भाषा के हाथ न लगे हों नुकीले पत्थर
कि संवाद से किसी की स्नेहिल नींद टूटे
उत्कर्ष की एक कविता है ‘कि’. इस एक शब्द को उत्कर्ष ने अपनी संवेदना और भाषा के बीच बहुत खूबसूरती से एक पुल की तरह इस्तेमाल किया है. यह उत्कर्ष ही कह सकते हैं कि-
‘तुम वह जरूरी 'कि' हो. तुम हो तो संभव है डूबकर करना प्रेम दो वाक्यों का एक-दूजे से जैसे आबद्ध’.
हिंदी की समकालीन युवा कविता के घटाटोप में उत्कर्ष एक जरुरी कवि हैं. उनकी भाषा संश्लिष्ट न होकर सहज और बोधगम्य है. वे सामाजिक संस्कृतिक परिदृश्य पर एक जरूरी हस्तक्षेप करते हैं. उत्कर्ष सवाल करते हैं कि-
उत्कर्ष की कविताएँ न तो इन्द्रिय बोध की कविताएँ हैं न इन्द्रियातीत अनुभवों की. ये एक ऐसे कवि की पुकार है जो अपने जीवनानुभवों को लोकानुभव रूप में दर्ज करता है. उत्कर्ष की यहाँ प्रस्तुत दस कविताएँ थोड़ा रूककर ठहरकर सोचने को विवश करती हैं. प्रस्तुत है अक्षरछाया की यह प्रस्तुति.
~ प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा
१.कहाँ थे तुम
जब रात की चादर में छुप गया दिन
मध्यरात्रि जब बिसरी
जब रात की काया बिखरी-टूटी
नींद जब रौशनियों के बाज़ार में बिलखी-भटकी
कहाँ थे तुम?
जब आँगन विदा हुआ
साथ ही उसके
चारपाई पर बैठी औरतें और उनकी बतकही
जैसे कोई लालटेन बुझाकर कोने में रख दी गई
कहाँ थे तुम?
क्षणिक सुख पाने की चाह में
छोड़ दी तुमने धैर्य की छतरी
बनावटी बादल हटे तो तेज धूप निकल आई
पुकारने पर रुक तो जाना था तुम्हें
कहाँ थे तुम?
जब दुःख नहीं था
तुम्हारा सामीप्य प्रायः साथ रहा
तुमने मुझे विशेषणों से भर दिया था
फिर अंतहीन सन्नाटा पसरा।
जब मन के पास मन भी नहीं था,
और नहीं थे छलिया सुख के अनगिन अभिप्राय
कहाँ थे तुम?
जब भी आदमी ने आदमी का आदिम परिचय बदला
अखबारों ने सबकुछ ठीक है, ऐसा लिखा
लेकिन सन्नाटा सिसकियों की परछाइयों में पसरा
जब सोता रहा चौकीदार मन
और इंसाफ़ की पवित्र ईमारत में सेंध लगी
कहाँ थे तुम?
२. सुनो
सुनो,
उस जंगल में मत जाना
जाना भी तो दबे पाँव
एक पत्ते पर भी न डालना पाँव
अपने वाचाल कदमों को थोड़ा मनाना
वह होंगे नींद में, साथी!
और तुम जानते भी तो नहीं
वह सोते कब और कब हैं जागते
तुम शायद कुछ भी नहीं जानते!
नदी का स्वप्न आखिर नदी का स्वप्न है!
दोस्त मेरे, किसी शिशु से मिलना
तो शिशु बनके
अपनी प्रौढ़ता के पदचापों से
मत डालना उसकी शांतिमय मुस्कुराहटों में खलल
हाथ बढ़ाना साथी
एक आदमी से जोड़ते दूसरे को
निवाला बाँटना कि उसकी मिठास बढ़ जाती है तब
गुड़-पानी चौखट पर मुस्कराता रहे हरदम
लिखना दोस्त तो ख़याल रखना
पेंसिल भले नई मगर यादों की बुनाई गहरी हो
भाषा के हाथ न लगे हों नुकीले पत्थर
कि संवाद से किसी की स्नेहिल नींद टूटे
नदी को देखना
तो रहना नदी होने की उत्कंठा में
होना पतंग
तो मत खीजना उस डोर पर
जिसे तुमने प्रेम के ही तो हाथों सौंप रखा है
बरसात देखना साथी तो बरसात देखना भर
उसमें भीगने की व्याख्या मत करना
भींगना तो मन धो लेना साथी
साथ बरसात का रोज़ मिलता नहीं
अकेले होना तो बतकही याद रखना
कि क्या कहा था भीड़ ने तुमसे
मित्र की बाँह ने;
दुःख ने सुख के बंधनों से क्या कहा था
किसी से बात करना तो बहुत बात करना
उसकी आँखों से
कि जो शब्दों में अनकहा रह जाता है
वह उन आँखों में ही व्यक्त होता है
मटमैले हाथों को हाथों की विशेषता में दर्ज करना,
साफ़ हाथों को साफ़ समय के खाते में लिखना,
क्रिया में खोजना समय को,
विशेषणों की अतिश्योक्ति में नहीं
दृष्टि में बसाना विविधता से गढ़ी गई स्मृतियों को
अपनी असहमतियों को अपने पास रखना
कि तुम्हारा 'नहीं' किसी की 'हाँ' पर हावी न हो
ये मत भूलना साथी कि तुमसे जो मिलीं हथेलियाँ
उनके स्पर्श कितने सहृदय थे, कितने बेकल
जोड़ना साथी सभी छूटे पते-ठिकाने
कि तुम्हारा सुख दुःख से हमेशा जीवन सीखता रहे
जब मन टूटने लगे
तो रो लेना, दोस्त!
आधी रात का सन्नाटा
जब तुम्हें घेरने लगे
बीच दोपहर
अकेले रह लेना
लेकिन कभी मत रहना
प्रशंसित विज्ञापनों में डूबे लोगों की भीड़ में
अधिक रौशनी के मोह में मत पड़ना
वातानुकूलन का यह रहस्य जानना
कि वह कमरा सारी गर्म हवा को बाहर धकेलकर
अनुकूल बनाया गया है
तापमान का बढ़ना इरादतन भी होता है
कि बाहर और भीतर के तापमान का यही फ़र्क
कि 'होने की' अभिजात्यता 'नहीं होने पर'
यूँ ही थोपी जाती है
कि पूँजीवादी पाठ्यक्रम का सारा विमर्श यही है
कि बाज़ार न होने को होने से हमेशा भरता रहेगा
कि खाई बढ़ती जाएगी
(अभिलाषा, महत्वकांक्षा, लालसाओं का पहाड़
डूबता, उतिराता वह
गर्वित,
झिलमिलाता उस दर्पण में
अवास्तविक नदी की सतह के नीचे
गहरी, पथरीली खाई वह जो
दूर से पर वह
छद्म...
मखमली घास का मैदान दिखाई देगा!)
यह जानना कि
एक की जमीन इसलिए गहरी है
क्योंकि उसकी मिट्टी
किसी ऊँचाई के निर्माण में लगी है
कि एक की वाचालता
कितनों के उपेक्षित मौन को ढकने का षड्यंत्र है।
भीड़ में होना तो यह जरूर खोजना
कि हर वह चेहरा
जो कुछ खोया खोज रहा है
वह अख़बार के विज्ञापनों के नीचे तो नहीं ढक दिया गया?
क्योंकि
हर कुछ जो खो गया
उसे नहीं खोना था
हर मौन को मौन नहीं होना था
नदी को नदी रह जाना था
आदमी को बस एक आदमी
और
प्रेमियों को इस दुनिया में
सब ओर
भर जाना था
कि कोई जगह उदास न बचे
घर से निकलते को
हर शाम को
घर लौट आना था।
३. और बस तभी तुम आ जाओ
रात्रि जब अपनी बेस्वाद उदासी
भोर के गले में उतार चुकी हो.
जब भोर के प्रकृति-गीतों में
तुम्हारी गंध का अंतरा हो नदारद.
जब मैं भूल चुका हूँ
होने और ना होने के पशोपेश भी
और जीवन के सारे सुखद पूर्वाग्रहों को.
जब हर करवट भविष्य और अतीत के मध्य में
सामंजस्य बिठाते ली जा रही हो
और सुबहें बुद्ध के अमृत-वचनों से दूर
भ्रमजाल के अरण्य में जा भटकी हों.
जब ये दुनिया शोर से संतप्त हो
और मेरी पुकार नदी के उस पार न पहुँचे
तभी
बिलकुल तभी
तुम आओ
जैसे
लौटता है प्रवासी पक्षियों का एक झुण्ड
वापस अपने देस
ये एहसास जीने कि
मौसम सदैव अनुकूल होता ही जाता है.
तभी
बिलकुल तभी
तुम आओ
जैसे भोर की देहरी पर आकर बैठी गौरैया
समूची लोक-संस्कृति को बचा ले जाती है.
तुम आओ जैसे
जेठ के अंतस से निकल आता है
आषाढ़ का कथावाचक.
जैसे
बचपन की सारी कहानियाँ लौटती हैं
सावन के शास्त्रीय-राग के कोरस में रत
बारिश के अक्षुण्ण तादात्म्य में.
तुम आओ
जैसे पतंगबाज़ लौटता है
शाम के सारे करतब काढ़ते-समेटते.
तुम आओ जैसे
जैसे आ लौटी हो
गाँव के गीतों की महान परंपरा
जैसे चरनी, चौखट, आँगन और चबूतरा.
जैसे लौटता है प्रेम
बिरह की वियोगी बेला पर भारी
अकुलाहट के बाद.
जब मैं अपनी सारी वर्णमाला खो बैठूँ
और मूक अलाप में तुम्हारा प्रेम पुकारता चलूँ
तभी
बिलकुल तभी
तुम आ जाओ
जैसे बसंत लौटता है
और प्रकृति की बिसरी भाषा लौट आती है.
४. अंतर्द्वंद्व
क्या लिख रहे हो?
क्या संवेदना?
क्या दुःख?
स्पर्श को शब्द दे सकते हो
जागृत कर सकते हो
उन्हें
जो सो रहे जागते हुए भी
हम क्या कर सकते हैं
गुलमोहर का सौंदर्य-गान लिख सकते हैं
लेकिन यह उसका सौंदर्य-गान है
और उसकी उदासी नहीं
यह कैसे जानते हो, कवि?
मत लिखो आज, कवि!
शब्द नहीं
रुदन को हृदय से लगाकर
भींच लेने की जरूरत है
आवाज़ भरने की जरूरत है
हर उस जरूरी आवाज़ में
हमारे शब्द अनगिन
उन डूबती आँखों में
डूब जाएँगे मेरे साथी
हम अगर रह जाएँ वाचाल
मौन का वह जरूरी संवाद
अधूरा रह जायेगा, कवि!
पीड़ित बोल रहा है, कवि!
सुनो उसे
उसे उसका जरूरी वर्तमान तो दो
और अगर हो सके तो
बन जाओ बताशे के बहाने
किसी बच्चे की मुस्कुराहट
चलते समय
राह के काँटे बीन फेंक दो
काँटों की व्याख्या नहीं
उसके कारकों की भर्त्सना करो
कि
सभी के कोमल पाँव हैं
राह के लिए
न कि
काँटों के षडयंत्र के लिए
तुम्हारा पुरुष
क्या स्त्री हो सकता है, कवि!
देख सकता है अपनी आंखों में
उसकी आँखों को
जिसने उसमें जीवन भरा
फिर से नामकरण करो, कवि!
जहाँ तुम्हारा पुरुष अहं रचे
वहाँ याद करो
भूख सहेजती स्त्री
लिखते हो, कवि!
तो लिखो
दौड़ने की जगह
चलना साथ
और
थम जाना क्यों जरूरी है
क्यों जरूर है
किसी खंडहर की आपगोई सुनना
टटोलो मन की गुल्लक
उसमें होंगे कहीं
माँ के दिये वो पाँच रुपये
खुशियों के दिये वो मिट्टी के
अतीत की चाँदनी रात
जिसका आसमान सबका होता
होती हर नींद की
उसकी लोरियाँ
लिखो
क्या नहीं है अब
मंच के अदृश्य सूनेपन में
क्या अब भी आती है
किसी अँधिआरी रात में
जुगनुओं की झिलमिलाती बारात?
पड़ताल करो कि क्यों नहीं आख़िर
दौड़कर नहीं जाती है पुकार के पीछे कोई पुकार
देखो कि
क्या कोई धैर्य
बैठकर प्रेम से
सुनता है
उस बुजुर्ग समय को
जो कब से वक़्त को थामने का तजुर्बा
भविष्य को देना चाहता है।
५. कि
कि ये रात कैसी है और ये फ़िज़ा कि तुम्हारे चेहरे पर उजास करती यह अँजोरिया हमारा होना अगोरती है. कि निहारते तारों को लम्हा बीता और हमने मूँद ली अपनी आँखें. कि मैंने रसोई में आज फिर कुछ नया बनाना सीखा, पर तुमसे बेहतर नहीं. कि तुमने कबूतरों को बातें करते देखा और तुम्हें किसी की याद आई.
कि हमने सूरज को डूबते देखा तो साथ-साथ, पर जिया उस लम्हें को अपनी-अपनी तरह और उसके सुभग चित्र दिए सहेजने एक-दूसरे के मन को. कि बिरह के अनगिन पल हमने बिताए, पर तुम्हारे हिस्से की बात तो मेरे शब्द व्यक्त नहीं कर सकते. कि तुम मुझे वह सब बताओ जिसे मुझे जानना चाहिए. कि तुम मुझसे कहो कि तुम्हें हमारा साथ चलना पसंद है. कि उस दिन मैं भूल गया था उस पेड़ का नाम और तुमने याद दिलाया और मुझसे कहा कि उदास शामें हमारी बातों को याद कर ख़ुशरंग हो जाती हैं.
कि तुम चुप रही आज. कि आज आसमान सूना रह गया और छूट गई बादलों की चित्रकारी की तुम्हारी वह अलभ्य व्याख्या. और घर मुझे ताकते रहा रात-दिन कि तुम चुप रही क्यों? कि घर उदास हो जाता है जब तुम चुप रहती हो और शाम को घर लौटते वक़्त दरवाज़े का पाँवदान बता देता है सबकुछ. कि तुम बोलती हो तो मन की बंद पड़ी घड़ी वापिस चलने लगती है.
कि बताओ मुझे कि खिड़कियों ने घर से क्या बातें की. कि दो और दो मिलकर बाईस कैसे होते हैं और चार कैसे और पाँच कैसे और शून्य! कि पड़ोस में सब ठीक तो है न? कि तुम्हें नर्म ऊन के रंग-बिरंगे गोले और कितने चाहिए. कि मुझे तुम देखती हो कभी तो ऐसा क्यों लगता है कि संगीत बज रहा है और वह आ रहा है दूर कुहासे के अंतराल से छनकर धीरे-धीरे पास.
तुम वह जरूरी 'कि' हो. तुम हो तो संभव है डूबकर करना प्रेम दो वाक्यों का एक-दूजे से जैसे आबद्ध.
६. दवाईवाला
वो कौन था
ये जानने और समझने का निर्णय
मैं आप सबके विवेक पर छोड़ता हूँ
बस इतना ही कि वह जो भी था
हम लोगों के बीच का था
नई बीमारियाँ
जहाँ हर साल जन्म ले रही हैं
स्वतः
या फिर निर्मित
उन्हीं में से कुछ
लाईलाज भी।
उसने सोचा
कोई तो दवा होगी
अगर नहीं है तो
क्या असम्भव है
कुछ भी नहीं
"अगर बीमारियाँ बनाई जा सकती हैं
तो दवाइयाँ क्यों नहीं?"
अर्थात
अगर मर्ज़ है तो दवा भी होगी
और उसके होने का दावा भी होगा
तो उसने कहा
लोगों से
पूँजी लगेगी
दवा बनेगी
धन पानी की तरह बहाया जाएगा
स्वास्थ्य-धन अवश्य लाया जाएगा
कहते हैं
ठान लेने पर
कुछ भी कठिन
कुछ भी असम्भव नहीं
पैसे बहे
अनुसंधान पर अनुसंधान हुए
और आख़िरकार
सफलता मिली!
और
खोज ली गई दवा!
अब क्या था
लाईलाज व्याधि से मिल जानी थी मुक्ति अब!
आश्वासन था
कि दवा मुफ़्त मिलेगी
लेकिन जब घोषणा हुई तो यह पता चला कि
दवा का मूल्य आदमी के भार से अधिक न होगा
फैसला हुआ
आदमी का पैसा
इस दुर्लभ अनुसंधान की कद्र करेगा
इसका क्रय-विक्रय तो होगा कुछ
आख़िरकार
अविष्कार बिना मोल के तो नहीं हो सकता
और कीमत तय हुई
महँगाई के अनुरूप
जितनी हो सकती थी
आदमी के देह के भार से
बस थोड़ी ही भारी
इतना कि
दो जने मिल कर एक को उठा लें
पर भार अधिक लगा
न उठा सकें लोग
एक भीड़ भी मिलकर
न उठा सकी
एक बीमार आदमी के देह का भार
किसी को वो दवा मिलती
किसी को नहीं
इसमें निर्माता की क्या गलती थी?
वो तो निर्माण करके ही
अपने दायित्व से मुक्त हो गया था!
दवाईवाला अब दवाई-वाला न रहा
-वाला हो गया था।
इतने में कोई और बीमारी आई
लाईलाज
पहले वाली
इस तरह
हो गई
अप्रासंगिक
लोगों ने फिर से पैसा लगाया
लेकिन दवा इस बार भी
किसी के हाथ न लगी
शायद कुछ दवाएँ
इतनी विशिष्ट
सदैव ही रही हैं
कि मर्ज़ पर भारी रही हैं
प्रयोजन जैसे
अभियोजन पर,
मूल्य जैसे वस्तु पर,
कर जैसे दाता पर,
ब्याज जैसे मूलधन पर
जैसे....
जैसे....
जैसे....
गोल पहिया
तेज़ी से घूम रहा है
भीड़
देख
रही
है
उसे
एकटक।
७.यही तो
यही तो
कह के गई थी पुरवईया
लौट आएगी अबके अगहन
और ताकेगी माँ के साथ
समय की खिड़की से
अगोरते जाड़े की धूप
उसे बुलाता रहा घर
और
वह लौट आने का ख़याल कल पर टालकर
बेहतर जीवन की इश्तिहारी व्याख्याओं के पीछे
भटकता रहा पूरा जीवन
जबतक लौटा भी तो
क्या पाया?
उस ताउम्र जोहते जीवन से बेहतर जीवन
उसी धूप अगोरती खिड़की में था
यही तो कहती रही है
पुरवईया
और माई.
८. जानने में वह जानना जो नहीं जानते लोग
मैं
हुआ
स्निग्ध
छुआ तुमने
मन मेरा पूछा जब
कैसे हो से अधिक भी कुछ
भूल गए पढ़ना मेरा परिचय-पत्र
मेरी अर्जित डिग्रियाँ और लोगों के मंतव्य
यही पूछना जो पूर्वाग्रहों से था बहुत-बहुत दूर
सोचता हूँ कि यही तो था पूछना एक-दूसरे से सदा
फॉर्म में पूरा विवरण भरने के परे भी था लेना जान कि
आदमी की पहचान किसी पहचान-पत्र में कभी नहीं
उसकी हथेलियों के उस अविकल स्पर्श में थी बसी
कभी-कभी ज़वाब पाना भी नहीं होना था जरूरी
कभी-कभी उसके मौन में डूबकर जानना था उसे
चलना था उसके साथ कि उसकी थाहों में ही
उसे सुनना था बिना अपनी बात कहने की अति के
उसकी रात की बेचैन नींद से चुरा लाने थे अकहे दुःख
उसके दाएँ को अपने सहज बाएँ में था बटोर लेना
उसकी बातों के बीत जाने में भी ठहर जाना था
सबकुछ ठीक नहीं था उसके ठीक कहने पर
उसके कहने भर से ही नहीं मान लेना था
कि उसकी करवटें नहीं हैं उदास बहुत
मुस्कुराहटों की ख़ाली चिट्ठियाँ नहीं
उसे अपना जरूरी वक़्त देना था
यह जानते-समझते हुए कि
कुछ भी जरूरी नहीं होता
सिवाय साथ में ठहरने
और बटोरने के हिज़्र
कि आदिम विवरण
आदमी की रूह में
आदमी होने का
खोजना रहे
शेष।
९. तफ़्तीश
पड़ा है मलबा
पुरानी लकड़ी, मर्तबान और संदूकची
ओखर, श्रृंगारदान, मिट्टी के अक्षय-पात्र!
गाँव के तालाब, डीह और ओसारे...
बाजार हँस रहा है
जैसे करतब दिखाते हैं जादूगर
हर संभव चीज़ उसके करतब में शामिल है
पर गौर से देखो तो
तिलिस्म!
दृश्य में आँगन नहीं है
चबूतरे की संगत भी नहीं
वह आती थी
लगाए पैरों में महावर
दिखाने सँझवत
उतारने नज़र रात की
दृश्यांतर!
पर्दा गिरता है।
नेपथ्य-
किस्सागो घूम रहा है खँडहर में
सूखती घास की नोक पर
किसी के आंसू अभी ताज़ा हैं
जो अब नहीं रहा
उसकी ज़ेब में से
परचा मिला है घर के पुराने पते का
तफ़्तीश की औपचारिकताएँ
झाँकती रहीं है सिफर के झरोखे के बाहर!
हम!
हम! इस सभ्य समाज के लोग!
पुकारने से पहले रुँध गए गले को
चिल्लाते प्रश्नवाचकों को
उनके उत्तर कब लौटाएंगे?
१०. आइस-पाइस
हम छुप जाते थे किसी कोने में
पलंग के नीचे
भंडारघर में
बगीचे में कहीं
जहाँ हमें खोजना मुश्किल हो
फिर भी हमें खोज लेता था 'चोर' बना साथी
बोल देता था 'आइस-पाइस'।
लेकिन हमेशा थोड़े ही होता था ऐसा
हम शातिर थे
छुप जाते थे ऐसी जगह
जहाँ का पता लगाना आसान नहीं था
और पीछे से पकड़ लेते थे 'चोर' को
बोल देते थे 'धप्पा'।
ये खेल बचपन का
ये थोड़े ही जानते थे हम
चलेगा ताउम्र।
हम भागते रहेंगे कल से
और वो पीछे से आकर हमें पकड़ लेगा
बांध लेगा अँकवार में
और बोल देगा 'धप्पा'!
लेखकीय परिचय:
उत्कर्ष, जन्म २८.०२.१९९५, पटना।
पटना विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में परास्नातक। वर्तमान में अंग्रेजी विषय में शोध-कार्य जारी और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में शोध-पत्र प्रस्तुति। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, अनुवाद व आलेख प्रकाशित। 'एक शहर की यादें' नाम से एक 'मोशन-फ़िल्म' का निर्माण-निर्देशन। विश्व-साहित्य, सिनेमा, यायावरी, फोटोग्राफी और अन्य कलाओं में विशेष रूचि।
संपर्क:
उत्कर्ष ऐश्वर्यम, पश्चिमी पटेल नगर, पटना - 800023।
मोबाईल : ७२५०४४८६०८.
1 टिप्पणी:
उत्कर्ष की कविताएं पढ़ना बढ़िया लगा। एक पंक्ति है 'मूक आलाप...' इसके आशय कई मिलते मिलते जायेंगे पाठक को।
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