कहानी कोकिलाशास्त्र की - 1





“न चिड़ियों की आवाज रही और न हवा की सनसनाहट। अब न फूल खिलते हैं और न ही आंधियों में पीपल की टहनियां झुककर जमीन को सलाम करती हैं। लोगों के कानों को मोर की आवाज़ और पपीहे की किलकारी में फर्क भी पता नहीं रहा।”

संदीप मील की कहानी ‘कोकिलाशास्त्र’ में यह एक गाँव की व्यथा-कथा की आरंभिक पंक्तियाँ हैं। पर, व्यापक अर्थ में यह गाँव की नहीं बल्कि पूंजीवादी सत्ता द्वारा तैयार की जा रही उस दुनिया का सच है, जहां मानव प्रकृति एवं संवेदना से बिछुड़ता जा रहा है। उसकी आत्मसत्ता इस बाहरी सत्ता के समक्ष घुटने टेकती जा रही है या उसके लिए मजबूर की जा रही हैं। 

जब कोई सत्ता मनुष्य को प्राप्त नैसर्गिक अधिकारों से वंचित करने लगे तो एक विवेकशील मनुष्य में इसका प्रतिकार करने का भाव जागता है और समांतर सत्ता का आविर्भाव होता है। अपने स्वतन्त्रता संग्राम के आन्दोलनों पर दृष्टिपात करें तो हमें उन कालखंडों में कई जगहों पर देशवासियों द्वारा समांतर सता चलाने की जानकारी मिलती है। वे लोग आज आजाद राष्ट्र के गौरव हैं तथा उनसे हमें प्रेरणा मिलती है, किसी अन्यायपूर्ण व्यवस्था के प्रतिकार करने की...जूझने की...लड़ने-भिड़ने की। पर, आज के परिप्रेक्ष्य में वैसी ही अन्यायपूर्ण व्यवस्था से जूझने वाली समांतर सत्ता को क्या हमारे लोकतंत्र में वही गौरव मिल पाता है?

संदीप मील की कहानियों से गुजरते हुए जो एक बात पकड़ में आती है कि इस कथाकार की मनुष्य-मात्र में आस्था है...तभी तो उसकी सार्वभौम सत्ता की रक्षा के लिये वे अपनी कहानी में अन्यायी व्यवस्था के खिलाफ समांतर सत्ता की कल्पना करते हैं, जो उत्पीड़क के सामने घुटने नहीं टेकता, बल्कि दृढ-संकल्पित होकर खुलेआम संघर्ष की घोषणा करता है।

जब सत्ता आवारा पूँजी के उड़नखटोले पर सवार होकर सभी संसाधनों पर अपना कब्ज़ा जमाना चाहती है तो परिणाम होता है – संसाधनों का अन्यायपूर्ण बंटवारा। यह नीति धीरे-धीरे मानव की गरिमा को क्षति पहुंचाने लगती है। अपनी गरिमा एवं अस्तित्व को विस्मृत करने को मजबूर होता मनुष्य संख्या में बदलता चला जाता है, जो पूंजीवादी सत्ता चाहती है। ऐसी ही परिस्थियों में समांतर सत्ता भीड़ में तब्दील होते मनुष्य की आवाज बनती है। 

‘कोकिलाशास्त्र’ कहानी के गाँव को देखें तो वह पूंजीवादी नगरीय व्यवस्था का एक तस्वीर पेश करती है। यह व्यवस्था सत्ता के सहयोग से फल-फूल रही है, जहां साधारण मनुष्य का स्वामित्व उसके अपने ही संसाधनों पर से ख़त्म किया जा रहा है तथा वे चीजें जो उन्हें सहज सुलभ थीं, पैसे पर मिलने लगती हैं या सरकार की लोक-कल्याणकारी योजनाओं के नाम पर।

ऐसा ही कुछ हाल था कहानी की नायिका सरिता के गाँव नीमागढ़ का, जहां वह ब्याह कर आयी थी। आप उस गाँव की जगह अपना गाँव, शहर, महानगर या देश को रखके भी सोच सकते हैं। बहुआयामी एवं बहुस्तरीय कहानियों की यही तो विशेषता होती है। गाँव की स्थिति देखिये – “हाँ, बिल्कुल बिना पेड़ का गांव था। करीब दस साल पहले गांव के दो फौजी रिटार्यड होकर आये और उन्होंने हिसाब लगाया कि एक पेड़ को पालने में दस हजार का खर्चा होता है। आमदनी कुछ नहीं। ऐसा करें कि सारे पेड़ों को काटकर बेच दिया जाये और उन पैसों को ब्याज पर दे दिया जायेगा तो हर महीने गांव के प्रत्येक परिवार को दो हजार रुपये ब्याज के मिलेंगे। पूरे गांव में घने पेड़ थे। सारे काटे गये और अब हर घर को दो हजार रुपये ब्याज के मिलते हैं।” ( जारी...) 

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