े विद्वानों को बुलाएंगे । कवियों को भी बुलाएंगे । राजकमल जी के बारे में लोग बताएंगे । फिर काव्यपाठ होगा ।

बाबा ने एक लंबी हुंकारी भरी, फिर चुप हो गए । हमलोग उनकी ओर देखते रहे ।

–तुम किसके बेटे हो ?

मैंने अपने पिता का नाम बताया । मेरे पिता का नाम सुनकर उनके चेहरे का भाव और अधिक तिक्त हो गया ।

–तुमलोग किसके किसके बेटे हो ?
सबने अपने अपने पिता का नाम बताया ।
बाबा बोले–सब लड़के तो गरीब घर के हो । चंदा लेना पड़ेगा ।
–जी बाबा, हमलोग चंदा के लिए ही आए थे ।
–चंदा तो खैर, हम नहीं देंगे । इस तरह के काम में हम किसी को चंदा नहीं देते हैं । तब, एक मदद कर देंगे ।
–क्या बाबा ?
–हम दरोगा जी को बोल देंगे कि तुमलोगों की पकड़ धकड़ नहीं करें ।
–सो क्यों बाबा ?
–देखो, बात ये है–––
शुद्ध मैथिलों की जो शैली है, उस शैली में, मिचरा मिचराकर बाबा कहने लगे–जयंती मनाने का कुछ नियम कायदा होता है । इसमें विचार किया जाता है कि मृत व्यक्ति की आत्मा को किस बात से शांति मिलेगी, क्या करोगे तो प्रसन्नता होगी । तो, तुमलोग थोड़ा अच्छा से करो ।
–जी बाबा, बताइए ।
–मिट्टी तेल वाले डीलर के पास जो ड्राम होता है, वो दो ठो ड्राम कहीं से मंगनी कर लो । उसमें भरवाकर देसी दारू मंगवा लो । पाव भर गांजा का भी कहीं से प्रबंध करना पड़ेगा । और ये सब लेकर, महिषी गांव का जो सिमान है न, वहां पर बैठ जाओ । हरेक आने जानेवाले मुसाफिर को एक एक डबूक दारू दो । गांजा पिलाओ । इससे उसकी आत्मा को शांति मिलेगी । तुमलोगों का भी नाम होगा । श्रद्धांजलि अगर देना चाहते हो बाबू, तो सच्ची श्रद्धांजलि दो । हम सारे लड़के अकबका गए कि बाबा यह क्या कह रहे हैं! किसी के भी मुंह से बकार तक नहीं निकल रहा था । टक टक हम बाबा का मुंह ताके जा रहे थे । वह इतनी शांति से और आराम से अपनी बात कहे जा रहे थे कि हमारे लिए बातों के तथ्य का वजन समझ पाना मुश्किल था । लेकिन, बस इतने तक । जरा देर हम टकटकी लगाए होंगे कि उनका पारा चढ़ गया ।
–खच्चर बेहूदा सब कहीं का! जयंती मनाएंगे! इतना जूता मारेंगे कि मारेंगे दस तो गिनेंगे एक । भागते हो कि नहीं ?
–जी बाबा, हमलोग जाते हैं । आप शांत होइए ।
–रे, वो तो चोट्टा मर गया कि इस गांव का पाप टला! अभी तक अगर जिंदा रहता तो गांव का धर्म नहीं बचता–––जयंती मनाएंगे! हम जाते हैं सबके बाप को ‘परचारने’–––
इतनी बात तो हमने आधी सुनी, आधी सुनी भी नहीं, तेजी से भाग खड़े हुए । उस दिन, बातों बातों में यह बात चर्चा में आ गई । मैं गांव में था और केदार (कानन) आए थे । साथ में थे–सुभाष (चंद्र यादव) भाई, सुस्मिता (पाठक) जी, रमण (कुमार सिंह) और प्रभात (झा) । मेरे ये सभी आत्मीय मेरे गांव, मेरे घर आते रहते हैं । लेकिन, इस बार का आना अलग था । केदार बरसों से बोलते थे कि राजकमल का घर आंगन देखने जाना है । मैं टालता था । दुख को जितना टालो, अच्छा होता है । राजकमल का घर देखेंगे तो क्या होगा ? दुख होगा । संताप से भर जाएंगे आप । पीड़ा होगी कि मरने के इतने बरस बाद भी उन्हें माफ नहीं किया गया । कोफ्त होगी कि लोग राजकमल का सगा प्रियपात्र बता बताकर आपका भेजा खा जाएंगे । आप गहरे अफसोस में डूबेंगे । आंखें भर आएंगी । ‘नोर’ टपक पड़ेंगे। मित्र हूं तो इतनी तकलीफ में क्यों पड़ने दूं आपको ?
लेकिन, केदार ने इस बार जबर्दस्त जिद पकड़ी थी ।
हम राजकमल का घर देखने गए । घर नहीं था । हमें मालूम था कि घर अब नहीं है । नहीं मतलब बिल्कुल नहीं । वहां मिट्टी थी । जंगल झाड़ उगे हुए थे । पड़ोसियों ने खर पतवार जमा कर रखे थे। 

पपीते के गाछ पर तिलकोर, पनझोर, सपेता और न जाने कौन कौन सी लत्तियां लतरी हुई थीं । वहां घर नहीं था । वह जमीन अब राजकमल के हिस्से में रही भी नहीं । नीलू को किसी दूसरी जगह हिस्सा मिला, यहां नहीं मिला । यहां धीर बाबू और सुधीर बाबू के बच्चों का हिस्सा है । घर नहीं है, केवल स्मृतियां हैं, ताकि केदार जैसा कोई साहित्यकार कभी कभार टपक आए तो रोकर जाए । दस बरस से भी ज्यादा हुए । मुझे मालूम था कि घर अब नहीं है । घर नहीं, बंगला । इसे हम फूलबाबू का बंगला कहते थे । मिथिला के बौद्धिक लोग इसे ‘कवि कुटीर’ कहते थे । मालूम था । लोगों को मालूम है कि महिषी के पूरब धेमुड़ा बहती है और पच्छिम कोशी । मगर कितने लोग जा जाकर सत्यापन किया करते हैं ? कभी देख लिया, बस । दिमाग में उसका चित्र बना रहता है । आगे कभी 

पता चले कि धेमुड़ा की धारा अब सूख चली तो दिमाग के चित्र में बहते पानी को हम सुखा लेते हैं । सत्यापन कौन करने जाता है ? पचास तरह की झंझटों का नाम जीवन है । घर अब नहीं है, यह भी कोई सत्यापन की बात हुई ? हां, यदि यह पता चला होता कि बुधवारयवालों ने या किन्हीं और ने हीे राजकमल की ‘डीह’ पर स्मारक बनाया है तो आपकी जिम्मेवारी बनती थी । अच्छी तरह से पता था कि घर अब नहीं है । लेकिन घर नहीं तो आखिर क्या है, यह देखने 

दिखाने जब गया, तो जो हालत हुई उसकी बात पूछिए ही मत! और, मधुसूदन बाबू की हवेली को देखते–देखते जो हुआ, वह तो और भी मत पूछिए । मैं कोई अकेला नहीं था साहब, सबकी आंखें भर आई थीं।–––और, भरे दिल से दिन भर ‘बदरिकाश्रम’ में बैठकर हम उन पुराने किस्सों को याद करते रहे थे । 

वे दिन थे कि जब राजकमल चौधरी को गुजरे बारह बरस बीत चुके थे । और, कोशी में जाने कितना 

सारा पानी बह चुका था, और उसके साथ जमीनें भी । और, देवी तारा की बलि वेदी पर बीसियों हजार छागों की बलि दी जा चुकी थी । तीन चार बार अकाल पड़ चुका था, पांच छह बार अगलगी हो चुकी थी । सींकिया सामंतों की एक पीढ़ी तो गुजर गई थी, मगर ऐसे ढेर सारे नए लोग पूरी चमक में थे जो बातों के बम से संसद भवन को भी धराशायी कर सकते थे । यह राजकमल का गांव, महिषी था, जहां अब तक भी न तो सड़क पहुंची थी, न बिजली । गरीबी और बदहाली बदस्तूर कायम थी । साल दर साल कोशी की छाड़न उफनती और अगले एक साल तक रोते रहने का सौगात दे जाती । लोग फिर भी सहज जीवन जीते, भांग और गांजा और ताड़ी के भीतर से निकलनेवाले रास्तों में सुकून की तलाश करते पाए जाते थे । सुकून देने के लिए बहुत बड़ी ताकत मौजूद थी । वह थीं–देवी तारा, जिनके बारे में राजकमल कहा करते कि तेरह हजार साल पहले मेरुदंड पर्वत की काली चट्टानों से तराश ली गई तेरह साल की लड़की थीं वह, जबकि वह उग्र भी नहीं थीं, तारा भी नहीं, उनके लिए महज उग्रतारा थीं । लोग थे कि ये उलझन भरी बातें नहीं समझते थे, मगर वह उग्रतारा उनके लिए भी वही उग्रतारा थीं । और, वे दिन थे कि जब कोशी के इस पर्यावरण में हमारी आंखें खुल रही थीं । धीरे धीरे हम 

उस लायक हो रहे थे कि आदमी जिन्हें देखता है, उन्हें उनकी असलियत में जानना चाहता है । हर चीज के लिए एक आतुर जिज्ञासा । हर बात के भीतर से उभरती ढेर सारी नई बातें और प्रश्न––– । प्रश्न ढेर सारे थे मगर उनके ठीक ठीक उत्तर, जो हमें संतुष्ट कर सकें, दे सकनेवाले लोग नदारद थे । उपस्थितों से यदि काम न चले तो लोग अनुपस्थितों की तरफ मुखातिब होते हैं, और इसी दौरान उसकी मुलाकात ‘साहित्य’ नामक फेनोमेना से होती है । हमारी तो ऐसे ही मुलाकात हुई 
थी । गुलशन नंदा और कर्नल रंजीत पढ़ते पढ़ते कब हम प्रेमचंद और हरिमोहन झा और विमल मित्र
के पास पहुंच गए, हमें भी पता न चला था । और, ये ही वे दिन थे कि जब हमने राजकमल चौधरी का आविष्कार किया था।


संपर्क :
तारानंद वियोगी
मोबाइल – 09431413125 
ईमेल – tara.viyogi@gmail.com

पत्थर और बहता पानी : निर्मल वर्मा

निर्मल वर्मा हिंदी कथा–साहित्य एवं कथेत्तर गद्य के अद्भुत सर्जक हैं। उन्होंने गद्य की सभी विधाओं में लिखा। वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह उनकी कहानी 'परिन्दे' को पहली 'नई कहानी' की संज्ञा देते हैं। उनकी कहानियों में परिवेश एवं परिस्थितियों से प्रभावित मनुष्य की संवेदना बहुत गहरे जाकर व्यक्त होती है। अवसाद में टूटते हुए...कभी–कभी प्रतीक्षारत होते हुए भी आत्मसंतुष्टि का भाव लिए पात्र इनकी रचनाओं में नजर आते हैं जिनसे हम अनायास ही जुड़ते चले जाते हैं। उनकी जादुई भाषा–शैली पाठकों को सम्मोहित कर जाती है। उनके कई निबंध–संग्रह हैं जिनमें हम उनकी भाषा, विचार एवं दर्शन का अद्भुत संगम देखते हैं। उनके संग्रह 'शब्द और स्मृति' से एक निबंध 'पत्थर और बहता पानी' का अंश आपके लिए प्रस्तुत है।


                       # आउटलुक से साभार

सोचता हूं कि वे शहर कितने दुर्भागे हैं, जिनके अपने कोई खंडहर नहीं। उनमें रहना उतना ही भयानक अनुभव हो सकता है, जैसे किसी ऐसे व्यक्ति से मिलना, जो अपनी स्मृति खो चुका है, जिसका कोई अतीत नहीं। अगर मुझसे कोई नरक की परिभाषा पूछे, तो वह है, हमेशा वर्तमान में रहना, एक अंतहीन रोशनी, जहां कोई छाया नहीं, जहां आदमी हमेशा आंखें खोले रहता है—नींद और स्वप्न और अंधेरे को भूल कर। जहां वर्तमान शाश्वत है, वहां शाश्वत भी अपना मूल्य खो देता है, क्योंकि जो चीज शाश्वत को आयाम देती है—समय—वह खुद कोई मूल्य नहीं रखता।

इसलिए जब वर्तमान का बोझ असह्य हो जाता है, मैं अपना घर छोड़कर शहर के दूसरे 'घरों' चला जाता हूं— जहां अब कोई लोग नहीं रहते— सदियों पुराने मकबरे, महल, मदरसे—जहां अंधेरा होते ही चिमगादड़ उड़ते हैं। ये हमारे शहर के खंडहर हैं— शहर की स्मृतियां और स्वप्न। दिल्ली में इन इमारतों की कोई कमी नहीं। वे हर जगह बिखरी हैं। सिर्फ आधा घंटा में मैं एक दुनिया को छोड़कर दूसरी दुनिया में जा सकता हूं— एक समय से उठकर बिल्कुल दूसरे समय में प्रवेश कर लेता हूं— बिना कोई टिकट खरीदे, बिना 'क्यू' में खड़े हुए। वहां न पत्थर रास्ता रोकते हैं, न मृतात्माएं धक्का देती हैं।

किन्तु ऐसा भी युग था, जब न शहर थे, न खंडहर— आदमी अपना अतीत खुद अपने भीतर लेकर चलता था— या यूं कहें कि स्मृति अभी तक इतिहास नहीं बनी थी, जिसे स्मारकों और पोथियों द्वारा ढोना पड़ता है। आदिम युग का व्यक्ति अतीत और वर्तमान दोनों को साथ लेकर चलता था और जब चाहे उनसे छुटकारा भी पा लेता था। यज्ञ, आहुति और बलि के क्षणों में वह एक ऐसे बिन्दु पर पहुंच जाता था, जहां समय शुरू होता है, आदि-क्षण का आलोक, जहां वह एकदम स्वच्छ हो जाता था, न केवल अपने पापों, बल्कि उनकी स्मृति से भी मुक्ति पा लेता था। जिस तरह हम आधुनिक शहर को छोड़कर खंडहरों में जाते हैं— वह भी उतनी ही सुलभता से 'सांसारिक समय' से उठकर 'आदि समय' में चला जाता था। समय की इस गंगोत्री पर उसके लिए जन्म और मृत्यु, शुरू और अन्त, नश्वर और शाश्वत का भेद घुल जाता था। एक शब्द में वह सृष्टि के आरंभ होने से पहले के 'मिथक-काल' में पहुंच जाता था और वहां से दुबारा मुड़ता था— हल्का और मुक्त, ताकि अपने को नए सिरे से शुरू कर सके।

क्या हम इतिहास से त्रस्त, आधुनिक शहरों में रहनेवाले प्राणी— ऐसे क्षण को जी सकते हैं, ऐसे अनुभव को भोग सकते हैं? या उसे हमने हमेशा के लिए खो दिया है? खंडहरों के बीच घूमते हुए मुझे कभी-कभी लगता है कि वैसा अनुभव आज भी असम्भव नहीं है। हमारे बीच दो चीजें ऐसी हैं जिनके सामने, जिन्हें छूकर हम अपने साधारण क्षणों में भी इतिहास की चिरन्तनता और प्रकृति- जो शाश्वत है—उसकी ऐतिहासिकता—दोनों को एक समय में अनुभव कर सकते हैं। अजीब बात यह है, ये दोनों चीजें अपने स्वभाव में एक-दूसरे से बिल्कुल उल्टी हैं— एक ठोस और स्थायी, दूसरी सतत प्रवाहमान, हमेशा बहने वाली— पत्थर और पानी। किन्तु दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं- दोनों के सामने हम सहसा अपने से परे चले जाते हैं, हम एक ऐसे काल-खंड में पहुंच जाते हैं, जब हम नहीं थे (खंडहरों के सामने), जहां हम खत्म हो जाएंगे (बहते पानी को छूते हुए)। पत्थर और पानी दोनों के सम्मुख यह अनुभव होता है कि हम उनके गवाह नहीं हैं— वे हमारे गवाह हैं। हम उनके अस्तित्व को नहीं देख रहे, वे हमारे बीतने को देख रहे हैं।

यह अनुभव हमारे उस आधुनिक बोध को कितना धक्का देता है, जहां हम संसार के साक्षी होने का दम्भ भरते हैं, जबकि हम स्वयं इतिहास से त्रस्त हैं! एक त्रस्त गवाह की गवाही कैसी? वह न इतिहास रच सकता है, न इतिहास का अतिक्रमण कर सकता है, जिससे कविता जन्म लेती है। इसीलिए रिल्के ने एक युवा कवि को सलाह दी थी, 'आपको प्रकृति की तरफ जाना होगा। दुनिया के आदिपुरुष के समान आपको वह सब कहने की कोशिश करनी होगी, जो आप देखते हैं, अनुभव करते हैं, प्रेम करते हैं, खो देते हैं।'
किन्तु समय की एक सीमा के बाद, जिसे हम इतिहास मानते आए थे वह प्रकृति का ही हिस्सा जान पड़ता है। इसका एहसास जितना पुराने खंडहरों में घूमते हुए होता है, शायद कहीं और नहीं। दिल्ली के पुराने किले में पत्थरों के ढूह, आधी टूटी हुई मीनारें, दीवारों के भग्न झरोखे इतने चिरन्तन, समय की आपा-धापी से इतना दूर जान पड़ते हैं, कि यह प्रश्न बिल्कुल अर्थहीन जान पड़ता है कि उसे पांडवों ने बनाया था, या हुमायूं ने। वे ढूह उतने ही शाश्वत, उतने ही 'प्राकृतिक' जान पड़ते हैं, जितने शिमला के पहाड़, पहाड़ों के बीच लेटी हुई घाटियां। इसलिए साहिर लुधियानवी का यह क्षोभ कुछ बेमानी-सा लगता है कि ताज को एक बादशाह ने नहीं, मजदूरों ने बनाया था, जिन्हें हम याद नहीं करते। सत्य यह है कि हम किसी को याद नहीं करते; न गुलाम को याद करते हैं, न साहब को, न बेचारी बीवी को, जिनकी स्मृति में उसका निर्माण हुआ था। समय बीतने के साथ ताज की ऐतिहासिक स्मृति एक ऐसे 'मिथक क्षण' में घुल मिल गई है, जहां सिर्फ 'देखना, अनुभव करना, प्रेम करना, और खो देना' ही बाकी रह जाता है।

जिस तरह इतिहास कभी कभी प्रकृति में बदल जाता है, उसी तरह प्रकृति भी इतिहास में बदल जाती है। क्या गंगा एक भारतीय के लिए महज बहता पानी है? वह हमारी सबसे गहन स्मृतियों को—जिन्हें हम 'संस्कार' कहते हैं—जगाती है, हमें इतिहास के उस मिथक-क्षण में ले जाती है, जब थके-मांदे आर्यों ने पहली बार उसकी मुक्त सपाट धारा को देखा होगा। कितना अजीब विरोधाभास है कि एक समय बाद आदमियों द्वारा बनाई गई इमारतें 'प्रकृति' में बदल जाती हैं— शाम की धूप में कालातीत, इतिहास से मुक्त, जबकि पीढ़ी-दर-पीढ़ी नहाते यात्रियों ने गंगा की शाश्वत धारा को अपनी स्मृतियों में पिरो दिया है—जहां इतिहास और प्रकृति एक-दूसरे से मिल जाते हैं।

और मैं तब अपने से पूछता हूं कि 'बहते पानी' के साथ हिन्दू-मानस का इतना घना लगाव क्या इसीलिए तो नहीं है कि उसमें मिथक और इतिहास का सम्पूर्ण भेद छिपा है? और इस 'भेद' में सिर्फ रहस्य का ही आशय नहीं है, बल्कि अलगाव का भी। हम इतिहास के प्रति सचेत नहीं थे, यह सही नहीं है। सही यह है कि हम इतिहास के प्रति सचेत होते हुए भी उसके बिम्बों का निर्माण निरर्थक समझते थे। इसलिए हम परम्परा को भी उतना महत्व नहीं देते थे, जितना दूसरे देशों के लोग, क्योंकि हम उसे बीते हुए समय का अंश नहीं मानते थे, जिसे वर्तमान में ढोना है। हमें अपनी परम्परा का उतना ही अनुभव होता है, जितना 'अतीत' हम अपने भीतर लेकर चलते हैं- बाकी सब खंडहर है, पत्थर और पोथियां—जो परम्परा नहीं, अतीत के स्मारक हैं। शायद यही कारण है कि रोमन खंडहरों या पुराने मुस्लिम मकबरों के बीच घूमते हुए एक अजीब गहरी-सी उदासी घिर आती है— जैसे कोई हिचकी, कोई सांस, कोई चीख इनके बीच फंसी रह गई हो—जो न अतीत से छूटकारा पा सकती हो, न वर्तमान में जज्ब हो पाती हो।
किन्तु इस उदासी के नीचे एक और गहरी उदासी दबी है... और वह उनके लिए नहीं है, जो एक जमाने में जीवित थे, और अब नहीं हैं— वह बहुत कुछ अपने लिए है, जो एक दिन इन खंडहरों को देखने के लिए नहीं बचे रहेंगे।

पुराने स्मारक और खंडहर हमें उस मृत्यु का बोध कराते हैं, जो हम अपने भीतर लेकर चलते हैं। बहता पानी उस जीवन का बोध कराता है, जो मृत्यु के बावजूद वर्तमान है, गतिशील है, अन्तहीन है। जब कोई हिन्दू अपने सगे-सम्बन्धी की अस्थियां हरिद्वार की गंगा में बहाता है, तो न केवल मृतात्मा को उसकी देह से मुक्त कराता है, बल्कि वह स्वयं अपनी पीड़ा से भी छुटकारा पा लेता है। 'कैथार्सिस' की सम्पूर्ति, जो यूनानी दर्शक नाटक के अन्त में अनुभव करता था, हम उसे बहते पानी के छोर पर पा लेते थे। आज यह अनुभव दुर्लभ लगता है।
आज यह इसलिए दुर्लभ लगता है, कि हम इतिहास और मिथक— समय और शाश्वत— को बांटने के इतने आदी हो गए हैं कि यह नहीं सोच पाते कि एक ही समय में मनुष्य को दोनों का अनुभव होता रहा है। आज का ऐतिहासिक व्यक्ति अपने भीतर 'पौराणिक क्षणों' को उसी तरह जीता है, जिस तरह मिथक-काल का व्यक्ति इतिहास को भोगता है। यदि आज हम 'ऐतिहासिक' काल में रहते हैं, तो भी हमारे भीतर उस खोए हुए स्वप्न को पाने की भूखी आकांक्षा आंख खोले रहती है, जब हम खंडित नहीं थे, प्रकृति से सम्पृक्त थे, सम्पूर्ण थे। माना, यह मिथक काल की वास्तविकता नहीं थी, किन्तु इससे न तो स्वप्न झूठा हो जाता है, न आकांक्षा की तीव्रता मन्द हो जाती है।

वह स्वप्न हम खो चुके हैं, इसकी पीड़ा का एहसास भी रिल्के को उतना ही था, जितना आदिकवि व्यास को रहा होगा। दरअसल समूचा काव्य इस खोने के आतंक को समझने का प्रयास है और इस 'समझ' के लिए भी हर कवि को 'प्रकृति के पास जाना पड़ा था।'

किन्तु यदि प्रकृति के पास जाने का मतलब है, अपने अलगाव और अकेलेपन से मुक्ति पाना; अपने छिछोरे, ठिठुरते अहम का अतिक्रमण करके, अनवरत समय की कड़ी में अपने को पिरो पाना, तो यह बोध पुराने खंडहरों के बीच भी होता है। यह विचित्र अनुभव है। ठहरे हुए पत्थरों के सामने बहते समय को देख पाना। पहली बार इतिहास का अनुभव—किताबों और तिथियों से न होकर—पत्थरों के बीच उगती घास, छतों पर चिपटे चिमगादड़ों, गुम्बदों पर गमगीन, ऊंघती धूप द्वारा होता है। सहसा यह बोध होता है कि कविता, संगीत, चित्र— कोई भी कला-कृति उस मौन को भेदने की कोशिश है, जो इन पत्थरों के बीच उतनी ही शाश्वत है, जितनी प्रकृति के भीतर; कोई भी चीज नहीं मरती, यदि वह अपने से उठकर किसी अन्य से अपने को जोड़ लेती है।

# 'शब्द और स्मृति' से साभार

समीर परिमल की ग़ज़लें


'समीर परिमल' ग़ज़ल की दुनियां का एक सुपरिचित नाम है। वे पेशे से शिक्षक हैं, इस कारण समाज एवं परिवेश को निकट से संपूर्णता में देखते हैं। उनकी ग़ज़लों को पढ़कर–सुनकर सिर्फ सुकूँ ही नहीं मिलता बल्कि ऐसा अहसास होता है कि अंदर कुछ पिघल रहा है जो हमें जगाए रखता है। उनकी रचनाओं में प्यार के अफ़साने भी हैं तो रुसवाईयाँ भी... आमजन का असंतोष भी है तो उम्मीद भी। यही बात उन्हें विशेष बना देती है। सबसे बड़ी बात कि वे कभी यथार्थ से नजरें चुराकर नहीं चलते बल्कि सामना करते हैं। संवेदना एवं शिल्प के स्तर पर उनकी गजलें उतनी ही लाजवाब हैं जितना वैचारिकता एवं मनोविज्ञान के स्तर पर। उनका पहला ग़ज़ल–संग्रह 'दिल्ली चीखती है' प्रकाशनाधीन है जो शीघ्र ही आप तक पहुँचने वाली है। तो आइए रूबरू होते हैं उनकी ग़ज़लों से।


1.


साज़िशों की भीड़ थी, चेहरा छुपाकर चल दिए
नफ़रतों की आग से दामन बचाकर चल दिए

नामुकम्मल दास्तां दिल में सिमटकर रह गई
वो ज़माने की कई बातें सुनाकर चल दिए

ज़िक्र मेरा गुफ़्तगू में जब कभी भी आ गया
मुस्कुराए और फिर नज़रें झुकाकर चल दिए

मंज़िले-दीवानगी हासिल हुई यूँ ही नहीं
क्या बताएं प्यार में क्या-क्या गंवाकर चल दिए

वक़्त से पहले बड़ा होने का ये हासिल हुआ
तिश्नगी में हम समन्दर को उठाकर चल दिए

रंग काला पड़ गया है मरमरी तक़दीर का
मुफ़लिसी की धूप में अरमां जलाकर चल दिए


2.


कहीं सिमटे हुए चेहरे, कहीं बिखरे हुए चेहरे
नज़र आते हैं इस सैलाब में सूखे हुए चेहरे

सितारे, चाँद, सूरज हो गए सब दफ़्न मिटटी में
दिखाई दे रहे हैं हर तरफ उतरे हुए चेहरे

हवाएँ अब भी लाती हैं हमारे गाँव की खुशबू
वो मिट्टी में सने औ' धूप में भींगे हुए चेहरे

मुझे अश्क़ों को पीने का हुनर आता नहीं यारों
छुपा लूँ किस तरह आँखों से ये बहते हुए चेहरे

खिलौने की तरह खामोश बैठे हैं दुकानों में
तुम्हे मिल जायेंगे हर मोड़ पे खोये हुए चेहरे

मैं बचपन की किताबों में जो पन्ने मोड़ आया था
उन्हीं में आज दिखते हैं कई लिक्खे हुए चेहरे

चला आया हूँ अनजानों की बस्ती में मगर 'परिमल'
यहाँ चेहरों के पीछे हैं मेरे देखे हुए चेहरे


3.


प्यार देकर भी मिले प्यार, ज़रूरी तो नहीं
हर दफा हम हों खतावार, ज़रूरी तो नहीं

खून रिश्तों का बहाने को ज़ुबाँ काफी है
आपके हाथ में तलवार ज़रूरी तो नहीं

आपके हुस्न के साए में जवानी गुज़रे
मेरे मालिक, मेरे सरकार, ज़रूरी तो नहीं

एक मंज़िल है मगर राहें जुदा हैं सबकी
एक जैसी रहे रफ़्तार, ज़रूरी तो नहीं

दीनो-ईमां की ज़रुरत है आज दुनिया में
सर पे हो मज़हबी दस्तार, ज़रूरी तो नहीं


एक दिन आग में बदलेगी यही चिंगारी
ज़ुल्म सहते रहें हर बार, ज़रूरी तो नहीं


4.


मुझसे इस प्यास की शिद्दत न सँभाली जाए
सच तो ये है कि मुहब्बत न सँभाली जाए

मेरे चेहरे पे नुमायां है यूँ उसका चेहरा
आइने से मेरी सूरत न सँभाली जाए

आपके शह्र की मगरूर हवाएँ तौबा
इनसे अब हुस्न की दौलत न सँभाली जाए

मुझको ख़्वाबों में ही ऐ यार गुज़र जाने दे
इन निगाहों से हक़ीक़त न सँभाली जाए

बोझ उम्मीदों का कंधों पे उठाएँ कब तक
घर की दीवारों से ये छत न सँभाली जाए


5.


किसी की सरफ़रोशी चीख़ती है
वतन की आज मिट्टी चीख़ती है

हक़ीक़त से तो मैं नज़रें चुरा लूँ
मगर ख़्वाबों में दिल्ली चीख़ती है

हुकूमत कब तलक गाफ़िल रहेगी
कोई गुमनाम बस्ती चीख़ती है

गरीबी आज भी भूखी ही सोई
मेरी थाली में रोटी चीख़ती है

भुला पाती नहीं लख्ते-जिगर को
कि रातों में भी अम्मी चीख़ती है

महज़ अल्फ़ाज़ मत समझो इन्हें तुम
हरेक पन्ने पे स्याही चीख़ती है

बहारों ने चमन लूटा है ऐसे
मेरे आँगन में तितली चीख़ती है

जिसे तू ढूंढने निकला है 'परिमल'
तेरे सीने में बैठी चीख़ती है


6.


आज नहीं तो कल लिक्खेंगे
हर मुश्किल का हल लिक्खेंगे

जेठ की तपती दोपहरी में
सूरज पर बादल लिक्खेंगे

मेहनतकश जनता के हिस्से
सारा नभ-जल-थल लिक्खेंगे

गाँवों की हरियाली को हम
भारत का आँचल लिक्खेंगे

बूढ़ी आँखों के पानी को
पावन गंगाजल लिक्खेंगे

महका-महका खून-पसीना
हम उसको संदल लिक्खेंगे

तुम लिक्खो धोखा-मक्कारी
हम विश्वास अटल लिक्खेंगे

सत्ता के सीने पर चढ़ कर
भूख का रण-कौशल लिक्खेंगे

भय की हत्या कर डाली है
अब हर क्षण प्रति पल लिक्खेंगे

जन-गण की बातें करता है?
सब तुझको पागल लिक्खेंगे



संपर्क : 
समीर परिमल
मोबाइल- 9934796866
ईमेल - samir.parimal@gmail.com

प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा की कविताएं


प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा की कविताओं में लोक विविधताओं के साथ विद्यमान होता है। चाहे वह रचना में स्मृति के रूप में आए या विस्थापन के रूप में...रूढ़ियों का प्रतिरोध करती हुई हों या प्रकृति को व्याख्यायित करती हुई, हर रूप में प्रभावी हैं। उनकी कविताओं की भाषा आमफहम है जो सीधे पाठकों से संवाद करती है। समकालीन यथार्थ के प्रति सजग कवि के पास अपना शब्द–भंडार है जो जमीन से जुड़े होने का परिचायक है। कविताएं उनके जीवन के सफर, संघर्ष एवं द्वंद को बखूबी बयां करती हैं। उनकी कविताओं के माध्यम से उन तक पहुंचने की कोशिश की जाय।

1. हमारी भी आवाज 

भीड़ भरी ट्रेन में एक बूढा
पैर ज़माने की कोशिश कर रहा है
बढ़ती हुई भीड़ के साथ
सीट पाने की उसकी हसरत हताशा में बदल रही है

फूट पड़ी है उसके मुंह से गालियाँ
साला कहीं चैन नहीं है जीवन में
सब जगह भीड़ कोलाहल, धक्का-मुक्की
वह बताना चाहता है अपनी बीमारी, अपने अनुभव के बारे में
पर, उसकी आवाज में शामिल हो गयी है खांसी
वह गला खखारता है, जगह बनाकर थूकता है
एक बार फिर बोलने की असफल कोशिश करता है
पर अपनी अपनी व्यस्तताओं में मगन
कौन सुनता है बूढ़े की अस्पष्ट आवाज?

भीड़ के दर्द में दब जाता है बूढ़े का दर्द
बूढा लगातार बोलता जाता है
पहली ऐसी बात नहीं थी बाबू
हमने भी खूब लगाये हैं गेंहूँ
खूब उपजाया है गन्ना
थोड़े से खेत में हमने बहुत मस्ती की है
अब नब्बे साल की उम्र में  
यह सब नहीं होता
और खेत भी हमारे पास नहीं रहा
बेटा दूर चला गया है परदेश
साल में लौटता है दो बार
घर ही पर रहते थे पहले सब
लेकिन अब घर, घर की तरह नही लगता

उसकी आवाज में एक सन्नाटा  था
जो बरस रहा था हमारे सीने पर
हमारे बच्चे भी गये हुए थे बाहर
बीमरियों से परेशान हम भी थे
भीड़ के शिकार हम भी थे
बूढा बताता है अब जीने में पहले जैसा मजा नहीं रहा
उसके बताने में शामिल थी हमारी भी आवाज.

2. बनजारे 

परिंदों के झुण्ड उतरे हैं
दूर किसी आसमान से
थम चुकी है उनके पंखों की उड़ान
पसीने की गंध में डूबे हैं उनके शरीर
भूख और प्यास से बेहाल है उनका कुनबा
धरती के इस हिस्से में बन रहे हैं उनके घर
आंसू और मुस्कान के साथ
बांस और प्लास्टिक एक दूसरे पर टिकाये जा रहे हैं
खुले आसमान के नीचे
परिंदों को एक ठौर मिला है
जहाँ एक बार फिर शुरू होगा सभ्यता का आदिम राग
एक औरत है यहाँ जो आंच सुलगा रही है
दूसरी चूल्हा बना रही है
मर्द निकले हैं शिकार पर
बच्चों के झुण्ड में विजेता बनने की होड़ है
एक बूढी औरत भी है यहाँ
जिसके गले से अस्फुट-सा कुछ निकल रहा है
पूरे वातावरण में फ़ैल रही है आदिम गंध
सभ्यताओं के हजार–लाख सालों के इतिहास में
यही एक गंध है
जो बच रहा है उनके पास
दुःख के साथ प्यार है, नफरत के साथ ख़ुशी
तमाम झुकी गर्दनों के साथ भवें हैं
जो टेढ़ी हो रही हैं
कुछ सभ्य चतुर लोगों के लिये 
वे असभ्यता और बर्बरता के प्रतीक हैं
कुछ ज्यादा सभ्य और ज्यादा चतुर लोगों के लिये 
वे सस्ते मजदूर
जिन्हें उत्पादन की भट्ठी में खपाया जा सकता है
कुछ और ज्यादा सभ्य लोगों की नजर में वे
सभ्यता के छुट चुके  है पहरूए
कहने को उनके बहुत से नाम हैं
पर एक पहचान
वे परिन्दे हैं
कहने को उनके पास कुछ भी नहीं है
हमारी तुलना में
यह सच है
पर यह भी सच है
कि इन दिनों हमारे खून में भी नहीं आ पाता उबाल
किसी भी बात  पर
कि इन दिनों दूर हो गयी है हमारे पसीने से भी
श्रम की खुशबू
कि इन दिनों गायब हो गयी है
हमारे दिलों से भी भावनाओं की हिलोरें
जबकि उनके पास बचा हुआ है
बहुत कुछ, बहुत कुछ
उनके जीने में हमारी
अतीत की परछाईयां है.

3. बचना 

मैं बचा हुआ हूँ
जैसे बचा हुआ है यह जंगल
साँस खींचता हूँ
तो जंगल की महक आती है
नथुनों तक गुदगुदाती है अपनी ही गंध
अपनी जीभ पर मापता हूँ
अपना ही स्वाद
महसूसता हूँ अपने पास से गुजरती हवा को
अपने हिस्से की जमीन महसूस करता हूँ
कंठ में महसूस करता हूँ मीठा जल
देखता हुआ हूँ अभी बचे हुए हैं अन्न के दाने
सुग्गे की दांतों से कुतरे गये अमरूद
मां के गीत बचे हुए हैं पत्नी के होठों पर
पिता का सपना बचा हुआ है
मेरी आँखों में
मैं महसूस करता हूँ जीवन गंध
मृत्यु गंध से बहुत दूर
महसूस करता हूँ तुम को
खुद को.

4. चेहरा

कई लोग चेहरा देखकर बता सकते हैं
सामने वाले का हाल
कई तो इसे पढ़ने का दावा भी करते हैं
सपाट होते चेहरों ने अक्सर उनके दावों की पुष्टि भी की है
जब से बढ़ने लगी है बीमारियां और
हावी होता गया है तनाव
चेहरे भी सपाट होते चले गये हैं
मनोविज्ञान का काम इससे आसान भी हुआ है और मुश्किल भी
इससे इतर शिल्प विज्ञान में इन दिनों
कुछ ज्यादा ही तरक्की हुई है
गढ़ी जा रही है कई तरह के
रूप, रंग और भाव वाली मूर्तियाँ
अलग-अलग होता जा रहा है
उनका आकार और स्वरूप
विविधता से भरी ये मूर्तियाँ चेहरों के सच को बता रही हैं
चेहरे मूर्तियों में बदलने  लगे हैं और मूर्तियाँ चेहरों में
ऐसे विरोधाभासी समय में कुछ चेहरे अब भी हैं जो सोचते हैं
मूर्तियों ने अब तक यह काम शुरू नहीं किया है .

5. दिल्ली में 

कल्लू मोची के घर में शौचालय बन रहा है
यह एक आश्चर्य है गाँव में
जहाँ अच्छे-अच्छे घरों की महिलाएं भी
निकलती है मुंह अँधेरे फारिग होने के लिए

आश्चर्य यह नहीं कि शौचालय बन रहा है
आश्चर्य  यह कि कल्लू मोची के घर में बन रहा है
अब नहीं जाएगी महिलाएं खेत-बधार
वक्त बेवक्त
मर्द भी अब मौके-बेमौके ही जा पाएंगे खेतों पर
वैसे भी वहां अब रखा ही क्या है
और मर्द भी अब कितने बचे हैं
सभी तो गये हुए है
दिल्ली, कलकत्ता और पंजाब
और जब आते हैं तो कहाँ लगते हैं मर्दों से
कितना कम बोलते हैं वे यहाँ आने के बाद
जबकि बूढ़े और महिलाएं करते हैं
उनका सालों भर इन्तजार
एक उम्मीद के साथ
कि जब वे लौटेंगे
खड़ी कर दी जाएगी टूटी हुई दीवाल
खरीद ली जाएगी छोटी-सी गाय
जमा कर दिय जायेंगे पोस्ट-ऑफिस के पैसे
बहुत छोटी है बिटिया
करा दिया जायेगा उसका एडमिशन
हुलस कर फगुआ गा रहे हैं मोदन का
मगन है परोहताइन भौजी
और मस्त है कल्लू
उसके यहाँ शौचालय बन रहा है
यह थोडा-सा पैसा है दिल्ली का
जो लग रहा है यहाँ
पता नहीं यहाँ का
क्या-क्या लगा है दिल्ली में.

संपर्क―
प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा
मो.–9122493975

तुम्हारा ईश्वर

तुम्हारे शपथ में
कौन ईश्वर होता है ?

वह..!
जो षड्यंत्रों, घोटालों में
तुम्हारा साथ देता है
या वह..!
जो गरीबी, ज़हालत में
हमारे साथ होता है

हम डगमगाते हैं
हमारी आस्था भी
तुम डगमगाते नहीं
तुम्हारी आस्था भी...

जरा हमें भी बताओ
तुम्हारा ईश्वर कहाँ रहता है ?

ये लोग

ये कौन लोग हैं जो
बलात्कार की घटना को
हत्या से दबाना जानते हैं
हत्या की घटना को लूट से
फिर लूट की घटना को
हड़ताल से...घोटाले से...

...और इसी क्रम में
सूखे की समस्या को
अपने शोर से
दबाना जान गए हैं !

हमारा प्रजातंत्र

राजतंत्र के विरूद्ध लड़े
बनाया अपना तंत्र
नाम बदला, रूप वही
हमारा प्रजातंत्र

मतलब है, राजे होंगे
बस आप उसे चुनेंगे

सही समय

जैसे ही चेले-चपाटियों ने पुकार लगाई
मठाधीश..!

उन्होंने पड़े-पड़े जम्हाई ली
लगा..!
अभी–अभी जो किया उदरस्थ
बाहर करने का सही समय है

आनन-फानन में उठे
एक उल्टी में ही
सारा खाया–पीया बाहर..!

अगला दृश्य..!
अब तक के भूखे
आँख मूँदे चाट रहे थे

कतार से अलग

दोस्त !
सिर गड़ाए पढते थे तुम
पर कतार से कितना डरते थे तुम !
याद है न...
क्लास बंक कर सिनेमा देखना
दस का तीस टिकट खरीदना
किसी का समय खा जाते
किसी की ऊर्जा निचोड़ लेते
जाने–अनजाने, चाहे–अनचाहे
तब यह सोचने का न तो समय था
न सहूलियत।

और आज...
तुम पढ–लिख गए हो
दुनिया बदलने की बात करते हो
तुम्हारे अपने तर्क हैं
सोचने की सहूलियत भी

हर कहीं
कतारें भी हैं वैसी ही
बल्कि उससे भी लंबी
तुम भी बिल्कुल... ...
कहूं तो उससे भी बदतर !

शब्द और जीवन

बिहार के किसी गांव में
एक औरत
गोबर पाथ रही है
लोईया बनाके ठोकती है भीत पे
और वहाँ...
दिल्ली के सभागार में
उसकी कहानी पर
तालियां बज रही है

छप्पर के नीचे 
पसीने से तर-बतर
वह औरत
गोयठा सुलगा रही है
और वहाँ...
दिल्ली के सभागार में
एक असूर्यम्पश्या सुंदरी
चूल्हे के ठौर से उठती
सोंधेपन पर
कविता बाँच रही है

न उस सुंदरी के शब्द
सजीव हो पाते हैं
न वह गंवई औरत
उसके शब्दों की तरह..!

ग्लेडिएटर


एक झटके में 
होता सीना चाक ग्लेडिएटरों का
टप–टप गिरता खून
रेत में जा सूखता
लगते थे ठहाके
पवित्र रोम के अभिजातों के
साक्षी है कोलोसियम
एक आश्चर्य 
सभ्यता का

एक शरीर के चूकते ही
आ जाता दूसरा शरीर
गुलामों का
मजदूरों का
सीधे–सीधे कहें तो
मजबूरों का

उनकी नजर में
वे ग्लेडिएटर थे
एम्फीथिएटर के खिलौने थे
जिनके खातिर न ताबूत था
न कफन
पर दरअसल वे
हमारी दुनिया के शहीद थे

भूल चुके हम उन्हें
भूल चुके उनके विद्रोह को
उनके नेता स्पार्टकस को
रोम से कापूआ के बीच खड़े 
हजारों सलीबों को
उन पर टंगे गुलामों को
बस याद रह गया है 
भव्य कोलोसियम 

आज रोम का सीनेट
इसी स्मृतिलोप का फायदा उठा रहा है
पूरे ग्लोब पर छा रहा है
उनके एम्फीथिएटर बड़े होते जा रहे हैं
उसी अनुपात में ग्लेडिएटर बढते जा रहे हैं
जोड़ियाँ तय की जा रही हैं
अभिजात आज भी इन अखाड़ों में
पैसे लगा रहे हैं
पैसा बना रहे हैं

सीरिया, ईराक, अफगानिस्तान जैसे
विशाल एम्फीथिएटरों में
किसान–मजदूर एवं गुलामों के बेटे
लहूलुहान हो रहे हैं
यथार्थ जानने से पहले ही
चूक जा रहे हैं
हालात वही है
बस
औजार बदल गए हैं

हम राष्ट्रवाद के नारों के बीच
ग्लेडिएटरों को गिरता देख रहे हैं
रेत पर, मिट्टी पर

कहाँ देख पा रहे हैं ?
कि हर मुकाबले के बाद
हमारे बीच के लोग
कम होते जा रहे हैं





विस्मृत होती स्मृतियां


जब पहली बार टेलीफोन का रिसीवर पकड़ा था तो सचमुच रोमांच का अनुभव हुआ हुआ था। हाथ कांपे थे और आवाज भी। टेलीफोन बूथ पर कतारें लगी मिलती तथा हम बेसब्री से अपनी बारी का इंतजार करते। चिट्ठियां तब भी आती थीं एवं ग्रीटिंग्स कार्ड अपनी अहमियत बनाये हुए थे। कई पत्रों तथा उनसे जुड़ी स्मृतियां आज भी दिल को सुकून पहुचाती हैं। हममें से कइयों के पास आज भी कई पत्र सहेज कर जरूर रखे होंगे। उस समय पर्व–त्योहारों एवं पारिवारिक उत्सवों पर हमारा मिलना भी कम रोमांचक नहीं था।

"अरे! यह कितनी बड़ी हो गई। पिछली बार इत्ती–सी थी।"
"तुम पहले से कितनी कमजोर हो गई हो, फुआ।" कहते–कहते पता नहीं कब उनके पैर दबाने लगते।
एक युवती सहसा खड़ी होती है सामने। अचकचाने पर चाची कह उठती―"नहीं पहचाने, यह है पिंकी। तुमने बचपन में इसे झूले पर से धक्का दे दिया था।" वह युवती और सिमट जाती है। भले ही हम भाई–बहन धीरे–धीरे खुलने लगते तथा कुछ ही देर में हमारे ठहाके गूंजने लगते।

भूमंडलीकरण की शुरुआत ऐसे ही हंसी–ठहाकों एवं अपनेपन के दौर में हो गयी थी―पता भी न चला। कौन जानता था दुनिया के करीब आते–आते हमारा अपनापन दूर होता चला जाएगा। उस समय तक मीडिया ही हमारे जानने–समझने का माध्यम था। इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में सोशल मीडिया ने दस्तक दे दी, पर आमजन की पहुंच के बूते नहीं थी। धीरे–धीरे यह अपना दायरा बढ़ाने लगी। अब हमारी स्मृतियों के विस्मृत होते जाने का दौर आनेवाला था। 

टेलीफोन के दौर में हमें कइयों के नाम–पतों के साथ उनके फोन नंबर जबानी याद रहते थे। 'सेकेंडरी मेमोरी' हमारी जीवन–शैली में जगह नहीं बना पायी थी। मोबाइल तथा कंप्यूटर के पदार्पण के पश्चात् हमने अपनी याद्दाश्त खोनी शुरू कर दी। दूसरों के फोन नम्बर स्मृतियों से गायब होने लगे तथा हमने अपने प्रियजनों के जन्मदिन, शादी की सालगिरह आदि जानकारियां सेकेंडरी मेमोरी के हवाले करने शुरू कर दिए। फिर कौन जहमत उठाता―किसी के घर जाकर जन्मदिन की बधाई देने का, शादी की सालगिरह में शामिल होने का। हम अपनी व्यस्तता का बहाना बनाकर मैसेज भेजने लगे...नहीं तो ज्यादा–से–ज्यादा दो–चार शब्द में मुबारकबाद बोल देते। पर हमें खुद पता नहीं रहता कि हम कहाँ व्यस्त हैं? संयुक्त परिवार टूट रहा था। एकल परिवार में भी कुछ लोग एकाकीपन की ओर धकेले जाने लगे। कुछ बड़े–बुजुर्ग अपनी स्मृतियों को बचाने के फेर में कुछ बुदबुदाते रहते तो कुछ का साथ उनकी स्मृतियां छोड़ने लगी थीं। जिंदगी तेज तो हो ही गई थी। ऐसे में यह आश्चर्यचकित नहीं करता था कि कुछ लोग उस भाग–दौड़ में पीछे क्यों रह जाते हैं।

इसी बीच सूचना–क्रांति का दौर तेजी से बीसवीं सदी से इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर गया था। कहीं दूर विमर्श हो रहा था कि मानव को असहाय कर दिया जाय। कोई जरुरी नहीं आर्थिक रूप से बल्कि सभी भौतिक सुख–सुविधा के रहते हुए भी वह छोटी–से–छोटी चीज के लिए भी तकनीक एवं मशीनों का गुलाम हो। उसकी अपनी स्मृतियां मिटा दी जाय। धीरे–धीरे उसकी संवेदना अपनेआप ही ख़त्म हो जाएगी। आज का दौर इसी परीक्षण का दौर है तथा वे लोग इसमें कामयाब भी हुए हैं। हरेक के हाथ में स्मार्टफोन थमाकर पूरी कार्यशैली को बदलने की कवायद जारी है। सत्ता एवं कॉरपोरेट सभी इसमें शामिल हैं।

स्मार्टफोन एवं अन्य तकनीकों के समर्थन में कई तर्क गिनाए जा सकते हैं। ग्लोबल विलेज का सपना साकार हुआ है। हम दुनियां के उन लोगों से जुड़ पा रहे हैं जिनसे इन तकनीक के बिना जुड़ना लगभग असंभव ही था। जिन समाचारों को जानने में हमें काफी समय लगता था उसे आजकल "होते हुए या घटते हुए" देख पा रहे हैं। साहित्य के क्षेत्र में भी स्मार्टफोन, कंप्यूटर, इंटरनेट आदि सेवाओं का अहम योगदान रहा है। रचनाकार एवं पाठक नित्य इसके माध्यम से जुड़ रहे हैं। ब्लॉगरों की पूरी पीढ़ी इसके कारण ही अस्तित्व में आई है। सबका लिखा छपे जरुरी नहीं पर सबके लिखे को इस वर्चुअल दुनिया में पढ़ा जाता है। एक तरफ अच्छी रचनाएं पढ़ने को मिल रही हैं तो दूसरी तरफ तमाम अफवाह भी इसीके माध्यम से फैलाए जा रहे हैं जिसके कारण इन दिनों कई तरह की घटनाएं भी हुई हैं। पत्रकारिता में भी इन तकनीकों के कारण अभूतपूर्व परिवर्तन देखने को मिला है। स्थिति यहाँ तक आ पहुंची है कि आज हर स्मार्टफोनधारी पत्रकार है। पर दुखद! अब वे आदमी नहीं हैं। उनमें न किसी चीज के प्रति उत्सुकता है न ही जुड़ाव। सभी जगह 'यूज एंड थ्रो' की संस्कृति विकसित हो गई है। पत्रकार आत्मदाह करते, बाढ़ में डूबते, एक्सीडेंट में मरते लोगों की रिपोर्टिंग कर रहे हैं पर वे बचानेवालों में शामिल नहीं हैं। 'घटना' आदमियत पर वरीयता पा चुकी है। छोटी–छोटी कहानियां रोज समाचारपत्रों में पढ़ने को मिल जाती हैं― फलां जगह सेल्फी लेने के चक्कर में कोई नदी में डूबा तो कोई छत पर से गिरा। उसपर भी उनके वीडियो वायरल हो रहे हैं। आदमी अपनी संवेदना को ही विस्मृत कर रहा है।

कुछ दिन पहले चिड़ियाघर जाना हुआ। गाँव से आए हुए लोगों, जिनमें बच्चे भी शामिल थे, के चेहरों पर न तो किसी किस्म का विस्मय नजर आ रहा था न ही रोमांच, कोई जिज्ञासा अथवा कौतूहल। सबके सब तस्वीरें उतारने में व्यस्त थे। ऐसी ही स्थिति पारिवारिक उत्सवों एवं अन्य पर्व–त्योहारों में देखने को मिलती है। जन्मदिन पर बधाई के स्वर सुनने से अधिक फ़्लैश का चमकना देखने को मिलता है।  शादी–विवाह में स्थिति यह उत्पन्न हो जाती है कि कोई विधि–विधान इन चमकते फ्लैशों के कारण लोग देख नहीं पाते हैं तथा मांगलिक गीत सुनना दुर्लभ हो गया है।

सभी इस तरह अपनी स्मृतियां स्मार्टफोन की मेमोरी के हवाले करते जा रहे हैं। कोई वाकया पूछे जाने पर हम बगलें झांकने लगते हैं क्योंकि उन क्षणों में हम वहां थे ही कब? कंपनियां भी स्मार्टफोन की मेमोरी बढाती ही जा रही है। इस एवज में हमारा मस्तिष्क चूक रहा है। याद्दाश्त एवं विश्लेषण की क्षमता घटती जा रही है। हालात यह है कि अपना कॉन्टैक्ट नंबर भी हमें फोन से देखकर ही देना पड़ता है।

तकनीक हमेशा कहती है―"खुद से अधिक भरोसा मुझ पर रखो" और मानवता कहती है―"संवेदना को तकनीक के हवाले करने से बचो।" फिलहाल इस संघर्ष में तकनीक का पलड़ा भारी है।

आज हमारी स्मृतियों से इतिहास, संस्कृति, साहित्य सभी को विस्मृत कर देने की कवायद चल रही है। सभी चीजों को 'विजुअल' से जोड़ा जा रहा है। वे जानते हैं कि दृश्य एवं श्रव्य का माध्यम प्रोपगेंडा फैलाने में अधिक असरकारक है। आजकल बुद्धिजीवी लोग सत्ता एवं प्रतिपक्ष के मामलों में उलझाए जा रहे हैं ताकि पिछले दरवाजे से बिल्कुल ख़ामोशी से हमारी स्मृतियों में चीजों को सेट किया जा सके। हाल में स्टार प्लस चैनल पर बालाजी टेलीफिल्म्स द्वारा निर्मित धारावाहिक 'चंद्र नंदनी' में नंद एवं मौर्य वंश के शासन के दौरान 'भारत माता' एवं 'सोने की चिड़िया' की अवधारणा को अधिरोपित किया गया है। अन्य तथ्यों को भी तोड़ा–मरोड़ा गया है। कहने का मतलब है कि हमें उन तमाम तथ्यों से विस्मृत कराने की साजिश जारी है जो हमारे संघर्ष की कहानी है। हमारी स्मृति में वे सारी चीजें ठूंसी जा रही हैं जो हमारी गुलामी एवं आमजनों पर हुए जुल्मों का सबूत है। उसका परिचय गौरव के रूप में कराया जा रहा है। 'रोम का कोलोसियम'  हमारी स्मृति में रह गया है, वे गुलाम एवं मजबूर लोग नहीं जो कुलीन वर्ग के मनोरंजन के लिए ग्लेडिएटर बन कटते–मरते थे। हमारे देश में भी  ऐसे स्थापत्य को गौरव से जोड़कर दिखाया जा रहा है जो आमजन पर टैक्स बढाकर निर्मित किए जाते थे तथा जिसके लिए बेगार लिया जाता था। पर आज वे 'अद्भुत भारत' के अंग हैं।

हमारी स्मृति, उत्सव, संस्कृति के प्रायोजक वे हैं जो हमें गिनती की चीज मानते हैं। वे हमें आंकड़ों में उलझाए रहते हैं। मानव को मशीन में बदलने का उनका लक्ष्य निकट जान पड़ रहा है। हमें सतर्क होना होगा। हमें अपनी संवेदना को विस्मृत होने से बचाना होगा ताकि हम बचे रहें...मानवता बची रहे।

बदलता गाँव

गाँव का नाम आते ही हमारे सामने अलग-अलग तस्वीरें उभरने लगती हैं। अर्थशास्त्री ग्रामीण विकास के सिद्धांत देकर बड़े-बड़े पुरस्कार बटोर ले जाते हैं, भले ही खेतों में उनके कदम कभी न पड़े हों। वे वातानुकूलित वाहनों के विंडो से ही अनुमान लगा लेते हैं। नेता अपने पुष्पकयान से गाँव की स्थिति का आकलन करते रहते हैं। योजना-अधिकारी अपने आंकड़ों में हरित-क्रांति का गाँवों में विकास दिखाते हैं, भले ही बाद के आंकड़ों में उन्हीं गाँवों को पिछड़े बताकर योजनायें बनाते हैं तथा यह साबित करते हैं कि भारत गाँवों का देश है। देश का उच्च-शिक्षा प्राप्त विद्यार्थी यूपीएससी कि तैयारी के दौरान ‘कुरुक्षेत्र’ के आवरण पृष्ठ पर गाँव को पाकर उसके पिछड़ेपन का आकलन कर लेता है। कवि गांव की हरियरी देख–देख आज भी बेसुध हो जाते हैं।     

हिंदी-साहित्य में जब गाँव की चर्चा होती है तो हमारे सामने प्रेमचंद, रेणु तथा श्रीलाल शुक्ल के उपन्यासों के पात्र जीवंत हो उठते हैं। इनके उपन्यासों गोदान, मैला आँचल और राग-दरबारी के गाँव गुलाम एवं आजाद भारत के गाँवों का प्रतिनिधित्व करते हैं तथा आज का गाँव भी कमोबेश उन्हीं रूपों में परिष्कृत होकर हमारे सामने आता है। आज भी होरी भूमिहीन होकर मजदूरी करने को बेबस है। महाजनों के सूद के चंगुल में वह आज भी फंसा हुआ है। गोबर शहर में मजदूरों का मेंठ बन गया है और अपने ही तरह के अन्य गोबरों को ठेका पर फैक्टरियों में झोंकवा रहा है। महानगरों के दमघोंटू वातावरण में उनकी सारी ऊर्जा निचोड़ी जा रही है।  'मैला आँचल’ का पात्र कालीचरण को अपने सिद्धांतों से समझौता करना पड़ रहा है। समाजवाद एवं साम्यवाद लाने के क्रम में उसे विस्थापन का दंश झेलना पड़ा है और वह पूंजीपति बनकर जीने को अभिशप्त है। गाँव के टेंडर पर उसका एकाधिकार है और वह कई ईंट-भट्ठों एवं राईस-मिलों का मालिक है। पर आज भी आप अक्सर उसे मंचों पर समाजवाद के गीत गाते देख सकते हैं। लेकिन सही मायनों में ‘राग-दरबारी’ में प्रस्तुत गाँव ‘शिवपालगंज’ ही आज के गाँव का प्रतिनिधित्व करता है। उसके हरेक पात्र हमारे सामने ठहाके लगाते, चिंतन करते एवं अपने दुखों एवं मजबूरियों का रोना रोते मिल जाते हैं। इसका एक पात्र ‘सनीचर’ कालांतर में वैद्यजी के बताए रास्ते पर चलते हुए उपन्यास की परिधि से परे निकलने में कामयाब हो जाता है। वह गंदे धारीदार अंडरवियर एवं बनियान की जगह खादी का सफ़ेद एवं बेदाग़ कपडे पहनता है। सेवा करने की सीमा गाँव तक ही सीमित न रह जाय तथा लोग ये न समझें कि गाँव के लोग देश के लिए नहीं सोचते हैं, इस ख्याल से वह विधान-सभा होते हुए संसद तक पंहुच गया है।
       
खैर, अब गाँव की कहानी आगे बढती है। विनिवेश की हवा राजधानी होते हुए वहां तक जा पहुंची है। गाँव के तालाबों में कमल के पांत की जगह ‘सिंघाड़ा’ की लताएँ अंगडाई ले रही हैं। लोगों की शिकायतें थीं कि तालाब का पानी उर्वरकों एवं रसायनों के प्रयोग के कारण जहरीला होता जा रहा है तथा मवेशी इसके शिकार हो रहें हैं। वह तो भला हो कृषि के यांत्रिकीकरण का..! अब यह शिकायत भी नहीं रही। पाड़े, बछड़े, बूढी गायें और भैंसे सीधे किसानों के यहाँ से बूचडखाने भेजी जाने लगीं तथा गाँव इस मुद्दे पर सेकुलर बना रहा है। उर्वरक सब्सिडी किसानों को अधिक मात्रा में प्राप्त होने लगी है तथा खेत भी उर्वरकों एवं कीटनाशकों के नशे में बेसुध होने लगे हैं।
    
गाँव के सरकारी भवन बहुपयोगी बनकर वहां के आर्थिक एवं सांस्कृतिक केंद्र के रूप में विकसित होकर अपना सार्थक योगदान दे रहे हैं। ताश के अड्डे दिन-रात कायम रहने लगे हैं और ताकतवर लोग कई भवनों का मनमुताबिक इस्तेमाल कर रहे हैं। घर विरासत के रूप में संजोये जा रहे हैं और मंदिर भव्य होते जा रहे हैं। भव्य मंदिर दानवीर कर्ण की परंपरा के निर्वहन का शानदार नमूना बना हुआ है जिसपर गाँव गर्व कर सकता है। गाँव विकास की ओर ही जा रहा है; इसका एक और सबूत यह है कि घर से कुछ मिनटों की दूरी पर स्थित विद्यालय भी बच्चे साईकिल से जाते हैं। गाँव में भी शिक्षा का मतलब शहरों की तरह सिर्फ नौकरी पा लेना ही है। पहले से ही गाँव के कदम पंचायती न्याय-व्यवस्था से आगे जिला स्तरीय न्यायालय तक पड़ चुके हैं, जिसके कारण यहाँ भी शान्ति दरिद्र रूप में विराजमान है। उच्च न्यायालयों के वकीलों की फ़ीस आज भी ग्रामीणों के लिए चुनौती बनी हुई है, इस कारण इक्का–दुक्का मामला ही वहाँ पहुँच पाता है।
    
पूरब और पश्चिम के अनवरत संघर्ष में गाँव अपने को दोनों की सीमा-रेखा पर पा रहा है। सरकारी योजनाओं की जरुरत इसे आज भी उतनी ही है जितनी पहले थी। आखिर नगरों के साथ हाथ मिलाकर जो चलना है। फिर सनीचर का साम्राज्य भी तो इन्हीं योजनाओं पर टिका है।