ममता विश्वनाथ की कविताओं को पढ़ते हुए लगा कि साहित्य में वे अपनी आमद एवं उपस्थिति के प्रति बेपरवाह हो रचनाकर्म में रत हैं। रचनाओं की बहुलता की लालसा से निर्लिप्त वे रचनाओं में जीवन के यथार्थ को दिखलाते हुए उम्मीद की बातें लिख रही होती हैं। उनके पास एक कवि की सजग दृष्टि है जो रौशन दुनिया के नेपथ्य में अंधेरे की उपस्थिति को देख लेती है। कविताओं में वे अपने परिवेश को रचती हैं… साहित्यिक परिवेश को भी। चेहरे के पीछे छुपे चेहरे की शिनाख़्त करती हैं। विषयों की विविधता उनके पास है। हिंदी भाषा में स्नातकोत्तर रचनाकार की भाषा-शैली ने सहज आकृष्ट कर लिया और पाठक प्रवाह में पढ़ता गया। विषय-वैविध्य एवं परिवेशगत अनुभूतियों का उनमें जैसे-जैसे विस्तार होता जाएगा… वे अपनी लेखनी की सार्थकता प्राप्त करती जाएँगी। आइये उनकी कुछ कविताएँ पढ़ते हैं।
1.
कभी कभी
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कभी कभी
सूरज की
चाह नहीं होती
अंधेरे से ही
हो जाता है प्यार।
कभी-कभी
नजदीकियाँ
नहीं भाती
अच्छा लगता है
इंतजार।
कभी-कभी
चुप्पी से
मिलता है सुकून,
कुछ कहने का
मन नहीं होता।
कभी कभी
मुस्कुराकर यूँ ही,
आगे बढ जाने का मन होता है
आलोचनाओ-व्याख्याओं में शामिल हुए बगैर!
2.
परिचित से लगते हैं
डायरी के कुछ
सादे पन्ने।
कुछ बेसुध यात्राओं
के साक्षी,
ठहराव विहीन
चेतना-प्रदेश की
उन निस्सीम यात्राओं के
विश्राम-स्थल,
जहाँ शब्द ना जन्म लेते
ना गढ़े जाते,
वे अक्सर अमूर्त हो
वहीं ठहर जाते हैं
भविष्य की अमूल्य धरोहर बन!
जहाँ, गूँजती है
एक सुनसान चुप्पी,
गहराते एकाकीपन के
धुंध में उड़ती
कुछ पहचानी सी चुप्पी!
3.
जब हृदय काँप रहा होता है
अंतर्द्वंद्व के घनघोर गड़गड़ाहट से,
अंतस में पीड़ा का दरिया
जब उफान पर होता है,
तब, तुम्हारी नर्म हथेलियों की गर्माहट
मेरी पलकों के किनारों से सोखकर सारी नमी,
हौले से इन आँखों को सौप देती है उजास,
जिसका स्पर्श मेरे पूरे अस्तित्व को रंग जाता है
एक अटूट विश्वास से;
मेरे होंठ चमक उठते हैं,
मेरी आत्मा स्निग्ध हो उठती है।
मेरे नाम को अर्थ देता है,
तुम्हारा स्नेहिल स्पर्श।
(बेटे आविर्भाव के लिए)
4.
उन्नत सिर और
मजबूत कंधों वाली लड़कियाँ,
जिन्होंने प्रेम को
सदैव एक पवित्र अहसास मान,
पार किये होते हैं
उम्र के लंबे पड़ाव,
अक्सर उनके पीठ
बदरंग अक्षरों से पुते
कैनवास में तब्दील हो जाते हैं,
जबकि लिखी जानी थी उन पर
दुनिया की सबसे पवित्र,
सबसे कोमल प्रेम कविताएँ।
5.
मैं
जो हूँ,
जैसी भी हूँ,
मुझे
मुझ जैसी ही
रहने दो!
पानी हूँ मैं - 'बेरंगी',
मीठी न सही,
मुझे बहने दो!
फूल हूँ मै - 'जंगली',
खुशबूदार न सही,
मुझे खिलने दो!
चिड़िया हूँ मैं -'नन्हीं',
सुन्दर न सही,
मुझे उड़ने दो!
मैं
जो हूँ,
जैसी भी हूँ,
मुझे
मुझ जैसी ही
रहने दो!
6.
बाहर,
हँसती है दुनिया,
खेलते हैं बच्चे,
खिलखिलाती हैं नन्ही सी परियाँ,
चहचहाती हैँ चिड़ियाँ,
खिलते हैँ फूल,
इठलाती हैं नदियाँ,
सरसराती हैं हवा......
होता है और भी बहुत कुछ....
जो काफी है
एक नयी शुरुआत के लिए,
जिन्दगी को भरपूर जीने के लिए!
अन्दर,
वो बिताता है एक जीवन- एकाकी!
अपने चारों ओर एक
ऊँची दीवार ताने,
दुख, पीड़ा, अवसाद
और त्रासदियों के ईंट-पत्थरों को जोड़कर....
जैसे एक मोनेस्टरी गढ़ी हो अपने चारों ओर,
जिसके अन्दर
केवल वो और उसकी त्रासदियाँ,
मुँह बाए घूरते हैं एक दूसरे को,
और वो इन भयावह त्रासदियों से घिरा
खुद को सुरक्षित महसूस करता है...
और उन्हें अपनी प्रेरणा भी कहता है!
दम घुटता है उसका भी अक्सर,
मचलता है बाहर निकलने को,
खाँसता है, खखारता है
एक नई रचना गढ़ता है,
संतुष्ट होने का दिखावा भी करता है!
अक्सर जीता नहीं,
बस घड़ियाँ बिताता है।
चिरकालीन नैसर्गिक सौंदर्य से अछूता,
खुद को समकालीन रचनाकार कहता है!
7.
एकांत द्वीप
~~~~~~
समय का प्रवाह
किसी के लिए नहीं रुकता,
न ठहरती है उसकी
अविरल धारा...
कभी सोचती हूँ
कैसा महसूस होता है
अथाह जल प्रवाह में
एक एकांत द्वीप बन जाना
जिसके चारों ओर से
अविराम बहकर चली जाती है
अतुल जल राशि...!!!
बुढ़ापा वही एकांत द्वीप है
जिसके किनारे अक्सर ही
गीले होते हैं
एकाकीपन की अश्रुधारा से,
किंतु ह्रदय अतृप्त और प्यासा
जैसे वर्षों से किसी ने
कदम ही न रखे हो उस द्वीप पर।
8.
घर की पुरानी खिड़कियों से छनकर
धूप, सहमी हुई सी
उन टूटी बेरंगी दीवारों पर
पड़ रही थी।
कमरे का हर कोना
गरीबी की दुर्गंध से भरा,
दीवारों पर वर्षों की नमी,
छत मकड़जाल और लोने से लैश था।
चूल्हे ठंडे,
बच्चे कुम्हलाए से चिथडो़ं में लिपटे पड़े,
उनके चेहरों पर भूख की
डरावनी सी छाया पसरी थी,
शायद उन अंधेरी गलियों में
बीती रात ही, गरीबी के कीड़े ने
कुछ एक को छू लिया था...!
इनसे परे
प्रजातंत्र का
दूसरा पहलू;
रेशमी वस्त्र से सजकर इतराता,
अपनी तिजोरियाँ भरता है,
इतना खाता है कि
पचा भी नहीं पाता,
उनके कमरों में
चमकीली सी धूप चमकती है,
कुंज में खिलते हैं खुशबूदार फूल,
और पक्षियों के झुंड
चहककर गाते हैं प्रेम के सुहाने गीत!
9.
तुम्हारे गीत
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सुनो,
बड़ा बेसुरा गाते हो तुम!
ना सुर की समझ,
ना ताल की खबर,
गीत के बोल भी
अक्सर बदल जाते हो...
पर न जाने क्यूं,
उस बेसुरे गीत में भी
एक अजीब सा सुकून है....
जैसे गाँव के आँगन में
खुले आकाश के नीचे
बिछी चारपाई पर लेट
नीम के पेड़ की झिलमिल से
चाँद को निहारने का सुख!
जैसे जाड़े की
अलसाई सुबह में
धूप की पहली किरणों को
आँखें मीचते हुए
खुद में समेटने का एहसास!
जैसे गर्मी की सुस्त दुपहरी में
गली की दूसरे छोर से आती,
कुल्फी के ठेले की घंटी सुन
चमकती थी आँखें!
जैसे बिन बात के ही
खिलखिला कर हँसता हैं
मासूम बचपन!
ठीक वही सुकून मुझे देते हैं
तुम्हारे गीत!
10.
दिन की प्रचंड गर्मी से
मुरझा जाते हैं
रोज जाने कितने स्वप्न,
रोज जिंदगी की शाख से टूट कर
बिखरते हैं अनगिनत सूखे पत्ते
और रोज सांझ बचा लेती है
कुछ हरियाली,
जिसमें उगते हैं- भविष्य के कुछ कोमल पत्ते!
और इस तरह एक कठिन मौसम में
मैं लिखती हूं
रोज एक अधूरी-सी कविता!
11.
वो पहले तुम्हें अकेला ढूंढेंगे
'अगर ना मिले अकेले
भरपूर कोशिश करेंगे,
तुम्हें सबसे विलग करने,
लांछनों और प्रताड़नाओं का
एक दौर चलेगा, तुम्हें घेरकर
धीरे-धीरे उन सबसे दूर करेंगे
जिनसे अपनेपन की जरा भी
आस बचा रखी है तुमने,
घात लगाकर उसी एक क्षण में
टूट पड़ेंगे तुम पर
अपने खूंखार दाँतों और
वहशी आँखों से, तुम्हारे चीथड़े करने को...
ठीक वैसे ही जैसे कुत्तों का एक झुंड
टूट पड़ा था, अभी-अभी
सुअर के उस मासूम बच्चे पर !
वो चिघ्घाड़ता है
बड़ी कर्कश ध्वनि में,
शायद अपनो को आवाज़ देता
पर शायद
वो दूर किया जा चुका है
कोई नहीं फटकता
उसके आसपास भी,
फिर भी
वो लड़ता है, अकेले,
अपनी मासूमियत के साथ,
अथक-अनवरत!
उन्हें तुम्हारी आवाज़ भी
पसन्द नहीं आएगी,
इसलिए प्रहार पहले तुम्हारे
गर्दन पर होगा..
तुम्हारी चुप्पी ही
उनकी जीत होगी।
इसलिए, तुम्हें
साँसे रोके रखनी है,
बचाकर रखनी है
अपनी आखिरी उम्मीद और
साहस की वो आखिरी डोर,
जिसके सहारे
भरनी है तुम्हें
वो आखिरी हुंकार,
इस कायराने युद्ध में
दर्ज कराने के लिए
अपनी सशक्त उपस्थिति!
12.
कुछ चेहरे
चरित्रहीन घोषित कर दिए जाते हैं!
क्योंकि कुछ चेहरों ने अक्सर
ठुकराया होता है दोमुँहापन,
क्योंकि उन्हें रास नहीं आती
अपने मेहनतकश और दाग धब्बों से विकृत रूप को
चमकीले मुखौटों से ढंकना,
क्योंकि उनकी आँखें नत नहीं होती
जब नहीं होती है गलती उनकी,
क्योंकि उनके होठों पर सदैव रहती है
एक स्नेहल मुस्कान,
क्योंकि उनके मस्तक
आत्मसम्मान की आभा से होते हैं सुशोभित,
क्योंकि उनके रोम-रोम से फूटता है सच का सूरज,
उनकी बेबाकी, उनकी दृढ़ता, उनकी सहजता,
जब नहीं कर पाते सब बर्दाश्त
वो चेहरे अक्सर ही
चरित्रहीन घोषित कर दिए जाते हैं!
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