– प्रत्यूष चंद्र मिश्रा
1. श्रद्धेय को सप्रेम भेंट
तुम्हारे शहर में कोई बड़ा लेखक या कवि आए तो
अपनी या अपने पिता की याद में छपवायी उनकी
किताबें उन्हें सादर भेंट मत करो
वे उनका क्या करेंगे!
तुम्हें क्या लगता है कि वे उन्हें पढ़ेंगे
और दिल्ली पहुंच कर तुम्हें फोन करेंगे
कि पढ़ लिया, आपने अच्छी किताब लिखी है
या समथिंग समथिंग....
अब तो दिल्ली के दरियागंज के फुटपाथ पर
रविवार को लगने वाली किताबों की पुरानी दुकानें बंद हो गई हैं
वहां मिलती थीं सादर सप्रेम भेंट की गई किताबें
जिन्हें तुम्हारे श्रद्धेयों और माननीयों ने
उन्हें पलटे बिना रद्दी अखबार के साथ कबाड़ी वाले को दे दिया है
मैंने प्रसिद्ध लेखक शानी के उपन्यास ‘शालवनों के द्वीप’ की वह पहली काॅपी
इसी फुटपाथ से खरीदी थी,
जिसे उन्होंने किसी को कितनी हसरत से भेंट की होगी !
भावुक मत बनो
बेवकूफियां मत करो !
यह जो 30000 खर्च करके तुमने
अपने या अपने दिवंगत बाप का कविता संग्रह
नयी दिल्ली-इलाहाबाद से छपवा कर
अपने घर पर कुरियर से मंगाया है ना
उसे ऐसे किसी छात्र को दे देना
जिनके लिए किताबें खरीदना आज भी उतना आसान नहीं है
और जिसकी दिलचस्पी साहित्य-संस्कृति की तरफ़ जाती हुई लगती है
हालांकि वह भी क्या करेगा इस मोबाइल के जमाने में, इसमें भी संदेह है
विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के किसी विद्वान प्रोफेसर को मत दे देना अपनी किताबें
जिसने ज़िंदगी भर नोट्स बेचे,
ट्यूशन पढ़ाया
और क्लास में पढ़ाने के नाम पर घटिया राजनीति में लिप्त रहे
उनके यहां ऐसी किताबों की दुर्गति देखी है मैंने
वे तो खुद में ही इतना आत्मलीन रहते हैं
कि दहशत होती है
फिर कहता हूं
तुम जो कल लिस्ट बना रहे थे हिंदी के नामी कवियों और आलोचकों की
जिन्हें अपनी किताबें भेजने के उत्साह में
कई दिनों से भरे पड़े हो, रुक जाओ!
किताबें भेजने पर होने वाले खर्चे के बारे में सोचो
बहुत से विद्वान, माननीय, आदरणीय, फादरनीय
किताबों के पैकेट तक नहीं खोलते
वे बहुत व्यस्त रहते हैं
और किताबें मिलने की सूचना भी तुम्हें नहीं देंगे
तुम्हारे फोन से ऊबकर संभव हो कि तुम्हें झिड़क भी दें
बड़े नामों के मोह से बचो दोस्त !
उन्हें अपनी किताबें सादर भेंट करने का ख्याल छोड़ दो
डाक से या भेंट में ऐसी किताबें पाकर वे हंसते हैं या खीज से भर जाते हैं
उनके लिए ये अवांछित हैं
उनके यहाँ ऐसी किताबों के बंडल
जीने के नीचे उपेक्षित पड़े रहते हैं
बहुत दिनों तक वे इस इंतजार में रहते हैं
कि कोई नया उत्साही छात्र, पुस्तक प्रेमी इन किताबों को ले जाए
कि यह ज़गह ख़ाली हो
यह भी सच है
कि उनकी अलमारियां पहले ही क्लासिक लिट्रेचर से भरी हुई हैं
वक़्त कम है और सिलेक्टेड चीज़ें पढ़नी हैं
और तुम हो कि किताबें उनके हाथों में देकर भावुक हुए जा रहे हो
फुटपाथ पर पुरानी किताबों के साथ
मुलाक़ात में दी गई ऐसी ही सैकड़ों किताबें होती हैं
जिनके सामने एक आदमी बैनर लगाए लगभग उंघता रहता है
जिस पर लिखा होता है-
हिंदी साहित्य ₹100 किलो,
जिसकी तस्वीर वायरल होती रहती है
और जिन्हें देख हिंदी से कमाने-खाने वाले इंटेलेक्चुअल्स
होहो कर हंसते देखे जाते हैं।
2. जिसे
रोशनी से नहाई हुई एक दुनिया
अस्पताल की बालकनी से दिखती है
चमकीली परतों से ढंकी
भागती हुई दिखती है न जाने कहां!
उब बढ़ती ही जाती है
एक अंजान शहर के बड़े अस्पताल के परिसर में समय काटते निरुद्देश्य घूमते
रेल टिकट की उपलब्धता पर दूर-दराज से आए अपने ही जैसे लोगों से बतियाते
भीतर जनरल वार्ड में एक स्त्री को देखता हूं
कई दिनों से पति के सिरहाने बैठे
रातों को उनींदे
आज उसने कहा
आखरी पाली के नर्स से -
आज भी कोई नहीं आया घर से
इसका छोटा भाई भी नहीं
जिसे हमने बेटे की तरह पाला !
(बैंगलोर के एक अस्पताल में 11.09.2015)
3. पिता की शवयात्रा में बातचीत
यहां तक की तस्वीरें भी दीवारों पर मुंह लटकाए पड़ी थीं
यह पता की विदाई का समय था
गांव से और पूरी दुनिया से
पिता फूल की तरह हल्के थे इस यात्रा में
किसी ने कहा आत्मा के निकल जाने के बाद शरीर फूल से भी हल्का हो जाता है
उसमें कुछ भी बाकी नहीं रह जाता
उनका यह कहना और अस्वाभाविक सा लगा था
लोग कंधे से कंधा क्यूँ बदल रहे थे
अगर फूल से भी हल्के थे पिता !
पिता गांव के बाहर वाले पीपल के नीचे से गुजर रहे थे
एक फुनगी नीचे झुक कर पूछ रही थी -
असमय ही चल दिए वैद्यनाथ !
लड़की की शादी तो कर ली होती
मकान भी होने दिया होता पूरा तैयार !
इंदिरा गांधी की मृत्यु की भांति गांव की दुकानें बंद नहीं हुईं
स्थगित नहीं हुआ हाट का लगना
असहज नहीं हुए देहातों से बाजार आए ग्रामीण
थोड़ी कौतूहल से भरी सिर्फ बच्चों की आंखें पिता की शव यात्रा को देखकर
इस यात्रा में पिता अतीत की चर्चाओं और स्मृतियों से घिरे थे
इस समय ही मुझे पता चला कि पिता का व्यक्तित्व कितना सफल था और कितना सुखदायी!
लोगों ने तो यहां तक कहा-
यह सिर्फ मृत्यु से हारा
बहन ने भी यही कहा था
क्योंकि कई बीमार रातों का अनुभव
उसके पास था
पिता को मृत्यु के साथ संघर्षरत देखते रहने का
4. अपना ही किरदार
पुरानी छवियों में
समय अटका पड़ा होता है
वे हमारी आँखों को नम बनाती हैं
और किसी सूने गलियारे में ले जाती हैं
एक कौंध पैदा होती है
इन्हें देखते हुए
लंबी कहानी में
अपना ही किरदार
कहीं खो गया लगता है
5. गंगेसर राम
वह कुर्सी गंगेसर राम ने बनाई थी
गंगेसर राम हमारे गांव का एक अनुभवी और भक्त बढ़ई था
उस कुर्सी पर भगवान राम और सीता मैय्या के चित्र खुदे हैं।
उस कुर्सी में पृथ्वी जल वायु और अग्नि देवता आशीर्वाद की मुद्रा में खड़े हैं
हत्थे पर कृष्ण का चक्र है
उस कुर्सी को गंगेसर राम ने
ढ़ाई साल की कड़ी मेहनत और आध्यात्मिक लगन से बनाया था
इस बात के गवाह मेरे पिता हाल तक रहे
किसी गांव की एक यात्रा में उस पर पटेल बैठे थे
उस पर कई ऐसे लोग बैठे जिसे समय ने
अपने पृष्ठों पर बहुत गर्व से दर्ज किया
लेकिन जनमानस में गंगेसर राम का अब कोई जिक्र नहीं आता!
उस वक्त के किसी जिलाधिकारी के उस मुग्ध होने
और बख्शीश के साथ उसे ख़रीद ले जाने की बात सुनी जाती है
वह आज जहाँ भी पड़ी होगी,
क्या गंगेसर वहाँ जीवित होगा,
उसके नाम का कोई उल्लेख भी आता होगा ?
गंगेश्वर राम को गहरी पीड़ा रही होगी
उसके पूरे जीवन काल में किसी ने उसे कलाकार नहीं कहा।
सब उसे गंगेसरा कहते थे।
एक जुट के बोरे में रंदा, वसुला हथौड़ी, पेचकश, पलाश और दूसरे औज़ार लेकर घर- घर घूमता रहा
और उनके चौखट- दरवाज़े, चौकियाँ बनाता रहा
लोग कहते हैं घरवाली की आकस्मिक मृत्यु के बाद
उसने मंदिर जाना और भजन गाना छोड़ दिया था।
उसने दुख का एक अंतहीन जीवन जिया !
गंगेसर राम हमारे गाँव का एक अनुभवी और भक्त बढ़ई था
जो लंबी बीमारी और अभाव में मरा
6. भागलपुर
मूंग के मसालेदार पापड़ इन्हीं तंग गलियों में तैयार होते थे
और दूसरे छोटे शहरों-गाँवों में राजस्थानी बीकानेरी के नाम से बिकते थे
सालों बाद एक दिन लौटना होता है इन गलियों में उन पापड़ों की याद में
जब एक लॉज के अपने कमरे की स्मृति पीछा करती है
पाता हूँ कि वे गलियां अब और तंग दिखने लगी हैं
घर चारदीवारी की जद में घुटते हुए और अपरिचित से दिखते हैं
आसपास की ख़ाली ज़मीन जिस पर गोभी की खेती होती थी
और जूट के बोरों पर पापड़ सूखते हुए मिलते थे
उन जगहों की पहचान गड़मड होती जाती है
और इतने नए मकान कि दहशत होती है कि सही जगह खड़ा हूँ भी या नहीं !
एक सहपाठी का घर था गली के छोर पर
अब वहां कोई और रहता था
एक धोबी मस्जिद गली की नालियों के ऊपर कपड़े पर इस्तरी लगाता था
अब जहाँ एक चमकता हुआ रेस्टोरेंट था जिसके दरवाजे शीशे के थे
इस शहर के बिना जीवन कैसा होगा!
नौ से बारह का सिनेमा देख कर लौटते हुए अक्सर हम सोचते थे
बरसों बाद इस शहर का कोई मिलता है
तो उसका नंबर जल्दी से नोट कर लेते हैं
और जल्दी ही भूल जाते हैं उस मुलाकात के बारे में
एक फोन कॉल की दूरी पर अतीत के किस्से मिलेंगे
यह जानते हुए भी कोई किसी को फ़ोन नहीं करता
पापड़ किसी मशीन पर तैयार होने लगते हैं उनको बेलती- सुखाती स्त्रियों की एक याद भर रह जाती है
लॉज में रहने वाले लड़कों का कोई पता नहीं मिलता
दो भव्य सिनेमाघरों की जगह है नये अपार्टमेंट मिलते हैं और हम भौंचक रह जाते हैं
हम भी कभी इसी शहर का हिस्सा थे
यह सोचते हुए एक उदासी फैल जाती है भीतर
कनपटी पर बाल सफेद हो आए हैं
एक साइकिल की याद आती है तीस बरस पहले की अपनी ही छवि के साथ
उल्टा पुल पर खड़े होकर देखता हूं रेलवे स्टेशन जो भव्य लेकिन अब पराया लगता है
पुल पर गंगा की कछारों की तरफ से
केले आए हैं बिकने को
तीस के दो दर्जन खरीदता हूं और नोनीहाट की बस पकड़ता हूं
7. एक फ़ोटो स्टूडियो की याद
अब किसी भी शहर में जाओ
बहुत उदास मिलते हैं फ़ोटो स्टूडियो
जो कभी खिलखिलाती तस्वीरों और रूमानी हलचलों से भरे होते थे
हम सब के पास
उनको लेकर कोई न कोई याद है
नोनीहाट के खोगेन विष्णु ने उन्हें कभी
फ़ोटू खींचने की दुकानें कहा था
जब वे पहली बार किसी शहर से फ़ोटो स्टूडियो देखकर लौटे थे और कैसा कौतुक भरा चित्रण किया था !
वह फ़ोटो खींचने की दुकानें ही तो होती थीं सचमुच!
वहाँ कितनी हसरतों से लोगों को भीतर जाते देखा है
वेशभूषा ठीक करते, चेहरा चमकाते हुए
फ़ोन का रिसीवर हाथ में लिए बेल बॉटम पहने कॉलेज़िया लड़के
पीछे ताज़महल के पुराने पड़ चुके पोस्टर रंग छोड़ते हुए
पहाड़ और फूलों की वादियों के आगे बैठे नवविवाहित जोड़ों के ये स्वप्नगाह थे !
एक बड़े वक्फ़े के बाद एक ऐसी ही जगह पर खड़ा हूं जहां पहले भी कई बार आने की याद ने लगभग परेशान कर रखा है
कहन की शैली में जिसे मशहूर -ओ- मा'रूफ़ कह सकते हो
ओह! वे वासु दा ही थे !
लोग उन्हें स्टूडियो मैनेजर कहते थे
लगभग सत्तर की उम्र में वे वहाँ क्या कर रहे थे?
आश्चर्य था कि वे अब भी यहां थे !
इस स्टूडियो में बस अकेले बचे कर्मचारी थे वे! उनकी आंखों में देर तक देखने से एक दुनिया की तकलीफ़देह अंत का सफ़रनामा मिलता था
हथेलियों और कुहनियों की छुवन भर से घिस आए उस काउंटर के पीछे
शीशम की बड़ी सी पुरानी कुर्सी पर बैठे उस नूरानी चेहरे को
जो इस स्टूडियो का मालिक था, मैं पहचान सकता था
अस्सी-नब्बे के दशक में वह युवा थे
सलीकेदार और आकर्षक !
ख़ास मौक़ों पर ही फ़ोटोग्राफी के लिए उपस्थित होते थे
शहर के रईस तक चाहते थे कि उनकी कोई यादगार तस्वीर में वे उतार दें
उनकी अलहदा शख़्सियत की वजह से उन्हें एक फ़ोटोग्राफर से कहीं ज्यादा इज़्ज़त बख़्शी इस शहर ने
इवेंट और डिजिटल फ़ोटोग्राफी के दौर में
एक पुराने और संजीदा फ़ोटोग्राफर का अकेलापन और उदासी तुम दूर से पहचान सकते हो
स्टूडियो में लगे शीशे के सेल्फ़ में तस्वीरें अपनी चमक खो चुकी हैं
वे पुरानी पड़ गई हैं
कुछ के फ्रे़म औंधे पड़े हैं
उन पर जैसे महीनों की धूल बैठी है
उन्हें तरतीब से रखा जा सकता है, यह बात उनके जे़हन में क्या नहीं आती होगी ?
दीवारों पर रंग रोगन हुए जमाना बीता है और धूसर हो चुके उस सोफे़ को मैं पहचान ही सकता हूं
गोकि उस पर बैठने की याद बाक़ी है!
यह पता चल जाना कोई मुश्किल काम नहीं है कि उनकी संताने किसी और धंधे में क्यों लग गयी होंगी !
और इस पुश्तैनी धंधे को कितनी तकलीफ़ से अलविदा कहा होगा!
वह तस्वीर जिसमें दिखते थे अभिनेता सुनील दत्त स्टूडियो के मालिक के साथ
यहां आने वाला हर ग्राहक बहुत कौतुहल के साथ देखता था उस फ़्रेम को
जो वक़्त की गर्द में अब अपनी रंगत खो चुका था
उसमें सुनील दत्त थोड़े अधेड़ हो गए दिखते हैं
यह फ़ोटू आकाशवाणी भागलपुर के किसी कार्यक्रम की है जिसमें यह फ़ोटूग्राफर उनके साथ खड़ा है
लेकिन आज की तारीख़ में अब कोई सुनील दत्त को याद नहीं करता क्योंकि आप जानते हैं कि अब कोई स्टूडियो नहीं जाता और ऐसी तस्वीरों के लिए वह रोएँ खड़ा कर देने वाला रोमांच और दिलचस्पी अब बीते दिनों की बात हो चुकी है
अपने समय के नामचीन अभिनेता अब या तो मर गए हैं या गुमनामी के अंधेरे में चले गए हैं
और उनके लिए वो जादू भी देश के साधारण नागरिकों में ख़त्म हो चुका है
लेकिन हममें से हर कोई जीवन में एक बार ज़रूर गया है फ़ोटो स्टूडियो
और आज मेरी गुज़ारिश है दोस्तों कि अगर आप पुरानी ब्लैक एंड वाइट तस्वीरों से प्यार करते हो तो उन्हें भी एक बार याद करो
बाप-दादाओं और पूर्वजों की दुर्लभ फोटूओं के लिए हम उनके कर्ज़दार हैं
लेकिन वह अब आपके शहर में शायद ही बचे हों या अंतिम सांसे गिन रहे हों
उन फ़ोटो स्टूडियो के साइन बोर्ड तुम्हारे जे़हन में होंगे
जिस पर परवीन बॉबी या अभिता बच्चन काले गागल्स और गोल टोपी में नमुदार होते थे
उन लाखों कैमरों को याद करो जो
वक्त की तेज रफ़्तार में किसी कबाड़ में बदल गये हैं
उन्हें उनके मालिकों ने कहाँ रखा होगा
डार्क रूम में जहाँ कभी निगेटिव्स धुलते थे नीम रौशनी में क्या वे कैमरे भी उन्हीं अंधेरों में कहीं खो गए हैं ?
8. पड़ोसियों के बारे में
कुछ लोग हमारे पड़ोसी भी थे
और हम भी थे किसी के पड़ोसी
अब जाकर यह ख्याल आता है !
पड़ोसियों को कह कर आए हैं
दो-चार दिन घर देख लेना
यह वाक्य कहे- सुने अब बरसों हो गये!
एक बच्चे को देखता हूं पड़ोस में
दस- ग्यारह का होगा
पता चला सुकांत का नाती है
सुकांत से मुलाकात के बरसों हुए
इंटर में था जब शादी हुई थी उसकी
इस तरह उसका नाना हो जाना लाजिम था लेकिन मैं अफसोस में था कि
सुकांत के जीवन के बारे में मुझे कितना कम पता था जो हमारा पड़ोसी था और हमसे तीन क्लास आगे था स्कूल में
पड़ोसियों से उस रिश्ते को याद कीजिए
जब बनी हुई सब्जियां और दाल तक आती थीं एक - दूसरे घरों में
हथौड़ी कुदाल कुँए से बाल्टी निकालने वाला लोहे का कांटा, दतुवन, नमक हल्दी सलाई
एक दूसरे से ले- देकर लोगों ने निभाया है लंबे समय तक पड़ोसी होने का धर्म
हालांकि चीजों को दे देते हुए तब भी लोग कुढ़ते बहुत थे
जब कुछ ही दिनों में कोई एक ही चीज फिर- फिर मांगने आ धमकता था
यह भुनभुनाते हुए कि
"कंजूस है साला ! इतनी छोटी चीज खरीदने में जाने क्या जाता है!"
लेकिन वह रवायत थी और किसी भरोसे पर ही कायम रही होगी !
धीरे-धीरे लोगों ने समेटना कब शुरू कर दिया आपने आपको यह ठीक-ठीक याद नहीं आता अब इन चीजों के लिए कोई पड़ोसियों के पास नहीं जाता
याद में शादी ब्याह का वह समय भी कौतूहल से भर देता है
जब पड़ोसियों से ही नहीं पूरे गांव से कुर्सियां और लकड़ी की चौकयाँ तक बारातियों के लिए जुटाई जाती थीं
और लोग देते हुए कहते थे- बस जरा एहितियात से ले जाइएगा!
बस अब इस नयी जीवन शैली में
हमें पड़ोसियों बारे में कुछ पता नहीं होता
कैसी है उनकी जीवनशैली ?
उनके बच्चे कहां पढ़ते हैं ?
वह स्त्री जो बीमार-सी दिखती है, उसे हुआ क्या है ? किसके जीवन में क्या चल रहा है ?
कौन कितनी मुश्किलों में है?
आमंत्रण कार्ड आने से पहले नहीं जान पाते कि लड़की या लड़के की शादी कहां तय हुई ?
अपार्टमेंट के किसी फ्लैट में अकेली औरत मर जाती है
एक चर्चित कवि को हो जाता है ब्रेन हेमरेज और देर से दुनिया को पता चलता है
मृत पाया जाता है कमरे मे दुनिया भर की खबर देने वाला अकेला रह रहा एक पत्रकार
रोज ही आती है आत्महत्या की खबरें अकेले रहते किसी आदमी या औरत की !
ये सब किसी के पड़ोसी ही रहे होंगे!
हमने एक ऐसी दुनिया रची है
जिसमें खत्म होता जा रहा है हमारा पड़ोस
पार्टियां होती हैं -लोग आते हैं दोस्त आते हैं
पड़ोसी नहीं आते !
उनसे हमारा ज्यादातर अबोला ही रहता है अब !
खिड़कियों से आधी रात आवाज देते ही
कोई अगर आज भी भागता हुआ आता है तो यकीन करो वह एक शानदार मनुष्य है और तुम भाग्यशाली हो कि वह तुम्हारे पड़ोस में है
मन होता है, जाते-जाते पूछ ही लूँ कि
क्या आप एक अच्छे पड़ोसी हैं ?
9. यह जीवन
इस स्टेशन पर
रेल छोड़कर चली गई थी उसे !
आज दो बरस हुए !
कैसे कोई छूट जाता है
वापस लौट कर भी !
और यह जीवन
आह ! एक रहस्य के सिवा कुछ भी नहीं
10. वसु के लिए
चार ख़त मिले हों तुम्हें ऐसे
अपनी ज़िंदगी में
जिनकी ओर तुम बार-बार लौटते हो
जिन्हें छुप-छुपा के पढ़ते हो आज भी
और रोने लगते हो
उसे पतंग की तरह उड़ा डालना चाहते हो आसमान में
कि प्यार से भर जाए वह भी !
तुम किसी डायरी में रख देते हो उन्हें
या किसी फ़ाइल में
कपड़ों के बीच अलमारी में
जब कभी उन्हें देखते हो
एक नमी फैल जाती है तुम्हारे भीतर
एक दिन तुम उनमें रहने लगते हो
आख़िरी दिनों में जब मुलाक़ातें मयस्सर नहीं रह जातीं
तब समझते हो उससे बेशक़ीमती कुछ भी नहीं !
आंखों से लगाते हो उन्हें
जहां ज़िंदगी की पुरानी पानीदार फिल्में झिलमिलाती हैं
11. कुम्हार
घूमते चाक पर रचते हुए
ये हाथ कितने सुंदर हैं !
जैसे सुबह की किरणें
घास पर ठहरी हुई रात की ओस
जैसे पके धान से भरे खेत
जैसे मां के हाथ !
आंखें बंद कर लो
जीवन में जो सबसे सुंदर लगा हो तुम्हें,
उसे याद करो
फिर कुम्हार के हाथों के बारे में सोचो
जिन पर मिट्टी लगी हुई है और जो अहर्निश घूमते चाक पर
सदियों से किसी मार्मिक शिल्प में हमसे बातें कर रहे हैं
बस इन्हें आँखों से छुआने का मन होता है !
यह रचते हुए हाथ हैं
दुनिया को संबल और भरोसा देते हुए
कच्ची मिट्टी की लोइयों में कविता गूंथते हुए!
सोचता हूं -
मिट्टी से जीवन सिरजने वाले इन मानवीय हाथों को हमने क्यों नहीं रखा अपने सिर आँखों पर ?
हमने फुटपाथ पर इन्हें क्यों छोड़ दिया अकेला !
ये किस उम्मीद पर घुमाये जा रहे हैं चाक,
कोई पूछता भी है इनसे कि
माटी से तुम्हारा रिश्ता इतना गहरा कैसे है ?
कुम्हार ही कह सकता है पूरे भरोसे से कि वह मिट्टी का आदमी है
क्या आप अपने बारे में यह बात पूरे यकीन से कह सकते हैं ?
मिट्टी से एकमेक हो गई इन जिन्दगियों को तुम कितना पहचानते हो
किसी कुम्हार का नाम बताओ
तुमने उनके बनाये किसी घड़े का पानी तो पिया होगा ?
उनकी औरतें और बच्चे जो
दीयों के ढ़ेर के साथ बैठे हैं तुम्हारे शहर की सड़कों पर
आज उन्हें उनके आँवे की गंध से
उनको रचने वाले हाथों के साथ याद करो
फोन पर किसी को मत कहो कि
दीये महंगे हो गए हैं इस बार
12. दोस्त का आना
रेल चली गई है
उसका अंतिम सिरा देखकर लौट रहा हूँ कमरे पर
दोस्त का चेहरा
छूट गया है मेरे भीतर!
चाहता था कि वह कुछ दिन और रहे
हमने मिलकर कई रोज़ बनाई थी रसोई
उसकी बातें तैर रही हैं भीतर
हम कई रोज़ जगे रहे सुबह तक
गप्प के अंतहीन सिलसिले में
वह कहता था :
तुम्हारे कमरे से हरे पहाड़ और रेल लाइन दिखती है
तुम कितने भाग्यशाली हो!
तुमने कविताएँ लिखनी क्यों छोड़ दीं!
उसका संग-साथ कितना अच्छा था
!
पर उसके सिगरेट के धुएँ ने कितना परेशान किया मुझे
यह बात मैं उससे कभी कह नहीं सका!
वह फिर कब आएगा, पता नहीं!
वक़्त अब इतनी मोहलत किसे देता है!
दस बरस पहले
उसने कहा था एक दिन
गाँव के बाहरवाले पुल पर बैठते हुए :
हम लोग हर साल मिलेंगे!
कमरे का दरवाज़ा खोलता हूँ
धुएँ की बास बची है
ओह! उसका एश-ट्रे छूट गया है!
परिचय :
विनय सौरभ नोनीहाट दुमका में रहते हैं।
पहला कविता–संग्रह शीघ्र प्रकाश्य।
मोबाइल – 9431944937
2 टिप्पणियां:
शानदार कविताएँ।
सभी कविताएं अपने समय और उसकी विसंगतियों को दर्ज करती हैं।
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