क्रिस्टेनिया मेरी जान : अनिल अविश्रांत

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एक पत्रकार का यात्रा-वृतांत कैसा होता है ? वह समाज एवं उसकी अभिव्यक्ति के किन पहलुओं पर बारीक नजर रखता है। ऐसे ही सवालों से जूझते विख्यात पत्रकार उर्मिलेश की रचना 'क्रिस्टेनिया मेरी जान' को पढ़ते हुए अनिल अविश्रांत के पाठकीय अनुभव से आइये अवगत होते हैं, पाठकनामा के अंतर्गत।

क्रिस्टेनिया मेरी जान






कई बार मन बेस्वाद हो उठता है, तब ढलते हुए सूरज से मिन्नतें करता हूँ कि वह थोड़ी देर रुक जाए पर तमाम मिन्नतों के बाद भी सूरज बेतवा के किनारे-किनारे चलते हुए पश्चिम की ओर चला गया। अब अंधेरा घिर गया है और मैं निपट अकेला हूं। सामने नई छपी किताबों का सेट है। मैं उन्हें बेबस-सा देखता हूं...हाथ बढ़ाता हूं कि उठाऊं...कुछ पढ़ूं, पर ऊंगलियां जिल्द का स्पर्श कर हाथ को लौटा लाती हैं। शाम को दो घंटे बिजली ठप्प रहती है, पर इंवर्टर खूब अच्छा काम कर रहा है। दो-दो पंखें पूरी तेजी के साथ चल रहे हैं। कमरे में सी एफ एल की दूधिया रौशनी फैली है, खूब साफ। अचानक मेरी निगाह उर्मिलेश जी की किताब पर जाती है और मुझे लगता है कि तलाश पूरी हुई। मेरे हाथ में 'क्रिस्टेनिया मेरी जान' है और मैं फिलहाल दूर देशों के अनजाने और अनदेखे सत्यों-तथ्यों के सम्मोहन में हूं जो क्रिस्टेनिया की पहचान है।


उर्मिलेश उन थोड़े-से पत्रकारों में हैं जिनपर गहरा भरोसा है। उनकी विद्वता के साथ-साथ प्रतिबद्धता के कारण भी। इसलिए उनके यात्रा-वृतांत को पढ़ते हुए सहज ही मैं उनका सहयात्री बन जाता हूँ। सफर का पहला पड़ाव क्रिस्टेनिया है जिसकी अराजकता सम्मोहित करती है और मन बाल्टिक की लहरों में बसी लय पर झूमने लगता है। यह कोपेनहेगन से बाल्टिक सागर की तरफ जाने वाली रोड पर शहर से कुछ दूर बसा एक छोटा-सा कस्बा है जिसे यहां के लोग 'फ्री टाउन' कहना नहीं भूलते और बाहर वाले इसे 'अराजकतावादियों का द्वीप', 'हिप्पियों का अड्डा', 'खस्ताहाल साहित्यकारों-कलाकारों का कम्यून' और 'तरह-तरह के नशाखोरों का स्वर्ग' कहते हैं। लेकिन उसकी धूल भरी सड़कों पर चलते हुए मन यह मानने को तैयार ही नहीं था कि यह कोई तफरीह की जगह है और जब जैकब साहब के संपादकीय से उद्धृत करते हुए इसे 'सेना की खाली जगह पर आम लोगों की फतह का मुकाम' बताया तो यह पता चल गया कि आखिर क्रिस्टेनिया उनकी स्मृति में क्यों स्थाई रूप से बस गया।


किताब का दूसरा लेख हमें डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन ले चलता है, जहां की सड़कों पर चमचमाती साईकिलों की संख्या अभीभूत कर देती है। डेनिश लोग इसे दुनिया की 'साइकिल-राजधानी' कहते हैं और यहां विश्व की पहली 'साइक्लिंग एम्बेसी ' स्थापित की गई है। उर्मिलेश जी ने दर्ज किया है कि ये साइकिलें यहां महज आवागमन का साधन नहीं हैं...ये डेनिश समाज और यहां की समृद्ध सभ्यता में नए मूल्य जोड़ रही हैं...जीने का पूरा सलीका बदल चुकी हैं। अब यह डेनमार्क की पहचान है।


चूंकि उर्मिलेश जी एक वरिष्ठ पत्रकार हैं और उनकी ज्यादातर यात्राएं किसी न किसी मीडिया संस्थान के एसाइनमेंट के तहत या विभिन्न देशों की शासकीय, सांस्कृतिक या अन्य आधिकारिक संस्थाओं के निमंत्रण पर संभव हुई हैं इसलिए वह महज पर्यटक की भूमिका में नहीं हैं और उनकी दृष्टि केवल प्राकृतिक सुषमा में ही उलझ कर नहीं रह जाती। उनका जोर सूचनाओं और तथ्यों पर अधिक रहता है। उनकी नजर में दो देशों के रिश्ते, उसे प्रभावित करने वाली घटनाएं और उसके किरदार अधिक हैं। वह डेनमार्क के अपने दौरे के दौरान पुरुलिया आर्म्स ड्राप कांड के डेनिश अभियुक्त किम डेवी की चर्चा करते हैं जिसके कारण भारत और डेनमार्क के रिश्तों में खटास आई तो वहीं वह दो डेनिश युवा इंजीनियरों - एच लार्सन और एस के टुब्रो को भी नहीं भूलते जिनकी कंपनी एल एंड टी आज देश की शान है।

उर्मिलेश जी ने यूरोपीय समाज का पर्यवेक्षण भी बहुत गहराई से किया है और उसे भारतीय समाज के बरक्स परखा है, पर उनका मन प्रवासी भारतीयों के मनोविज्ञान को समझने में खूब लगा है। जहां उनकी सफलता और सामाजिक स्वीकृति से वह संतुष्ट हैं तो उनकी कुंठाओं को लेकर सजग भी हैं। मसलन डेनमार्क में मिले एक प्रवासी भारतीय का उर्मिलेश जी के सरनेम में उत्सुकता दिखाना और कांशीराम, लालू यादव या करुणानिधि जैसे नेताओं की राजनीतिक सक्रियता पर यह कहना कि ऐसे लोग सत्ता में आते रहे तो भारतीय संस्कृति का विनाश हो जायेगा, ऐसे ही उदाहरण हैं।


यह चिंताजनक है कि प्रवासी भारतीय हिन्दुत्व की पहचान को लेकर मुखर हैं और दक्षिणपंथी, अनुदारवादी विचारों के प्रभाव में हैं। एक तरफ यूरोपीय विचारक भारत से अपेक्षा रखते हैं कि उसमे दुनिया का भला करने की अपार संभावनाएं हैं और इस महादेश को करूणा और सहिष्णुता की महाशक्ति बनकर उभरना चाहिए, जबकि दूसरी ओर हम भारतीय लोकतंत्र और स्वतंत्रता का दायरा लगातार संकुचित करते जा रहे हैं।


ठीक इस समय जब भारतीय मीडिया की रिपोर्टिंग सवालों के घेरे में है और उसपर विश्वसनीयता का गंभीर संकट है, 'लोकतंत्र और मीडिया-आजादी का डेनिश मॉडल' पढ़ा जाना चाहिए। यहां के अखबार अपने कंटेंट, विश्वसनीयता और संपादकीय स्वायत्तता को लेकर बेहद सजग हैं। जब भारतीय मीडिया हाऊसेस में संपादक नाम की संस्था दम तोड़ रही है और इनकी जगह मैनेजर ले रहे हैं तब यह जानकर आश्चर्य होता है कि डेनमार्क के सभी प्रमुख मीडिया संस्थानों में संपादक ही नहीं, ओम्बुड्समैन भी नियुक्त होते हैं और वहां पत्रकारों की यूनियनें काफी ताकतवर हैं...और ये संस्थान सरकारी हस्तक्षेप से पूरी तरह मुक्त हैं।

इसका अर्थ यह नही है कि वहां सबकुछ अच्छा ही है। प्राय: डेनिश मीडिया में स्वच्छंदता की हद तक स्वतंत्रता का मजा लेने की मानसिकता मौजूद है और यहां भी एथनिक और अल्पसंख्यक समुदायों के पत्रकार नहीं हैं और इन मसलों पर एक तरह की अज्ञानता ही नजर आती है। फिर भी भारतीय मीडिया की तुलना में यह अपने प्रोफेशन के प्रति ज्यादा जिम्मेदार है।

किताब के आरम्भिक छह लेख उर्मिलेश जी की डेनमार्क यात्रा से संचित अनुभव पर आधारित हैं तो अगले तीन लेख अमेरिकी यात्रा के अनुभव को साझा करते हैं। 'पहली बार न्यूयार्क' उनकी नेपाल के बाद पहली विदेश यात्रा का वृतांत है जिसे उन्होंने विश्व हिंदी सम्मेलन में प्रतिभाग करने के लिए किया था। यह यात्रा वृतांत से अधिक मीडिया हाऊस के अंदर की उठा-पटक को सामने लाता है।


संपर्क :
डा. अनिल अविश्रांत
हिंदी विभाग
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, हमीरपुर
ईमेल - avishraant@gmail.com

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