निवेदिता झा की कवितायें



निवेदिता झा का सृजन संसार विस्तृत है। वे हिंदी एवं मैथिली में अपने मनोभावों को अभिव्यक्ति देती हैं। स्कूली जीवन के साहित्य-प्रेम ने उन्हें कविताओं की दुनिया की तरफ आकर्षित किया और फिर वे पड़ाव-दर-पड़ाव अपनी साहित्यिक यात्रा पर चल पड़ी। इस क्रम में उनका पहला कविता-संग्रह आया 'नीरा मेरी माँ है'। उसके बाद 'मैं नदी हूँ' और 'देवदार के आँसू'। कई साझा संग्रहों में अपनी सहभागिता सुनिश्चित करती उनकी कविताओं का अपना मनोविज्ञान है। उनकी कविताओं की स्त्री प्रगति-पथ पर लगातार आगे बढ़ रही है। प्रकृति एवं प्रेम को आख्यायित करती उनकी कविताओं में नैसर्गिकता दिखती है। यथार्थ की व्याख्या में बनावटीपन से दूर उनकी रचनाएं किसी खास वाद के घेरे में गिरफ्त दिखायी नहीं देती और रचनाओं का अपना सहज प्रवाह है। तो चलिए, उनके जीवन-दर्शन को उनकी कविताओं से गुजरते हुए समझा जाय।

1. एक स्त्री
-------------
प्यार के दो बोल
दो गज़ ज़मीन
दस कदम
चार दिन
एक घर

इन्हीं अंको के
जोड़-घटाव में
काट लेती है
सम्पूर्ण जीवन
एक स्त्री....!

2. विदाई
-----------
रात आँखो में कटती है
जब बात दूसरे घर
जाने की होती है

और कई रतजगे के बाद तय
विदाई की तारीख
हर्ष-विषाद में झूलता
परायापन
बिटिया का जन्म
अब तो सुखकर भी
कहीं लड्डू कहीं पेड़े
अचानक लत्तर की तरह बढकर
ताड के पेड़ की तरह
और ब्याह की उम्र होते ही
खलबली-सी

पलकों का मूंदना
शनै: शनै: वक्त बढता है
टटोलती है अपने सिरहाने
धीमे से दीवार
भीतर ही भीतर वो खुश्बू
जिसमें उसकी यादें रचती बसती थी
माँ का चेहरा
और सर्द हो जाता है शरीर

भाई को सौंपती
अपने गुड्डे, घर, खिलौनें, किताबें
हाथों पर लडाई के बाद चिकोटी के निशान
सब तुम्हारा
पापा माँ महला दुमहला
वो तो ले जायेगी मात्र
नितांत वही सुबकता गोदरेज आलमारी का कोना
या बडा सा पेटार
जहाँ कुछ पैसे कुछ पुरानी तस्वीरें
और नैहर की स्मृतियाँ

वो जीवन पर्यन्त चाहती है
अन्न धन से भरा रहे मायका
जीवित रहे गाँव का खेत खलिहान
कुकुर बिलाय तक अमर हो जाये

विस्थापन या स्थानांतरण
कोई लिखता क्यों नही
लम्बी कविता इसपर
उनके इस वेदना पर

सुबह हो गयी
कहार आ गये
चली लाडो नयी दुनिया बसाने ।

3. स्मृतियाँ
--------------
घुटने पर हाथ रखे
स्मृतियाँ
और बेंच के किनारे, थका वर्तमान
सामने पसरा वो यादों का मैदान
लौटते दूर से पूर्वज

कुछ लोगों का चेहरा देखा नहीं
कुछ तैलीय चित्र जैसी हिलती यादें
बाबा का चाय का लोटा
और कंधे पर लाल तौलिया
कुछ दूर पर कुछ और अपने
बडे चाचा और सामने किताबों की ढेर
जंगल से लौटते तरबतर पिता
और
आँगन में मुस्कुराती माँ
जो नहीं थक सकती कभी
उसे नहीं लगती थी भूख
और दुखता नहीं था उसका कभी पांव
ढेकी पर कूटती चूडा मितन की कनियां
नैनाजोगिन गाकर लौटकर थकी दादी
कुछ और शामें
कुछ पनधट और पोखर के पास की यादें

सब आ रहे एक एक सामनें
मुझे क्या कोई याद करेगा कभी
ठहरकर.....

4. कल वो भी इतिहास
--------------------------
मैनें रोम नहीं देखा
इतिहास में दूर तक लौटती रही

मनोविश्लेषण से कुछ दूरी
तय की जा सकती है
आँखो से कुछ किताबें
फिर भी मिला बहुत कुछ उन दीमक चाटे
लाईब्रेरी के दुबके पन्नों में
कालों में खुद बंटा, जहाँ था काल
पुरूष स्त्री पूरक, पहिए आधार जड़
सब मिला वहाँ

जब स्त्री मिली
तो अग्निपरीक्षा देती
कभी गणिका तो कभी दांव पर लगती
हार जीत क्या होती है
परिभाषा में मेरे शब्द सदैव संकुचित

मैनें वर्तमान को देखा
नीरो की बांसुरी आज भी बज रही है
धृतराष्ट्र पट्टी में बैठा कान को आगे बढाए
अग्नि परीक्षा देती कई ललनायें
बिकती रातें है आज़ भी
मॉल के बाहर यक्षिणी रूपी मूर्तियाँ फव्वारे से
अाँसू बहाती .....

वर्तमान को पता तो है
कल वो भी इतिहास होगा
नया युग नहीं पीछे देखता

5. एक बार मुस्कुरा दे
-------------------------
ऐ लड़की
क्यों गाती हो चेरो राजा की वीरगाथा संगीत में
दीवारों पर पीला रंग उतर आता है
पहले भी ऐसा होता था
तुम जानती हो न
रोपती हो जब भी स्मृतियाँ
माथे पर गुदना का
जाग जाता है तुम्हारा सारा दुख
तुम उदास दिखती हो उस दिन

तुम भूल जाओ सबकुछ
देखो न उफन रही है दुमुहान नदी
उतर रही है वहाँ साँझ
पैरों में पहन चांदी के मोटे पायल
तुम जाओ नाचो अपनी धरती की चुनरी ओढ
सर पर बनफूल लगा
मुझे भी ले चल संग

अब जानले ,
तुमसे जीवन है
तुम ही से संगीत है
एक बार मुस्कुरा दे

6. तालियाँ
-------------
निहायत बेकार की बातें है
उनकी समस्याओं पर बातें
अवकाश मिलते ही गहरी नींद से जागे वो
और उबासी के बाद
ये पक्तियां सामने आयी बेखौफ़

शुरू हो गई देश-विदेश
तुलनात्मक अध्ययन जैसी घिसी पिटी कहानी
मर्द औरत का अंतर
औरतों के कम कपडे पर गुस्सा
बेटी की पढाई पर लम्बे भाषण
हाँ में हाँ मिलाते तमाम नामचीन सर लोग
देश में तरक्की बढी है
रोजगार व्यापार और उम्मीदार
किरायेदार सबकी तरक्की हुई है

सिंधु सभ्यता पर टिप्पणी
टटका बच्चे की इतिहास किताब का ज्ञान
और नालंदा के छात्रावास से लेकर
बिहार की बोली तक लम्बा सिलसिला
बीच में पान की पीक फेकते
और सार्वजनिक उदगार कि
अमेरिका साफ देश है भई मेरी नज़र में

अब तो सीधे लोगों का गुज़ारा मुश्किल है
क्या हो गया एक बार
वहाँ चले गये तो
बडे लोगों के शौक में है ये सब
खानदानी लोग की ये सभा परहेज करती है
गाती है वैसे जैसे जद्दन बाई जी उठी हो अब वहाँ
लपलपाते जीभ सबके सब
ढेर सारी समस्याओं पर बात करते हैं
मगर

किन्नरों की स्थिति ......बेकार की बातें
तालियाँ तो अब
यही कुछ बडे लोग बजा रहे हैं !

7. कद
--------
पहाड
तुम औघढ हो
बडी-बडी जटायें
उसमें अपने आप पड़ जाते
अनगिनत गिरह
जटाधारी किसकी याद में ये साधना
क्या प्रेम की हवा तो नहीं लगी तुम्हें
उम्र कितनी, सच बताना

छोडो तपस्या
सांसारिक हो जाओ
कद के पीछे पागल है दुनिया
तुम वहाँ भी आगे होगे
शायद खजूर से बडा नाम हो
साथ में ले चलना कुछ बादलों को
कुछ नदियाँ
कुछ यादें
कुछ फूल

लेकिन शहर से एक रास्ता भी बनाना
जहाँ मन ना लगने पर लौट जाओ ।

8. जीवन
------------
सुख और दुख का क्षणिक उदय
और होना कहीं गायब
ऋतुओं के परिवर्त्तन जैसा होता है
नहीं चाहते जैसे हम
ठहरे कहीं ग्रीष्म
चाहते तो हैं कि
बरसे और झमझम करती आये बहार
किसान खेत से हटाये नहीं कभी अपना मन
और बसन्त जाये कहीं दूर

हमें रहना ही चाहिए अविचल
जैसे सागर में आते नदियों के जल
या नदियों में बहते नाव के बिछड़े कील और पट्टे
मगर घूमती धरती और बदलता कहीं मौसम
ग्रीष्म को रूकने को कह उठता है
रोक लेता है पत्तों का हँसना
प्रेम भी समाप्त होता है कभी-कभी

विजय की आदत जो है हमारी
शरद को विदाई दे जाते हैं हम तत्काल
और बसन्त से ईर्ष्या शुरू हो जाती है
कौन समझाये किसे
जीवन है, तो इसमें सुबह भी है और शाम भी
आदि है और अन्त भी !


9. आज की कविता
-------------------------
गुज़र रही है
संकरी गली से
लांछन के दौर के बीच

परे हटाती कालिमा
मरूभूमि पर  खड़ी
ज़ल रहे हैं पैर
तप रही है वो

सामने हैं 
दुर्गम रास्ते 
अदम्य साहस  
युग के बदलाव की सोच लिए
धरती के आँचल पर
समय के सामने
लिखेगी शब्द दो चार

आज की कविता 

10. गौरैया
---------------
पलाश पर शाम से बैठी 
मगन वो गौरैया
कुछ सुना रही थी
शायद कोई गीत गा रही थी

मत छेड़ो इन्हें
जगाओ मत कुंजों  को
वो कोई राग है
या कोई वेदना
जिसके दीप अंतस में जल रहे हैं 
अंधकार है कैसा ये कारा है
जहाँ विलुप्त होते जा रहे एक एक खग
प्रकृति के मौन विलाप पर
सबने बाँध ली है चुप्पी

चैत्र की शीतलता
एक मन की व्याकुलता को नहीं देखती
वन-वन आस लिए व्यथित कह रही है 
रहने दो मेरा जीवन और 
बनने दो मेरा रैन बसेरा 

परिचय
----------
निवेदिता झा
एम ए ( मनोविज्ञान )
पत्रकार एंव काउन्सलर (अम्बेदकर मेडिकल कालेज) रोहिणी, दिल्ली
ईमेल - niveditaart@gmail.com
मो. - 9811783898

कोई टिप्पणी नहीं: