विस्मृत होती स्मृतियां


जब पहली बार टेलीफोन का रिसीवर पकड़ा था तो सचमुच रोमांच का अनुभव हुआ हुआ था। हाथ कांपे थे और आवाज भी। टेलीफोन बूथ पर कतारें लगी मिलती तथा हम बेसब्री से अपनी बारी का इंतजार करते। चिट्ठियां तब भी आती थीं एवं ग्रीटिंग्स कार्ड अपनी अहमियत बनाये हुए थे। कई पत्रों तथा उनसे जुड़ी स्मृतियां आज भी दिल को सुकून पहुचाती हैं। हममें से कइयों के पास आज भी कई पत्र सहेज कर जरूर रखे होंगे। उस समय पर्व–त्योहारों एवं पारिवारिक उत्सवों पर हमारा मिलना भी कम रोमांचक नहीं था।

"अरे! यह कितनी बड़ी हो गई। पिछली बार इत्ती–सी थी।"
"तुम पहले से कितनी कमजोर हो गई हो, फुआ।" कहते–कहते पता नहीं कब उनके पैर दबाने लगते।
एक युवती सहसा खड़ी होती है सामने। अचकचाने पर चाची कह उठती―"नहीं पहचाने, यह है पिंकी। तुमने बचपन में इसे झूले पर से धक्का दे दिया था।" वह युवती और सिमट जाती है। भले ही हम भाई–बहन धीरे–धीरे खुलने लगते तथा कुछ ही देर में हमारे ठहाके गूंजने लगते।

भूमंडलीकरण की शुरुआत ऐसे ही हंसी–ठहाकों एवं अपनेपन के दौर में हो गयी थी―पता भी न चला। कौन जानता था दुनिया के करीब आते–आते हमारा अपनापन दूर होता चला जाएगा। उस समय तक मीडिया ही हमारे जानने–समझने का माध्यम था। इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में सोशल मीडिया ने दस्तक दे दी, पर आमजन की पहुंच के बूते नहीं थी। धीरे–धीरे यह अपना दायरा बढ़ाने लगी। अब हमारी स्मृतियों के विस्मृत होते जाने का दौर आनेवाला था। 

टेलीफोन के दौर में हमें कइयों के नाम–पतों के साथ उनके फोन नंबर जबानी याद रहते थे। 'सेकेंडरी मेमोरी' हमारी जीवन–शैली में जगह नहीं बना पायी थी। मोबाइल तथा कंप्यूटर के पदार्पण के पश्चात् हमने अपनी याद्दाश्त खोनी शुरू कर दी। दूसरों के फोन नम्बर स्मृतियों से गायब होने लगे तथा हमने अपने प्रियजनों के जन्मदिन, शादी की सालगिरह आदि जानकारियां सेकेंडरी मेमोरी के हवाले करने शुरू कर दिए। फिर कौन जहमत उठाता―किसी के घर जाकर जन्मदिन की बधाई देने का, शादी की सालगिरह में शामिल होने का। हम अपनी व्यस्तता का बहाना बनाकर मैसेज भेजने लगे...नहीं तो ज्यादा–से–ज्यादा दो–चार शब्द में मुबारकबाद बोल देते। पर हमें खुद पता नहीं रहता कि हम कहाँ व्यस्त हैं? संयुक्त परिवार टूट रहा था। एकल परिवार में भी कुछ लोग एकाकीपन की ओर धकेले जाने लगे। कुछ बड़े–बुजुर्ग अपनी स्मृतियों को बचाने के फेर में कुछ बुदबुदाते रहते तो कुछ का साथ उनकी स्मृतियां छोड़ने लगी थीं। जिंदगी तेज तो हो ही गई थी। ऐसे में यह आश्चर्यचकित नहीं करता था कि कुछ लोग उस भाग–दौड़ में पीछे क्यों रह जाते हैं।

इसी बीच सूचना–क्रांति का दौर तेजी से बीसवीं सदी से इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर गया था। कहीं दूर विमर्श हो रहा था कि मानव को असहाय कर दिया जाय। कोई जरुरी नहीं आर्थिक रूप से बल्कि सभी भौतिक सुख–सुविधा के रहते हुए भी वह छोटी–से–छोटी चीज के लिए भी तकनीक एवं मशीनों का गुलाम हो। उसकी अपनी स्मृतियां मिटा दी जाय। धीरे–धीरे उसकी संवेदना अपनेआप ही ख़त्म हो जाएगी। आज का दौर इसी परीक्षण का दौर है तथा वे लोग इसमें कामयाब भी हुए हैं। हरेक के हाथ में स्मार्टफोन थमाकर पूरी कार्यशैली को बदलने की कवायद जारी है। सत्ता एवं कॉरपोरेट सभी इसमें शामिल हैं।

स्मार्टफोन एवं अन्य तकनीकों के समर्थन में कई तर्क गिनाए जा सकते हैं। ग्लोबल विलेज का सपना साकार हुआ है। हम दुनियां के उन लोगों से जुड़ पा रहे हैं जिनसे इन तकनीक के बिना जुड़ना लगभग असंभव ही था। जिन समाचारों को जानने में हमें काफी समय लगता था उसे आजकल "होते हुए या घटते हुए" देख पा रहे हैं। साहित्य के क्षेत्र में भी स्मार्टफोन, कंप्यूटर, इंटरनेट आदि सेवाओं का अहम योगदान रहा है। रचनाकार एवं पाठक नित्य इसके माध्यम से जुड़ रहे हैं। ब्लॉगरों की पूरी पीढ़ी इसके कारण ही अस्तित्व में आई है। सबका लिखा छपे जरुरी नहीं पर सबके लिखे को इस वर्चुअल दुनिया में पढ़ा जाता है। एक तरफ अच्छी रचनाएं पढ़ने को मिल रही हैं तो दूसरी तरफ तमाम अफवाह भी इसीके माध्यम से फैलाए जा रहे हैं जिसके कारण इन दिनों कई तरह की घटनाएं भी हुई हैं। पत्रकारिता में भी इन तकनीकों के कारण अभूतपूर्व परिवर्तन देखने को मिला है। स्थिति यहाँ तक आ पहुंची है कि आज हर स्मार्टफोनधारी पत्रकार है। पर दुखद! अब वे आदमी नहीं हैं। उनमें न किसी चीज के प्रति उत्सुकता है न ही जुड़ाव। सभी जगह 'यूज एंड थ्रो' की संस्कृति विकसित हो गई है। पत्रकार आत्मदाह करते, बाढ़ में डूबते, एक्सीडेंट में मरते लोगों की रिपोर्टिंग कर रहे हैं पर वे बचानेवालों में शामिल नहीं हैं। 'घटना' आदमियत पर वरीयता पा चुकी है। छोटी–छोटी कहानियां रोज समाचारपत्रों में पढ़ने को मिल जाती हैं― फलां जगह सेल्फी लेने के चक्कर में कोई नदी में डूबा तो कोई छत पर से गिरा। उसपर भी उनके वीडियो वायरल हो रहे हैं। आदमी अपनी संवेदना को ही विस्मृत कर रहा है।

कुछ दिन पहले चिड़ियाघर जाना हुआ। गाँव से आए हुए लोगों, जिनमें बच्चे भी शामिल थे, के चेहरों पर न तो किसी किस्म का विस्मय नजर आ रहा था न ही रोमांच, कोई जिज्ञासा अथवा कौतूहल। सबके सब तस्वीरें उतारने में व्यस्त थे। ऐसी ही स्थिति पारिवारिक उत्सवों एवं अन्य पर्व–त्योहारों में देखने को मिलती है। जन्मदिन पर बधाई के स्वर सुनने से अधिक फ़्लैश का चमकना देखने को मिलता है।  शादी–विवाह में स्थिति यह उत्पन्न हो जाती है कि कोई विधि–विधान इन चमकते फ्लैशों के कारण लोग देख नहीं पाते हैं तथा मांगलिक गीत सुनना दुर्लभ हो गया है।

सभी इस तरह अपनी स्मृतियां स्मार्टफोन की मेमोरी के हवाले करते जा रहे हैं। कोई वाकया पूछे जाने पर हम बगलें झांकने लगते हैं क्योंकि उन क्षणों में हम वहां थे ही कब? कंपनियां भी स्मार्टफोन की मेमोरी बढाती ही जा रही है। इस एवज में हमारा मस्तिष्क चूक रहा है। याद्दाश्त एवं विश्लेषण की क्षमता घटती जा रही है। हालात यह है कि अपना कॉन्टैक्ट नंबर भी हमें फोन से देखकर ही देना पड़ता है।

तकनीक हमेशा कहती है―"खुद से अधिक भरोसा मुझ पर रखो" और मानवता कहती है―"संवेदना को तकनीक के हवाले करने से बचो।" फिलहाल इस संघर्ष में तकनीक का पलड़ा भारी है।

आज हमारी स्मृतियों से इतिहास, संस्कृति, साहित्य सभी को विस्मृत कर देने की कवायद चल रही है। सभी चीजों को 'विजुअल' से जोड़ा जा रहा है। वे जानते हैं कि दृश्य एवं श्रव्य का माध्यम प्रोपगेंडा फैलाने में अधिक असरकारक है। आजकल बुद्धिजीवी लोग सत्ता एवं प्रतिपक्ष के मामलों में उलझाए जा रहे हैं ताकि पिछले दरवाजे से बिल्कुल ख़ामोशी से हमारी स्मृतियों में चीजों को सेट किया जा सके। हाल में स्टार प्लस चैनल पर बालाजी टेलीफिल्म्स द्वारा निर्मित धारावाहिक 'चंद्र नंदनी' में नंद एवं मौर्य वंश के शासन के दौरान 'भारत माता' एवं 'सोने की चिड़िया' की अवधारणा को अधिरोपित किया गया है। अन्य तथ्यों को भी तोड़ा–मरोड़ा गया है। कहने का मतलब है कि हमें उन तमाम तथ्यों से विस्मृत कराने की साजिश जारी है जो हमारे संघर्ष की कहानी है। हमारी स्मृति में वे सारी चीजें ठूंसी जा रही हैं जो हमारी गुलामी एवं आमजनों पर हुए जुल्मों का सबूत है। उसका परिचय गौरव के रूप में कराया जा रहा है। 'रोम का कोलोसियम'  हमारी स्मृति में रह गया है, वे गुलाम एवं मजबूर लोग नहीं जो कुलीन वर्ग के मनोरंजन के लिए ग्लेडिएटर बन कटते–मरते थे। हमारे देश में भी  ऐसे स्थापत्य को गौरव से जोड़कर दिखाया जा रहा है जो आमजन पर टैक्स बढाकर निर्मित किए जाते थे तथा जिसके लिए बेगार लिया जाता था। पर आज वे 'अद्भुत भारत' के अंग हैं।

हमारी स्मृति, उत्सव, संस्कृति के प्रायोजक वे हैं जो हमें गिनती की चीज मानते हैं। वे हमें आंकड़ों में उलझाए रहते हैं। मानव को मशीन में बदलने का उनका लक्ष्य निकट जान पड़ रहा है। हमें सतर्क होना होगा। हमें अपनी संवेदना को विस्मृत होने से बचाना होगा ताकि हम बचे रहें...मानवता बची रहे।

बदलता गाँव

गाँव का नाम आते ही हमारे सामने अलग-अलग तस्वीरें उभरने लगती हैं। अर्थशास्त्री ग्रामीण विकास के सिद्धांत देकर बड़े-बड़े पुरस्कार बटोर ले जाते हैं, भले ही खेतों में उनके कदम कभी न पड़े हों। वे वातानुकूलित वाहनों के विंडो से ही अनुमान लगा लेते हैं। नेता अपने पुष्पकयान से गाँव की स्थिति का आकलन करते रहते हैं। योजना-अधिकारी अपने आंकड़ों में हरित-क्रांति का गाँवों में विकास दिखाते हैं, भले ही बाद के आंकड़ों में उन्हीं गाँवों को पिछड़े बताकर योजनायें बनाते हैं तथा यह साबित करते हैं कि भारत गाँवों का देश है। देश का उच्च-शिक्षा प्राप्त विद्यार्थी यूपीएससी कि तैयारी के दौरान ‘कुरुक्षेत्र’ के आवरण पृष्ठ पर गाँव को पाकर उसके पिछड़ेपन का आकलन कर लेता है। कवि गांव की हरियरी देख–देख आज भी बेसुध हो जाते हैं।     

हिंदी-साहित्य में जब गाँव की चर्चा होती है तो हमारे सामने प्रेमचंद, रेणु तथा श्रीलाल शुक्ल के उपन्यासों के पात्र जीवंत हो उठते हैं। इनके उपन्यासों गोदान, मैला आँचल और राग-दरबारी के गाँव गुलाम एवं आजाद भारत के गाँवों का प्रतिनिधित्व करते हैं तथा आज का गाँव भी कमोबेश उन्हीं रूपों में परिष्कृत होकर हमारे सामने आता है। आज भी होरी भूमिहीन होकर मजदूरी करने को बेबस है। महाजनों के सूद के चंगुल में वह आज भी फंसा हुआ है। गोबर शहर में मजदूरों का मेंठ बन गया है और अपने ही तरह के अन्य गोबरों को ठेका पर फैक्टरियों में झोंकवा रहा है। महानगरों के दमघोंटू वातावरण में उनकी सारी ऊर्जा निचोड़ी जा रही है।  'मैला आँचल’ का पात्र कालीचरण को अपने सिद्धांतों से समझौता करना पड़ रहा है। समाजवाद एवं साम्यवाद लाने के क्रम में उसे विस्थापन का दंश झेलना पड़ा है और वह पूंजीपति बनकर जीने को अभिशप्त है। गाँव के टेंडर पर उसका एकाधिकार है और वह कई ईंट-भट्ठों एवं राईस-मिलों का मालिक है। पर आज भी आप अक्सर उसे मंचों पर समाजवाद के गीत गाते देख सकते हैं। लेकिन सही मायनों में ‘राग-दरबारी’ में प्रस्तुत गाँव ‘शिवपालगंज’ ही आज के गाँव का प्रतिनिधित्व करता है। उसके हरेक पात्र हमारे सामने ठहाके लगाते, चिंतन करते एवं अपने दुखों एवं मजबूरियों का रोना रोते मिल जाते हैं। इसका एक पात्र ‘सनीचर’ कालांतर में वैद्यजी के बताए रास्ते पर चलते हुए उपन्यास की परिधि से परे निकलने में कामयाब हो जाता है। वह गंदे धारीदार अंडरवियर एवं बनियान की जगह खादी का सफ़ेद एवं बेदाग़ कपडे पहनता है। सेवा करने की सीमा गाँव तक ही सीमित न रह जाय तथा लोग ये न समझें कि गाँव के लोग देश के लिए नहीं सोचते हैं, इस ख्याल से वह विधान-सभा होते हुए संसद तक पंहुच गया है।
       
खैर, अब गाँव की कहानी आगे बढती है। विनिवेश की हवा राजधानी होते हुए वहां तक जा पहुंची है। गाँव के तालाबों में कमल के पांत की जगह ‘सिंघाड़ा’ की लताएँ अंगडाई ले रही हैं। लोगों की शिकायतें थीं कि तालाब का पानी उर्वरकों एवं रसायनों के प्रयोग के कारण जहरीला होता जा रहा है तथा मवेशी इसके शिकार हो रहें हैं। वह तो भला हो कृषि के यांत्रिकीकरण का..! अब यह शिकायत भी नहीं रही। पाड़े, बछड़े, बूढी गायें और भैंसे सीधे किसानों के यहाँ से बूचडखाने भेजी जाने लगीं तथा गाँव इस मुद्दे पर सेकुलर बना रहा है। उर्वरक सब्सिडी किसानों को अधिक मात्रा में प्राप्त होने लगी है तथा खेत भी उर्वरकों एवं कीटनाशकों के नशे में बेसुध होने लगे हैं।
    
गाँव के सरकारी भवन बहुपयोगी बनकर वहां के आर्थिक एवं सांस्कृतिक केंद्र के रूप में विकसित होकर अपना सार्थक योगदान दे रहे हैं। ताश के अड्डे दिन-रात कायम रहने लगे हैं और ताकतवर लोग कई भवनों का मनमुताबिक इस्तेमाल कर रहे हैं। घर विरासत के रूप में संजोये जा रहे हैं और मंदिर भव्य होते जा रहे हैं। भव्य मंदिर दानवीर कर्ण की परंपरा के निर्वहन का शानदार नमूना बना हुआ है जिसपर गाँव गर्व कर सकता है। गाँव विकास की ओर ही जा रहा है; इसका एक और सबूत यह है कि घर से कुछ मिनटों की दूरी पर स्थित विद्यालय भी बच्चे साईकिल से जाते हैं। गाँव में भी शिक्षा का मतलब शहरों की तरह सिर्फ नौकरी पा लेना ही है। पहले से ही गाँव के कदम पंचायती न्याय-व्यवस्था से आगे जिला स्तरीय न्यायालय तक पड़ चुके हैं, जिसके कारण यहाँ भी शान्ति दरिद्र रूप में विराजमान है। उच्च न्यायालयों के वकीलों की फ़ीस आज भी ग्रामीणों के लिए चुनौती बनी हुई है, इस कारण इक्का–दुक्का मामला ही वहाँ पहुँच पाता है।
    
पूरब और पश्चिम के अनवरत संघर्ष में गाँव अपने को दोनों की सीमा-रेखा पर पा रहा है। सरकारी योजनाओं की जरुरत इसे आज भी उतनी ही है जितनी पहले थी। आखिर नगरों के साथ हाथ मिलाकर जो चलना है। फिर सनीचर का साम्राज्य भी तो इन्हीं योजनाओं पर टिका है।