मेरी आप–बीती...मेरी कहानी

समय का पहिया कभी भी रुकता नहीं है। उसके साथ कभी हम कदमताल करते हैं तो कभी बहुत पीछे छूट जाते हैं। आगे जाने की तो हमसे सोचा ही नहीं जाता। परन्तु इस धरा के इतिहास को अगर पलट कर देखें तो समय के आगे चलना भी संभव जान पड़ता है। तो क्या हम गलत होते हैं उन क्षणों में, जब समय दूर खड़ा मुंह चिढाता है। शायद नहीं, तो वे कौन से कारण हैं जिसके चलते हमारे कदम ही हमारा साथ छोड़ने लगते हैं?

हम अपने समाज के अतीत-आख्यान पर नजर डालें तो हमें उन कारणों का पता चलता है, जिसके चलते हमारे कदम समय के आगे चलने से इंकार कर देते हैं। मेरी समझ से जब हम समाज में अपनी स्थिति को रूढ मानने लगते हैं, तभी हम समय से होड़ करने में अपने को अक्षम बनाने की ओर एक और कदम बढा लेते हैं। ऐसी ही एक रूढि हमारी जाति-व्यवस्था है जो अबतक के समाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक बदलाव के बावजूद अपने वीभत्स रूप में हमारे सम्मुख विराजमान है।

मेरी कहानी एक ऐसे परिवार के बीच से शुरू होती है, जिसे मैंने होश संभालते ही जात-पाँत के मामले में उदार बने देखा। ननिहाल में भी ऐसा ही माहौल था। उस समय खेतों में काम करनेवाले मजदूरों के हित सीधे-सीधे किसानों के हित से जुड़े होते थे। उनके अपनत्व के पीछे यही कारण था कि दोनों ही वर्ग बहुत समय से जमींदारी व्यवस्था में पीसे जा रहे थे। मेरा बचपन माँ ,दादी, नानी आदि की गोद में तो बीता ही, साथ ही कुछ माँझी परिवारों की गोद में भी। आज भी वे मुझपर वही अधिकार जताते हैं और मैं उनके स्नेह-वत्सल रूप के सामने सर झुका देता हूँ। ऐसे परिवेश में भला जातीय कट्टरता के अंकुर कैसे फूट पाते।

बात 1990 की है। मैं छठी क्लास में था। मुझे राष्टीय ग्रामीण प्रतिभा खोज परीक्षा में सम्मिलित होने हेतु अपने जिला मुख्यालय नवादा जाना था। साथ में बड़े पापा को चलना था। सुबह अचानक पता चला कि आज कुछ पार्टियों द्वारा बंद का आयोजन किया गया है। बड़े पापा ने साइकिल से चलने का निर्णय लिया। पच्चीस-तीस किलोमीटर का सफर शुरू हुआ। जैसे ही हमलोग स्थानीय बाजार हिसुआ पहुंचे, चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। इतने में कुछ गाड़ियां पर्चे गिराती हुई आगे निकल गई। सबकुछ अजीब लग रहा था। खैर, हमलोग आगे चल पड़े। अभी पन्द्रह किलोमीटर की दूरी और तय करना था। हमलोग जब परीक्षा केंद्र पर पहुंचे तो पता चला कि परीक्षा रद्द कर दी गई है। लोगों के चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ दिखाई पड़ रही थी। लेकिन उस समय मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। हमलोग वापस घर की ओर चल पड़े। रास्ते में अचानक पुलिस गाड़ियों की आवाजाही बढ गई। हिसुआ बाजार पहुंचने के पहले मृतकों एवं घायलों को लिए एंबुलेंस गाड़ियां आती दिखी। मन में किसी अनहोनी की आशंका घिरने लगी। बाजार से कुछ पहले भीड़ खड़ी थी। उन्होंने बताया कि हिसुआ में गोलीबारी हुई है और जातीय दंगे शुरू हो गए हैं, आगे मत जाइये। हमलोग अपने एक निकट संबंधी के यहाँ रुके, जहाँ एक सप्ताह से अधिक रहना पड़ा। मार-काट की घटनाओं की सूचना छिटपुट रूप से मिलती रही। बाद में पता चला कि मंडल कमीशन की अनुशंसा को लागू करने के पश्चात पूरा देश इसी तरह जल रहा था। इस तरह पहली बार अंदर सोये जातीय कट्टरता के बीज पर जैसे पानी का छींटा पड़ गया। बाल-मन में अबतक ग्रहण किए गये विचारों पर इसकी धुंधली छाया-सी पड़ने लगी। 

यह तो संयोग कहिए कि वे छींटे जल्दी ही सूख गए जब सातवीं कक्षा में पढने के दौरान मुझे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सात दिवसीय शिविर में भाग लेने वारिसलीगंज जाना पड़ा। वे सात दिन मेरे लिए अहम थे। वहाँ पहुंचते ही हमें एक अलग तरह के अनुशासन का सामना करना पड़ा यानि स्वयंसेवक बनने की प्रक्रिया शुरू हुई। रात में वहाँ उपस्थित संघ परिवार के सभी सदस्य खाने के लिए एक ही पंगत में बैठे। यह एक नया अनुभव था। अभी तक गांव में अलग-अलग जातियों को अलग पंगत में खाते देखा था। आज भी कमोबेश कई जगह यह व्यवस्था कायम है। शायद अभी और भी बहुत कुछ सीखना बाकी था। अगले दिन शाम की खेलकूद के बाद सभी को अलग-अलग पत्तल में भुना हुआ चुड़ा और मूंगफली खाने को दिया गया। अचानक हमारे वर्ग-प्रशिक्षक ने हमें रोका। हम सब उनकी ओर देखने लगे। उन्होंने सभी के पत्तलों पर रखे चुड़ा और मूंगफली को एक जगह मिला दिया और बोले,"अब सभी साथ खाओ।" थोड़े-से संकोच के साथ खाना शुरू होते ही सभी के दिमाग में पल रही कई गाँठें खुल गई। संघ जात-पाँत के बंधन तोड़ने में वाकई एक हद तक सफल हुआ है। काश! यह संगठन सभी समुदायों को इसी तरह जोड़ पाता।

बीसवीं सदी के अंतिम दशक में बिहार जाति के आधार पर हुए नरसंहारों के कारण चर्चित रहा। यही समय युवावस्था में प्रवेश का समय था। जातीय उन्माद चरम पर था, परन्तु इसके मूल कारणों पर ध्यान देने की बजाय लोग इसे बढावा देने में जुटे हुए थे। मीडिया की भूमिका भी सकारात्मक नहीं थी। युवा-मन भटकने लगता था। यह उम्र ही भावुकता की होती है, पर कुछ रचनात्मक करने का भी यही वक्त होता है। यह षड्यंत्रों को समझने का भी समय होता है। दरअसल कुछ बड़े माफिया इसकी आड़ में अपना हित साध रहे थे। आज ये लोग सदनों की शोभा बढा रहे हैं। वहाँ ये अपने हित के लिए कट्टर विरोधियों से भी हाथ मिला लेते हैं और हम सामान्य जनता मन में भेदभाव रखे रह जाते हैं। यही स्थिति समाज को समय के साथ होड़ कर चलने में बाधा पहुंचाती है। बस भावुकता की अंधी गलियों में नहीं भटक, परिस्थिति का यथार्थपरक मूल्यांकन कर आगे बढें तो संभावनाएं स्वतः अपना द्वार खोले खड़ी मिलेगी।


1 टिप्पणी:

Monika Jain ने कहा…

बस भावुकता की अंधी गलियों में नहीं भटक, परिस्थिति का यथार्थपरक मूल्यांकन कर आगे बढें तो संभावनाएं स्वतः अपना द्वार खोले खड़ी मिलेगी। बहुत सही।