मोहन राकेश के साथ रवीन्द्र कालिया की हिंदी यात्रा


हिंदी साहित्य की गुरु-शिष्य परंपरा में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को उनके शिष्य नामवर सिंह एवं विश्वनाथ त्रिपाठी ने सहृदयता से स्मरण किया है। नामवर सिंह का 'दूसरी परंपरा की खोज' एवं विश्वनाथ त्रिपाठी का 'व्योमकेश दरवेश' तो उनके गुरु का अद्भुत स्मरण है। इसी क्रम में रवीन्द्र कालिया 'गालिब छूटी शराब' में अपने गुरु मोहन राकेश को जिंदादिली और बेबाकी के साथ याद करते हैं। उन दोनों का संबंध मित्रवत हो जाता है। पेश है उसकी एक बानगी।

मैंने इंटर की परीक्षा पास की तो एक दिन राकेश जी ताँगे में बैठकर हमारे घर चले आये। मैं उस समय गली में पतंग उड़ा रहा था। मुझे देखकर वह मुस्कराये। उन्होंने सुझाव दिया, बी.ए. में मुझे ‘ऑनर्स' के साथ हिन्दी लेना चाहिये। मैंने बताया कि हमारे घर में हिन्दी का कोई माहौल नहीं है। भाई ने राजनीतिशास्त्र में एम.ए. किया था और छोटी बहन भी यही सोच रही है। राकेश जी ने कहा कि वही पढ़ना चाहिये जिसमें रुचि हो।

बहरहाल, घर के विरोध के बावजूद मैंने हिन्दी में दाखिला ले लिया। ऑनर्स में मेरे अलावा कोई छात्र नहीं था। दो-एक ने मेरी देखा देखी ‘ऑनर्स' ले ली, मगर राकेश ने उन्हे डाँट-डपटकर भगा दिया। वास्तव में ऑनर्स पढ़ाने में राकेश जी को सुविधा थी। ऑनर्स के चार लेक्चर सात के बराबर माने जाते थे। देखते-देखते ऑनर्स में मैं उनका इकलौता छात्र रह गया।

राकेश उन दिनों परेशान थे। पत्नी से। कॉलिज से। शहर से। अध्यक्ष से। बाद में उनके निकट आने पर मैंने पाया कि वे एक बेचैन रूह के परिन्दे हैं। हमारी क्लासें बियर शॉप में लगने लगीं। एक-आध गिलास से शुरू करके कुछ ही दिनों में मैं पूरी की पूरी बोतल पीने लगा। बाद में तो ऐसा भी हुआ कि वे क्लास में मेरी प्रतीक्षा करते रहते और मैं बियर शॉप में। शाम को कॉफी हाउस में भेंट होती तो मैं उनसे कहता, "आप आज क्लास में नहीं आये?"

पूरे सत्र में वे ऑनर्स की क्लास दो-चार दिन ही ले पाये होंगे। उन्हे मेरी पढ़ाई की चिन्ता होती तो रिक्शे में, बियर शॉप में, किसी रेस्तराँ में, तुलसीदास या प्रेमचन्द पर एक संक्षिप्त-सा भाषण दे देते। कृष्ण काव्य के सौन्दर्यबोध पर वे रिसर्च कर रहे थे, मगर सूर पर उन्होंने कभी लेक्चर नहीं दिया। तिमाही-छमाही यों ही बीत गयी। वे क्या तो पेपर सेट करते और क्या मैं उत्तर लिखता ! काग़ज़ों पर ही परीक्षाएँ हो गयीं। राकेश के आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब मैंने प्रथम श्रेणी में ऑनर्स किया।

( ग़ालिब छूटी शराब : रवीन्द्र कालिया, भारतीय ज्ञानपीठ से साभार एवं तस्वीर–वाणी प्रकाशन )

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