प्रीति प्रकाश राजेंद्र यादव हंस कथा सम्मान से सम्मानित युवा लेखिका हैं। कहानियों के अलावे कविताएं भी लिखती हैं और कमाल लिखती हैं। अपनी कविताओं में प्रीति न केवल पितृसत्ता के खिलाफ प्रश्न खड़े करती हैं बल्कि उसकी बारीक बुनावट की बखूबी पड़ताल भी करती हैं। 'बस की खुशबू' जैसी कविता एक स्त्री द्वारा उसकी अपनी जमीन की तलाश को मार्मिक अभिव्यक्ति प्रदान करती है। वहीं 'मां को कुछ नहीं आता' जैसी कविता अपनी व्यंजना में काफी कुछ कह जाती है। प्रस्तुत है प्रीति की पांच कविताएं।
~ प्रत्यूष चन्द्र मिश्रा
1. गाँव की लड़कियां और छठ
प्रखर पहली बार हैरान है
गाँव की लड़कियाँ
दौरा सर पर उठाए घाट जा रही हैं
भाई नहीं आया हो शायद इस बार
प्रखर हैरान है
कोमल कोमल लड़कियाँ
भारी भरकम दौरा
प्रखर हैरान है
दौरा भी लड़कियों ने ही बनाया है
उस को ढंकने वाला चादर भी
बनाया है
रंगों से भरा दौरा
रंगों से भरी चादर
रंगों से भरी लड़कियाँ
घाट पर बैठ कर गीत गा रही हैं लड़कियाँ
'कांच ही बांस के बहंगिया
बहंगी लचकत जाए
भरिय त हउए सुरेश बाबू
बहंगी घाटे पहुंचाए
भरिया त हउए सुनीता बबी
बहंगी घाटे पहुंचाए
अपना नाम गाकर खिलखिला रही हैं लड़कियाँ
प्रखर हैरान है
लड़कियाँ ईख बाँध दे रही हैं
कोसी भर दे रही हैं
ठेकुआ और पूड़ी छान कर लायी हैं,
अब गहरे पानी में उतर कर
अरख दिला रही हैं
अपनी माई को
प्रखर हैरान है
ये लो एक पटाखा बगल से गुजरा
प्रखर ने पटाखों से एक बार हाथ जला लिया था
तब से पटाखों से उसे डर लगता है
प्रखर हैरान है
गाँव की लड़कियां
खेत की मेड पर बैठी
पटाखे फोड़ रही हैं
प्रखर हैरान है
प्रियंका छठ घाट पर
गजाला प्रवीण का हाथ पकड़ कर घूम रही है
रोज न्यूज़ देखने वाला प्रखर हैरान है
2. अमर प्रेम
किसी कोचिंग की क्लास में दोनों ने एक दूसरे को देखा था
लडकी सुन्दर थी
गोरा रंग
दुबली पतली
और थोड़ी घबराई थोड़ी शरमाई सी
लड़का पढने में अच्छा था
अगर पढने में नहीं तो देखने में ही सही
और कुछ नहीं तो लड़के के बाप के पास पैसा था
और इस तरह
रंग रूप और ब्राइट फ्यूचर देखकर
दोनों एक–दूसरे के प्यार में पड़ें
इससे पहले कि उनके माँ-बाप को भनक पड़ती
मार्केट को भनक पड़ गयी
वो टेडी, कार्ड, गुलाब और गिफ्ट लेकर तैयार हो गया
हीर को उसके राँझा से मिलाने के लिए
फिल्मों और सीरियल्स का भी कम योगदान नहीं था
हर एक लड़के को पता था कि
लडकी को
प्रपोज करना पड़ता है
रेस्टोरेंट ले जाना होता है
वैलेंटाइन डे मनाना होता है
दुनु ई सब करते रहे,
मोबाइल पर साथ जीते मरते रहे
बाजार फलता फूलता रहा
पर सच्चे प्यार की किस्मत में जुदा होना ही लिखा होता है
एक दिन लडकी भी रो धोकर स्वजातीय लड़के के साथ विदा हो गयी,
लड़का भी दहेज़ लेकर नौकरी लगने के बाद सेटल हो गया
और इस तरह दोनों का प्रेम अमर हो गया।
3. बस की खुशबू
मामा की शादी,
नानी का घर
गर्मियों की रात,
सारे इकट्ठे छत पर
चुटकुले,
रसगुल्ले
बुझौवल
मोरब्बे
कहानियां,
सेव बुनिया
और फिर आया
एक सवाल-
सबसे अच्छी
कौन सी खुशबू
बेली के फूल की
नानी शरमाई
कोयले पर पकते मटर की,
मम्मी की बारी आयी
गुलाब की,
मामा ने कहा
चिकेन की,
डोलू भैया से अब नहीं रहा गया|
किताबो की,
दीदी बोली
जर्दा आम की,
रुनझुन दी ने मिठास घोली
बस की,
ये मौसी की आव़ाज थी
बस की भी कोई खुशबू होती है?
ये भी कोई बात हुई?
झूठ झूठ झूठ
"बस में तो बदबू होती है"
"उल्टी आती है"
"कितनी भीड़ होती है?"
"हां, सांस रुक जाती है"
और फिर बस में आप
बैठे ही कब हो?
एक आपके छेका में,
जब हम सब साथ में ‘बेतिया’ गए थे,
और अब सीधे मामा की शादी में,
जब आप यहाँ आयी हैं,
बीच में आप कभी निकली भी थी,
क्या घर से?
नही, एक बार भी नहीं,
तभी तो इस बार,
बस की खुशबू भा गयी
कहते हुए,
मौसी की आँखों में,
नमी आ गयी।
4. दूध भात
बचपन में कभी खेल खेलने का मौका नहीं मिला,
घर में सबसे छोटी थी,
ऊपर भैया दीदी हमेशा रहे,
इसलिए हमेशा मेरा होता था - दूध भात
मतलब
न मैं आउट हो सकती थी और न किसी और को कर सकती थी
तब मैं खूब नाराज होती,
चिल्लाती,
कि मुझे भी खेलना है
आज खेल खुला है
मैं हूँ मैदान में,
पर खेलना नहीं आ रहा,
किसी और को आउट नहीं करना है,
न खुद होना चाहती हूँ,
कोई दाँव–पेंच नहीं जानती,
और हारना भी नहीं चाहती,
क्या एक और बार नहीं हो सकता
मेरा दूध भात।
5. माँ को कुछ नहीं आता
माँ को कुछ नहीं आता है,
किससे कैसे बात करनी है, नहीं आता है
कब चुप रहना है कब बोलना है, नहीं आता है
कहाँ कितनी देर रुकना है, नहीं आता है
कब अड़ना है, कब झुकना है, नहीं आता है
नहीं आता है उन्हें ज्यादा देर तक गुस्सा रह पाना
नहीं आता है अपने लिए लड़ पाना
नहीं आता है अपने आत्मसम्मान को बचाना
नहीं आता है चेहरों को पढ़ पाना
और बहुत सी मामूली चीजे भी नहीं आती
जैसे नए ज़माने का फैशन,
लाइफ के इक्वेशन,
पैसे का खुशी से कनेक्शन
माँ सुनती रहती है, बेटों से, बहुओं से
बेटियों से शिकायते,
मुझे यह नहीं दिया है, मुझे वह नहीं किया है
आपको तो कुछ समझ ही नहीं आता है
पर माँ को बिन कहे, बिन सुने समझ आया,
कब किसे उसकी जरूरत हैज
जब कभी उसका सबसे होशियार बेटा,
टूटा और बिखरा,
उसने उसे फूलों कि तरह सहेजा
जब कभी उसकी सर्वगुण संपन्न बेटी
अच्छी बहु बने बने थक गयी,
तो वह माँ के पास आकर सुस्तायी
जब भी पूरे परिवार में किसी को आगे बढ़ना रहा,
तो माँ ने उसकी जिम्मेदारियां खुद पर ओढ़ ली,
जब भी पूरे परिवार में किसी को रुकना पड़ा पीछे,
माँ उसकी साथ रुकी
और इस तरह पूरी दुनिया में माँ ने आबाद रखी एक जगह,
जिसे घर कहते हैं
क्या सच में माँ को कुछ नहीं आता है?
परिचय :
डॉ. प्रीति प्रकाश
शिवहर
हंस, वागर्थ, वर्तमान साहित्य, स्त्री काल, गगनांचल, समालोचन, जानकीपुल, विमेंस वेब आदि में रचनाएं प्रकाशित।
वर्ष २०१९ का राजेन्द्र यादव हंस कथा सम्मान।
2 टिप्पणियां:
सच कहूं तो प्रीति प्रकाश को पहली बार पढ़ा और जब पढ़ा तो लगा पहले क्यों नहीं पढ़ा। बैचारिक धार से लैस कविताएं कहीं से भी बोझिल और कृत्रिम नहीं बनतीं। एकदम अंतरंग प्रसंगों और किरदारों की बात करते करते वे हमारे सामाजिक जीवन के संघर्षों, शक्तियों और विद्रूपों पर रोशनी डाल देती हैं। बस की खुशबू जैसे निहायत अभिनव और अनूठे रूपक गढ़ने वाले कवि में असीमित संभावनाएं और दृष्टि है। शुभकामना देता हूं।
यादवेन्द्र, पटना
आभार
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