भावना शेखर की कविताएं



अक्सर बहुत कम ही ऐसा हो पाता है कि व्यक्ति बचपन में उपजे शौक को अपनी पूरी जिंदगी में आकार दे। बहुत–से शौक एवं सपने तो इस भाग–दौड़ भरी जिंदगी में पीछे छूटते चले जाते हैं। परन्तु ऐसे व्यक्तित्व जो इन्हें अपने जीवन में उतार लेते हैं, निश्चित रूप से प्रेरक हैं। डॉ. भावना शेखर ऐसे ही बहुआयामी व्यक्तित्व की स्वामिन हैं जिन्होंने अपने बूते पारिवारिक, सामाजिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक परिवेश में अपनी सक्रिय भागीदारी तय की है। यह बचपन से ही लेखन का शौक एवं पारिवारिक परंपरा का प्रभाव था कि अचानक उन्होंने लेडी श्रीराम कॉलेज में राजनीति शास्त्र को छोड़ भाषा के विषय हिंदी एवं संस्कृत में मास्टर डिग्री हासिल कर डॉक्टरेट की उपाधि धारण की। संप्रति पटना के प्रतिष्ठित नोट्रेडैम एकेडमी की वरिष्ठ शिक्षिका के कई कविता–संग्रह एवं कहानी–संग्रह का पाठकों के पास पहुंचना हिंदी साहित्य के प्रति उनके लगन एवं समर्पण की कहानी बयां करता है। सत्तावन पंखुड़िया, साँझ की नीली किवाड़ (काव्य–संकलन) जुगनी, खुली छतरी (कथा–संकलन) एवं जीतो सबका मन, मिलकर रहना (बालगीत–संग्रह) के पश्चात् एक नया काव्य–संग्रह 'बन गई हूं एक जंगल' प्रकाशनाधीन है। उनकी कहानियों ने कई संस्थाओं के प्रथम पुरस्कार जीते हैं तो कविताओं ने संवेदना के नए आयाम तय किए हैं। पटना एवं बाहर के शैक्षिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों में लगातार शिरकत करते हुए वे अपने पाठकों एवं प्रशंसकों से जुड़ी रहती हैं।

भावना शेखर की कविताओं को पढ़ें तो पता चलता है कि वे कहीं से उसके निर्माण की सामग्रियां नहीं जुटाती...शब्दों की बाजीगरी के फेर में नहीं पड़ती बल्कि निज–जीवन के अनुभव, संवेदना, परिवेश सभी सहजता से उनकी कविताओं में समाहित होते जाते हैं तथा एक ख़ूबसूरत सृजन पाठकों के समक्ष होता है। कविताओं में वे अतिरेक से बचती हैं तो यथार्थ का सामना भी करती हैं। उपेक्षित मूक चीजों में वे अभिव्यक्ति ढूंढती हैं तथा संवेदना के सूक्ष्म स्तर तक उनकी पहुँच है। उनका प्रतिनिधित्व करती कविताएं आपके लिए !

1. हक़

वो खड़ा है बरसों से
गली के कोने में
रोज़ सुबह देखती हूँ
किसी बच्चे, अधेड़ पुरुष 
या युवा महिला को
उसका रुख करते 
सबके हाथ में है
एक–एक छोटा बड़ा 
अमूमन काला पॉलीथिन
जिसमे ठूंसे हैं 
धूल–धक्कड़, गन्दगी 
सब्ज़ियों, अण्डों के छिलके
गले हुए टमाटर

मुँह पर कसी गाँठ में क़ैद है
घर भर की कालिख और दुर्गन्ध
लाने वाले के माथे पर 
शिकन है घिन की
एक झटके से
खुले मुँह के हवाले कर देते हैं सब
अपना–अपना कचरा
खींचते हैं 
लम्बी साँस चैन की
गोया सर पर का गट्ठर
उतार फेंका हो ज़मीन पर

अब उसमें पसरी है
मुहल्ले भर की बेतरतीबी
टूटन और बिखरन
समूची मलिनता
कितना बड़ा है इसका जिगर
कितना दिलदार है
बाहें फैलाए 
अतिथि देवो भव की तर्ज़ पर
सबकी अगवानी को तैयार
हर सुबह, हर दोपहर
शाम तलक
हर किस्म के ज़हर को
हलक में उकेरता 
जैसे नीलकंठ

कलयुग में भी होते हैं
ऐसे नीलकंठ
ताउम्र ढोते औरों की गन्दगी
ग़लती, कचरा और अपराध
ख़ामोशी से
ठीक कूड़ेदान की तरह

उन्हें भी चाहिए
अपने हिस्से की 
थोड़ी ज़मी थोडा आसमां
बराबर का हक़
हमे सुनना है
समझना है
उस मौन को
विस्फोट से पहले


2. जानवर

कल मिले हैं दो बोरे
लहू के चकत्तों वाले
हाईवे से सटे जंगल में
झाड़ियों के भीतर

कई जानवर रहते हैं
इस जंगल में
जो दुबके हैं
अपनी अपनी मांद में
बेहद डरे हुए
और फिक्रमंद

आज बुज़ुर्गों ने बुलाई थी मीटिंग
किया है फैसला
अब छोड़ना होगा सबको
यह ठिकाना
उनकी खैर नहीं
कहीं फिर से न आ जाए
दूसरे जंगल से
दो पैरों वाले जानवरों का 
वही जत्था

कहीं उनका शिकार न बन जाएँ
इस बार
ये बेचारे जंतु
पैने दांतों और नाखूनों से
काम नही चलेगा
उनके हथियार
ज़्यादा कारगर हैं

तरीका भी कितना अनोखा
शिकार को ठूंस देते हैं
बन्द बोरे में
फिर ज़ोरदार वार
अपने ही खिलौनों से
हाँ, सुना है
इन्हीं खिलौनों से खेलते हैं
मैदान में 
बारह जानवर एक साथ
खिलौना कब हथियार बन जाए
भरोसा नहीं

सो, 
कल मुँह अँधेरे 
छोड़ देना है जंगल
क्या जाने
सुबह फिर से
घुटी–घुटी चीखों वाले 
कसमसाते बोरों को घसीटता 
चला आए
हमसे भी ताक़तवर
वही झुण्ड जानवरों का


3. औरत और पायदान 

रोज़ शाम वो लौटता है घर
कितनी धूल मिट्टी और
बीमारी के कीटाणु लिए
अपनी कमीज़, जूतों और मन पर
थकन, कोफ़्त, झल्लाहट
उदासी और मायूसी लिए
दफ्तर, मेट्रो, सड़क, ट्रैफिक
सारी चिल्ल–पौं
आग में घी डालती है
दौड़ता है एक ज्वालामुखी
घर की ओर फटने से पहले
गोकि जानता है
जूतों के साथ साथ 
मन भी हल्का हो जाएगा
घर ने दो साधन जो मुहैया करा रखे हैं
दरवाज़े पर पड़ा एक पायदान
और इंतज़ार में खड़ी 
औरत..!


4. चुल्लू भर प्रेम

कल आकाश ने उंडेल दिए थे
अनगिन अमृत कलश
रेत के टीलों पर
न पसीजा उनका मन
न भीगी उनकी रूह
टीले रहे वैसे ही 
सूखे और बंजर

फिर से आई है आज
झीनी–झीनी बारिश
टूटे दिल से बरसा है
बादल ज़रा–ज़रा

टीलों के पास पड़े हैं
कुछ ठीकरे, कुछ टूटे हुए मटके
उथली सतह वाले
सबके पेंदे में है
धूसर पानी
कल की बारिश का
जीने की तृष्णा को सींचता
मटियाली हँसी बिखेरता

हताश टीलों के पायताने
धूसर पानी के आगोश में
नाचती है
आज की मद्धम बारिश

जब भी गिरतीं नन्ही बूंदें
पेंदे के पानी में
जिजीविषा के घाघरे से
दस बीस वर्तुल 
जनमते हैं
खिलखिलाते हैं
ओझल होने से पहले

छिन भर का जीवन देती हैं
मासूमियत से लबरेज़ बूंदें
जी उठता है ठीकरों में जमा
धूसर पानी
भर देती बूंदें
संगीत, स्पंदन, नर्तन, कीर्तन
टूटे हुए मटकों में

नेह से ही उपजता है नेह
बस तोडना पड़ता है
ज़िद्दी टीलों को
बनानी पड़ती है
कुछ नीची ज़मीन
भरना पड़ता है
चुल्लू भर प्रेम
मन के पेंदे में।


5. चाहतों का सूत 

सितारों सा टाँक रखा है
तेरी आवाज़ के मनकों को
निगाह को भी चुन लिया 
धूप के कतरों सा

अपनी चाहतों का सूत 
कातती हूँ रोज़ ब रोज़
तेरी यादों की तकली पर

क्या मालूम ख्वाबों की झालर 
कब पूरी होगी
कब सजाऊँगी वन्दनवार
सूने मन की ड्योढ़ी पर


6. प्रेम को मुक्त करो प्रिय !!

कैसे उठाऊँ वो फंदे 
जो गिर गए है
कई सलाइयों नीचे
उधड़ता जा रहा है 
वक़्त का नीला स्वेटर

मैं कैसे भरूँ 
उन झिर्रियों को
जिनसे बह गयी
समूची तरावट

कैसे तेरा मन सिक्त करूँ
मिल सके जो मुझे भी
चिन्दी चिन्दी नमी 

मैं तलाशती थी पहले भी
प्रेम की उद्दाम धारा
तेरे अव्यक्त मन के बियाबान में 

अब तो लगता है 
तुम बन्द कर आये हो उसे 
पाताल की किसी गुफा के 
सात तालों में

दे दो मुझे वो चाबी 
मेरे प्रियतम!
बहाने दो रसधार

मुझे भय है 
कहीं लुप्त न हो जाए
सरस्वती की तरह
मेरे प्रेम की गंगा जमुनी धार

संपर्क :
डॉ. भावना शेखर
ईमेल – bhavnashekhar8@gmail.com

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