सत्येन्द्र कुमार : विचारधारा और संवेदना का विरल संयोग


 

सत्येन्द्र कुमार हिंदी के वरिष्ठ कवि हैं. किसान आन्दोलन और वाम आन्दोलन में अपनी सशक्त भागीदारी जताने वाले कवि सत्येन्द्र कुमार की चिंताएं वैश्विक हैं जिन्हें वे हिंदी की महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में तफसील से दर्ज करते हैं. ‘आशा इतिहास से संवाद है’ और ‘हे गार्गी’ उनके प्रकाशित कविता संकलन हैं. एक दौर में मध्य बिहार की हिंसा को लेकर इनकी लिखी कविता ‘हवा उदास है’ काफी चर्चित रही थी. प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े सत्येन्द्र कुमार की रचनाएँ अपनी वैचारिकता और गहन संवेदना के चलते अलग से पहचानी जाती हैं. प्रस्तुत है उनकी दस नई–पुरानी कविताएँ.

– प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा 


1. यह एक प्रार्थना है


इस पेड़ को मत काटना लकड़हारे 

इसने धरती से पायी है सहनशक्ति 

आकाश से करुणा 

पक्षियों का संजोया है गीत 

जड़ें पूजती हैं नदियों को 

शाखाएँ बनती हैं आकाश का कंधा 

देह से फूटती है लाल-लाल कोंपलें


मेघों से घिरा रहता है इसका वजूद 

तितलियों से मिलकर तितलियों की तरह हँसती हैं 

सुनहले पंखों से झरती हैं बच्चों की खिलखिलाहट

देह से फैलती है, हँसी की सुगंध 


इसे मत काटना लकड़हारे इसकी जड़ों के पास

चींटियों के झुंड अपने अंडे रखती हैं

चींटियों के सोहर की आवाज़ फूटती है इसके चेहरे से इसकी जड़ों के पास

चीटियों का भविष्य पलता है -


इसे मत काटना लकड़हारे

इसमें किसी प्रेमी का दिल बसता है।


2. गौरेये


सोहर गाने की तैयारी में जुटे थे परिन्दे 

गौरेये की आँखों में

उतर आए थे लाल डोरे

शाखों पर उग आया था कोई सपना 

किसी झोपड़े से उठाए गए थे तिनके

चुनकर खेतों से लाए गए थे दाने 

गौरेया दूर देश से

अपने डैनों पर ढोकर लाई थी

मजूरन के गीत 

घोंसले में बस गई थी धरती की सुगन्ध,

पहाड़ों की हरियाली फैलने लगी थी उसके गर्भ में 

नए जीवन के इन्तज़ार में था घोंसला 

आसमान की आँखों में

उतर आया था एक नया सवेरा

गौरेया जन्म देने की तैयारी में थी एक नई उड़ान को।


3. हवा उदास है


(एक)


हर शाम की तरह उस शाम भी जब काम से लौट रही थीं औरतें 

ननद ने भौजाई से और दिनों की तरह ही की थी ठिठोली- 

“अबकी खूब खेलेंगे फाग, भौजी ! तुम्हरे संग, परसाल तो तुम गाभिन रहीं।" 

भौजाई की आँखों से बरसा था ननद के लिए स्नेह- 

"इस फाग में तो तू भी खूब गदराई है, ननदी ! 

जरा बच के रहियो बसन्ती हवा से।" 

ज़ोर-ज़ोर से मृदंग पर थाप देने लगी थी मटर की लतरें, 

मदमस्त हो सरसों के फूलों पर झूमने लगी थी हवा; 

शरम से लाल हो गया था क्षितिज का चेहरा।


(दो)


पगडंडी की हवा उदास है 

अभी-अभी जो मजदूर औरतें गुज़री थीं इन पगडंडियों से होकर, 

बिखरी हैं चारों ओर उनके केशों की खुशबू, 

अभी तक बाकी है उनके पाँवों के निशान। 

चाँद की छाती पर पाँव रखकर उसी रात उतरे थे हत्यारे

रौंद दिया था उन्होंने रजनी का आँचल 

शाम तक जिनके गीत गूंजते थे खेत-खलिहानों में, 

रात के सन्नाटे में जलाई गई होली उनके सपनों की। 

सपने जल रहे थे 

और रात उदास थी, 

उदास थी उस रात फागुन की हवा भी; 

गुम हो गया था नदियों से कलकल ध्वनियों का शोर


(तीन)


क्यों उदास थी फागुन की हवा?

क्यों फगुवा में उदास रहे मृदंग, ढोल, झाल?

क्यों नहीं गाई गई होली

'शंकर बिगहा में?

क्यों दस महीने के 'मुन्ना पासवान' पर

जिसकी बिखरी पड़ी थीं अंतरियाँ बरसाई गई एक नहीं

बीस-बीस गोलियाँ?

जबकि उस बच्चे की आँखों में था सिर्फ

माँ का इन्तज़ार

और उसके होंठ माँ के स्तनों को

रहे थे तलाश।

भौजाई को रंग लगाने का सपना लिए

क्यों चली गई ननद?

क्यों छलनी होने के बाद भी

बचे थे दूध से तने हुए स्तन,

जिनसे रिस रहा था धीरे-धीरे दूध

जो बेटे के मुँह से नहीं

उसकी अंतरियों से चिपट रहा था।

(इन प्रश्नों से बाहर कौन 

से सच को परोस रही है सत्ता?),


(चार)


इतिहास के पन्नों में 

शायद कहीं न दर्ज हो 

काम से लौट रही उन औरतों की आपस की छेड़छाड़ की बातें

शायद ही लोग जान पाएँ 

कि इतनी थकान और कष्टों के बीच कैसे बचाकर रखा उन्होंने जीवन-संगीत

शायद अख़बारी रपट से ज़्यादा महत्त्व न पा सके 'शंकर बिगहा की वह रात। 

शायद कुछ ही दिनों में भुला दिए जाएँ उन लम्पटों की सारी करतूतें, 

जिन्होंने रात के सन्नाटे में कायरों की तरह रौंद दिया उनके सपनों की दुनिया ।

(यही तो कर रही है सत्ता वह हमारी स्मृतियों को लील जाना चाहती है)


(पाँच)


फागुन की हवा उदास है। लम्पटो ! 

तुम्हें पता नहीं हवा की उदासी का राज। 

हर आनेवाला ईमानदार कवि हर पीढ़ी को याद दिलाएगा 

क्यों उदास थी फागुन की हवा। 

हर कवि दुहराएगा यह वायदा- “भौजी ! जब तक रहेगी यह पृथ्वी रहेंगे तुम्हारे सपने,”

हर पीढ़ी दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाएगी यह सांगात, 

पूरा होगा ननद के होली खेलने का सपना,

बच्चे के होंठ माँ के स्तन ढूँढ ही लेंगे, 

उनकी दहाड़ की तरह ही 

ख़त्म हो जाएगी उनकी गोलियों की भी दहाड़ । 

इस हत्याकांड के बाद भी 

यह सच बचा ही रह जाएगा 

कि 'शंकर बिगहा' इतिहास के पन्नों में दर्ज होगा। 

और वे जो गोलियों से इतिहास रचना चाह रहे हैं,

अख़बारी कतरनों को जोड़-जोड़कर 

इतिहास का गर्व पालेंगे

जब तक यह सच हो नहीं जाता 

तब तक हम बचाकर रखेंगे ननद-भौजाई की चुहलबाजी, 

झाल-मृदंग पर झूमते अपने सोहराई काका के गीत, 

जो हर फागुन में झूम-झूमकर गाते थे- "भर फागुन बुढ़वा देवर लागे, भर फागुन".... 

और इस सच को 

कि क्यों उस दिन उदास थी

फागुन की हवा ।


('शंकर बिगहा' में दलितों की सामूहिक हत्या होली के एक दिन पहले सामन्तों की निजी सेना के द्वारा की गई थी। 'शंकर बिगहा' बिहार के जहानाबाद जिले का एक गाँव है।)


4. पराशर


क्या वासना की नदी में तैरती 

वह सिर्फ़ एक नाव थी 

जिस पर सवार कोई कामांध ऋषि

शरीर के तट पर पहुँचने के लिए अँधेरा रच रहा था? 

क्या यह वैराग्य के

शिखर पर बैठे

दंभ से भरे

एक व्यक्ति का स्खलन था 

जो बार-बार लौटता 

शास्त्रों को अपनी बगल में दबाए शरीर के तट पर

अँधेरा फैलाने

स्त्री को एक नाव बनाने? 

नदी के तटों पर खड़े शास्त्रज्ञ

मौन क्यों हो?


5. प्यास


एक ऋषि की प्यास थी

जिसने सारा समंदर पी लिया।

उधर ओस थी

कि दूब की गोद में

निश्चिंत सोयी रही रातभर।


6. मध्यवर्ग का इंतज़ार


आलस्य में डूबी

जब पसरी रहती है नदी 

तब उड़-उड़कर आती है चिड़िया डूबकी लगाती है पानी में 

और उड़ जाती है। 

बार-बार यह खेल दुहराती है चिड़िया

यह देख कुढ़ जाती है नदी

नदी के भीतर पसरे सन्नाटे को तोड़कर

हलचल मचा जाती है चिड़िया

हमारे मन में हमेशा

एक ऐसी ही चिड़िया का इंतज़ार होता है

जो आए

थिर होते मन में डूबकी लगाए और फुर्र से उड़ जाए।


7. लौटना


मैं लौटूं

न लौटूं

मेरे लौटने का इंतजार मत करना

जब भी मैं लौटूं

बच्चों की नींद में ख़ूबसूरत सपनों की तरह लौटूं

अपनी बेटी की ज़िंदगी की 

स्याह रातों में

जुगनू की तरह लौटूं

संघर्षों में उम्मीद बनकर लौटूं

दीमक की तरह नहीं

चीटियों के समूह की तरह लौटूं

रेगिस्तान में दरिया बन लौटूं

तानाशाहों की दुनिया को मिटाने के

निरंतर प्रयास के बाद

लौटूं तो इस तरह लौटूं

कि पृथ्वी पर अभी भी

लौटने की उम्मीद बाकी हो।


8. अलविदा


मैं अलविदा नहीं कहूंगा

सूरज को

अंधेरी रात में चांदनी बिखेरते चांद को

पेड़ के हरेपन को

चिड़ियों की उड़ान को 

अलविदा नहीं कहूंगा

प्रेमिका के घर से अंतिम बार लौटता

उसकी गलियों को 

उन यादों को 

अलविदा नहीं कहूंगा

स्वतंत्रता के लिए लड़ते हुए मारे गए सैनिकों को 

उनकी मृत आंखों में बसे हुए उनके सपनों को

अलविदा नहीं कहूंगा

पत्थरों पर छूट गए अधूरे स्पर्श को

समुद्र की अतल गहराइयों के रोमांच को 

अलविदा नहीं कहूंगा

बार बार लौटूंगा संघर्षों में,

खेतों खलिहानों में

किसानों मजदूरों के श्रम में

बार बार उनकी आंखों में बसे सपनों के 

लिए लौटूंगा

पृथ्वी में धंसी जड़ों की महक के साथ 

पूरे दृढ़ता के साथ लौटूंगा

अलविदा नहीं कहूंगा।


9. युगलबंदी


जब रिक्शे की पैडल

पर उस्ताद ज़ाकिर हुसैन के पांव

पंडित बिरजू महाराज के पाँव की तरह थिरकने लगे

जब ज़ाकिर हुसैन की पीठ

पंडित बिरजू महाराज के लिए

तबले में बदल जाए

जब 'संगीता पाणिग्रही' रिक्शे पर

देश की पहचान बन कर बैठी हो

जिसकी उडीसी नृत्य की थिरकन से

उड़ीसा ही नहीं सारा विश्व खिलखिला रहा हो,

जब पंडित हरि प्रसाद चौरसिया और पंडित शिव कुमार शर्मा 

पीछे से रिक्शे को धक्का दे रहे हों

बांसुरी और संतूर की युगलबंदी

के साथ तबले की थाप पर

उडीसी और कत्थक के पाँव थिरकते हों

और बिस्मिल्लाह खान की शहनाई का

शास्त्रीय स्वर फिज़ा में सतरंगी आभा

बिखेरते हों

तो यह एक देश के सुर और ताल

में बदलते जाने का प्रमाण है


कोई धर्म

कोई जाति नहीं

संगीत ही धर्म,

संगीत ही जाति,

देश एक बृहद घोंसला है

जिसमें सारे देशवासी

परिन्दों की तरह लौटते हैं

रात धीरे धीरे राग यमन में डूबती चली जाती है।

राग भैरवी से शुरु होगा सवेरा ।


बहुत कड़े रियाज से सुर और ताल साधे जाते है।

देश का भी सुर ताल

कड़े रियाज से ही संभव है।


10. वह दिन


बाहर यादों की रखवाली करते बरामदे में 

टूटी हुई चारपाई पर 

रखा हुआ है माँ का टूटा हुआ चश्मा 

और कुछ उलझी हुई ऊन

जिसको सुलझाते - सुलझाते उलझ गये हैं उसके सारे छोर, 

माँ किन-किन छोरों को सुलझाये?

 एक दिन जब जीवन की छोर सुलझाने की कोशिश की

तो उलझ गयी उसकी डोर जो अब तक अनसुलझी है, 

कहीं पता नहीं है 

उसके ओर छोर का 

कितने युग बीत गए

झुर्रि

यों में फंस गया है

मां का प्यारा सा चेहरा 

मैं माँ के चेहरे पर बिखरी 

झुर्रियों का कोई छोर ढूँढ़ रहा हूँ ताकि मैं उसे समेट सकूँ

और माँ के दुःखों का 

उलझा हुआ सिरा पा लूँ।


संपर्क :


ग्राम+पोस्ट – कोइलवां

वाया - हसपुरा

जिला - औरंगाबाद, बिहार

मो. नंबर - 8521817778

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