प्रभात प्रणीत का पहला काव्य-संग्रह ‘प्रश्नकाल’ इस वर्ष ही आया है। संग्रह अनुज्ञा बुक्स से प्रकाशित है। इससे पहले उनका एक उपन्यास ‘विद यू विदाउट यू’ प्रकाशित है। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए लगा… जैसे उन्होंने किसी सार्वजनिक स्थल पर लगे हुए चमचमाते होर्डिंग-पोस्टरों को उखाड़ दिया हो और हमारी नज़रें वहाँ अनायास चली जाती हैं जहाँ चीजें सड़ रही हैं और उनकी सड़ांध हमारे नथुनों तक पहुँचकर हमें असहज करने लगती है। सभ्यता तथा उसके उपकरणों की गिरफ़्त में मनुष्य आज इस तरह उलझ गया है कि उसे अपने अस्तित्व की नैसर्गिक अनुभूति ही नहीं हो पा रही है। अपनी कविताओं में कवि मनुष्यता बचाने की खातिर उस मशीनी विकास-यात्रा पर सवाल उठाते हैं जो मनुष्यों के रक्त-स्वेद को अपना ईंधन बनाकर उन्हें निचोड़ रही हैं। कवि कहते हैं कि मनुष्यता बचाने के लिए हमें किसी भी तंत्र एवं वाद पर सवाल उठाते रहना चाहिए। उनका संग्रह ‘प्रश्नकाल’ उनकी ऐसी ही भावनाओं-संवेदनाओं को पुष्ट करता है। तो आइए उनकी कुछ रचनाएँ पढ़ते हैं।
1. अस्तित्व
मैं चाहता हूँ कि यह दुनिया बची रहे
मेरे बाद भी
जिसे मेरे होने या न होने से कभी फर्क नहीं पड़ा
लोग रहें, ईर्ष्या रहे
खेत रहे, जेल रहे
भूख रहे, हवस रहे
और सब जीते रहें
मुझे यूँ ही,
और इस तरह
सब में मैं जीता रहूं
बस यूँ ही.
2. एक होता था ‘आदमी’
देखना है वह घर
जिसकी दीवार ईंट की हो,
दरवाजे लकड़ी की हो
खिड़कियों में लोहे की छड़ और एलुमिनियम के पल्ले हो,
छत कंक्रीट की हो
जिसके छत पर गमले हों,
चाहरदीवारी के अंदर गुलमोहर के पेड़ हों
गुलाब के फूल हों,
जिसमें इंसान रहते हों
सुबह उठते हों
संवाद करते हों
और फिर रात को सोते हों.
हर तरफ
हाड़-मांस के पुतले हैं,
तरह-तरह के अल्फ़ाज़ हैं,
जो सुबह देखते नहीं
संवाद जानते नहीं,
रात को होते भी नहीं.
बन्दिशों की दीवार है
खामोशियों के छत हैं
हर तरफ
कस्बे-मोहल्ले हैं
गाँव-शहर है
देश है
पर एक घर नहीं है.
3. गुस्ताख़
बंद आँखे जो देखती हैं
वह खुली आँखें क्यों नहीं देखती
एक आँख और कितनी विसंगतियां
यह खेल जेहन का है
या दिखते दृश्यों का,
अवांछित, अपरिचित, असत्य के बीच पलता स्वप्न
अपनी रेखा क्यों लांघता है बार-बार
जिंदगी कितनी बार हारना मुमकिन है
बंधे हाथ खुले कब थे
पैर बेड़ियों से जकड़े हैं
और पसीना जंग हार रहा है.
साफ रौशनी, हवा, आसमान
हँसते बच्चे,
पुरसुकूं माँ
राग मल्हार और हरे भरे उगते खेत
वर्ल्ड कप की जीत
कॉर्डलेस पर लता मंगेशकर
और माइकल जैक्सन
टेबल पर प्रिय कवि की कविता
तुम्हारी तस्वीर
और आधा बचा सिगरेट जिसमें यह शाम गुजारनी है
क्या बंद आँखों का गुनाह बड़ा है.
सीधे फेफड़े में घुसकर
अपना घर बसा रही मटमैली काली हवा
चाय की दुकान पर दौड़ता और गाली सुनता बच्चा
थकी हुई, डरी हुई, सहमी माँ
भरोसा छोड़ कर हताश लेटा पिता
एक टोपी वाले को नोचती भीड़
कब से खराब पड़ा म्यूजिक सिस्टम
अस्वीकृत, असहमत, थका हाथ
खुली आँखे किस अपराध का बदला ले रही है.
आवाह्न,
एक तस्वीर बनाओ
और उसमें सारे रंग भर दो
एक कागज पर सारे सपने लिख कर पुड़िया बना कर उड़ा दो
इंद्रधनुष को गले से लटका कर सबसे बड़े समंदर का एक चक्कर लगा आओ
इस धरती पर रात और सुबह एक नहीं अनेक है
यह एक बार में है अलग-अलग है
यह हमेशा से ऐसा ही है
तुम सो जाओ
मैं भी सोता हूँ.
4. सजा
वह जो था कुछ देर पहले तक
वह जो अब नहीं है
कहीं नहीं है
ऐसी असंख्य
आम घटनाओं के बीच
होना भी तो
उस जैसा ही हो जाना है
जो
था और अब नहीं है,
वह मुक्त हुआ या उलझा कहीं जाकर
यह उसके हिस्से
जिसका कोई वृत्तांत तो नहीं
लेकिन जो इनके बीच
रह गया
उसका वृत्तांत भी है
और यह सच्चे बीतते लम्हें भी हैं,
बेहिसाब लम्हें
जो अब कभी खत्म नहीं होंगे.
5. आहुति
ईश्वर बनना आसान नहीं
वह इंसान के बस में भी नहीं
ईश्वर यह जोखिम नहीं उठा सकता था
आदमी फिर भी हार मानने को तैयार नहीं.
सभ्य बनना भी आसान नहीं
आदमी हजारों साल से
आहुति दे रहा.
लेकिन
सभ्य होने
बनाने के लिए
रोज बन रहे हर नए संविधान में
पहले पन्ने पर
प्रस्तावना के अंदर ही
यह तय हो जाना चाहिए कि
आदमी
एक जिंदगी में
कितनी बार मरेगा
कितनी बार उसे दफन किया जाएगा
कितनी बार लोग
उसकी लाश के चारो तरफ बैठकर रोएंगे
और अफसोस करेंगे.
6. देह
देह
कितना कुछ कह गई
जो दो जन्म पुरानी मेरी प्रेमिका से भी छुपा था
जिसे मैं हमराज समझता था
आज उसके उलाहनों के बीच खुश हूँ,
वह रूठ कर उसी जन्म में
मेरा अब इंतजार करेगी
लेकिन मैं पीछे नहीं
आगे जाने की तैयारी में हूँ
अब उससे तब मिलूंगा
जब यह राज उससे भी वाबस्ता होगा.
मन
थाह लेने की हवस
कितना कुछ उलझाता रहा
वंचित करता रहा,
सबकुछ मन का ही तो नहीं
कुछ देह का भी तो है.
वर्जना
अकेली नहीं
हर तरफ समूह में है
इसका मोह भी
एक गुनाह है,
यह बोध
जन्म के साथ बंधा अपराध है
लेकिन यह है
और यह भी एक सच है.
गंध
जिस संसार का मूल है
वह इससे ही भागता रहता है
स्याह सफेद घेरे
दरवाजे बंद रखने के तर्क हैं
प्रायोजित विमर्श है.
भाषा
प्रतिबिंबित हर रंग को
खुद में ढाल लेती है,
ओह! उसका मोहपाश
वह कृत्रिमता की हर हद को पार कर भी
प्रासंगिक है
एक मन उसके पास भी तो है.
देह
इस भाषा से भी
लड़ती है
उसके अंदर के मन से भी मिलती है
अनंत शिकायतों के बावजूद
संवाद करती है
और उसे वह सबकुछ कहती है
जो
सिर्फ वही जानती है
वही कह सकती है.
7. तारीख के पास अपनी नजर है
बंद खिड़कियां
हमेशा बंद नहीं रहेंगी
कभी तो खुलेंगी
तब पहुँचेगी हवाएं, धूप,
दहलीज से लौटती आवाजें
और इंद्रधनुष,
दुनिया तब तक
जरूर बची रहेगी.
प्रलय बहुत कुछ मिटा देता है
पर सबकुछ नहीं,
ज्वालामुखी के तलहटी में भी
पेड़ उग आते हैं,
जिंदगी इतनी अबूझ तो हमेशा रहेगी
धरती मिटने के लिए नहीं बनी
यह अविजित ही रहेगी.
तारीख अपनी आँखें कभी बन्द नहीं करती
उसके पास सबका हिसाब है,
खिड़की बंद करते हाथों का भी
प्रलय गाथा गाते चीलों का भी
नींद से जगाते रंगो का भी
फुहार बन कर बरसती बूंदों का भी
सबको अपना हिस्सा जरूर मिलेगा
8. मुल्क
नियति एक पराजित शब्द है
समर्पण मृत्यु का दूसरा नाम
इस अफसोस के साथ
कि जन्म, मृत्यु और मिट्टी के चयन पर बस नहीं
सलामत जिस्म फिर भी संभव है
सलामत रूह बिल्कुल नहीं
वह क्या चाहता है
यह कतई महत्वपूर्ण नहीं
वह क्या बचा
यही अंतिम सच है
"डर के आगे जीत है" यह सिर्फ फ़लसफ़ा है
उन किताबों के जिसके पन्ने हथेली पर उगाये जाते हैं
वह चलने से डरा
वह बोलने से डरा
वह हँसने से डरा
वह रोने से डरा
वह गाने से डरा
वह मिलने से डरा
वह खाने से डरा
वह पूरी नींद सोने से डरा
वह शादी करने से डरा
लेकिन फिर भी उसे जिंदा रहना था
सांसे लेनी थी
उसने जोर से कहा
हिंदुस्थान जिंदाबाद
यहां संघर्ष मृत्यु से नहीं है जीवन से है
जिसके लम्हों पर सबकी ताकीद है
वह हिंदू से लड़ा
वह मुस्लिम से लड़ा
वह सिख ईसाई से लड़ा
वह अगड़ा बना
वह पिछड़ा बना
वह मंडल बना
वह कमंडल बना
वह सिया बना
वह सुन्नी बना
वह फतवा से लड़ा
वह फतवा बना
वह स्टूडेंट से लड़ा
वह खेत से लड़ा
वह ट्रेन में लड़ा
वह अख़बार से लड़ा
ट्विटर, फेसबुक पर लड़ा
वह लड़ता रहा जीने के लिये
वह हारता रहा जीने के लिये
सब कमतर थे
तब भी
उसने जोर से कहा
हिंदुस्थान जिंदाबाद
इस रंग का हासिल खुद में एक बेईमानी है
मृगमरीचिका जिसकी भूख मिटती ही नहीं
वह जो सोचता था
वह जो देखता था
वह जहां पढ़ता था
वह जहां रहता था
उसने उस
लाइब्रेरी के हर कोने को रौंदा
किताबों के हर पन्ने को फाड़ा
टैगोर के राष्ट्रवाद में गांधी को छुपाया
गांधी के समाजवाद से टैगोर को लड़ाया
गोडसे और भगत सिंह को एक बताया
सावरकर और बोस के चेहरों को मिलाया
तर्क को हथियार वाले तहखाने में ढका
हथियार को तर्क बनाया
नेहरू को गालियों से नवाजा
अंबेडकर को चीथड़ों में लपेटा
संविधान को चीथड़ा बनाया
सुर्ख रंग के सर्ट में अपने लाल बटन को छुपाया
डर उसे फिर भी लगा
उसने जोर से कहा
हिंदुस्थान जिंदाबाद
जद्दोजहद तो जन्म से है वजूद साबित करने के लिये
वह जो अब इस हिस्से का सबसे बड़ा झूठ है
वह नजीब से सपनों में लड़ा
वह अपने हर सपने से लड़ा
वह रोहित वेमुला से दूर भागा
वह सबसे दूर भागा
उसने गौरी लंकेश से बहस की
उसने सबसे बहस की
जो जिंदा थे उनसे
जो मर चुके थे उनसे
जो मरने वाले थे उनसे
जो मरना चाहते थे उनसे
जो नदी में बह रहे थे उनसे
जो नदी बन रहे थे उनसे
एवरेस्ट की ऊंचाई से
बंगाल की खाड़ी से
दरियागंज की गलियों से
फुटपाथ के किताबों से
डर उसे तब भी लगा
उसने जोर से कहा
हिंदुस्थान जिंदाबाद
चिंतन का अधूरा आकाश कभी नीला नहीं था
काले रंग का ही मुरीद है वह
वह बचपन में कॉपी के हर पन्ने पर लिखता था
गाय हमारी माता है हमको कुछ नहीं आता है
वह लिख कर सबको दिखाता था
वह खूब हंसता था
सब खूब हंसते थे
अब उसे पता चला
गाय वास्तव में माता है
जिस पर हँसना मना है
माँ पर भला कोई हँसना है
हर अपराध क्षम्य है
माँ का अपमान अक्षम्य है
बाकी हर अपमान क्षम्य है
टोपी वाले ललाट पर टीका क्षम्य है
मस्जिद पर झंडा क्षम्य है
मंदिर में बलात्कार क्षम्य है
सड़क पर तलवार क्षम्य है
मेट्रो का आतंक क्षम्य है
पीनल कोड की हर तौहीन क्षम्य है
वह जितना समझा
वह उतना ही डरा
उसने जोर से कहा
हिंदुस्थान जिंदाबाद
अब सफर मुमकिन कहाँ है बस एक अंधा कुंआ है
जिसके चारों तरफ सारे रास्ते उलझे हैं
वह उम्र के पीछे भाग रहा था
उम्र उसके पीछे भाग रही थी
कहानी, कविता के पात्रों से
टीवी के एंकर तक
सब उसके पीछे पड़े थे
एक एंकर राष्ट्रवाद समझा रहा था
तो एक एंकर अब खुद राष्ट्र था
एक एंकर की पुरस्कार अब गाली थी
बाकी एंकर की गाली ही पुरस्कार थी
हलक की अजनबियत
उसे अचंभे में डाल रही थी
शहर की नई रंगत
उसे परेशान कर रखी थी
रात को सुबह बताया जा रहा था
सुबह अब मयस्सर ही न था
डर था लेकिन डरना नहीं था
आग से घिरे घरों के छत पर रोना मना था
छत पर तो खड़ा होना भी मना था
पत्थरबाज घोषित होने का डर था
उसे झूठ बोलना नहीं था
उसे झूठ बनना नहीं था
उसे जेल जाना नहीं था
उसे माँ के बिना रहना नहीं था
उसे सड़क पर मरना नहीं था
उसे खबर बनना नहीं था
उसे नक्सली कहलाना नहीं था
उसे जिहादी कहलाना नहीं था
उसे गाली बनना नहीं था
उसने जोर से कहा
हिंदुस्थान जिंदाबाद.
9. सपने
एक सुबह उठूंगा और कहूंगा कि रात बीत गई
अंधेरा चला गया
पाबंदियों को रुख़सत कर दिया गया
अजनबियत अब कहीं नहीं
ख़ौफ़ भी कहीं नहीं
खामोशी अब मुनासिब नहीं
सदाओं की फरमाइश है
मैं सुनूंगा
लोग सुनेंगे
मुझे
खुद को.
रात अगली सुबह की कहानी भी तो है
जो हमेशा नई रहेगी.
10. निशानियां
कफ़न कहीं था नहीं
राख नसीब होनी न थी
अस्थियों की ख्वाहिश भी अब गुनाह थी
शेष सबकुछ नदियों के हवाले था
सुलगती साँसों के बीच सबकुछ वीरान सा
बस अदृश्य रूह की मंडी में शबाब था.
कितनी रातें और कितने दिन
उसे कुछ भी याद नहीं,
किसका चेहरा
किसके हाथ
और किसकी आँखें
कुछ भी तो याद नहीं,
फिर भी वह तलाश में था
उन्हीं रात और दिन में खोये
चेहरों के
हाथों के
और आँखों के,
उसे शब्द जो गढ़ने थे
अनगिनत श्रद्धांजलि के.
परिचय :
नाम-
प्रभात प्रणीत
संप्रति-
साहित्यिक संस्था ‘इन्द्रधनुष’ के संस्थापक एवं सम्पादकीय निदेशक
भारतीय रेल में इंजीनियर के रूप में कार्यरत
प्रकाशित किताब-
2017- विद यू विदाउट यू (उपन्यास)
2021- प्रश्न काल (काव्य संग्रह).
सम्पर्क-
ईमेल :-prabhatpraneet@gmail.com
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जबरदस्त! शब्द-शब्द सच है, दमदार है।
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