भावना शेखर के दो कथा-संग्रह आ चुके हैं – 'जुगनी' एवं 'खुली छतरी'। कविताओं की तरह उनकी कहानियां उनके संवेदनात्मक पक्ष को व्यक्त करती हैं। समाज में फैली अव्यवस्था एवं कुरीतियों के साथ ही परंपराओं को चुनौती देती आधुनिकता उनकी नजर में हैं। उस आधुनिकता के नफा-नुकसान की वे बात करती हैं। समाज में व्यक्ति की निरूद्देश्य अंधी-दौड़ एवं विवेकहीन महात्वकांक्षा की पहचान उनकी कहानियों में होती हैं। कहानियों की भाषा सहज है जो पाठकों से अपना जुड़ाव स्थापित कर लेती हैं। पढ़ते हैं उनकी एक कहानी – 'वंचना'।
जल्दी-जल्दी नाश्ता खत्म करके नीलिमा ने पर्स उठाया, कुछ जरूरी किताबें लीं और गाड़ी की चाबी लेकर जैसे ही दरवाजे की ओर लपकी कि नौकर ने टोका–मेमसाब, दोपहर में क्या बनेगा?
नन्दू ! कितनी बार कहा है, जाते समय यह सब मत पूछा कर, एक तो मैं वैसे ही लेट हो रही हूँ...अब बच्चों से पूछ लेना, उन्हें जो खाना हो, बना देना – कहकर नीलिमा ने कलाई की घड़ी पर नजर डाली।
जल्दी-जल्दी काॅलेज पहुँची। एक बजे वाली क्लास लेकर जैसे ही घर आने को निकली कि काॅलेज से सटे बस-स्टाॅप पर खड़ी एक महिला पर नजर टिक गई। गाड़ी को ब्रेक लगाया और दिमाग पर जोर डालते ही बेसाख्ता चीख पड़ी–विशाखा ! महिला पलटी, नीलिमा गाड़ी से उतरकर दौड़ी और उससे लिपट गई।
"नीलू तू ! और यहाँ ..."
यहीं बगल वाले काॅलेज में पढ़ाती हूँ। पर तू यहां कैसे? कितने सालों बाद मिल रही है! कहाँ थी ...नीलिमा ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी।
विशाखा कुछ कहती, उससे पहले ही नीलिमा ने मोबाइल लिया और फोन करके लंच के बाद की मीटिंग में न आ पाने की असमर्थता व्यक्त की। बरसों बाद पुरानी सहेली को देखकर वह बेहद उत्साहित थी।
विशाखा ने बताया कि वह केवल एक दिन के लिए इस शहर में आई है। कोर्ट का आवश्यक काम है और सामान भी होटल में पड़ा है। पर नीलिमा कुछ सुनने को तैयार नहीं थी। विशाखा का हाथ पकड़कर उसे गाड़ी में बिठाया और गाड़ी स्टार्ट की। होटल पहुँची, विशाखा का सामान उठाया और उसे लिये-दिये अपने घर चली आई। अनुराग एक सप्ताह के लिए चेन्नई गये थे, सो विशाखा का सामान अपने बेडरूम में ही रखवा दिया।
खाना खाकर नीलिमा ने बच्चों को आवश्यक निर्देश देकर उनके कमरे में भेजा दिया। नन्दू को एक घंटे बाद काॅफी लाने का आदेश देकर विशाखा के साथ अपने कमरें में लौट आई।
...और सुनाओ, जीजा जी कैसे है? अब भी वैसे ही मस्तमौला हैं, शायरी करते हैं या रोमांस का भूत उतर गया है ....और वो तुम्हारे साथ क्यों नहीं आये। शिरीष जी का मुस्कुराता चेहरा नीलू को स्मरण हो आया।
विशाखा ने एक लंबी साँस लेकर कहा, "अब हम साथ नहीं रहते। हमारे बीच कानूनी लड़ाई चल रही है।"
सुनते ही नीलिमा सन्न रह गई – पर यह सब कैसे हो गया ?
विशाखा के दिल में जमा दुख का ग्लेशियर संवेदना की गरमी पाकर पिघल गया और सैलाब बनकर उमड़ पड़ा। दोनों हाथो से मुँह ढाँपकर वह फूटफूट कर रोने लगी। नीलू ने उसे गले लगा लिया पर उसका बाँध रोके न रूकता था। मानों अरसे से सीने में एक ज्वालामुखी धधक रहा हो। बरसों बाद उसे रोने के लिए एक कंधा मिला था। देर तक नीलू के गले से लगकर वह सुबकती रही।
नीलू विशाखा के रूदन से सहम-सी गई थी। उसने परदा गिराया और विशाखा को सुला दिया। धीरे से कमरा बन्द कर अनुराग की स्टडी में आकर बैठ गई और शून्य में ताकने लगी।
यादों की धूमिल परछाइयाँ एक-एक कर प्रकट होने लगीं। कैसे थे वो काॅलेज के दिन ? हर दिन जोश और मस्ती से भरा। नये काॅलेज में आये एक महीना हो गया था तभी एक नई छात्रा विशाखा ने क्लास में प्रवेश किया। लंबा कद, भरी हुई देहयष्टि, गेहुँआ रंग, बड़ी-बड़ी आँखे वेशभूषा से संभ्रात दिखने वाली विशाखा जल्दी ही नीलिमा से घुलमिल गई। आत्मीयता बढ़ी और दोनों पक्की सहेलियाँ बन गई।
विशाखा एक राजनेता की पुत्री थी। पिता प्रभावशाली ओहदे पर थे पर स्वभाव से बेहद सख्त और रूखे। राजनीति में दिन-रात व्यस्त रहते। उसके दोनों भाई विदेश में पढ़ते थे। प्रतिभा की कमी थी, सो पैसे के दम पर देश छोड़, विदेश में अध्ययन कर रहे थे। घर में तमाम सुविधाएँ और सत्ता का सुख था पर मन का एक कोना विशाखा ही नहीं उसकी माँ का भी खाली था। अतः जब-जब उसके मंत्री पिता दौरे पर बाहर जाते, घर में उन्मुक्तता छा जाती मानों कर्फ़्यू में ढील दी गई हो। ऐसे में मस्ती का जितना सामान जुटाया जा सकता, माँ-बेटी जुटा लेतीं। कभी पाटिल अंकल, तो कभी अय्यर साहब, कोई-न-कोई राजनैतिक सहयोगी माँ-बेटी को सैर-सपाटे या शाॅपिंग के लिए ले जाते। कभी पिकनिक तो कभी सिनेमा।
नीलू को याद है, कितनी ही बार विशाखा का फोन आने पर वह माँ की अनुमति से उसके साथ घूमने जाती। कई बार 'रीगल' या 'रिवोली' पर फिल्म देखते हुए उसने विशाखा साथ दिया था क्योंकि अपनी माँ और अंकल के साथ अकेले फिल्म देखना विशाखा को बहुत अखरता था।
बी0 ए0 का अंतिम वर्ष था। क्लास की छात्रा कुमकुम की बहन की शादी थी। आठ-दस सहेलियों ने शादी में जाने की योजना बनायी। तय हुआ कि सब एक निश्चित समय पर उसके घर पहुँचेंगे और नीलू विशाखा के घर से उसके साथ जायेगी। नीलू के घर में विशाखा की छवि बहुत अच्छी थी, अपनी मृदुल वाणी और विनम्र स्वभाव के कारण वह सबको बहुत प्रिय थी अतः नीलू के माता-पिता ने विशाखा के यहाँ जाने से बेटी को कभी नहीं रोका। विशाखा की माँ ने अपने वाॅर्डरोब से दोनों को पंसदीदा साड़ियाँ चुनने को कहा। खूब उत्साह से तैयार होकर दोनों जाने के लिए बेचैन थीं किन्तु गाड़ी का कोई पता न था। जबकि अमूमन मंत्री जी के बंगले के अहाते में हमेशा चार-पाँच गाड़ियाँ मौजूद रहतीं।
तभी एक गौरवर्ण और मंझोले कद के सज्जन पधारे और विशाखा की माँ का अभिवादन करके विशाल ड्राइंगरूम के सोफे पर बैठ गए। विशाखा ने उन्हें नमस्ते कहा और मचल कर माँ से बोली - मम्मी! जीजा जी हम लोगों को छोड़ देंगे! मैं कुछ समझ पाती, इससे पूर्व ही वे सज्जन उठ खड़े हुए और बोले–हाँ...हाँ, जरूर! कहाँ चलना है?
थोड़ी देर में हम दोनों उनकी गाड़ी में सवार हो गंतव्य की ओर जा रहे थे।
यह शिरीषकांत से नीलू की पहली मुलाकात थी। शिरीष बाबू बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी थे। सौम्य, शिष्टाचारी, पेशे से व्यवसायी, शौक से कवि। पिछले छः माह से विशाखा के यहाँ आते-जाते थे। मंत्री जी से सम्पर्क साधकर राजनीति में भी पैठ जमाने की कोशिश कर रहे थे।
नीलिमा और विशाखा ने एम0 ए0 में साथ-साथ दाखिला लिया। मित्रता और प्रगाढ़ हो गई। एक दिन दोनों ने देखा कि आर्ट्स-फैकल्टी के पोर्टिकों में शिरीष बाबू खड़े हैं। बोले- "किसी काम से आया था। चलो विशाखा तुम्हें घर छोड़ता चलूँ।"
विशाखा उनके साथ चली गई। कुछ दिनों बाद फिर वही हुआ। नीलू का माथा ठनका। यह बार-बार का संयोग उसके गले न उतरा। अगले दिन उसने अधिकार से विशाखा को डाँटा- ‘‘अब दोबारा तू इनके साथ नहीं जाएगी...।" पर विशाखा को नीलू का हस्तक्षेप न भाया। अब वह छिपकर शिरीष बाबू से मिलने लगी। वास्तव में वह उनसे प्रेम करने लगी थी। नीलू ने समझाने की बहुत कोशिश की क्योंकि शिरीष शादीशुदा, दो बच्चों के पिता और उम्र में विशाखा से लगभग पन्द्रह साल बड़े थे।
इस बीच विशाखा के घर में भी इस प्रेम-प्रसंग का विस्फोट हो चुका था। उस पर पहरे बिठाए गए, यूनिवर्सिटी आना बंद हो गया। एम0 ए0 पूर्वार्ध की परीक्षा दिलाने उसकी माँ साथ आती रहीं किन्तु शिरीष बाबू के प्रेम का जादू विशाखा के दिलोदिमाग पर ऐसा छाया कि एक सुबह तड़के चार बजे अपने बंगले की दीवार फाँदकर वह शिरीष के साथ भाग गई और एक मंदिर में जाकर माला बदलकर शादी कर ली। उसकी माँ ने रो-रोकर यह सब फोन पर नीलू को सुनाया। नीलू सकते में थी पर सखी के ऐसे अनुचित कृत्य पर शोक जताने के अतिरिक्त वह कर भी क्या सकती थी।
दो-तीन महीने बाद एक दिन नीलू यूनिवर्सिटी के बस स्टाॅप पर खड़ी थी कि एक गाड़ी आकर रूकी। दरवाजा खुला और विशाखा आकर नीलू से लिपट गई। बहुत खुश थी, चहक रही थी। नीलू को खींचकर वह गाड़ी के पास ले गई। शिष्टाचारवश नीलू ने शिरीष बाबू का अभिवादन किया, और पिछली सीट पर बैठ गई। नीलू को आज भी याद है, टेप में शिरीष बाबू का वही पसंदीदा गीत बज रहा था जो पहली बार कुमकुम के घर जाते हुए भी कार में बज रहा था ! बड़े अरमानों से रखा है बलम तेरी कसम, प्यार की दुनिया में ये पहला कदम ओ ... ...। बगल में बैठी विशाखा का मन गाने की रूमानियत से सराबोर था। वह शिरीष बाबू से छेड़छाड़ भी कर रही थी पर नीलू मौन धारण किए खिड़की से बाहर देख रही थी।
"लगता है साली जी हमसे नाराज हैं ... शिरीष बाबू का मजाक नीलू को अच्छा न लगा।"
"अरे, अभी इसकी नाराजगी दूर किये देती हूँ।" विशाखा मनाने की कोशिश कर रही थी। गाड़ी रूकते ही हाथ पकड़कर उसे एक सजे-सजाए नए फ्लैट में ले गई और बोली - देख, यह है मेरा नया घर।
नीलू दो घंटे वहाँ रही। बातचीत से पता चला कि शिरीष की पत्नी को कैंसर है और वह मृत्युशैय्या पर है। बच्चों के भविष्य का वास्ता देकर उन्होंने तलाक के कागज भी उससे साइन करा लिए हैं। केवल आठ और दस साल के दो बच्चों की समस्या है। पर धन का तो अम्बार लगा है, सो उन्हें भी हाॅस्टल में डाल देंगे।
अच्छा तुझे मेरा घर कैसा लगा? यह शादी का तोहफा है इनकी तरफ से ... जिंदगी की नई खुशियां विशाखा के रोम-रोम से छलक रही थीं। उस दिन विशाखा और शिरीष बाबू से मिलकर नीलू के मन का मलाल कुछ कम हुआ था।
इधर एम0 ए0 खत्म करने के बाद नीलू फैलोशिप लेकर तीन वर्ष के लिए विदेश चली गई। वापस आकर अनुराग से शादी हुई और फिर इस शहर में आ बसी। विशाखा से संपर्क टूट गया।
आज पंद्रह वर्ष बाद यूँ विशाखा का इस हाल में मिलना...नीलू इसके आगे कुछ अनुमान लगा पाती, इससे पहले देखा कि नन्दू हाथ में ट्रे लिए खड़ा है- "मेमसाब, काॅफी।"
नीलू बेडरूम में आई और विशाखा को उठाकर दोनों कॉफी पीने लगी। जैसे-जैसे विशाखा ने नीलू से बिछड़ने के बाद का ब्यौरा देना शुरू किया, वैसे-वैसे शिरीष के चेहरे से झूठ और फरेब का नकाब हटने लगा। उस मक्कार ने जिस पत्नी के कैंसर की झूठी कहानी सुनाकर विशाखा को फुसलाया था, वह आज भी जीवित और भली-चंगी है।
"लेकिन वो तो तुम्हारे साथ उस फ्लैट में रहते थे जो तुम्हारे नाम से था।"
―"किराए का था।" विशाखा एक के बाद एक उसके छलावे का पर्दाफाश कर रही थी।
"हाय विशाखा! ये तूने क्या किया। आखिर तुमने बिना तलाक के कागजात देखे इतनी जल्दबाजी क्यों की?"
"मैं डर गई थी, डैडी तुरन्त अपने मित्र के बेटे से मेरी शादी करने का निर्णय सुना चुके थे। तू तो जानती है उनकी हर बात पत्थर की लकीर होती थी।" विशाखा की आँखे फिर छलछला उठी थीं।
"तो अब तू कहां रहती है?" नीलू ने पूछा।
―'बच्चे?'
―"हाँ अनुज चौदह साल का है और अर्चिता बारह की। डैडी अब नहीं रहे।"
"और आँटी?" नीलू ने कौतुहलवश पूछा।
"वो अंसारी अंकल के साथ रहती हैं।"
नीलू को विशाखा की माँ की बात याद आई। जब उन्होंने बताया था कि अंसारी अंकल और विशाखा के डैडी इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में साथ-साथ वकालत की पढ़ाई करते थे। तब की मित्रता बाद तक बरकरार रही पर जैसे-जैसे विशाखा के पिता राजनीति की सीढ़ियाँ चढ़ते गए, अंसारी से दूरी बढ़ती गई लिहाजा उनकी पत्नी से घनिष्ठता जरूर बढ़ती गई। मंत्री महोदय के सख्त और उग्र रवैये के चलते घर के सभी सदस्य, नौकर-चाकर थर-थर काँपते थे। इसी माहौल में पत्नी का हृदय अंसारी के साहचर्य में संबल खोजने लगा। अंसारी एक वकील थे और विधुर थे। विशाखा के शिरीष के साथ पलायन करने के बाद उसकी माँ भी पति का जंगल-सा एकाकी घर छोड़कर अंसारी के साथ रहने चली गई। दोनों पुत्रों ने पहले ही विदेश में विवाह कर लिया था।
पाँच वर्षों तक शिरीष के धोखे, मक्कारी और मारपीट के बीच झूठे आश्वासनों की डोर थामे विशाखा सब झेलती रही। एक दिन बेटे को 106 डिग्री बुखार हुआ जिसने बच्चे के मस्तिष्क पर आघात किया और अनुज अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठा। इस दुर्दिन ने असहाय विशाखा को पिता के द्वारा पर ला पटका। पिता, पत्नी के जाने से कुंठित हो गए थे। विरक्त मन और भी कठोर हो गया। उन्होंने राजनीति त्याग दी और बौद्ध धर्म अपना लिया। करोड़ों की संपत्ति बौद्ध मठों के नाम लिख दी। केवल विशाल रिहायसी इमारत जीते जी अपने पास रख छोड़ी। मरणोपरान्त उसे भी मठ की सपंत्ति घोषित करने वाली वसीयत उन्होंने जीते जी ही तैयार कर ली थी।
लाचार बेटी को उसके बच्चों सहित अनमने भाव से अपनी भव्य अट्टालिका में स्वीकार तो लिया, रोगग्रस्त अनुज का इलाज भी करवाया एवं बेटी को एक निजी कम्पनी में नौकरी पर लगवा दिया किन्तु बिना किसी मोह में पड़े वसीयत को जस का तस छोड़ दिया और दो वर्षों बाद चल बसे।
विशाखा एक किराये के मकान में रहने लगी। माँ से संपर्क बना रहा। किन्तु अंसारी अंकल इतने सक्षम नहीं थे कि विशाखा की भरपूर आर्थिक मदद करते। उनकी अपनी भी दो शादीशुदा बेटियाँ थीं। पर विशाखा अंसारी अंकल का अहसान नहीं भूलती जिन्होंने उसकी माला बदली से की गई नाममात्र की शादी को उस पंडित की मदद से रजिस्टर्ड करवा कर किसी तरह कानूनी वैधता प्रदान की। आज उसी कागज के टुकड़े के एकमात्र सबूत पर वह शिरीष से कानूनी लड़ाई लड़ रही है।
एक रात के प्रवास के बाद विशाखा अपने शहर लौट गई। नीलू नहीं जानती विशाखा को उसका हक मिलेगा या नहीं पर बहुत दिनों तक विशाखा के वंचनाग्रस्त जीवन की पीड़ा से विचलित रही और विश्लेषण करती रही कि ऐसा क्यों हुआ? कौन इसके लिए जिम्मेदार था - उसके पिता का कठोर स्वभाव, संस्कारों की कच्ची डोर, सत्ता का निरंकुश सुख या विशाखा के पैरों तले की फिसलन भरी जमीन या फिर उसका प्रारब्ध !
दो माह बाद नीलू अनुराग के साथ बैठी समाचार चैनल पर ताजा चुनाव बुलेटिन देख रही थी। तभी विजयी उम्मीदवारों की सूची में एक नाम उभरा―बरेली से लोकसभा के लिए निर्वाचित उम्मीदवार–शिरीषकांत त्रिपाठी !
संपर्क :
डॉ. भावना शेखर
ईमेल – bhavnashekhar8@gmail.com
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आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 18 दिसम्बर 2021 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
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