चाहत अन्वी दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गया में शोधरत हैं। कविताएँ लिखती हैं और खूब लिखती हैं। पक्षधर, हंस, वागर्थ, मधुमती जैसी स्तरीय पत्रिकाओं में छप चुकी हैं। स्त्री विमर्श के प्रचलित प्रतिमानों से इतर इनकी कविताएँ न केवल पितृसत्ता पर सवाल खड़े करती हैं बल्कि स्त्री जीवन के अछूते इलाकों की शिनाख्त भी करती हैं। ‘डिलीवरी बॉय’ जैसी कविता इनके कवि कर्म के कठिन रास्तों की ओर इशारा भर करती हैं वहीं ‘धरती का गर्भपात’ जैसी कविता इनके मनुष्य होने के सरोकारों की वास्तविक चिंता से भी परिचित कराती हैं। इनकी दस कविताएँ प्रस्तुत हैं।
– प्रत्यूष चन्द्र मिश्र
1. धरती का गर्भपात
1.
घने जंगलों के बीच
सिंगरौली में उसका गर्भ
सदियों से सिंचित था
जिसकी सुरक्षा को लेकर
पहरेदारों से ज्यादा सतर्क थी
ऊंचे पेड़ों पर बैठी नन्ही चिड़िया
चमकीली गिलहरियों की होड़
दानों से कहीं ज्यादा
शिकारियों के कदमों की आहट सुनने पर रही
रूई से नर्म खरगोश अपने साथियों के साथ
उसके गर्भ की रक्षा के लिए थे प्रतिबद्ध
चौकन्ने रहते थे पहाड़
पहाड़ी नदियां थी किसी प्रशिक्षित योद्धा जितनी ही शांत
इन सबके बीच
सिंगरौली के घने जंगलों में
उसका गर्भ सदियों से सिंचित था
2.
जंगल से दूर था
बहरूपियों का शहर
जिनके गर्म तोप पी सकते थे
नदियों का सारा जल
तोड़ सकते थे क्रशर
चौकन्ने पहाड़ों का कंधा
डायनामाइट पेट फाड़ निकाल सकते थे गर्भस्थ शिशु
चमकीले बूट रौंद सकते थे
नवजात का गर्भनाल
और अब
धरती का भ्रूण
उनके लिए उत्सव नहीं अवसर था
3.
जंगल और बहरूपियों की जंग में
पेड़ों से गिरने लगे पहरेदारों के गर्म दिल
डायनामाइट के शोर में
जारी था गर्भपात
कहते हैं कि उस रोज आकाश में बादल नहीं
पहाड़ उड़ रहे थे
और
धरती के बलात गर्भपात के गर्भस्राव से
निराश थी योद्धा नदी
जिसके भाग्य में अब यात्रा से कहीं ज्यादा
यातना थी |
4.
सिंगरौली के भ्रूण को याद करते हुए
मुझे याद आ रहा है डिगबोई
जिसका भ्रूण हर महीने मेरे घर
सब्सिडी के साथ सिलेंडर में कैद हो कर आता है
मेरे सपने में आता है जादूगोड़ा
और यूरेनियम
मेरे अजन्मे विकृत बच्चों की नसों में बहने लगता है
मेरी किताबों से झड़ने लगता है
झरिया की कोयले की धूल में सने बच्चों का भविष्य
दुनिया के तमाम विस्थापन को याद करते हुए
मनुष्यता के विस्थापन पर कोई तर्क नहीं दे सकती
पर महसूस कर रहीं हूँ
मैं अपनी आत्मा के हर हिस्से में गर्भस्राव...
2. आटे की लोइयां और रोटी
तीन अंगुलियों के सहारे
चेहरे पर गिरी लटें और माथे के पसीने को पोछते हुए
अक्सर मुझे आटे की लोइयां और
पुरुषों के पेट आखिर एक क्यों लगते हैं?
मैं सोचती हूँ और रोटियाँ जल जाती हैं
जली या कच्ची रोटियाँ क्यों अक्सर औरतें
अपने लिए अलग रख देती हैं?
रोटियाँ क्या स्वाद में औरतों और पुरुषों में भेद करती हैं?
जैसा माँ करती थी और
मुझे गोल-गोल रोटियाँ और भाई को गोल चाँद बनाने को कहती थी
आखिर लड़कियों के कम्पास को
कौन सा जादूगर बेलन बना देता है ?
ये जादूगर मेरे पास कभी माँ तो कभी पिता
तो कभी-कभी अईया जैसा वेश क्यों बना के आता है?
मुझे टॉफी, गुड़िया, पायल और एक किताब देकर
हँसते हुए फिर कहाँ चला जाता है?
किताब में क से कबूतर की जगह क से कम हँसो, कपड़े ठीक करो
ख से खरगोश की नहीं ख से खूब अच्छी बेटी, बहु या माँ बनो
ग से गोल-गोल रोटियाँ बनाओ या घ से घर ही तुम्हारी दुनिया है....
किसने और क्यों लिख दिया?
क्या जादूगर से बचा कर कबूतर लड़कियों को कहीं उड़ा ले जाते हैं ?
या खरगोश इन्हें आटे की लोइयां की तरह
पेट वाले इंसान से दूर किसी पेड़ की सुराख में छुपा देंगे
जिसके बारे में मेरी दादी ने उस दिन कहा था
‘रोटी गोल नहीं बनेगी या जल जाएगी या फिर कच्ची रहेगी
तो लोइया की तरह पेट वाला आदमी तुम्हें मरेगा’
जैसे मेरे पति मुझे मारते थे, तुम्हारे पिता तुम्हारी माँ को मारते हैं
और मुझे याद आता है उस दिन पिता बिलकुल आटे की लोइया लग रहे थे
मैं सोचती हूँ वो कौन सा जादूगर है जो
पुरुषों को आटे की लोइया की तरह पेट वाला बना देता है.... ?
आखिर मुझे अपनी अँगुली से ज्यादा अपनी रोटी की चिन्ता क्यों है?
मैं सोचती हूँ और मेरी अंगुली जल जाती है |
3. जंतर -मंतर
जंतर-मंतर
क्या तुम जानते हो
कि कुछ लड़कियों ने जीते कितने ही पदक
और फिर घसीटी गई दिल्ली की सड़कों पर
क्या तुमने उनके नोचे गए बालों के गुच्छों का दर्द महसूस किया है
क्या तुमने सुनी थी उन पर उठाई गई हर एक लाठी की आवाज़ ?
या तुम ठीक उसी वक्त बहरे हो गए थे
वो अडिग बैठी रही तुम्हारे पास, क्या तुम भी उनके लिए रहोगे अडिग
डरोगे तो नहीं ?
बताओ न जंतर-मंतर !
जब तुम्हें बुलाया जाएगा कठघरे में
पूछे जायेंगे कई सवाल
क्या तुम दोगे गवाही ? या रह जाओगे मौन
पलट तो नहीं जाओगे ?
बोलो न जंतर-मंतर !
क्या तुम्हें भी पसंद नहीं है बोलती लड़कियां
न्याय मांगती लड़कियां
या अपने हक़ के लिए लड़ने पर जेलों में ठूँस दी गई लड़कियां
अब भी चुप क्यों हो तुम
बोलो न जंतर-मंतर !
4. खबरदार! गैर – सरकारी पोस्टर लगाना मना है
किसी देश की सड़क जब गोबर से लिथरी हुई हैं
और नागरिकों के मस्तिष्क उसी गोबर से बने हुए खाद
में लहालोट हो रहे हैं
इन सबके बीच
खड़ी है सरकारी दफ्तर की चारदीवारें
उसके पहरेदार हर उस व्यक्ति पर गैर सरकारी पोस्टर
लगाने का संदेह करते हैं
जिनकी शक्लें उन्हें अब भी
इंसानी लगती है
जिस देश में रंगों की वैविध्यता भी अब जोखिम का विषय हो गया है
वहाँ इंसान का अपनी शक्ल के साथ मौजूद होने के खतरे
जानते है दीवार के पहरेदार
इन सरकारी दीवार पर
बेरोज़गार लोगों के लिए बैठे -बैठे लाखों कमाने के
हजारों इस्तेहार लगे हो या
लगा हो मर्दाना कमजोरी वाले हकीम का पता
या केवल लिखा हो ‘दिल्ली चलो’
... तो हर हवा के झोंके से काँप जाती है दीवार
‘पोस्टर चिपकाना अब दंडनीय अपराध है’
ये चेतावनी इस युग का सबसे बड़ा वैधानिक मसखरा है
5. चिड़ियाँ
दादी-नानी की कहानियों में
कई दफ़े जिक्र हुआ इक चिड़िया का
उस चिड़िया को गीत पसंद था
और एक दिन लकड़बग्घों ने मान्यताओं के नाम पर
लूट लिए दिन के उजाले में उसके सारे गीत
और जला दिए उसके शब्द
ले ली उसकी अभिव्यक्ति
और
गाड़ दिया बाँस के ऊँचे खम्बे पर
अपनी सभ्यता के पताके |
6. और परियाँ चली गई
(नवजात बेटियों के लिए जिनकी हत्या नमक खिला कर हुई)
मैं सुनाती हूँ बच्चियों को परियों की कहानी
इसी बीच कोने से आती है हल्की - हल्की ताजा जले मांस की गंध
और
उपस्थित होती हैं औरतें लिए अपनी मुट्ठियों में राख
सुनाती हैं कहानियाँ
करती हैं रूदन, गाती हैं सामूहिक गान
मेरे कानों में बुदबुदाती रहती हैं जले तन के अनगिनत किस्से
मेरी मुट्ठियों में भरने लगती हैं उनकी राख
मैं सुनाती हूँ बच्चियों को परियों की कहानी
इसी बीच आती है एक नवजात बेटी अपने शव के साथ
जिसकी स्मृतियों में माँ का दूध नहीं केवल और केवल नमक भरा है
वो रोती जाती है और नमक उसके मुँह से निकलता जाता है
मुझे लगता है इस देश में
नमक समंदर से ज्यादा हमारी बेटियो के मुँह से निकलता है
और
मेरी जीभ धीरे - धीरे नमकीन होती जाती है
मैं सुनाती हूँ बच्चियों को परियों की कहानी
और
अखबार लिए आती है एक लड़की
अखबार चिल्ला रहा है जोर -जोर जोर से ‘बलात्कार’
पर लड़की चुप है
मुझे लगता है
अब मेरी परियां भी चुप हो गई हैं
उनके मुँह में किसी ने नमक भर दिया है
और
अब उनके पंखों में रंगों की जगह केवल और केवल राख है ।
7. डिलेवरी बॉय
दुपहिया बाइक पर ग्लोबलाइजेशन का बोरा लटकाए
उसके जवान कंधे उतने ही झुके हैं
जितना किसी युद्ध में हारे हुए
सिपाही के कंधे होते हैं
जवान कंधों पर बंदूक है या ग्लोबलाइजेशन का बोरा
किसी को क्या फर्क पड़ता है ?
जो कभी पिता की साइकिल पर बैठ कर
जाता था बाज़ार
हवाहवाई मिठाई के लिए करता था जिद
आज उसकी रीढ़ की हड्डी
बाज़ार का नया खम्भा है
जिसकी ऊँचाई कुतुबमीनार और एंटिलिया से कहीं ज्यादा है
मैं सोचती हूँ अंतहीन इच्छाओं की अंधेरी दुनिया में
रात-दिन की दौड़ से थके इन धावकों के सपनों में
‘कर लो दुनिया मुट्ठी में’ स्लोगन गाते विज्ञापन आते होंगे?
क्या कोई अर्थशास्त्री बता पाएगा
उसकी आँखों के नीचे उभरे गड्ढों में
कुल जमा पूँजी कितनी है?
क्या कोई घड़ी की कंपनी बता सकती है
पूरे दिन में एक बार भी ठहर कर साँस लेने का वक्त
उन्होंने इनकी घड़ी में डाला है या नहीं ?
आज फिर से कोई डिलेवरी बॉय बोरा उठाए
मेरी गली में अपने ग्राहक का इंतजार कर रहा है
और मेरे रीढ़ की हड्डी धीरे-धीरे घिसती जा रही है।
8. महाजन
(हमारे अंचल में महाजन शब्द बेटियों के सन्दर्भ में प्रयोग किया जाता है)
मेरे गाँव में लड़की
अक्सर लड़कियाँ नहीं
कहलाती हैं अपने बाप की महाजनें
क्या कोई इनसाइक्लोपीडिया
बता पाएगा कि
इन्हें किसने महाजन बनाया?
कमर पर टंगे भाई-बहनों के बोझ से
इन महाजनों के स्कूली बस्ते भारी हो जाते हैं
और पीठ कमजोर
कि दसवीं तक पहुंचते - पहुंचते ही टूट जाते हैं
मेरे गांव की महाजनों ने कभी
पटना का
गोलघर नहीं देखा
मेले में किसी खिलौने ने
उनका मन नहीं लूटा
आखिर किस कारीगर ने उनकी चप्पलें बनायी कि
उनके फीते बदलते रहे
पर वर्षों से उन्होंने पैरों की चप्पलें नहीं बदली
और न ही बदले उनके पदचिन्ह
मैं सोच रही हूँ क्या महजनों के सपने
उनके बालों के फीतों की तरह ही
गुलाबी होंगे?
महाजनों
तुम लाँघो पहाड़ों को
जिन्हे पार कर तुम बन सकती हो
सिर्फ और सिर्फ लड़कियाँ
तुम लौटो वापस
और पहाड़ों पर खिले कास के फूलों की तरह
लड़कियों को धरती पर बिखेर दो ।
9. बसंत फिर लौट कर नहीं आया
मैं राह से गुजरी और
वे सभी हँस दिए
मैं वापस लौटी
उन्हें सुकून मिला
शहर की सारी सड़कों का होगा चौड़ीकरण
सुबह - सुबह अख़बार चीखा
दुःख की डोर उससे कई दिनों तक उलझी रही और
रूठी चिड़िया रोती हुई उड़ गई....
फिर कभी बसंत
इस शहर की सड़कों पर नहीं लौटा |
10. स्वाद
एक जहाजी बेड़ा
अरब सागर से सीधे उतरता है
मेरी प्लेट में
उसके लंगर डालते
ही
मेरे मस्तिष्क पर रेंगने लगते हैं
असंख्य दीमक...
इसी बीच
टीवी से छलांग लगाता है
जहाज से उतरी एक कंपनी के स्वाद का विज्ञापन और
एक देश के जीभ में
इतनी गहराई से धंसता चला जाता है
कि स्मृतियों से उतर जाती है
उसके अपने ही स्वाद की गंध
… स्वादहीन हो जाता है देश का भविष्य
परिचय:
चाहत
शोधार्थी, हिन्दी विभाग
दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गया
पक्षधर, वागर्थ, मधुमती, हंस में कविताएं एवं प्रेरणा अंशु, मुक्तांचल में लघुकथाएं प्रकाशित हुई है।
पता - रांची, झारखंड
ईमेल : Chahatanvi@gmail.com
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