शैडोग्राफ़ : दिव्या विजय

 

दिव्या विजय की लेखनी उस मुक़ाम तक आ पहुंची है कि हम उसे हिंदी साहित्य की समृद्ध परंपरा से जोड़कर देखते हुए उसकी जाँच–पड़ताल कर सकते हैं। उनकी दृष्टि, अनुभूति एवं विचार–चिंतन का परिचय हिंदी गद्य में कहानी, निबंध, संस्मरण आदि रूपों में मिल चुका है। उन्हें पढ़ते हुए हम समृद्ध होते हैं। उनकी रचनाएँ पढ़ते हुए कई बार नए शब्दों से परिचय होता है। ऐसा नहीं कि वे हमारे आस–पास नहीं थे। वे थे। उनकी अर्थवत्ता नहीं थी हमारे पास। जैसे नेक चंद ने चंडीगढ़ के रॉक गार्डेन में कचरे में फेंके गये टूटी–फूटी पुरानी चीजों को संयोजित कर उन्हें अलग अर्थवत्ता प्रदान की। उनके यात्रा–संस्मरण सरस होते हैं। यात्रा–संस्मरण लिखते हुए वह मोहन राकेश तथा निर्मल वर्मा के करीब होती हैं। वे पाठक का हाथ थामे साथ रखती हैं। संधान की सारी प्रक्रिया को पारदर्शी रखते हुए आपसे ही पूछ बैठेंगी – आप बताइए? यात्रा–संस्मरण लिखते हुए वे जैसे अपने मन के परदे पर व्यक्तियों के मन–मस्तिष्क की छाप लेती रहती हैं। तभी तो इस संस्मरण को उन्होंने नाम दिया है – शैडोग्राफ़। आप भी पढ़कर देखिए।

शैडोग्राफ़ 

जब मैं यात्रा पर होती हूँ, सिर्फ़ मैं ही यात्रा पर नहीं होती हूँ अपितु मेरे प्रियजनों की स्मृतियाँ भी संग होती हैं। एक से दूसरे स्थान पर वे स्थानांतरित होती हैं, ज्यों हवा से उड़ कर आ ठहरी पत्तियाँ, बालों में उलझ कर साथ चली आती हैं। पिछले बहुत समय से नरेंद्र जी से किया एक वायदा साथ है कि जब भी यात्रा संस्मरण लिखूँगी, उन्हें भेजूँगी। हर यात्रा पर यह बात मुझे याद आती है किंतु मैं उस जगह को मन भर देखने के बाद भी ऐसा कुछ नहीं पाती जिसे दर्ज किया जा सके। ऐसी कितनी ही यात्राएँ मेरे जीवन में आकर बीत गयीं। इस दौरान तस्वीरों की संख्या बढ़ती गयी और शब्द कहीं पीछे रह गए। इन दिनों कैसा तो मन हो चला है कि वहाँ कुछ ठहरता नहीं, सब फिसल-फिसल जाता है। यह बढ़ती उम्र के साथ मिले अनुभवों का परिणाम है कि अब हर बात चमत्कृत नहीं करती। जीवन प्रतीक्षा में बीता जाता है और लीक से हटकर कुछ घटित नहीं होता। एक-सी जगहें, एक-से लोग। चाह कर भी मैं उन्हें अलगा नहीं पाती।

फिर अचानक कुछ घटता है, साधारण ही। किंतु हम पाते हैं वह असाधारण की तरह हमारे जीवन में प्रवेश पा गया है और उसी को व्यक्त करने के लिए हम लालायित हो उठते हैं। व्यक्ति कितना भी एकांत प्रिय क्यों न हो, किसी से जुड़ने की ख़्वाहिश हमेशा बनी रहती है। किसी के होने, किसी को बिलॉन्ग करने की ज़रूरत कभी ख़त्म नहीं होती। क्या यही ज़रूरत लोगों को दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक ले जाती है? क्या इसीलिए वे आख़िरी दम तक उम्मीद लगाए रहते हैं, तब भी जब सब ख़त्म होने की कगार पर होता है? कल ही आलोक से मैंने पूछा था यह ज़रूरत बाकी ज़रूरतों की तुलना में उनके लिए कितनी बड़ी है। उन्होंने कहा था, “सबसे बड़ी। बाकी हर ज़रूरत से बड़ी।” यह कहकर वे मेरे परिचित चुनिंदा पुरुषों में शुमार हुए जिन्होंने अपनी भावनात्मक ज़रूरत को बाकी ज़रूरतों से बड़ा बताया। बहुधा पुरुषों को मैंने सम्पत्ति की, सामाजिक प्रतिष्ठा की, प्रसिद्धि की महत्ता कहते-सुनते ही पाया है। 

इन दिनों जिस दुनिया में मैं हूँ, वहाँ ये बातें और ज़रूरतें बेमानी हैं। भौतिकता को तरजीह देने वाली, चकाचौंध में गुम यह दुनिया कनेक्ट बनाना चाहती है किंतु ओहदा और रुतबा देखकर। सारी क़वायद अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचने की, उन्हें अपने दायरे में ले आने की है। मन के स्तर पर जुड़ना यहाँ ओल्ड फ़ैशंड माना जाता है। यहाँ अपने आप को बचाए रखना एक टास्क है। ऐसे में किसी से मिलना जिसमें अपना अक्स देख सकें, सुकूनदेह होता है। 

यह किसी शहर का नहीं, किसी स्थान का नहीं, एक व्यक्ति के साथ बिताए समय का संस्मरण है। करना था मुझे अपनी यात्रा को दर्ज किंतु क्या मेरी प्राथमिकताएँ बदल गयी हैं? मैं अपरिचित लोगों की कहानियाँ सुनना चाहने लगी हूँ। उनके जीवन को जानना चाहने लगी हूँ। उनकी चमकती आँखें मुझे आकर्षित करती हैं, कभी उन की उदासी की धुँधलके के पार मैं देखना चाहती हूँ। प्रवेश अब भी नहीं चाहती हूँ, न उनका मेरे जीवन में, न मेरा उनके जीवन में। Bonds are made to be broken. किंतु जहाँ कुछ जुड़ा नहीं, वहाँ टूटने की गुंजाइश नहीं रहेगी। बस कुछ क्षणों का साथ और अनंत काल की स्मृतियाँ। 

किसी के सपने का साझीदार होना कैसा सुंदर होता है। हम यहाँ पहुँचे तो सूर्य दूसरे पहर की गलबहियाँ किए आगे बढ़ रहा था। यहाँ माने चानताबुरी, आगे की यात्रा का पहला पड़ाव जहाँ एक रात के लिए ठहरना तय किया था। अप्रैल थाईलैंड का सबसे गर्म महीना होता है लेकिन यहाँ का हरा, गर्मी के लिए सोख्ते का काम कर रहा था। गर्मी ज्यों नंगे पाँव चहलक़दमी कर रही थी। 

नदी किनारे बसा यह घर पाक और पोंग का है। स्वप्न उनका। शहर की बड़ी इमारतों और ट्रैफ़िक से ख़ौफ़ खाने वाले दो लोगों का। छिपकलियों की एक पूरी जमात के बीच बैठ कर पसंद का सिनेमा देखने वाले दो किरदारों का। हम यहाँ आए तब पोंग घर पर नहीं था, पाक अकेली थी। सरल मुस्कान के साथ हमारे स्वागत को अधीर। आते ही जिस तरह उसने मुझे बाँहों में भरा, ख़ुशी उसकी बाँहों से होते हुए मेरे भीतर भर गयी। अपरिचितों से ऐसा आलिंगन मैंने इस से पहले कब पाया था, स्मृति में नहीं। मैंने उसे ध्यान से देखा। पतली-दुबली देह, तिकोना चेहरा, छोटी पलकों वाली बड़ी आँखें और माथे पर छितरे बाल। आँखों के कोनों पर हल्की झुर्रियाँ नुमायाँ हो रही थीं। तिस पर रह-रहकर उसके होंठों पर उग आती मुस्कुराहट, कुछ कहने, न कहने के बीच झूलती हुई। 

मैं उस से बातें करना चाह रही थी पर उसे नाम मात्र की अंग्रेज़ी भी नहीं आती थी। फिर भी हम अपनी-अपनी भाषा में कुछ कहते रहे जिसे हम दोनों ही नहीं समझ पा रहे थे किंतु दो अपरिचित भाषाएँ, जो सम्भवतः किसी और समय हमारे लिए आवाज़ें मात्र होतीं, वे अभी संगीत से कम नहीं लग रही थीं। कुछ देर बाद वह अपने काम में मशगूल हो गयी। छुट्टियों पर मैं थी, वह तो नहीं। काम भी कितने सारे। झाड़ू लगाने से लेकर नदी किनारे उगी घास काटने तक। बीच-बीच में वह भावों और संकेतों से अपनी दिनचर्या के बारे में बताती जाती जिसमें शामिल थे छः मुर्गे और दो बिल्लियाँ। उसके घर को देखती-परखती मैं उल्लसित थी। काश मेरी रसोई भी ठीक ऐसी हो जहाँ से दिखाई पड़े, घर का हाथ पकड़े नदी, नदी के साथ धमाचौकड़ी करता जंगल, पानी में डेरा डाले जलकुंभी और उनके बीचोंबीच खिलखिलाती जल कुमुदिनी। 

आगे एक बोर्ड रखा था जिस पर मेरे नाम के साथ वेलकम लिखा था। मैंने पाक को उसी की भाषा में शुक्रिया कहा तो उसने बताया, यह पोंग ने लिखा है। मैंने दोबारा देखा। अभ्यास न होने पर लिखावट में जो संकोच होता है, वह वहाँ था। लिखने में की गयी मेहनत के स्पष्ट निशान थे। आगे बढ़ी तो किताबों की एक अलमारी थी। सब थाई भाषा में। किताबें जहाँ हों, वह जगह आप ही खुशरंग हो जाती है। मैं किताबें उलट-पलट कर देख ही रही थी कि पाक ने बताया ये भी पोंग की हैं। किताब पढ़ने वाले व्यक्ति के चुप्पे एकांत और मनचीती निष्ठा में सम्मोहन होता है। मैं उस से मिलने को उत्सुक हो उठी। पोंग वहाँ नहीं था पर पूरे घर पर उसकी छाप थी। ढेर सारे वाद्य यंत्र, तारों के उलझाव के बीच रखे बड़े-बड़े म्यूज़िक सिस्टम। गिटार पर उँगलियाँ फिराने का मोह मैं नहीं छोड़ पायी। कुछ देर गिटार के तारों के साथ छेड़छाड़ करती रही। गिटार बजाना न जानने पर भी मोहक स्वर वातावरण में छितरा गए। अपना स्वभाव भला कौन छोड़ता है। 

फिर पाक के साथ बैठ कर दोपहर का भोजन किया। मैं एक वक़्त का खाना घर से पैक कर ले आयी थी। खाते हुए उसने बताया, मिर्च-मसालेदार भारतीय भोजन उसे प्रिय है। यू-ट्यूब पर देखकर वह बहुत कुछ बना लेती है। लेकिन लाल मिर्च की बजाय काली मिर्च उसे ज़्यादा पसंद है। यहाँ हम दोनों के लिए अनुवादक का काम रोशन कर रहे थे। वह बता रही थी उसके खेत में काली मिर्च के पौधे हैं। मैंने देखने की इच्छा ज़ाहिर की तो उसने कहा शाम को चलेंगे। कहते हुए वह मिनट भर के लिए ग़ायब हुई। लौटी तो उसके हाथ में काली मिर्च का एक पैकेट था जिसे उसने मुझे थमाते हुए चूम लिया। अपनी नयी सखी की इस निश्छल उदारता से मैं गदगद थी। ख़ूब मन से खाने के बाद, हम वहीं पसर गए। 

नदी का स्पर्श पाकर हवा स्नेहिल हो रही थी। कमरे ऊपरी तले पर थे और निचला तला क्या था, चारों ओर से खुला एक बड़ा बरामदा, जहाँ प्रकृति बेरोकटोक घूम रही थी। यहाँ तक कि मुख्य दरवाज़ा भी नहीं। क्या इन्हें भय नहीं होता होगा! तालों और दरवाज़ों से हीन ऐसा निधड़क और उन्मुक्त घर मैंने पहले नहीं देखा था। मन आह्लादित था, विरल को पा लेने के आश्वासन से भरा हुआ। 

पाक लेटे हुए थाई भाषा में कोई गीत गुनगुना रही थी। उसकी आवाज़ मुझे सहलाते हुए, सफ़र की सारी थकन पोंछ रही थी कि अचानक वह उठ बैठी। भरी गर्मी में अचानक बिजली गुल होने पर पंखा बंद हो जाए, उसी आकुल भाव से मैंने उसकी ओर देखा। उसकी दृष्टि के पीछे गयी तो वहाँ वह खड़ा था, पोंग। पाक उठ कर उस से बैग लेकर उसे पानी का गिलास थमा चुकी थी। वह थका हुआ, आस्तीन से पसीने पोंछते हुए पानी पी रहा था कि अचानक गिलास छोड़कर वह गिटार की ओर भागा। दीवार से उतार कर उसने उसके तारों को चेक किया। सब ठीक था। उसे कैसे पता चला कि उसका गिटार किसी ने छुआ है। सिक्स्थ सेन्स या गिटार की बदली हुई जगह। या शायद अपनी कला से प्रेम और जुड़ाव। मैं सोच ही रही थी कि मैंने उसकी आँखें अपने ऊपर महसूस की। शायद पाक ने बताया हो कि गिटार मैंने छेड़ा था। क्या वह नाराज़ है? मैं उसकी मेहमान हूँ, क्या इतना भी ख़याल उसे नहीं! मैंने अंदाज़ा लगाने की कोशिश की लेकिन कुछ समझ न आया तो मैं झूले पर जा लेटी। पाक दोबारा अपने काम में गुम हो चुकी थी। झूले की हल्की पेंगों ने मुझे नींद की ओर धकेल दिया। आँख खुली गिटार पर बजती मीठी धुन से। पोंग गिटार बजा रहा था। क्रोध की छाया उसके चेहरे से मिट चुकी थी। वह मुझे देख कर मुस्कुराया और धीरे से बोला,

“मैं क्लब में गिटार बजाता हूँ और गीत लिखता हूँ। आप?”

“मैं भी लिखती हूँ, लेकिन कहानियाँ।”

सुनकर वह पहले अचंभित था। फिर जब उसे मालूम हुआ मैंने दो किताबें लिखी हैं वह भाव-विभोर हो गया। उसने कहा लेखकों के लिए उसके मन में बहुत सम्मान है। वह पहली बार किसी लेखक से रू-ब-रू है। बचपन में वह सोचता था कि बड़े होकर ख़ूब सारी किताबें लिखेगा लेकिन किताब लिखने की प्रेरणा वह कहीं से अभी तक नहीं पा सका है। 

थाईलैंड आने के बाद मेरा अनुभव रहा है कि यहाँ बसे अधिकांश भारतीयों का पढ़ने-लिखने से कोई सरोकार नहीं है। मेरा लिखना-पढ़ना उन्हें किसी दूसरी दुनिया की बात लगती है। यह जानकर कि मैं लेखक हूँ उनकी प्रतिक्रिया विचित्र होती है। और यह जानकर कि मैं हिंदी में लिखती हूँ, वे मुझे कौतुक से देखते हैं। कुछ सलाह दे देते हैं कि मुझे अंग्रेज़ी में लिखना चाहिए और कुछ पूछ लेते हैं कि फ़िल्म/ सिरीज़ आदि क्यों नहीं लिखती! मैं दुःख से भर जाती हूँ कि साहित्य का इनकी नज़रों में कोई मोल नहीं। कितने ही हँस कर कह देते हैं कि किताबें पढ़ना उनके बस की बात नहीं और जो कोई भूले-भटके मेरी किताबों तक पहुँच भी जाए तो यह कहते हुए लौटा देता है कि उन्हें यह सब समझ नहीं आता। मालूम नहीं कि इस बात के लिए किसको दोष दिया जाए कि अपनी ही भाषा में लिखी बातें वे नहीं समझ पाते, किताबों को लेकर उनमें कोई उत्सुकता नहीं। शिक्षा-प्रणाली को अथवा जीवन शैली को। (हाँ, नयी पीढ़ी के कुछ बच्चे अवश्य अंग्रेज़ी साहित्य की ओर उन्मुख हैं।) जबकि दूसरे देशों के जितने लोगों से मैं मिली, अव्वल तो सबके हाथ में या बैग में कोई किताब मैंने पायी जिसे वे वक़्त निकालकर/पाकर पढ़ते हैं। यह जानकर कि मैं लेखक हूँ उनकी आँखों में आदर उतर आता है। वे अपनी पसंद की किताबों की चर्चा मुझसे करते हैं। मुझसे मेरी प्रिय किताबों और लेखकों पर बात करना चाहते हैं, मेरी लेखन पद्धति जानना चाहते हैं। मुझे लगभग सभी विदेशी लोगों ने कहा कि उनके सिरहाने कोई न कोई किताब अवश्य रहती है। रात में वे कुछ पढ़ने के बाद ही सोते हैं जबकि भारतीय घरों में किताबों का कोई कोना नहीं दिखायी देता। यह अंतर मुझे आहत करता है। 

पोंग देर तक मेरी किताबों पर, कहानियों पर बात करता रहा। उसे अंग्रेज़ी आती थी पर सीमित। उसी सीमित भाषा के सेतु पर हम विचरते रहे। मेरे पूछने पर कि इन दिनों वह क्या पढ़ रहा है, भाग कर होमोसेपियन्स ले आया। किताब खोल कर देखी तो जगह-जगह मार्क की हुई पंक्तियाँ और जहाँ-तहाँ लिखे हुए नोट्स। ऐसी किताबों में आह्लाद बसता है, जहाँ व्यक्ति स्वयं को रख देता है। मैंने किताब मेज पर रखी तो पोंग ने झट किताब उठा कर उसे अपनी क़मीज़ से पोंछा और तुरंत किताब उसकी जगह पर रखने चला गया। उसे जाते देख, मुझे मेरी याद आयी। अपनी संग्रहित किताबें किसी को देना कितना मुश्किल होता है मेरे लिए, भले ही नयी किताब ख़रीद कर दे दूँ। मेरे लिए, किताब देने का अर्थ अपना एक अंश सौंप देना। फिर भी कुछ लोग हुए जो हक़ से मेरी बुक शेल्फ से किताब निकाल कर ले जा सकते थे या जानते हुए भी कि वे किताब नहीं लौटाएँगे, मैं उन्हें किताब देती थी। एक हाथ की उँगलियों जितनी उनकी गिनती। वे किताबें मुझे बहुत याद आती हैं, वे लोग भी। 

मैं नदी के पास रखी कुर्सियों पर जा बैठी। धूप ललछौंही पड़ गयी थी। पानी का रंग बदलने लगा था। शाम उतरने के साथ ज्यों एक स्मित हवा में तैर रहा था जिसकी छाया में सब मुस्कुराता प्रतीत हो रहा था। पोंग किताब रख कर आया तो उसके हाथ में दो गिलास थे। कोई स्थानीय शर्बत था, पाक की अपनी विधि। मैंने पहला घूँट भरा। अपरिचित मगर मन को रुचने वाला स्वाद। मुझे अपनी कहानी ‘मगरिबी अँधेरे’ याद आयी। क्या यहाँ कोई जादू घटने वाला है! हाँ, यह सब जादू ही है। जो दैनिक जीवन में न घटता हो, उसका घटना ही तो जादू है। या कभी न सोचा हो उसका घटना, या जैसा सोचा ठीक वैसा ही हो जाना भी तो जादू है।

“क्या तुम्हें यह जगह किसी और जगह की याद दिला रही है?” पोंग के प्रश्न ने मेरी विचार-श्रृंखला में विघ्न उत्पन्न किया। मैं चौंकी कि किसी और की उपस्थिति मैं क्षण भर के लिए भूल गयी थी। मैंने एक और घूँट भरा और अपने आसपास एक बार फिर भली प्रकार देखा। हाँ, यह जगह मुझे कुमारकम के बैक वॉटर्ज़ की याद दिला रही है। ऐसी ही हरीतिमा, इसी रंग का पानी, पानी में तैरते पौधे और ऐसी ही कुर्सियाँ। जैसे वह स्थान और वह दिन रीक्रियेट किया जा रहा हो पर यह मैंने उसे नहीं कहा। 

“क्या ऐसा मेरे साथ ही होता है कि किसी एक जगह में दूसरी जगह घुलमिल जाती है? एक की याद औचक ही दूसरी जगह धर लेती है?” उसने फिर पूछा। 

“नहीं, ऐसा मेरे साथ भी होता है। सबके साथ होता होगा। शायद हम अपनी यादें भी सिमेट्रिकल चाहते हैं इसीलिए तारतम्यता खोजते हैं। यहाँ आने के बाद मैं लगभग हर कोने-कूचे को भारत की यादों से जोड़ चुकी हूँ। कभी-कभी कोई दिन भी ऐसे आ खड़ा हो जाता है जैसे कभी गया ही नहीं। जैसे किसी दिन पहाड़ों पर बितायी छुट्टियों में, पेड़ से लटकती विंड चाइम का स्वर याद आता है। कभी किसी ख़ास जगह जाने की चाह में मीलों चलते जाना याद आता है। कभी धूप का टुकड़ा ही मन प्रसन्न कर जाता है कि उसकी आकृति मेरे घर की खिड़की से छन आती धूप से मिलती है। हो सकता है यह सर्वाइवल की कोई तकनीक होती हो जिसे हमारा सबकॉनशियस अपनाता हो।” 

उसने समझने वाले भाव में गर्दन हिलायी। “मैं बहुत ज़्यादा नहीं घूमा। मेरी अधिकतर यादें एक-दूसरे की फ़ोटोकॉपी है। मेरी दुनिया सीमित है।”  

“मगर तुम्हारी कल्पनाएँ नहीं।” मेरे ऐसा कहने पर वह मुस्कुराया। “जो तुम्हारे पास है वह बहुतों के पास नहीं है और जो बाकी लोगों के पास है, हो सकता है वह तुम्हारे काम का ही न हो। हमारे पास चुनने का अधिकार भले ही हो किंतु चुनने के साधन सदा उपलब्ध हों, आवश्यक नहीं। जो है, उसी को अदल-बदल कर बरतना पड़ता है। सुनकर वह शून्य में खो गया। उसके चेहरे के भाव, दबे पाँव आते अँधेरे में घुल-मिल गए। उस चुप्पी को हम दोनों में से किसी ने नहीं तोड़ा। अचानक वह चिहुंका, 

“वहाँ देखो, वह नीली गर्दन वाला पक्षी। तुम लकी हो जो इसे देख पायी। यह आसानी से नहीं दिखाई पड़ता।” मेरी निगाहें धुँधलके का एक्स-रे कर सामने एक पत्ते पर टिके उस पक्षी पर गयी जो अपनी गर्दन मोड़ कर हमारी ओर देख रहा था। 

“इसका नाम?”

“नाम नहीं मालूम पर मैं इसे ‘ब्लू जेम’ कहता हूँ। जिस दिन यह दिखाई पड़ता है उस दिन ज़रूर कुछ अच्छा होता है। जैसे मेरा अधूरी लिरिक्स पूरी हो जाती हैं या उस रात मुझे गाने के लिए बहुत तारीफ़ मिलती है या मेरे जाल में बड़ी मछली फँस जाती है।” अब मैं उससे इत्मीनान से मुख़ातिब थी जहाँ पहुँचने के लिए उसे ख़ास तरकीब नहीं लगानी पड़ती। 

“मछली कहाँ पकड़ने जाते हो?”

“यहीं सामने। यह नाव है न इसी में बैठकर।” पानी में डुलती, छोटी-सी नीली नाव को मैंने हज़ारवीं बार देखा। 

“क्या तुम इसमें सैर करना चाहोगी?” मेरी इच्छा को भाँपते हुए उसने पूछा।

“अभी?” मेरा डर सतह पर तिर आया।

“पानी से दोस्ती हो तो समय के रंग से फ़र्क़ नहीं पड़ता।”

“दोनों ओर से चाहने पर भी कई दफ़ा दोस्ती पनप नहीं पाती। लेकिन फिर भी मैं कल सुबह कोशिश करूँगी, इस वक़्त नहीं।” इस स्वप्निल जगह पर मैं शायद अपने डर के बंध ढीले करने को तैयार थी।

“कुछ दूरी पर लताओं की कैनपी है। जाओगी तो देख सकोगी।” 

“ठीक, अब चलती हूँ। सब मेरा इंतज़ार कर रहे होंगे।” उसने कुछ नहीं कहा। मैंने विदा लेने के लिए हाथ बढ़ाया तो वह धीरे से बोला, “आय एम फ़ीलिंग ब्लेस्ड दैट आय मेट यू।” उसके चेहरे पर तरलता थी। अजाने ही हम लोगों के जीवन में बदलाव रख देते हैं और लोग हमारे जीवन में। कुछ जुड़ता है, कुछ घटता है और उन बदलावों की परिधि पर हम चक्कर काटते जाते हैं। 

“कल तुम जा रही हो। फिर कभी इस शहर आओगी तो यहाँ रुकोगी?” उसकी आवाज़ थरथरायी हुई थी। मैंने पलट कर देखा। जिस हाथ को मैंने छुआ था वह हाथ थामे वह कह रहा था, “यह स्पर्श मैं सदा सम्भाले रखूँगा।” मैं हतप्रभ थी। वह किसी क्षणांश में, व्यक्ति से पुरुष में बदल रहा था। 

क्या हम जेंडर से परे जाकर व्यक्ति मात्र नहीं रह सकते। क्या हमारी दूसरी पहचान हम पर इतनी हावी रहती है कि व्यक्ति होना सेकंडेरी हो जाता है। इसी कारण कितनी मित्रताएँ खोयी हैं। मधुर हो सकने वाले कितने सम्बंध समय से पहले चुक गए हैं। नहीं, मैं किसी प्रकार की कटु स्मृति साथ नहीं ले जाना चाहती। जो शाम दो लोगों ने साथ बितायी है, उसकी नैसर्गिकता को मैं किसी और बात से आच्छादित नहीं करना चाहती। उसकी भावनाओं को लेबल न करने का निर्णय लेते हुए मैंने उसे देखा और ‘न’ कहकर आगे बढ़ गयी। 

परिचय :

नाम - दिव्या विजय, जन्म - 20 नवम्बर, 1984, जन्म स्थान – अलवर, राजस्थान, शिक्षा - बायोटेक्नोलॉजी से स्नातक, सेल्स एंड मार्केटिंग में एम.बी.ए., ड्रामेटिक्स से स्नातकोत्तर

विधाएँ - कहानी, लेख, स्तंभ।

‘अलगोज़े की धुन पर’ एवं ‘सगबग मन’ कहानी-संग्रह प्रकाशित। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं जैसे नवभारत टाइम्स, कथादेश, इंद्रप्रस्थ भारती, पूर्वग्रह, जनपथ, नया ज्ञानोदय, परिकथा, सृजन सरोकार आदि में नियमित प्रकाशन। इंटरनेट पर हिन्दी की अग्रणी वेबसाइट्स पर अद्यतन विषयों पर लेख। रविवार डाइजेस्ट में नियमित स्तंभ।

अभिनय : अंधा युग, नटी बिनोदिनी, किंग लियर, सारी रात, वीकेंड आदि नाटकों में अभिनय। रेडियो नाटकों में स्वर अभिनय। 

सम्मान - मैन्यूस्क्रिप्ट कॉन्टेस्ट विनर, मुंबई लिट-ओ-फ़ैस्ट 2017 

सम्प्रति - स्वंतत्र लेखन, वॉयस ओवर आर्टिस्ट

ईमेल- divya_vijay2011@yahoo.com