विजय कुमार की कविताएं



विजय कुमार की कवितायें उनके परिवेश के यथार्थ को व्यक्त करती हैं। उनका परिवेश जंगल है...कोलियरी एवं आग उगलती बड़ी फैक्टरियां हैं...यानी शोषण का हर औजार आस-पास विद्यमान है। उनका संग उनकी जमीन से जुड़े संघर्षरत लोगों का है...रचनाओं में उनलोगों की जिजीविषा है तो उनकी उम्मीद-नाउम्मीद भी दिखाई देती है। आम आदमी की पीड़ा है उनकी रचनाओं में। जंगल की खूबसूरती है तो उस परिवेश में फैलता जंगलराज भी। प्रेम कहानियां भी हैं कविताओं में… पर प्रेम का चेहरा न सम्मोहित करता है न पुरसुकून देता है… बस उसकी पीड़ा के पीछे ‘सोचना’ छोड़ जाती है। तो आइए, उनकी कविताओं को पढ़ते हैं।

1. कार्तिक पूर्णिमा के दिन ( लुगू पहाड़ी से लौटकर )

आज कोई गोली नहीं चली
जबकि आज इसकी प्रबल संभावना थी

आज नेताओं की बोली चली
जबकि इस बार ईश्वर की बारी थी

नेताओं के काफिले सुरक्षित लौट गए
जबकि सड़कों पर कहीं भी
बारुदी सुरंगे बिछाई जा सकती थी

इस बार किसी भी जोखिम की कोई भी
गुंजाइश नहीं थी
समुचित सावधानी बरती गई

पुलिस भी गश्त नहीं लगा रही थी
सभी जानते है, सारा महकमा
नेताओं के आजू बाजू व्यस्त रहा

इतना सबकुछ
सुखद हुआ कैसे
एक भी ग्रामीण मातहत/हताहत नहीं हुआ
ये अजूबा जो लगभग, असंभव था
संभव यह कैसे हुआ
सैलानी भी हँसी खुशी अपने घर लौट गए

परन्तु इतना शांतिपूर्ण
बिना किसी हिंसा के, बिना संदेह !
यह कैसे हुआ
जो बिना करिश्मे के, कम नहीं रहा

आखिर माओवादी कहाँ दुबक गए
क्या सारे दहशतगर्द चुप रहे
या उनके मुखिया भी इस आयोजन में शामिल रहे

कौन जाने यह
आदिम ईश्वर की कृपा रही
या श्रद्धालुओं के आगे
ईश्वर ही झुक गये

आज कार्तिक पूर्णिमा के दिन
तेनुघाट डैम से घिरा
एक ओर झुक गया है लुगू पहाड़,
भव्य लग रहा है

और उसके पार से डूब रहा है सूरज
ईश्वर का स्वर्णिम
मुकुट नजर आ रहा है ।

( लुगू पहाड़ी: यह पहाड़ी संथाली आदिवासी जनजातियों के सरना धर्म से संबन्धित  आस्था का केंद्र है, कार्तिक पूर्णिमा के दिन, देश- विदेश से इस पहाड़ी पर लाखों श्रद्धालु और सैलानी जुटते हैं, यह पहाड़ी नक्सल प्रभावित है )


2. जब वह प्रेम में रहती
    उसे मिर्गी के दौरे पड़ते थे


जब वह प्रेम में रहती
उसे मिर्गी के दौरे पड़ते थे
लोगों के सख्त हिदायतों पर
मैं उससे थोड़ा दूर रहता

अचानक जब कभी
वह गिर पड़ती जमीन पर
उसका नीला फ्रॅाक
उसके घुटनों से उपर उठने लगता
उस समय मुझे पृथ्वी के हरेक पेड़-पौधे
पत्रविहीन, उदासी से भरे
और नग्न लगने लगते

अनायास ही पेड़ों से पत्ते गिरते
उसका चेहरा पत्तों सा पीला पड़ जाता
और पतझड़ का आभास होने लगता

उसके मूर्छित होते ही
उसके भारी भरकम स्तन हड़बड़ा उठते
जैसे पृथ्वी नाचती
अपने अक्ष में बहुत तेजी से घूम जाती

जब वह बेहोश होकर निढ़ाल हो जाती
मुँह से झाग फेंकती
लोगों को अक्सर कहते सुना
उसके साँसों से कीड़े मुक्त होते थे
और हवा में फैल जाते
मुझे वह दिखते नहीं थे
वह फूलों पर बैठे मधुमक्खियों से लगते थे

एक दिन उसने मुझसे कहा
वह मिर्गी की शिकार नहीं
बल्कि वह प्रेम में आसक्त हो गयी थी
और अक्सर यूँही गिर पड़ती थी


मुझे वैद्यों और हकीमों पर भरोसा नहीं था
वह ओझा मुझे पाखंडी लगता
जो उसके नब्जों को छूने के बहाने उसके सारे जिस्म को टटोलता- छूता था

उसकी पीठ एक नदी हो सकती थी
जिसमें सुनहरी मछलियाँ तैर सकती थी निर्बाध
वह खोजती अपने काम में निपुण
एक मछुआरा
सिद्धहस्त तांत्रिकों की जीभ उसके पीठ पर छिपकली बनकर रेंगती रहती थी

उसका इस तरह से
बेसुध होकर धरती पर धड़ाम से गिरना
मुझे उन दीर्घकालिक भौगोलिक परिघटनाओं की तरह ही लगता
जिस क्रम में
पृथ्वी अपने अक्ष से रोज
थोड़ी थोड़ी खिसक जाती थी
उसका ओंधे मुँह धरती पर गिरने से
पृथ्वी के ध्रुवों का उलटफेर हो जाता
उसके हथेली के रेखाओं में चाँद कहीं नहीं था

अचानक दिन में रात हो जाता
और एक दिन
गहराते अंधेरों में
वह चाँदनी बिखेरती गुम हो गई थी

3. ओ फारूख

ओ फारुख तुम सिर्फ पत्थरों को
तोड़ते नहीं
फोड़ते नहीं
तुम सख्त और कठोर चीज़ो से
सहृदय ही प्रेम कैसे कर बैठते हो
इन बेजान, सफेद और
चमकदार संगमरमर के पत्थरों पर
“ ॐ “ सहज ही उकेर देते हो ।

तुम मूर्ति पूजक भी नहीं
तुम पाँचों पहर वजूँ लेते हो
ना जाने कौन सा भजन बुदबुदाते हो

लोग कहते हैं तुम नमाज़ पढ़ते
अल्लाह ताला और अल्लाह हू अकबर कहते हो
फिर पत्थरों में
छेनी हथौड़े लेकर क्या गढ़ते हो ।
शायद तुम मूर्ति भंजकों से डरने लगे हो

बहुत हैरत की बात है
यह कि जब शहर के सारे सफेद पत्थर
लहू से लाल हो जाते है
तुम पत्थरों को इंसानों से अब भी जोड़ना जानते हो

बड़ा महफूज है तुम्हारा आंगन
तुम अपने समूचे आंगन में
लाल ध्वजाओं पर पीले धागे टांकते रहते हो ।
तुम्हारी बेगम भी तो
तुम्हारे नक्शेकदम का पर गई है
वह रंगसाज है
सिंदूर के डिबियों पर
लाल और सफेद रंगों से धारियाँ सजाती है
और तुम्हारी बारह साल की बिटिया तो हरे झंड़े को
लाल रंग से रंगकर सफेद चांद को कितनी कुशलता से छुपा देती है

ओ फारूख तुम महफूज कैसे बचे हो
मुझे इमली चौक का रफ़ीक दर्जी याद आता है
वह हमारे गांव के सभी लोगों के बेटियों की समीज का नाप अपने हाथों से लेता था
उसके इकलौते बेटे को दंगे के भेंट चढ़ा दिया गया था
और आसनसोल के दंगे में
इमाम रशिदी मुझे पैगंबर की तरह दिखायी दे रहा था
उसने अपनी लम्बी सी दाढ़ी को अपने बेटे का कफन बना लिया था

ओ फारूख ………
तुम मुझे बताओ
तुम अपने चार मुखों वाले झोपड़े से
किस दिशा में निकलते हो
और इस दहशतगर्द शहर में
शाम ढलते ही किस किस दिशा से
अपने घर सुरक्षित लौट आते हो ।

ओ फारूख ........
मुझे तुम अपने सारे औज़ार दे दो
इन पत्थरों को मैं तुम्हारे शक्ल में
बदल दूंगा
मै भी तुम्हें एक दिन पैगम्बर बना दूंगा
और न हुआ तो किसी ईश्वर के शक्ल में ढाल दूंगा 

तुम्हारे हिस्से के सारे बारूद
मैं अपने बेजान सीने में भर लूंगा
और इस संसार के सारे लाल रंग
मैं अपने उपर उड़ेल दूंगा ।

शायद समूचे शहर को
इन निर्मम दंगाईयों से बचा लूं ।

मुझे माफ करना फारूख…….
इन दंगाईयों के बीच
बेशक मैं तुम्हारा नाम कतई नहीं लूंगा 
मैं तुम्हें किसी फकीर का ही नाम दे दूंगा 



4. इस बार मैने बसंत में कुछ नहीं लिखा

इस बार मैने बसंत में कुछ नहीं लिखा

रूमानियत भरे इस मौसम में
जब मुझे देखना था
राजभवन की ओर जाते सड़क के किनारे
खड़े झब्बेदार कनेर के पेड़ों में
खूब सारे पीले फूलों को
मैने बाज़ार में बहुत सारे कुम्भड़े के फूलों को देखा
खूब महंगे बिक रहे थे,
लोग स्वादिष्ट पकौड़ियों के लिए उन फूलों को घर ले जा रहे थे
मैने पालक के लिए मोल- मुनौव्वल किया
मुठ्ठी भर हरी मिर्च
और चटपटे चटनी के लिए
हरी और ताज़ी धनिया खरीदा
खूब महंगे बिक रहे थे
सरसों की साग अब भी मुझे लुभा रही थी
टमाटर की किस्मों की आमद आई हुई थी
बाज़ार में लाल लाल गाजर अटे पड़े थे

वहीं एक किनारे पर फूलों के पौधों  में
सफेद गुलदाउदी और लाल चटक डहेलियें भी थे
एक अफसर के वाहन में गेंदे के फूलों के
पौधों को ठूँसा जा रहा था
और उसकी बिटिया लालायित निहार रही थी
गुलाब बखूबी जानता था
अब बारी उसकी ही थी

कुम्हारों ने भी चमकदार पॅालिश्ड गमलों को तैयार रखा था
वह पारंपरिक तौर पर जानते रहे हैं
वह दुनिया के सबसे पुराने और उन्नत नगरीय सभ्यताओं के वंशज रहे हैं
खुदाई में पाये गये नक्काशीदार मृदभांड़
उनके कलात्मक सृजनशीलता के साक्षी रहे हैं
बसंत में उनके हाथों की हुनर की आज़माइश होती रही थी
सो उनके चाकों की गोलाई बसंत में ही आंकी जानी थी
और उनके हुनरमंद हाथों में
सुदंरतम पृथ्वी की परिधि व्याप्त हो जानी थी

इस बार बसंत में कुछ फूलबेलों को भी  
आलीशान बंगलो के छज्जों में टांगा जाना था
सो प्लास्टिक के छोटे छोटे रंगीन गमले
जो टंगने के सबसे उपयुक्त लग रहे थे
फूटकरों में तह दर तह सजा दिये गये थे

यह इस सच के बेहद करीब था
इसबार खेतों और मिट्टी में ही
उतर आया है बसंत
और मजदूर बाज़ार से अपने आधे झोले लेकर लौट रहे थे
मिट्टी के उपज का दाम वह चुका नहीं पा रहे थे

मजदूरों से यह सच छुपा नहीं रह गया
इस मौसम में जब फूलों में चटक रंग चढ़ते हैं
और कुसुम के नव पल्लव
हरे से गहरे होकर
लाल होते चले जाते हैं
हरी सब्जियों के दाम भी बढ़ते हैं
मैने सुना …..
एक बिचौलिये का कहना था
कि बसंत में भी पेट्रोल और डीज़ल के भाव चढ़ते हैं
इस बार बसंत में मैंने मजदूरों को
हरी सब्जियों के बोरियों को अपनी ढेलों पर लादकर
सब्ज़ी मंडियों में पहुँचाते देखा
उनकी देह पर चिपचिपा सा कुछ रह गया था
मैनै इस बार उनके कंधों पर
बसंत को लाल लहूलुहान देखा था

इस बार मैने बसंत में कुछ नहीं लिखा
इस बार बसंत में मैने
मजदूरों की पीठ पर थोड़ा नमक देखा ।
उनका बदन सूखा नहीं था
मिट्टी में चूकर गिरने लगा था बसंत
धीरे-धीरे…इतना धीरे की
इस बार बसंत को जाते हुए किसी ने नहीं देखा ।
इस बार बसंत बहुत जल्दी बीत गया

इस बार बसंत में मैने कुछ नहीं लिखा ।


5. शहरों की चौंधियाहट में

शहरों की चौंधियाहट में भी
कोई इंसान मस्ती के
दो-चार धुन बहुत बेफ्रिकी से गुनगुना लेता है
जब वह अपनी माशूका के गले में
अपनी बाहें डाल
मल्टीफ्लेक्स और थियेटर में जाता है
और बड़े मजे से पापकार्न खाता है
बेशक आप नहीं जान पायेगें
उन सुर और तालों के बारे में
जो बहुत ही मशक्कत से
खदानों से तपकर निकलता है

आपने यहीं जाना है अबतक
एक संगीतकार एक सितार झनझनाता है
एक कोयल कूकती है
भौंरा गुनगुनाता है
और एक अभिनेत्री बरसात में नाचती है, लयबद्ध
एक पेड़ से आबद्ध होकर
हाँ ! इस दृश्य के पीछे
एक मोर हरदम रहता है
और एक अभिनेता सरगम गाता है

खदानों में जब चूता है
मजदूरों का नमकीन पसीना
मुझे कोई साज और संगीत याद नहीं आता

सिर्फ उफ्फ ! ओह ! छप्प-छप्प छपाक
टप-टप ! धड़ाम
हठात् मुझे सुनायी देता है

क्या आप पहचान कर सकते है
उन सुर और छन्दों को
जब एक मेहनतकश मजदूर
“ दम लगा के हईस्सा ” कहता है
या फिर यह आठवाँ सुर है शायद
जो हमारे कानों से अनसुना रह जाता है


संपर्क :
विजय कुमार

मोबाइल - 9934824278
ईमेल- jeevandharacraftpromotion123@gmail.com
स्थायी पता: द्वारा- मिलन चन्द महतो, 
कृषि बाज़ार प्रांगण के नजदीक, भवानीपुर साईट, चास, बोकारो- 827013

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